रेडियो प्लेबैक वार्षिक टॉप टेन - क्रिसमस और नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित


ComScore
प्लेबैक की टीम और श्रोताओं द्वारा चुने गए वर्ष के टॉप १० गीतों को सुनिए एक के बाद एक. इन गीतों के आलावा भी कुछ गीतों का जिक्र जरूरी है, जो इन टॉप १० गीतों को जबरदस्त टक्कर देने में कामियाब रहे. ये हैं - "धिन का चिका (रेड्डी)", "ऊह ला ला (द डर्टी पिक्चर)", "छम्मक छल्लो (आर ए वन)", "हर घर के कोने में (मेमोरीस इन मार्च)", "चढा दे रंग (यमला पगला दीवाना)", "बोझिल से (आई ऍम)", "लाईफ बहुत सिंपल है (स्टैनले का डब्बा)", और "फकीरा (साउंड ट्रेक)". इन सभी गीतों के रचनाकारों को भी प्लेबैक इंडिया की बधाईयां

Sunday, May 31, 2009

Y2K: पार्श्वगायन के नए दौर में प्रतिभाओं का अम्बार



भूमिका

हिंदी फ़िल्म संगीत के हर दौर में कुछ निर्दिष्ट गायकों ने राज किया है और हर पीढ़ी में हम गिने चुने गायकों का नाम भी ले सकते हैं जो अपने दौर में पूरी तरह से छाये रहे, अपने दौर का जिन्होने प्रतिनिधित्व किया। लेकिन आज फ़िल्म संगीत का जो दौर चला है, उसमें एक दम से इतने सारे नये गायक आ गये हैं कि हिसाब रखना मुश्किल हो रहा है कि कौन सा गीत किस गायक ने गाया है। बहुत ही कम समय में इतने सारे गायकों के आ जाने से जहाँ एक तरफ़ प्रतियोगिता बहुत ज़्यादा बढ़ गयी है, वहीं दूसरी तरफ़ नयी नयी आवाज़ों से फ़िल्म संगीत में एक नयी ताज़गी भी आयी है। कुछ भी हो, इतना ज़रूर साफ़ है कि इन बहुत सारी आवाज़ों में वही आवाज़ें बहुत आगे तक जा पायेंगी जिनमें कुछ अलग हटके बात हो! एक समय ऐसा था जब नये गायक पुराने ज़माने के दिग्गज गायकों की आवाज़ को अपनी गायिकी का आधार बनाकर इस क्षेत्र में क़दम रखते थे और सफलता भी हासिल करते थे, लेकिन आज उस तरह से बात बिल्कुल नहीं बनेगी। आज वही आवाज़ मशहूर है जो दूसरों से अलग है, जुदा है। यह एक अच्छा लक्षण है कि आज के युवा गायक शुरु से ही अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश कर रहे हैं। "फ़िल्म संगीत के नवोदित पार्श्वगायक" नाम है उस शृंखला का जिसमें हम आनेवाले हफ़्तों में ज़िक्र करेंगे आज की पीढ़ी के पार्श्वगायकों की। इससे पहले की हम नवोदित आवाज़ों से आपका परिचय करवाना शुरु करें, यह बेहद ज़रूरी होगा कि फ़िल्म संगीत के सभी पीढ़ियों के पार्श्वगायकों पर जल्दी जल्दी एक नज़र दौड़ा लिया जाये, और फिर उसके बाद इत्मीनान से आज की पीढ़ी की विस्तार से चर्चा की जाये।

१९३१ में फ़िल्म संगीत का जन्म हुआ था जब गायक अभिनेता वज़ीर मोहम्मद ख़ान ने फ़िल्म 'आलम आरा' में गाया था "ख़ुदा के नाम पर दे दे प्यारे"। इसके बाद फ़िल्म संगीत ने पहली पीढ़ी के गायकों, गीतकारों और संगीतकारों की उंगलियाँ थामे धीरे धीरे खड़ा होना सीखा, चलना सीखा, आगे बढ़ना सीखा। पीढ़ी दर पीढ़ी फ़िल्म संगीत का ऐसे कलाकारों के सहारे निरंतर विकास होता गया। और वह बीज जिसे 'आलम आरा' के कलाकारों ने बोया था, आज उसने एक विशाल वटो वृक्ष का रूप ले चुका है। यूँ तो फ़िल्म संगीत के विकास में फ़िल्म निर्माता - निर्देशकों, गीतकार, संगीतकार और पार्श्व गायकों गायिकायों का समान रूप से हाथ रहा है, हमारी इस प्रस्तुति में हम ज़िक्र करने जा रहे हैं केवल पार्श्वगायकों का। फ़िल्म संगीत के लगभग ८० साल पुराने इतिहास को हम पार्श्वगायकों की ६ पीढ़ियों में विभाजन कर सकते हैं। पहली पीढ़ी में शामिल हैं कुंदन लाल सहगल, के. सी. डे, पंकज मल्लिक, ख़ान मस्ताना, जी एम् दुर्रानी, अरुण कुमार, सुरेन्द्र, गोविंदराव टेम्बे, आदि जिन्होने फ़िल्मी गीतों की नींव को पहले पहल मज़बूत किया था। वह दौर पार्श्वगायन का नहीं था, हालाँकि १९३५ के आसपास पार्श्वगायन की तकनीक आ गयी थी। उन दिनों अभिनेता को ख़ुद अपने गीत गाने पड़ते थे। सहगल, सुरेन्द्र जैसे कलाकार अभिनेता होने के साथ साथ अच्छे गायक भी थे। लेकिन कुछ ऐसे नायक भी थे जो अभिनेता तो बहुत ऊँचे स्तर के थे, लेकिन गायिकी में थोड़े कच्चे। अशोक कुमार, मोतीलाल, पहाड़ी सान्याल, जैसे कलाकार इस श्रेणी में आते हैं। संगीतकार बहुत ज़्यादा उन्नत या मुश्किल धुन नहीं बना पाते थे क्योंकि उन्हे गा पाना इन अभिनेताओं के बस में नहीं था।

पार्श्वगायन पद्धति को लोकप्रियता मिली ४० के दशक में जब कई अच्छे गायक गायिकायों ने इस उद्योग में क़दम रखा। द्वितीय विश्वयुद्ध और आज़ादी के बाद फ़िल्मों में व लोगों की रुचि में बदलाव आया। तो ज़ाहिर है कि फ़िल्म संगीत के रंग ढंग भी बदले और शुरु हो गया फ़िल्म संगीत का सुनहरा दौर। इस सुनहरे दौर का प्रतिनिधित्व जिन पार्श्वगायकों ने किया उनके नाम हैं मुकेश, मोहम्मद रफ़ी, किशोर कुमार, तलत महमूद, मन्ना डे, हेमन्त कुमार, और महेन्द्र कपूर प्रमुख। ७० के दशक के बीचों बीच आते आते पार्श्व गायकों की तीसरी पीढ़ी क़दम रख चुकी थी। इस पीढ़ी में हम शामिल कर सकते हैं बहुत सारे गायकों को। लेकिन जिन गायकों ने मुख्य रूप से अपनी छाप छोड़ी है उनके नाम हैं भूपेन्द्र, सुरेश वाडेकर, जेसुदास, एस. पी. बालसुब्रह्मण्यम, किशोरदा के बेटे अमित कुमार, हरिहरण, जसपाल सिंह, शैलेन्द्र सिंह, मनहर उधास, विजय बेनेडिक्ट, नरेन्द्र चंचल आदि। ७० के दशक के अंत और ८० के दशक में ग़ज़लों का एक दौर चल पड़ा था। ऐसे में कई अच्छे ग़ज़ल गायक आये और जिन्होने ग़ज़ल गायिकी के साथ साथ फ़िल्मों में भी अपनी आवाज़ के जलवे बिखेरे। ग़ुलाम अली, पंकज उधास, तलत अजीज़, अनुप जलोटा ऐसे ही चंद नाम हैं। ८० के दशक के शुरु होते ही गायक रफ़ी साहब का इन्तक़ाल हो गया था। लोग उनकी आवाज़ के ऐसे दीवाने बन चुके थे कि उनकी कमी को पूरा करने के लिए फ़िल्मकारों और संगीतकारों ने कई ऐसी आवाज़ें खोज निकाले जो रफ़ी साहब की आवाज़ से मिलते जुलते थे। और इस तरह से पार्श्व गायकों की इस तीसरी पीढ़ी में रफ़ी साहब जैसी आवाज़ वाले कई गायक शामिल हुए जिनमें प्रमुख नाम हैं अनवर, शब्बीर कुमार और मोहम्मद अजीज़ का। मुकेश के जाने के बाद उनके बेटे नितिन मुकेश इस क्षेत्र में आये और अपने पिता के नाम और काम को आगे बढ़ाया।

१९८७ में किशोरदा हमसे बिछड़ गये थे और ऐसा लगा कि फ़िल्म संगीत का एक अध्याय समाप्त हो गया। सचमुच फ़िल्म संगीत ने अपनी आँखें मूंद कर एक अंगड़ाई ली और आँखें खोलते ही देखा कि आ गयी है पार्श्वगायकों की चौथी पीढ़ी। रफ़ी साहब के शागिर्दों की तरह किशोरदा के भी पदचिन्हों पर चलनेवाले कई गायक आये इस पीढ़ी के, जिनमें सब से ज़्यादा ख्याति मिली कुमार सानू और अभिजीत को। उदित नारायण की आवाज़ मौलिक ज़रूर थी, लेकिन सोनू निगम की आवाज़ में शुरु शुरु में रफ़ी साहब की आवाज़ का असर महसूस होता था, हालाँकि बाद में उन्होने अपनी अलग पहचान बनायी। इस चौथी पीढ़ी के कुछ और पार्श्वगायक रहे हैं विनोद राठोड़, रूप कुमार राठोड़, सूदेश भोंसले, जौली मुखर्जी, सुखविंदर सिंह, आदि। इस पीढ़ी के बाद पाँचवी पीढ़ी के गायकों में शामिल हैं शान, के.के, बाबुल सुप्रियो, कुणाल गांजावाला, कैलाश खेर, लकी अली, अल्ताफ़ राजा, अदनान सामी, शंकर महादेवन जैसे गायक और इनमें से कई आज की पीढ़ी में भी काफ़ी सक्रीय हैं। हर पीढ़ी में कई संगीतकार ऐसे भी रहे हैं जो संगीतकार होने के साथ साथ अच्छे गायक भी थे। इस ओर कुछ प्रमुख नाम हैं के.सी. डे, पंकज मल्लिक, चितलकर (सी. रमचन्द्र), सचिन देव बर्मन, हेमन्त कुमार, राहुल देव बर्मन, रविन्द्र जैन, बप्पी लाहिड़ी, और अनु मलिक। इसी तरह से पाँचवी पीढ़ी में जिन दो संगीतकार ने अपने सुरों के साथ साथ अपने आवाज़ से भी काफ़ी धूम मचायी, वो हैं ए. आर रहमान और हिमेश रेशमिया।

आज छठी पीढ़ी चल रही है जिसमें पाँचवी पीढ़ी के कई गायक तो शामिल हैं ही, लेकिन पिछले दो तीन सालों में बहुत सारी नयी प्रतिभायें इस क्षेत्र में अपना क़िस्मत आज़माने आ गयीं हैं, और इस शृंखला में हम ऐसे ही नवोदित युवा प्रतिभाओं का ज़िक्र करेंगे जिन्होने अभी अभी अपनी पारी का खाता खोला है। तो दोस्तों, आज बस यहीं तक, अगले हफ़्ते से हम शुरु करेंगे इन नवोदित पार्श्वगायकों की बातें और बातों के साथ साथ हम उनके गाये हुए गानें भी आपको सुनवाते जायेंगे। हमें उम्मीद है कि इस शृंखला के समापन के बाद आप यह बात फिर कभी नहीं कहेंगे कि "आज कौन सा गीत कौन से गायक गा रहे हैं कुछ पता ही नहीं चलता"। अगर कहेंगे तो हम तो भई यही समझेंगे कि हमारी मेहनत रंग नहीं लायी। तो बने रहिये 'हिंद-युग्म' के साथ 'आवाज़' की इस दुनिया में, और 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के साथ साथ नये संगीत और नयी आवाज़ों का भी खुले दिल से स्वागत कीजिये।

प्रस्तुति: सुजॉय चटर्जी

तेरे ख्यालों में हम...तेरी ही बाहों में हम... डुबो देती है आशा अपनी आवाज़ में इस गीत के सुननेवालों को



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 97

दोस्तों, अभी कुछ दिन पहले हमने आपको वी.शांताराम की फ़िल्म 'नवरंग' का गीत सुनवाया था "तू छूपी है कहाँ, मैं तड़पता यहाँ" और बताया था कि इस गीत को रामलाल चौधरी की शहनाई के लिए भी याद किया जाता है। आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' भी रामलाल के संगीत से जुड़ा हुआ है मगर बतौर शहनाई वादक नहीं बल्कि बतौर संगीतकार। रामलाल भले ही साज़िंदे और सहायक के रूप में ज़्यादा जाने जाते हैं, उन्होने दो-चार फ़िल्मों में संगीत भी दिया है, और उन्ही में से एक मशहूर फ़िल्म का एक गीत लेकर हम आज उपस्थित हुए हैं। इससे पहले कि आपको उस फ़िल्म और उस गीत के बारे में बतायें, रामलाल से जुड़ी कुछ बातें आपको बताना चाहेंगे। बतौर स्वतंत्र संगीतकार रामलाल को पहला मौका दिया था फ़िल्मकार पी. एल. संतोषी ने। साल था १९५० और फ़िल्म थी 'तांगावाला'। राज कपूर और वैजयंतीमाला अभिनीत इस फ़िल्म के कुल ६ गानें रामलाल बना चुके थे लेकिन दुर्भाग्यवश फ़िल्म आगे बनी नहीं। और रामलाल एक बार फिर फ़िल्म संगीत जगत में बतौर साज़िंदे बाँसुरी और शहनाई बजाने लगे। इसके बाद सन् १९५२ मे उनके हाथ एक बार फिर संगीतकार बनने का मौका लगा और बाल हरदीप की फ़िल्म 'हुस्नबानो' मे उन्होने संगीत दिया। और फिर उसके बाद आयी वी. शांताराम की ऐसी दो फ़िल्में जिन्होने यह साबित किया कि लोकप्रिय गीत बनाने में रामलाल भी उस दौर के दूसरे सफल संगीतकारों से कुछ कम नहीं थे। पहली फ़िल्म थी 'सेहरा' और दूसरी फ़िल्म थी 'गीत गाया पत्थरों ने'। और इसी दूसरी फ़िल्म का एक गीत आज आपको सुनवाया जा रहा है।

'गीत गाया पत्थरों ने' फ़िल्म आयी थी सन् १९६४ मे। इसमे शांतारामजी ने अपनी बेटी राजश्री को लौन्च किया था नवोदित नायक जीतेन्द्र के साथ। आज यह फ़िल्म याद की जाती है तो इसके गीत संगीत की वजह से। मुख्य रूप से आशा भोंसले और महेन्द्र कपूर की आवाज़ें सुनाई दी इस फ़िल्म के गीतों में ठीक 'नवरंग' के गीतों की तरह, लेकिन दो ख़ास आवाज़ें भी थीं इस फ़िल्म में। एक तो था सुविख्यात शास्त्रीय गायिका किशोरी अमोनकर की आवाज़ में फ़िल्म का शीर्षक गीत, और दो गीत थे गायक सी. एच. आत्मा की आवाज़ में। बहुत सालों के बाद आत्माजी की आवाज़ एक बार फिर से सुनाई दी और उनकी आवाज़ को सुनकर ऐसा लगा कि जैसे सहगल साहब भी फिर से वापस आ गए हों। बहरहाल आज हम 'गीत गाया पत्थरों ने' फ़िल्म का जो गीत चुना है उसे आशा भोंसले ने गाया है। "तेरे ख़यालों में हम तेरी ही बाहों में हम" एक उत्कृष्ट रचना है फ़िल्म संगीत इतिहास का, इसका श्रेय संगीतकार रामलाल और गायिका आशा भोंसले के साथ साथ गीतकार हसरत जयपुरी को भी जाता है। अफ़सोस की बात यह है कि इस फ़िल्म की कामयाबी के बावजूद रामलाल को किसी ने अपनी फ़िल्म में ख़ास संगीत देने का मौका नहीं दिया। उनके संगीत से सजी दो और फ़िल्में आयीं - 'नक़ाब-पोश' और 'नागलोक' जो नहीं चलीं। इसके बाद रामलाल ने ख़ुद फ़िल्मे बनाने की सोची। 'पन्ना पिक्चर्स' के बैनर तले उन्होने अपने सहभागी के साथ मिलकर 'त्यागी' नामक फ़िल्म का निर्माण शुरु किया, लेकिन उनके सहभागी ने बीच में ही उनका साथ छोड़ दिया जिससे उनको भारी नुकसान उठाना पड़ा। और इसके बाद किसी ने उन्हे फिर फ़िल्म बनाने का मौका ही नहीं दिया। तो दोस्तों, संगीतकार रामलाल की याद में प्रस्तुत है आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड'।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. नूरजहाँ की नशीली आवाज़ का जादू है ये गीत.
२. नौशाद साहब का संगीत है.
३. मुखड़े में शब्द है -"तराना".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी के लिए वाकई ये काफी आसान रहा होगा. मनु जी, और अवनीश जी का भी आभार. स्वप्न मंजूषा जी शायद पहली बार शामिल हुई कल और उन्होंने जवाब भी पूरे विवरण के साथ दिया. स्वागत है मंजूषा जी.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



Saturday, May 30, 2009

इस बार का कवि सम्मेलन रश्मि प्रभा के संग



सुनिए पॉडकास्टिंग के इस नए प्रयोग को

Rashmi Prabha
रश्मि प्रभा
नमस्कार!

दोस्तो, हम एक फिर हाज़िर हैं इस माह के आपके अंतिम रविवार और अंतिम दिन को इंद्रधनुषी बनाने के लिए। जी हाँ, आपको भी इसका पूरे एक महीने से इंतज़ार होगा। तो इंतज़ार की घड़िया ख़त्म। सुबह की चाय पियें और साथ ही साथ हमारे इस पॉडकास्ट कवि सम्मेलन का रस लेते रहें, जिसमें भावनाओं और अभिव्यक्तियों के विविध रंग समाहित हैं। सुबह की चाय के साथ ही क्यों, इसका आनंद शाम की शिकंजी के साथ भी लें।

पिछले महीने हमें रश्मि प्रभा के रूप में साहित्य-सेवा की एक नई किरण मिलीं हैं। कविता-मंच पर ये कविताएँ तो लिख ही रही हैं, इस बार के कवि-सम्मेलन के संयोजन का दायित्व भी इन्हीं ने सम्हाला है। और आगे भी अपनी ओर से बेहतरीन प्रयास करते रहने का वचन दिया है।

इस बार के कवि सम्मेलन की सबसे ख़ास बात यह है कि इस बार दुनिया के अलग-अलग कोनों से कुल 19 कवि हिस्सा ले रहे हैं। संचालिका को लेकर यह संख्या 20 हो जाती है। और यह इत्तेफाक ही है कि इस बार जहाँ 10 महिला कवयिता हैं, वहीं 10 पुरुष कवयिता। कम से कम इस स्तर पर रश्मि प्रभा स्त्री-पुरुष समानता के तत्व को मूर्त करने में सफल रही हैं। इस बार के कवि सम्मेलन की एक और ख़ास बात है, और वह यह कि 20 में से 11 कवि पहली बार इस आयोजन के भागीदार बने हैं। जुलाई 2008 में जब हमने इसे शुरू किया था, तभी से हमारा यही उद्देश्य था कि दुनिया से अलग-अलग स्थानों, मंचों, संस्थाओं इत्यादि के शब्दशिल्पी वर्चुअल स्पेस का यह मंच साँझा करें और हमे खुशी है कि इस दिशा में आंशिक तौर पर ही सही, सफल भी हो रहे हैं। पॉडकास्ट कवि सम्मेलन का यह 11वाँ आयोजन है। इसके प्रथम अंक में मात्र 8 कवियों ने भाग लिया था।

यह आयोजन एक प्रयोग है- तकनीक की सड़क पर भावनाओं की पटरी बिछाने का और उन भावनाओं के चालकों को बारी-बारी से मौका देने का ताकि यात्रा लम्बी हो। आप बिना थके साहित्य की यात्रा करते रहें। पॉडकास्ट कवि सम्मेलन की संकल्पना को मूर्त रूप देने का पूरा श्रेय हमारी तकनीकी टीम को जाता है। यह आयोजन आवाज़ के तकनीकी प्रमुख अनुराग शर्मा के मार्गदर्शन में फल-फूल रहा है। इस बार के आयोजन का तकनीकी संपादन हमसे नई-नई जुड़ी तकनीककर्मी खुश्बू ने किया है। हमें बहुत खुशी है कि उन्होंने अपना कीमती वक़्त निकालकर हमारा प्रोत्साहन किया है।

अब हम आपका अधिक वक़्त नहीं लेंगे, उपर्युक्त सारी बातें तभी सार्थक होंगी, जब आपको इस बार का कवि सम्मेलन पसंद आयेगा। कृपया सुने और अवश्य बतायें कि हम अपने प्रयास में कितने सफल हुए हैं-

नीचे के प्लेयर से सुनें:


प्रतिभागी कवि-सरस्वती प्रसाद, किरण सिन्धु, गौरव शर्मा, लावण्या शाह, स्वप्न मंजूषा 'शैल', मनुज मेहता, प्रो॰ सी॰ बी॰ श्रीवास्तव, ज्योत्सना पाण्डेय, प्रीति मेहता, कीर्ति (दीपाली आब), मनोज भावुक, शोभा महेन्द्रू, विवेक रंजन श्रीवास्तव 'विनम्र', शारदा अरोरा, डॉ॰ अनिल चड्डा, एस कुमार शर्मा, कमलप्रीत सिंह, सत्यप्रसन्न और जगदीश रावतानी।

यह भाग डाउनलोड करें।


यह कवि सम्मेलन तकनीक के माध्यम से अलग-अलग स्थानों पर बैठे कवियों को एक वर्चुअल मंच पर एक साथ बिठाने की कोशिश है। यदि आप हमारे आने वाले पॉडकास्ट कवि सम्मलेन में भाग लेना चाहते हैं
1॰ अपनी आवाज़ में अपनी कविता/कविताएँ रिकॉर्ड करके भेजें।
2॰ जिस कविता की रिकॉर्डिंग आप भेज रहे हैं, उसे लिखित रूप में भी भेजें।
3॰ अधिकतम 10 वाक्यों का अपना परिचय भेजें, जिसमें पेशा, स्थान, अभिरूचियाँ ज़रूर अंकित करें।
4॰ अपना फोन नं॰ भी भेजें ताकि आवश्यकता पड़ने पर हम तुरंत संपर्क कर सकें।
5॰ कवितायें भेजते समय कृपया ध्यान रखें कि वे 128 kbps स्टीरेओ mp3 फॉर्मेट में हों और पृष्ठभूमि में कोई संगीत न हो।
6॰ उपर्युक्त सामग्री भेजने के लिए ईमेल पता- podcast.hindyugm@gmail.com


पॉडकास्ट कवि सम्मेलन के अगले अंक का प्रसारण 28 जून 2009 को किया जायेगा और इसमें भाग लेने के लिए रिकॉर्डिंग भेजने की अन्तिम तिथि है 18 जून 2009

हम सभी कवियों से यह अनुरोध करते हैं कि अपनी आवाज़ में अपनी कविता/कविताएँ रिकॉर्ड करके podcast.hindyugm@gmail.com पर भेजें। आपकी ऑनलाइन न रहने की स्थिति में भी हम आपकी आवाज़ का समुचित इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगे।

रिकॉर्डिंग करना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। हमारे ऑनलाइन ट्यूटोरियल की मदद से आप सहज ही रिकॉर्डिंग कर सकेंगे। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

# Podcast Kavi Sammelan. Part 11. Month: May 2009.
कॉपीराइट सूचना: हिंद-युग्म और उसके सभी सह-संस्थानों पर प्रकाशित और प्रसारित रचनाओं, सामग्रियों पर रचनाकार और हिन्द-युग्म का सर्वाधिकार सुरक्षित है।



चरणदास को जो पीने की आदत न होती...सामाजिक जिम्मेदारियों को भी निभाते थे "गोल्डन इरा" के गीतकार



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 96

सी. रामचन्द्र और किशोर कुमार के संगम से बने दो "गोल्ड" गीत अब तक हमने इस शृंखला में शामिल किया हैं, एक फ़िल्म 'आशा' से और दूसरी फ़िल्म 'पायल की झंकार' से। इन दोनो गीतों का रंग एक दूसरे से बिलकुल अलग था। आज भी हम इन दो महान फ़नकारों की एक रचना पेश कर रहे हैं लेकिन यह गीत ना तो फ़िल्म 'आशा' के "ईना मीना डीका" से मिलता जुलता है और ना ही 'पायल की झंकार' के "मुखड़े पे गेसू आ ही गये आधे इधर आधे उधर" का इस पर कोई प्रभाव है। आज का यह गीत है १९५४ की फ़िल्म 'पहली झलक' का - "चरणदास को पीने की जो आदत ना होती, तो आज मिया बाहर बीवी अंदर ना सोती"। 'पहली झलक' के निर्देशक थे एम. वी. रमण और इसमें मुख्य भूमिकायें निभायी किशोर कुमार और वैजयंतीमाला ने। यह बताना ज़रूरी है कि रमण साहब ने १९५७ में जब 'ईना मीना डीका" वाली 'आशा' बनायी, तो उसमें भी किशोर कुमार और वैजयंतीमाला को ही कास्ट किया था। 'पहली झलक' में किशोर कुमार जैसे गायक अभिनेता के होने के बावजूद फ़िल्म में बस एक ही गीत उनकी आवाज़ में था, बाक़ी के ज़्यादातर गीत लताजी की आवाज़ मे थे और एक गीत हेमन्त कुमार ने गाया था।

किशोर कुमार की आवाज़ में फ़िल्म 'पहली झलक' का यह गीत लिखा था राजेन्द्र कृष्ण ने। हास्य रस पर आधारित इस गीत में राजेन्द्र कृष्ण ने कई ज़रूरी बातें हँसी हँसी और मज़ाक मज़ाक में कह गये, लेकिन अगर ग़ौर से इस गीत को सुना जाए तो आपको पता चल जाएगा कि किस ज़रूरी बात की तरफ़ इशारा किया गया है। जी हाँ, यह गीत एक व्यंगात्मक वार है शराबख़ोरी पर, इसके दुष्परिणामों पर व्यंग के ज़रिए तीर पे तीर चलाए गये हैं जैसे कि गीत में कहा गया है "उस पर मज़ा कि ख़ाली हो पाकिट", "मिट्टी के भाव जाके बेच आये मोती", "ज़ेवर से कपड़ा, कपड़े से बरतन, बोतल के पानी में डूब गया धन", "दिया ना साल भर किराया मकान का, चढ़ गया सर पर कर्ज़ा पठान का", "बेटा अमीर का ठनठन गोपाल हुआ", इत्यादि। दूसरे शब्दों में यह गीत एक आंदोलन है शराबख़ोरी के ख़िलाफ़। भले ही हास्य-व्यंग का सहारा लेकर किशोर कुमार की गुदगुदानेवाली अंदाज़ में इस गीत को पेश किया गया है, लेकिन सही अर्थ में यह गीत एक संदेश है आज की युवा पीढ़ी को कि किस तरह से शराब पूरे घर को नीलाम करके रख देती है। दोस्तों, ज़िंदगी बहुत ख़ूबसूरत है, नशीली है, इसका आनंद उठाइए ज़िंदगी के नशे में डूबकर, शराब के नशे में डूबकर नहीं। फिलहाल ये संजीदे बाते रहने देते हैं एक तरफ़ और मुस्कुराते हुए सुनते हैं किशोरदा का गाया यह गीत।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. इस गीत की फिल्म का नाम "गीत" शब्द से ही शुरू होता है.
२. आशा भोंसले की आवाज़ के एक शानदार गीत.
३. मुखड़े की पहली पंक्ति में शब्द है -"ख्यालों".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी अब हम की कहें...आपके प्रतिभागी भी आपका लोहा मानने लगे हैं...बधाई

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



Friday, May 29, 2009

सुनो कहानी: शिखर-पुरुष



ज्ञानप्रकाश विवेक की "शिखर-पुरुष"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने "किस से कहें" वाले अमिताभ मीत की आवाज़ में सआदत हसन मंटो की "कसौटी" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं चर्चित कहानीकार ज्ञानप्रकाश विवेक की शिखर-पुरुष, जिसको स्वर दिया है कनाडा निवासी स्वप्न मंजूषा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय ३६ मिनट ४० सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

ज्ञानप्रकाश विवेक की सबसे चर्चित कहानी 'शिखर-पुरुष' का टेक्स्ट हिंद युग्म पर कहानी कलश में उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

ञानप्रकाश विवेक की कहानियों में सामाजिक विडम्बनाओं के विभिन्न मंजर उपस्थित रहते हैं।

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी

चाय का कप है कोई परशुराम का धनुष नहीं। कहा नहीं था मैने, क्योंकि तुम्हें यह फब्ती बुरी लग सकती थी।
(ज्ञानप्रकाश विवेक की "शिखर-पुरुष" से एक अंश)


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यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें
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#Twenty-third Story, Shikhar Purush: Gyan Prakash Vivek/Hindi Audio Book/2009/18. Voice: Swapn Manjusha

ना ना ना रे ना ना ...हाथ ना लगाना... दो अलग अंदाज़ ओ आवाज़ की गायिकाओं का सुंदर मेल



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 95

म तौर पर फ़िल्मी युगल गीत में एक गायक और एक गायिका की आवाज़ें हुआ करती हैं। लेकिन समय समय पर कुछ ऐसे युगल गीत भी बने हैं जिन्हे या तो दो गायकों ने गाये हैं या फिर दो गायिकाओं ने, और इनमें से बहुत सारे गानें बेहद कामयाब भी हुए हैं। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में एक ऐसा ही 'फ़िमेल डुएट' प्रस्तुत है। फ़िल्म संगीत के इतिहास मे अगर झाँका जाए तो हम पाते हैं कि ऐसी बहुत सारी फ़िल्में हैं जिनमें लता मंगेशकर ने नायिका का पार्श्वगायन किया है जब कि कुछ थोड़े से कमचर्चित गायिकाओं ने दूसरी चरित्र अभिनेत्रियों या फिर नायिका की सहेलियों, या फिर किसी जलसे या मुजरे के लिए अपनी आवाज़ें दी हैं। यह भी एक ऐसा ही गीत है जिसे दो बड़े ही अनोखी गायिकाओं ने गाया है। यह गीत है १९६३ की फ़िल्म ताजमहल का जिसे गाया है सुमन कल्याणपुर और मीनू पुरुषोत्तम ने। यूँ तो इस मशहूर फ़िल्म के बहुत से गीत बहुत ही कामयाब हुए, ख़ास कर लता-रफ़ी के गाए "जो वादा किया" और "पाँव छू लेने दो", और दूसरे कुछ गीत भी प्रसिद्ध हुए। उस दृष्टि से सुमन और मीनू का गाया यह गीत ज़रा कम सुना गया। इसीलिए हमने सोचा कि अगर 'ताजमहल' का ही गीत सुनवाना है तो क्यों न इसी कमसुने गीत को यहाँ बजाया जाए!

जैसा कि आप सभी जानते होंगे कि 'ताजमहल' के संगीतकार थे रोशन, जिन्होने समय समय पर सुमन कल्याणपुर से कई बेहतरीन गाने गवाये हैं। उदाहरण स्वरूप जो गीत मुझे इस वक़्त याद आ रहा है वह है फ़िल्म नूरजहाँ का "शराबी शराबी यह सावन का मौसम, ख़ुदा की क़सम ख़ूबसूरत न होता"। इस गीत को जयमाला कार्यक्रम में बजाने से पहले सुमनजी ने रोशन साहब के बारे में कहा था - "रोशनजी के साथ काम करने में एक अलग ही आनंद था। वो बहुत हँसाते थे। अगर कुछ 'चेंज' भी करना होता तो हँसी हँसी में समझाते थे जिससे कि गायक को ज़रा भी बुरा ना लगे। वो बहुत गुणी भी थे"। और दूसरी गायिका मीनू पुरुषोत्तम को 'ताजमहल' में गाने का अवसर देकर रोशन साहब ने इस नवोदित गायिका के कैरियर के लिए बड़ा महत्वपूर्ण काम किया। इस गीत से पहले मीनू ने १९६२ में 'चायना टाउन' फ़िल्म में रफ़ी साहब के साथ एक युगल गीत गाया था, लेकिन वह गीत ज़्यादा मशहूर नहीं हो पाया था। इसके बाद मीनू ने 'ताजमहल' का यह गीत गाया सुमन कल्याणपुर के साथ मिलकर जिसने उन्हे कुछ हद तक प्रसिद्धी दिलवायी। लोक संगीत के आधार पर बना यह गीत बड़ा ही मधुर है जिसमें इस दोनो होता गायिकाओं की अलग अलग क़िस्म की आवाज़ें गीत को और भी ज़्यादा ख़ूबसूरत बना देती है। सुमन कल्याणपुर की आवाज़ में अगर ग़ज़ब की खनक और मिठास है तो मीनू पुरुषोत्तम की आवाज़ ज़रा सी 'हस्की' है जो सुमनजी की आवाज़ के साथ घुलमिलकर एक अलग ही समा बांध देती है। साहिर लुधियानवी के लिखे इस गीत को सुनिए और खो जाइए सुमन कल्याणपुर और मीनू पुरुषोत्तम की शोख़ी भरे अंदाज़-ओ-आवाज़ में।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. सी रामचंद्र और किशोर दा का एक जबरदस्त हास्य गीत.
२. शराब के दुष्परिणामों पर ध्यान आकर्षित किया है राजेंद्र कृष्ण के बोलों ने.
३. गाने में "चरणदास" की कहानी बयां हुई है.

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
कमाल कर दिया शरद जी आपने तो, हमें उम्मीद कम थी कि कोई इस गीत को पकड़ पायेगा...बहुत बहुत बधाई...मनु जी, दिलीप जी, संगीत जी ख़ुशी हुई कि आप सब आये इस महफ़िल में.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



Thursday, May 28, 2009

मुझे फिर वही याद आने लगे हैं.... महफ़िल-ए-बेकरार और "हरि" का "खुमार"



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१६

ज हम जिन दो शख्सियतों की बात करने जा रहे हैं,उनमें से एक को अपना नाम
साबित करने में पूरे १८ साल लगे तो दूसरे नामचीन होने के बावजूद मुशाअरों तक हीं सिमटकर रह गए। जहाँ पहला नाम अब सबकी जुबान पर काबिज रहता है, वहीं दूसरा नाम मुमकिन है कि किसी को भी मालूम न हो(आश्चर्य की बात है ना कि एक नामचीन इंसान भी गुमनाम हो सकता है) । यूँ तो मैं चाहता तो आज का पूरा अंक पहले फ़नकार को हीं नज़र कर देता,लेकिन दूसरे फ़नकार में ऐसी कुछ बात है कि जब से मैने उन्हें पढा,सुना और देखा है(युट्युब पर)है, तब से उनका क़ायल हो गया हूँ और इसीलिए चाहता हूँ कि आज की गज़ल के "गज़लगो" भी दुनिया के सामने उसी ओहदे के साथ आएँ जिस ओहदे और जिस कद के साथ आज की गज़ल के "संगीतकार" और "गायक" को पेश किया जाना है। तो चलिए पहले फ़नकार से हीं बात की शुरूआत करते हैं। आपको शायद याद हो कि जब हम "छाया गांगुली" और उनकी एक प्यारी गज़ल की बात कर रहे थे तो इसी दरम्यान "गमन" की बात उभर आई थी। "गमन"- वही मुज़फ़्फ़र अली की एक संजीदा फिल्म, जिसके गानों को संगीत से सजाया था जाने-माने संगीतकार "जयदेव" ने। इस फ़िल्म ने न केवल "छाया गांगुली" को संगीत की दुनिया में स्थापित किया, बल्कि एक और फ़नकार थे,जिसने इसी फ़िल्म की बदौलत फ़िल्मी-संगीत का पहला अनुभव लिया था। "अजीब सानिहा मुझपर गुजर गया" -मुझे मालूम नहीं कितने लोगों ने इस गज़ल को सुना है, लेकिन "शह्रयार" की लिखी इस गज़ल में भी इस फ़नकार की आवाज़ उतनी हीं मुकम्मल जान पड़ती है,जितनी आज है। दीगर बात यह है कि "गमन" बनने से १ साल पहले यानी कि १९७७ में इस फ़नकार ने "आल इंडिया सुर श्रॄंगार कम्पीटिशन" में शीर्ष का पुरस्कार जीता था और तभी "जयदेव" ने इन्हें अपनी अगली फिल्म "गबन" का न्यौता दे दिया था। इस फिल्म के तीन साल बाद "चश्मे बद्दूर" में इन्हें गाने का अवसर मिला, फिर १९९१ में "लम्हें" आई, जिसमें "कभी मैं कहूँ", "ये लम्हें" जैसे गीत इन्होंने गाए। लेकिन सही मायने में इन्हें स्वीकारा तब गया, जब एक बिल्कुल नए-से संगीतकार "ए आर रहमान" के लिए इन्होंने "रोजा" का "तमिज़ा तमिज़ा" (हिन्दी मे "भारत हमको जान से प्यारा है") गाया। मुझे लगता है कि मैने अब हद से ज्यादा हिंट दे दिए हैं, इसलिए अब थमता हूँ; अब आप पर है, आप पता कीजिए कि हम किस फ़नकार की बात कर रहे हैं।

एक तरह से "रहमान" के सबसे पसंदीदा गायक, जिन्होंने हाल में हीं "गुरू" में "ऐ हैरत-ए-आशिकी" गाया है, को नज़र-अंदाज करना उतना हीं मुश्किल है, जितना अपनी परछाई को। "बार्डर" में इन्होंने जब "जावेद साहब" के अनमोल बोलों (मेरे दोस्त, मेरे भाई, मेरे हमसाये) को अपनी आवाज़ दी तो भारत की सरकार भी इन्हें "रजत कमल" देने से रोक नहीं पाई। इतना हीं नहीं, इन्हें २००४ में पद्मश्री की उपाधि प्रदान की गई। जिस फ़नकार को पूरी दुनिया ने अपनी हथेली पर जगह दी,हमारा सौभाग्य है कि आज हमारी महफ़िल भी उन्ही के चिरागों से रौशन होने जा रही है। "बांबे" में "तू हीं रे" का हृदयस्पर्शी आलाप लेने वाले "हरिहरण" के बारे में जितना भी कहा जाए उतना कम है। वैसे आप यह जानने को उत्सुक हो रहे होंगे कि मैने इस आलेख की शुरूआत में "अठारह" सालों का जिक्र क्यों किया था। दर-असल ७८ में "गमन" के लिए गाने के बाद इनकी संगीत की गाड़ी लुढकते-लुढकते आगे बढ रही थी। लेकिन ९६ में एक ऐसी घटना हुई जिसने हरिहरण और मुम्बई के एक और फ़नकार "लेसली लुविस" को एक मजबूत मंच दे दिया। "कोलोनियल कजन्स" नाम से इन्होंने एक "फ़्यूजन" एलबम रीलिज किया, जिसमें हिंदी और अंग्रेजी का समागम तो था हीं, लेकिन साथ हीं साथ साधारण जन द्वारा भुला दी गई "संस्कृत" को भी इन दोनों ने सम्मान दिया था। "वक्रतुंड महाकाय सूर्यकोटि च समप्रभा, निर्विघ्नं कुरू मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा" - गणेश की वंदना के साथ हरिहरण जब गाने की शुरूआत करते हैं तो माहौल का रंग हीं बदल जाता है। इस एलबम की सफ़लता के बाद हरिहरण ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। यह तो हुई हरिहरण की बात, अब चलिए हम दूसरे फ़नकार की ओर रूख करते हैं। "ऐसा नहीं कि उनसे मुहब्बत नहीं रही","कहीं शेर-औ-नगमा बनके कहीं आँसूओं में ढलके", "हुस्न जब मेहरबां हो तो क्या कीजिए", "वो जो आए हयात याद आई", "गम-ए-जानां को गम जाने हुए हैं" ,"न हारा है इश्क न दुनिया थमी है," वो जब याद आए बहुत याद आए" जैसी गज़लों को लिखने वाला इंसान न जाने कैसे गुमनामी के अंधेरों में छुपा रहा, यह बात मुझे समझ नहीं आती। क्या आपको याद है या फिर पता है कि वह इंसान कौन था?

१९१९ में ईहलोक में आने वाले इस इंसान का नाम यूँ तो "मोहम्मद हैदर खान" था लेकिन उसे जानने वाले उसे "खुमार बाराबंकवी" कहते थे। १९५५ में "रूख्साना" के लिए "शकील बदायूँनी" के साथ इन्होंने भी गाने लिखे थे। उससे पहले १९४६ में "शहंशाह" के एक गीत "चाह बरबाद करेगी" को "खुमार" साहब ने हीं लिखा था, जिसे संगीत से सजाया था "नौशाद" ने और अपनी आवाज़ दी थी गायकी के बेताज बादशाह "के०एल०सहगल" ने। तो इतने पुराने हैं हमारे "खुमार" साहब। १९९९ में स्वर्ग सिधारने से पहले इन्होंने मंच को कई बार सुशोभित किया है। हम बस "शकील बदायूनी","मज़रूह सुल्तानपुरी", "राहत इंदौरी", "नीरज", "निदा फ़ाज़ली", "बशीर बद्र" का नाम हीं जानते है,लेकिन इनके साथ मंच पर "खुमार" साहब ने भी अपना जादू बिखेरा है और मेरी मानिए तो इनका जादू बाकियों के जादू से एक रत्ती भी कम नहीं होता था। हर मिसरे के बाद "आदाब" कहने की इनकी अदा इन्हें बाकियों से मुख्तलिफ़ करती है। यूँ तो हम हरिहरण की आवाज़ में आज की गज़ल आपको सुना रहे हैं,लेकिन आप सबसे यह दरख्वास्त है कि युट्युब पर इस गज़ल को "खुमार" साहब की आवाज़ में सुनें, आपको एक अलग हीं अनुभव न हुआ तो बताईयेगा। तो चलिए अब हम आज की गज़ल की ओर बढते हैं। "मुझे फिर वही याद आने लगे हैं,जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं" - ऐसा द्वंद्व, ऐसी कशमकश कि जिसे सदियों पहले भुला दिया हो वही अब यादों में दस्तक देने लगा है। वैसे शायद प्यार इसी को कहते हैं। इंसान भुलाए नहीं भूलता और अपनी मर्जी से याद आने लगता है। "खुमार" साहब की खुमारी मुझपर इस कदर छाई है कि आज फ़िर अपना कुछ कहने का मन नहीं हो रहा। इसलिए लगे हाथ "खुमार" साहब का हीं एक शेर आपको सुनाए देता हूँ:

अल्लाह जाने मौत कहाँ मर गई "खुमार",
अब मुझको ज़िंदगी की ज़रूरत नहीं रही।


१९९४ में रीलिज हुई "गुलफ़ाम" से आज की गज़ल आप सबके सामने पेश-ए-खिदमत है:

मुद्दतों गम पे गम उठाए हैं,
तब कहीं जाके मुस्कुराए हैं,
एक निगाह-ए-खुलूस के कारण,
ज़िंदगी भर फ़रेब खाए हैं।

मुझे फिर वही याद आने लगे हैं,
जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं।

सुना है हमें वो भुलाने लगे हैं,
तो क्या हम उन्हें याद आने लगे हैं,
जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं।

ये कहना है उनसे मोहब्बत है मुझको,
ये कहने में उनसे जमाने लगे हैं,
जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं।

क़यामत यकीनन करीब आ गई है,
"ख़ुमार" अब तो मस्ज़िद में जाने लगे हैं,
जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं।


यूँ तो जो गज़ल हम आपको सुना रहे हैं, उसमें बस इतने हीं शेर हैं,लेकिन दो शेर और भी हैं,जो खुशकिस्मती से मुझे "खुमार" साहब की हीं आवाज़ में सुनने को मिल गए। वे शेर हैं:

वो हैं पास और याद आने लगे हैं,
मुहब्बत के होश अब ठिकाने लगे हैं,
जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं।

हटाए थे जो राह से दोस्तों की,
वो पत्थर मेरे घर में आने लगे हैं,
जिन्हें भूलने में जमाने लगे हैं।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

कितने दिन के प्यासे होंगे यारों सोचो तो,
___ का कतरा भी जिनको दरिया लगता है...


आपके विकल्प हैं -
a) शबनम, b) पानी, c) ओस, d) बूँद

इरशाद ....

पिछली महफ़िल के साथी-

पिछली महफिल में सबसे पहले सही जवाब दिया एक बार फिर नीलम जी, वाह नीलम जी आप तो कमाल कर रही हैं, लीजिये उनका शेर मुलाहजा फरमाईये -

दिल की तमन्नाएँ अक्सर पूरी नहीं हुआ करती ,
चाह लो गर दिल से तो अधूरी नहीं रहा करती...

शोभा जी ने एक फ़िल्मी गीत याद दिलाया तमन्ना पर, जुरूर उसे कभी ओल्ड इस गोल्ड पर सुनवायेंगें, वादा है. मनु जी जरुरत के मुकाबले तमन्ना ही सटीक है उपरोक्त शेर में, हमें तो ऐसा ही लगता है...चलिए अब आज की पहेली में सर खपाईये.

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.


जिसे तू कबूल कर ले वो अदा कहाँ से लाऊं....पूछा था चंद्रमुखी से देव बाबू से लता के स्वर में.



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 94

न्यू थियटर्स के प्रमथेश चंद्र बरुवा ने सन् १९३५ में शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के मशहूर उपन्यास 'देवदास' को पहली बार रुपहले परदे पर साकार किया था। यह फ़िल्म बंगला में बनायी गयी थी और बेहद कामयाब रही। देवदास की भूमिका में कुंदन लाल सहगल ने हर एक के दिल को छू लिया। बंगाल में इस फ़िल्म की अपार सफलता से प्रेरित होकर बरुवा साहब ने इस फ़िल्म को हिंदी में बना डाली उसी साल और पूरे देश भर में सहगल दर्द का पर्याय बन गए। जमुना, राजकुमारी (कलकत्ता) और पहाड़ी सान्याल ने कमश: पारो, चंद्रमुखी और चुन्नी बाबू की भूमिकायें निभायी। इसके बाद सन् १९५५ में लोगों ने देवदास को तीसरी बार के लिये परदे पर तब देखा (हिंदी में दूसरी बार) जब बिमल राय ने 'ट्रेजेडी किंग' दिलीप कुमार को देवदास की भूमिका में प्रस्तुत करने का बीड़ा उठाया। उस समय दिलीप कुमार के अलावा इस चरित्र के लिये किसी और का नाम सुझाना नामुमकिन था। दिलीप साहब हर एक की उम्मीदों पर खरे उतरे और उन्हे इस फ़िल्म के लिए उस साल का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार भी मिला। पारो और चंद्रमुखी की भूमिकायों में थीं सुचित्रा सेन और वैजयंतीमाला। मोतीलाल बने चुन्नी बाबू। कहा जाता है कि वैजयंतीमाला को इस फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री का फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार दिया गया था लेकिन उन्होने यह कहकर पुरस्कार लेने से मना कर दिया कि वो उस फ़िल्म में सह-अभिनेत्री नहीं बल्कि मुख्य अभिनेत्री थीं। पारो और चंद्रमुखी के किरदार ऐसे हैं इस उपन्यास मे कि वाक़ई यह बताना मुश्किल है कि कौन 'मुख्य' हैं और कौन 'सह'। साहिर लुधियानवी ने फ़िल्म के गाने लिखे और सचिन देव बर्मन ने बंगाल के लोक संगीत के अलग अलग विधाओं जैसे कि कीर्तन, भटियाली और बाउल संगीत के इस्तेमाल से इस फ़िल्म के गीतों में ऐसा संगीत दिया जो कहानी के स्थान, काल, और पात्रों को पूरी तरह से समर्थन दिये।

चंद्रमुखी के किरदार में वैजयंतीमाला ने अपनी नृत्यकला से दर्शकों का मन जीत लिया। लता मंगेशकर के गाये मुजरा गीतों के साथ उन्होने ऐसी अदायें बिखेरीं कि जब भी कोई गीत शुरु होता, लोग थियटर स्क्रीन पर पैसे फेंकने लग जाते। "दिलदार के क़दमों में दिलदार का नज़राना, महफ़िल में उठा और यह कहने लगा दीवाना, अब आगे तेरी मरज़ी ओ मोरे बालमा बेदर्दी", या फिर "ओ आनेवाले रुक जा कोई दम, रस्ता घेरे हैं बाहर लाखों ग़म" जैसे मुजरा गीतों पर दर्शकों ने काफ़ी पैसे लुटाये। लेकिन लताजी का गाया जो सबसे प्रसिद्ध गाना था वह था "जिसे तू क़बूल कर ले वो अदा कहाँ से लाऊँ, तेरे दिल को जो लुभा ले वो सदा कहाँ से लाऊँ"। चंद्रमुखी यह गीत उस वक़्त गाती है जब वो देवदास के दिल में अपने लिए प्यार उत्पन्न करने में नाकामयाब हो जाती हैं, क्यूंकि देवदास को पारो के अलावा और किसी चीज़ में कोई दिलचस्पी ही नहीं! साहिर साहब ने इस गीत में चंद्रमुखी के जज़्बात को बहुत सुंदरता से उभारा है, जब वो लिखते हैं कि "तुझे और की तमन्ना मुझे तेरी आरज़ू है, तेरे दिल में ग़म ही ग़म है मेरे दिल में तू ही तू है, जो दिलों को चैन दे दे वो दवा कहाँ से लाऊँ, तेरे दिल को जो लुभा ले वो सदा कहाँ से लाऊँ"। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इसी लाजवाब गीत की बारी, सुनिए।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. सुमन कल्याणपुर और मीनू पुरुषोत्तम की आवाजें.
२. साहिर का लिखा और रोशन का स्वरबद्ध ये गीत जिस फिल्म का है उसके सभी गीत मकबूल हुए थे और फिल्म भी सफल थी.
३. मुखड़े में आता है -"हाथ न लगाना".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी लगातार शतक पे शतक मार रहे हैं. मनु जी और गुडू का भी जवाब सही है बधाई...

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



Wednesday, May 27, 2009

लोकगीतों में वतन वाले सुनें नाम मेरा



पिछले हफ़्ते हमने आपको अब्बास रज़ा अल्वी द्वारा संगीतबद्ध गोपालदास नीरज का एक गीत सुनवाया था। आज एक बार फिर से हम इन्हीं की एक संगीतबद्ध प्रस्तुति लेकर आये हैं। इस गीत को लिखा है स्वर्गीय सागर खयामी ने। गाया है सिडनी की गायिक शानाज़ हैदर ने। अब्बास के दोनों गीत इनके 'दूरियाँ' एल्बम के हिस्सा हैं। अब्बास ने यह एल्बम भारत के गरीब बच्चों की मदद के लिए कम्पोज किया था।


न ये चाँद होगा न तारे रहेंगें...एस एच बिहारी का लिखा ये अनमोल नग्मा गीता दत्त की आवाज़ में.



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 93

ज के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में प्यार के इज़हार का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत अंदाज़ पेश-ए-ख़िदमत है गीता दत्त की आवाज़ में। दोस्तों, आपने ऐसा कई कई गीतों में सुना होगा कि प्रेमी अपनी प्रेमिका से कहता है कि जब तक यह दुनिया रहेगी, तब तक मेरा प्यार रहेगा; और जब तक चाँद सितारे चमकते रहेंगे, तब तक हमारे प्यार के दीये जलते रहेंगे, वगैरह वगैरह । लेकिन आज का जो यह गीत है वह एक क़दम आगे निकल जाता है और कहता है कि भले ही चाँद तारे चमकना छोड़ दें, लेकिन उनका प्यार हमेशा एक दूसरे के साथ बना रहेगा। आप समझ गये होंगे कि हमारा इशारा किस गीत की तरफ़ है। जी हाँ, फ़िल्म 'शर्त' का सदाबहार गीत "न ये चाँद होगा न तारे रहेंगे, मगर हम हमेशा तुम्हारे रहेंगे"। इस गीत को हेमंत कुमार ने भी गाया था लेकिन आज हम गीताजी का गाया गीत आपको सुनवा रहे हैं। गीत का एक एक शब्द दिल को छू लेनेवाला है, जिनसे सच्चे प्यार की कोमलता झलकती है। 'चाँद' से याद आया कि इसी फ़िल्म में 'चाँद' से जुड़े कुछ और गानें भी थे, जैसे कि लता और हेमन्तदा का गाया "देखो वो चाँद छुपके करता है क्या इशारे" और गीताजी का ही गाया एक और गाना "चाँद घटने लगा रात ढलने लगी, तार मेरे दिल के मचलने लगे"। इन गीतों को हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आगे कभी शामिल करने की ज़रूर कोशिश करेंगे।

फ़िल्म 'शर्त' के गीतकार थे शमसुल हुदा बिहारी, यानि कि एस.एच. बिहारी। उन्होने १९५० में फ़िल्म 'दिलरुबा' से अपनी पारी शुरु करने के बाद १९५१ में 'निर्दोश' और 'बेदर्दी', १९५२ में 'ख़ूबसूरत' और 'निशान डंका', तथा १९५३ में 'रंगीला' जैसी फ़िल्मों में गाने लिखे, लेकिन इनमें से कोई भी गीत बहुत ज़्यादा लोकप्रिय नहीं हुआ। उन्हे अपनी पहली महत्वपूर्ण सफलता मिली १९५४ में जब फ़िल्मिस्तान के शशधर मुखर्जी ने उन्हे मौका दिया फ़िल्म 'शर्त' में गाने लिखने का। मुखर्जी साहब ने पहले भी कई कलाकारों को उनका पहला महत्वपूर्ण ब्रेक दे चुके हैं, जिनमें शामिल हैं एस.डी. बर्मन, हेमन्त कुमार, निर्देशक हेमेन गुप्ता और सत्येन बोस। १९५४ में इस लिस्ट में दो और नाम जुड़ गये, एक तो थे गीतकार एस. एच. बिहारी का और दूसरे निर्देशक बिभुती मित्र का। श्यामा और दीपक अभिनीत फ़िल्म 'शर्त' आधारित था अल्फ़्रेड हिचकाक की मशहूर उपन्यास 'स्ट्रेन्जर्स औन दि ट्रेन' पर। जहाँ एक ओर एस.एच. बिहारी साहब को अपनी पहली बड़ी कामयाबी हासिल हुई, वहीं दूसरी ओर संगीतकार हेमन्त कुमार के सुरीले गीतों के ख़ज़ाने में कुछ अनमोल मोती और शामिल हो गये। इससे पहले कि आप यह गीत सुने, ज़रा पहले जान लीजिए कि बिहारी साहब ने १९७० में प्रसारित विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में इस फ़िल्म के बारे में क्या कहा था - "जिस तरह आपकी ज़िंदगी में हर क़दम पर मुश्किलात हैं, हमारी इस फ़िल्मी दुनिया में भी हमें कठिन रास्तों से होकर गुज़रना पड़ता है। मैने असरार-उल-हक़ जैसे शायर को यहाँ से नाकाम लौटते हुए देखा है, उसके बाद उन्ही की शायरी का फ़िल्मी गीतों में नाजायज़ इस्तेमाल होते हुए भी देखा है, और जिन्हे कामयाबी भी हासिल हुई। यह शायरी की कंगाली है जिसे माफ़ नहीं किया जा सकता। मेरी ज़िंदगी में भी धूप छाँव आते रहे हैं। एक बार राजा मेहंदी अली ख़ान साहब मुझे परेशान देखकर कहा कि क्या परेशानी है, मैने अपनी परेशानी बतायी तो वो मुझे एक बाबा के पास ले गये। वहाँ जाकर देखा कि बाबा के दर्शन के लिए मोटरों की क़तारें लगी हुईं हैं। अब देखिए एक ग़रीब रोटी के लिए बाबा के पास गया है तो एक मोटरवाला भी उनके पास गया है। हर किसी को कुछ ना कुछ परेशानी है। ख़ैर, मैं बाबा से मिला, उन्होने मुझे एक चाँदी का रुपया दिया और मेरे बाज़ू पर बाँधने के लिए कहा। मैं उसे बाँधकर मुखर्जी साहब के घर जा पहुँचा। दिन भर इंतज़ार करता रहा पर वो घर पर नहीं थे। भूख से मेरा बुरा हाल था। मैने वह सिक्का अपनी बाज़ू से निकाला और सामने की दुकान में जाकर भजिया खा लिया। फिर मैं मुखर्जी साहब के गेट वापस जा पहुँचा। मुखर्जी साहब गेट पर ही खड़े थे। मैने उन्हे सलाम किया जिसका उन्होने जवाब नहीं दिया, शायद कुछ लोगों की यही अदा होती है! उन्होने मुझसे पूछा कि क्या बेचते हो? मैनें कहा कि मैं दिल के टुकडे बेचता हूँ पर वो नहीं जो फ़िल्मी गीतों में लिखा होता है कि एक दिल के सौ टुकडे हो गये, वगैरह वगैरह। मेरी बातों से वो प्रभावित हो गये। चाँदी का सिक्का तो कमाल नहीं दिखाया पर मेरी ज़ुबान कमाल कर गयी। और आज से १७ साल पहले इस गाने का जनम हुआ, न ये चाँद होगा न तारे रहेंगे, मगर हम हमेशा तुम्हारे रहेंगे।"



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. दिलीप कुमार ने इस फिल्म में उस किरदार को निभाया है जिसे सहगल और शाहरुख़ खान ने भी परदे पर अवतरित किया है.
२. लता की आवाज़ का जादू.
३. मुखड़े में शब्द है -"अदा".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी ने एक बार फिर बाज़ी मार ली, मनु जी, नीलम जी और दिलीप जी, धन्येवाद आप सब श्रोताओं का है जिन्होंने इस आयोजन को इतना सफल बनाया है. दिलीप जी थोडी बहुत प्यास अधूरी रह जाये तो ही मज़ा है वरना मयखानों पे ताले न लग जायेंगें :)

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



Tuesday, May 26, 2009

शहर के दुकानदारों को जावेद अख्तर की सलाह - एल्बम संगम से नुसरत साहब की आवाज़ में



बात एक एल्बम की # 07

फीचर्ड आर्टिस्ट ऑफ़ दा मंथ - नुसरत फतह अली खान और जावेद अख्तर.
फीचर्ड एल्बम ऑफ़ दा मंथ - "संगम" - नुसरत फतह अली खान और जावेद अख्तर

आलेख प्रस्तुतीकरण - सजीव सारथी


जैसा कि आप जानते हैं हमारे इस महीने के फीचर्ड एल्बम में दो फनकारों ने अपना योगदान दिया है. नुसरत साहब के बारे में हम पिछले दो अंकों में बात कर ही चुके हैं. आज कुछ चर्चा करते हैं अल्बम "संगम" के गीतकार जावेद अख्तर साहब की. जावेद अख्तर एक बेहद कामियाब पठकथा लेखक और गीतकार होने के साथ साथ साहित्य जगत में भी बतौर एक कवि और शायर अच्छा खासा रुतबा रखते हैं. और क्यों न हों, शायरी तो कई पीढियों से उनके खून में दौड़ रही है. वे गीतकार/ शायर जानिसार अख्तर और साफिया अख्तर के बेटे हैं, और अपने दौर के रससिद्ध शायर मुज़्तर खैराबादी जावेद के दादा हैं. उनकी परदादी सयिदुन निसा "हिरमां" उन्नीसवी सदी की जानी मानी उर्दू कवियित्री रही हैं और उन्हीं के खानदान में और पीछे लौटें तो अल्लामा फजले हक का भी नाम आता है, अल्लामा ग़ालिब के करीबी दोस्त थे और "दीवाने ग़ालिब" का संपादन उन्हीं के हाथों हुआ है, जनाब जावेद साहब के सगड़दादा थे.

पर इतना सब होने के बावजूद जावेद का बचपन विस्थापितों सा बीता. नन्हीं उम्र में ही माँ का आंचल सर से उठ गया और लखनऊ में कुछ समय अपने नाना नानी के घर बिताने के बाद उन्हें अलीगढ अपने खाला के घर भेज दिया गया जहाँ के स्कूल में उनकी शुरूआती पढाई हुई. लड़कपन से उनका रुझान फ़िल्मी गानों में, शेरो-शायरी में अधिक था. हमउम्र लड़कों के बजाये बड़े और समझदार बच्चों में उनकी दोस्ती अधिक थी. वालिद ने दूसरी शादी कर ली और कुछ दिन भोपाल में अपनी सौतेली माँ के घर रहने के बाद भोपाल शहर में उनका जीवन दोस्तों के भरोसे हो गया. यहीं कॉलेज की पढाई पूरी की, और जिन्दगी के नए सबक भी सीखे. ४ अक्टूबर १९६४ को जावेद ने मुंबई शहर में कदम रखा. ६ दिन बाद ही पिता का घर छोड़ना पड़ा और फिर शुरू हुई संघर्ष की एक लम्बी दास्ताँ. जेब में फ़क़त 27 नए पैसे थे पर जिंदगी का ये "लडाका" खुश था कि कभी 28 नए पैसे भी जेब में आ गए तो दुनिया की मात हो जायेगी.

५ मुश्किल सालों के थका देने वाला संघर्ष भी जावेद का सर नहीं झुका पाया. उन्हें यकीन था कि कुछ होगा, कुछ जरूर होगा, वो युहीं मर जाने के लिए पैदा नहीं हुए हैं. इस दौरान उनकी कला उनका हुनर कुछ और मंझ गया. शायद यही वजह थी कि जब कमियाबी बरसी तो कुछ यूँ जम कर बरसी कि चमकीले दिनों और जगमगाती रातों की एक सुनहरी दास्तान बन गयी. एक के बाद एक लगातार बारह हिट फिल्में, पुरस्कार, तारीफें.....जैसे जिंदगी भी एक सिल्वर स्क्रीन पर चलता हुआ ख्वाब बन गयी, पर हर ख्वाब की तरह इसे भी तो एक दिन टूटना ही था. जब टूटा तो टुकडों में बिखर गयी जिंदगी. कुछ असफल फिल्में, हनी (पत्नी) से अलग होना पड़ा, सलीम के साथ लेखनी की जोड़ी भी टूट गयी. जावेद शराब के आदी हो गए.

१९७६ में जब जानिसार अख्तर खुदा को प्यारे हुए तो अपनी आखिरी किताब औटोग्राफ कर जावेद को दे गए जिस पर लिखा था -"जब हम न रहेंगे तो बहुत याद करोगे". ये बुलावा था अपने बागी और नाराज़ बेटे के लिए एक शायर पिता का, एक सन्देश था छुपा हुआ कि लौट चलो अब अपनी जड़ों को. शायरी से रिश्ता तो पैदाइशी था ही, दिलचस्पी भी हमेशा थी, 1979 में पहली बार शेर लिखते हैं जावेद और सुलह कर लेते हैं अपनी विरासत और मरहूम वालिद से.यहाँ साथ मिलता है मशहूर शायर कैफी आज़मी की बेटी शबाना का और जन्म होता है एक नए रिश्ते का. फिल्मों में उनकी शायरी सराही गयी, "साथ साथ" के खूबसूरत गीतों में. "सागर", "मिस्टर इंडिया", के बाद "तेजाब" में उनके लिखे गीतों को बेहद लोकप्रियता मिली, फिर आई "१९४२- अ लव स्टोरी" जिसके गीतों ने उन्हें इंडस्ट्री में स्थापित कर दिया जिसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड कर नहीं देखा. आज उनका बेटा फरहान और बेटी जोया दोनों ही फिल्म निर्देशन में हैं, ये भी एक विडम्बना है कि जावेद हमेशा से ही किसी फिल्म का निर्देशन करना चाहते थे, पर कभी साहस न कर पाए. पर अपने बच्चों की सफलता में उनका योगदान अमूल्य है. शबाना आज़मी कितनी सफल अभिनेत्री हैं ये बताने की ज़रूरत नहीं है, फरहान और जोया की वालिदा हनी ईरानी भी एक स्थापित पठकथा लेखिका हैं.

अनेकों फिल्म फेयर, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार और सम्मान पाने वाले जावेद अपने संघर्ष के मुश्किल दिनों को याद कर अपनी पुस्तक "तरकश" में एक जगह लिखते हैं - "उन दिनों मैं कमाल स्टूडियो (अब नटराज स्टूडियो) के एक कमरे में रहता था, यहाँ मीना कुमारी के फिल्म "पाकीजा" में इस्तेमाल होने वाले कपडे आदि अलमारियों में भरे थे. एक दिन मैं अलमारी का खाना खोलता हूँ तो पड़े मिलते हैं -मीना कुमारी के जीते हुए तीन फिल्म फेयर अवार्ड्स भी. मैं उन्हें झाड़ पोंछकर अलग रख देता हूँ, मैंने जिंदगी में पहली बार किसी फिल्म अवार्ड को छुआ है. रोज रात को कमरा अन्दर से बंद कर वो ट्राफी अपने हाथ में लेकर आईने के सामने खडा होता हूँ और सोचता हूँ कि जब ये ट्राफी मुझे मिलेगी तो तालियों से गूंजते हुए हॉल में बैठे दर्शकों की तरफ मैं किस तरह मुस्कराऊंगा और कैसे हाथ हिलाऊंगा...". जावेद साहब की कविताओं, नज्मों, ग़ज़लों का का बहुत सा संकलन गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया में भी उपलब्ध है. उनकी पुस्तक तरकश खुद उनकी अपनी आवाज़ में ऑडियो फॉर्मेट में उपलब्ध है. जगजीत से उनकी बहुत सी ग़ज़लों और नज्मों को अपनी आवाज़ दी है, शंकर महादेवन, अलका याग्निक, आदि फनकारों ने उनके साथ टीम अप कर बहुत सी कामियाब एल्बम की हैं. नुसरत साहब की पहली पसंद भी वही थे. तो चलिए लौटते हैं अपनी फीचर्ड एल्बम "संगम" की तरफ. तीन रचनाएँ आप अब तक सुन चुके हैं....आज सुनिए तीन और शानदार ग़ज़ल/गीत इसी नायाब एल्बम से.

शहर के दुकानदारों....(उन्दा शायरी और रूहानी आवाज़ का जादूई मेल)


जिस्म दमकता (एक अनूठा प्रयोग है इस ग़ज़ल में, सुनिए समझ जायेंगे..)


और अंत में सुनिए ये लाजवाब गीत "मैं और मेरी आवारगी"


एल्बम "संगम" अन्य गीत यहाँ सुनें -

आफरीन आफरीन...
आपसे मिलके हम...
अब क्या सोचें...



"बात एक एल्बम की" एक साप्ताहिक श्रृंखला है जहाँ हम पूरे महीने बात करेंगे किसी एक ख़ास एल्बम की, एक एक कर सुनेंगे उस एल्बम के सभी गीत और जिक्र करेंगे उस एल्बम से जुड़े फनकार/फनकारों की.यदि आप भी किसी ख़ास एल्बम या कलाकार को यहाँ देखना सुनना चाहते हैं तो हमें लिखिए.



तारों की जुबाँ पर है मोहब्बत की कहानी ....मोहब्बत के नाम एक और नग्मा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 92

दोस्तों, आज के गीत की जानकारी शुरु करने से पहले हम अपना एक त्रुटि सुधार करना चाहेंगे। आपको याद होगा कुछ दिन पहले हमने आपको संगीतकार विनोद के संगीत में फ़िल्म 'एक थी लड़की' का मशहूर गीत सुनवाया था "लारा लप्पा लारा लप्पा"। इस गीत के गायक कलाकारों के नाम स्वरूप हमने लता मंगेशकर, जी. एम. दुर्रानी और साथियों का ज़िक्र किया था। फिर किसी श्रोता ने लिखा कि इस गीत में रफ़ी साहब की भी आवाज़ है। तो जब मैने इसकी खोजबीन शुरु की तो कई जगहों पर रफ़ी साहब का नाम मुझे दिखा और कई जगहों पर नहीं दिखा, लेकिन दुर्रानी साहब का नाम सभी जगह था। तब मैने सोचा क्यों न किसी वरिष्ठ व्यक्ति की मदद ली जाये जो फ़िल्म संगीत के अच्छे जानकार हों। तो मैने एक ऐसे वरिष्ठ शोधकर्ता से इस गीत के गायक कलाकारों के बारे में जानना चाहा जिनका पूरा जीवन फ़िल्म संगीत के शोध कार्य में ही बीता है। उन्होने मुझे बताया कि यह गीत असल में लता मंगेशकर, सतीश बत्रा, मोहम्मद रफ़ी और साथियों ने गाया है। इस गीत में जी. एम दुर्रानी साहब की आवाज़ बिल्कुल नहीं है और यह बात उन्हे किसी और ने नहीं बल्कि ख़ुद दुर्रानी साहब ने ही बताया था। है ना आश्चर्य की बात! इस गीत के साथ हम हमेशा से दुर्रानीसाहब का नाम जोड़ते चले आ रहे हैं जब कि हक़ीक़त कुछ और ही है। उन दिनों ग्रामोफोन रिकार्ड्स पर नामों की कई ग़लतियाँ हुआ करती थीं और यह भी उन्ही में से एक है।

तो दोस्तों यह तो था एक मज़ेदार ख़ुलासा जिसे जानकार आपको अच्छा भी लगा होगा और हैरत भी हुई होगी। अब आते हैं आज के गीत पर। आज हम एक बड़ा ही प्यारा सा 'रोमांटिक' युगल गीत लेकर आये हैं लताजी और रफ़ी साहब की आवाज़ों में। १९५७ में सोहराब मोदी ने अपनी कंपनी मिनर्वा मूवीटोन के बैनर तले एक फ़िल्म बनायी 'नौशेरवान-ए-आदिल'। राज कुमार और माला सिन्हा अभिनीत इस फ़िल्म के संगीतकार थे सी. रामचन्द्र और इस फ़िल्म के गाने लिखे एक बहुत ही कमचर्चित गीतकार ने जिनका नाम था परवेज़ शमसी। मेरे ख़याल से इन्होने सिर्फ़ इसी फ़िल्म में गीत लिखे हैं। इस फ़िल्म के कम से कम दो युगल गीत बड़े पसंद किये गये थे, एक तो था "भूल जायें सारे ग़म, डूब जायें प्यार में" और दूसरा गीत जो आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की शान बना है वह था "तारों की ज़ुबाँ पर है मोहब्बत की कहानी, ऐ चाँद मुबारक़ हो तुझे रात सुहानी"। बड़ा ही ख़ूबसूरत गीत है, चाँद, तारों और रात की उपमा देकर मोहब्बत की दास्तान बयान हुई है इस गीत में। ज़रा इस अंतरे पर ग़ौर करें - "कहते हैं जिसे चाँदनी है नूर-ए-मोहब्बत, तारों से सुनहरी है हमेशा तेरी क़िस्मत, जा जा के पलट आती है फिर तेरी जवानी, ऐ चाँद मुबारक़ हो तुझे रात सुहानी", चाँद के ज़रिए जवानी के फिर से वापस लौट आने को कितनी सुंदरता से प्रस्तुत किया गया है। ऐसे गीतों के बारे में ज़्यादा कुछ कहने की ज़रूरत नहीं होती, ये ऐसे गीत हैं जिन्हे सिर्फ़ सुनना और महसूस करना चाहिए।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. एस एच बिहारी का लिखा एक अमर गीत.
२. प्रेम के समर्पण में डूबी गीता दत्त की आवाज़.
३. एक अंतरे की दूसरी पंक्ति हैं - "भुला देंगें हम सारा गम...."

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी की खासियत है कि उनका कोई भी जवाब आज तक गलत नहीं हुआ. इस बार विजेता रहे, मनु जी और मीत जी ने भी सही की मोहर लगा दी. नीलम जी क्या वाकई ये गाना आपने पहली बार सुना है...? शरद कोकस साहब क्या कहना चाहते हैं कुछ साफ़ नहीं हुआ...वैसे सुजॉय के जवाब से शायद वो संतुष्ट हो गए होंगे.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



Monday, May 25, 2009

एक तरफ़ उसका घर, एक तरफ़ मयकदा... .महफ़िल-ए-खास और पंकज उधास



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१५

देश से बाहर बसे खानाबदोशों को रूलाने के लिए करीब २३ साल पहले एक शख्स ने फिल्मी संगीत की तिलिस्मी दुनिया में कदम रखा था। "चिट्ठी" लेकर आया वह शख्स देखते हीं देखते कब गज़लों की दुनिया का एक नायाब हीरा हो गया,किसी को पता न चला। उसके आने से पहले गज़लें या तो बु्द्धिजीवियों की महफ़िलों में सजती थीं या फ़िर शास्त्रीय संगीत के कद्रदानों की जुबां पर और इस कारण गज़लें आम लोगों की पहुँच और समझ से दूर रहा करती थीं। वह आया तो यूँ लगा मानो गज़लों के पंख खोल दिए हों किसी ने। गज़ल आजाद हो गई और अब उसे बस गाया या समझा हीं नहीं जाने लगा बल्कि लोग उसे महसूस भी करने लगे। गज़ल कभी रूलाने लगी तो कभी दिल में हल्की टीस जगाने लगी। गज़लों को जीने वाला वह इंसान सीधे-साधे बोलों और मखमली आवाज़ के जरिये न जाने कितने दिलों में घर कर गया। फिर १९८६ में रीलिज हुई नाम की "चिट्ठी आई है" हो, १९९१ के साजन की "जियें तो जियें कैसे" हो या फिर ३ साल बाद रीलिज हुई "मोहरा" की "ना कज़रे की धार" हो, उस शख्स की आवाज़ की धार तब से अब तक हमेशा हीं तेज़-तर्रार रही है। इसे उस शख्स की जादू-भरी आवाज़ और पुरजोर शख्सियत का असर हीं कहेंगे कि फ़िल्मों में उन्हें महफ़िलों में गाता हुआ दिखाया जाने लगा, वैसे सच हीं है- बहती गंगा में कौन अपने हाथ नहीं धोना चाहता । इतिहास गवाह है कि "चिट्ठी आई है" -बस इस गाने ने "नाम" की किस्मत हीं बदल दी थी। चलिए हमने तो इतना बता दिया, अब आप उस "नामचीन" कलाकार का नाम पता करें।

पूरे हिन्दुस्तान में(और यूँ कहिए पूरी दुनिया में जहाँ भी हिन्दवी बोली जाती है,हिन्दवी नाम अमीर खुसरो का दिया हुआ है,जोकि हिंदी और उर्दू को मिलाकर बनी एक भाषा है) ऐसा कौन होगा जिसने "चाँदी जैसा रंग है तेरा" या फिर "चिट्ठी आई है" न सुना हो। मुझे तो एक भी ऐसे बदकिस्मत इंसान की जानकारी नहीं है। इसलिए उम्मीद करता हूँ कि आपने आज के फ़नकार को पहचान लिया होगा। पहचान लिया ना? तो हाँ अगर पहचान हीं लिया है तो उन्हें जानने की भी कोशिश कर ली जाए। यूँ कहते हैं ना कि "पूत के पाँव पालने में हीं दीख जाते है" - शायद इन जैसों को सोचकर हीं किसी ने सदियों पहले यह बात कही होगी। हमारे आज के फ़नकार जब महज दस साल के थे, तभी इन्होंने सबके सामने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा दिया था । भारत-चीन युद्ध के दौरान इन्होंने जब मंच से "ऐ मेरे वतन के लोगों" गाया तो लोगों की आँखों में खुशी और ग़म के आँसू साथ हीं साथ आ गए । ग़म का सबब तो जगज़ाहिर है,लेकिन खुशी इसकी कि हिन्दुस्तान को संगीत के क्षेत्र में एक उभरता हुआ सितारा मिल गया था। फिर क्या था,वह नन्हा सितारा धीरे-धीरे अपनी चमक सारी दुनिया में बिखराने के लिए तैयार होने लगा। उस नन्हे सितारे को किसी भी और चीज की फ़िक्र न थी,क्योंकि जहां के पैतरों से रूबरू कराने के लिए उसके दोनों बड़े भाई पहले से हीं तैनात थे। "मनहर उधास" और "निर्मल उधास" भले हीं उतने मकबूल न हों,जितने कि हमारे "पंकज उधास" साहब हैं,लेकिन उन दोनों ने भी संगीत की उतनी हीं साधना की है। निर्मल उधास जी के बारे में जहां को ज्यादा नहीं पता, लेकिन मनहर उधास साहब का स्वर कोकिला "लता मंगेशकर" के साथ किया गया पार्श्व-गायन अमूमन सब के हीं जेहन में जिंदा होगा। याद आया कुछ? फिल्म "अभिमान" का "लूटे कोई मन का नगर" जिसे कई सारे लोग "मुकेश-लता" का गीत समझते हैं,दर-असल मनहर साहब का एक सदाबहार नगमा है। जी हाँ तो जब जिस इंसान के दोनों भाई संगीत की दुनिया में मशगू्ल हों, वहाँ तीसरे का इससे दूर जाने का कोई सवाल हीं नहीं उठता। तो इस तरह "पंकज उधास" साहब भी संगीत के सफ़र पर चल निकले।

"पंकज उधास" का गज़लों की तरफ़ रूख कैसे हुआ,इसकी भी एक मज़ेदार दास्तां है। वो कहते हैं ना कि "गज़ल तब तक मुकम्मल नहीं होती जब तक उसे गाया न जाए और गाई हुई गज़ल तब तक मुकम्मल नहीं होती जब तक कि गज़ल-गायक गाए जा रहे लफ़्ज़ों और जुबां को समझता न हो।" इसलिए उर्दू-गज़ल गाने के लिए उर्दू का इल्म होना लाजिमी है। यही कारण था कि पंकज उधास साहब के घर उनके बड़े भाई "मनहर उधास" को उर्दू की तालिम देने के लिए एक शिक्षक आया करते थे। एक दफ़ा पंकज उधास ने उन्हें बेगम अख्तर और मेहदी हसन की गज़लों को सुनते और सुनाते सुन लिया। इस छोटी-सी घटना का ऐसा असर हुआ कि पंकज साहब ने भी उर्दू सीखने की जिद्द ठान ली और उस जिद्द का सुखद परिणाम आज हम सबके सामने है। पंकज उधास की गज़लों का जब भी जिक्र होता है तो मयखाना,शराब और साकी का जिक्र भी साथ हीं आ जाता है। इन्हें शराब की गज़लों का बेताज बादशाह कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। संयोग देखिए कि हमारी आज की गज़ल भी कुछ ऐसी हीं है। यूँ तो "निगाह-ए-यार" में भी वही नशा है जो "मयकदे के आबसार" में है,लेकिन अगर किसी को दोनों की हीं तलब हो और वो भी एक साथ तो वह क्या करे। "एक तरफ़ उसका घर, एक तरफ़ मयकदा" -किसी की ऐसी हालत हो जाए तो फिर उसे खुदा हीं बचाए।

खुदा-न-ख्वास्ता मेरे हुनर का जिक्र यूँ न हो,
कि उसके वास्ते कुछ और से मुझको सुकूं न हो।


किसी के दिल का हाल बयां करने के लिए मालूम नहीं "ज़फ़र गोरखपुरी" इससे ज्यादा क्या लिखते। "नशा" एलबम से ली गई इस गज़ल में कुछ नशा हीं ऐसा है जो होश का दावा करने वालों को मदहोश कर देता है। आप खुद देखिए:

तेरी निगाह से ऐसी शराब पी मैने
कि फिर न होश का दावा किया कभी मैने।
वो और होंगे जिन्हें मौत आ गई होगी,
निगाह-ए-यार से पाई है ज़िंदगी मैने।

ऐ गम-ए-ज़िंदगी कुछ तो दे मशवरा,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।
मैं कहाँ जाऊँ - होता नहीं फैसला,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।

एक तरफ़ बाम पर कोई गुलफ़ाम है,
एक तरफ़ महफ़िल-ए-बादा-औ-जाम है,
दिल का दोनो से है कुछ न कुछ वास्ता,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।

उसके दर से उठा तो किधर जाऊँगा,
मयकदा छोड़ दूँगा तो मर जाऊँगा,
सख्त मुश्किल में हूँ- क्या करूँ ऐ खुदा,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।

ज़िंदगी एक है और तलबगार दो,
जां अकेली मगर जां के हकदार दो,
दिल बता पहले किसका करूँ हक़ अदा,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।

इस ताल्लुक को मैं कैसे तोड़ूँ ज़फ़र,
किसको अपनाऊँ मैं, किसको छोड़ूँ जफ़र,
मेरा दोनों से रिश्ता है नजदीक का,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।

ऐ गम-ए-ज़िंदगी कुछ तो दे मशवरा,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।
मैं कहाँ जाऊँ - होता नहीं फैसला,
एक तरफ़ उसका घर,एक तरफ़ मयकदा।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

दिल से मिलने की ___ ही नहीं जब दिल में,
हाथ से हाथ मिलाने की जरुरत क्या है...


आपके विकल्प हैं -
a)जरुरत, b) कशिश, c) तड़प, d) तम्मना

इरशाद ....

पिछली महफ़िल के साथी-

पिछली महफिल का सही शब्द था -"चाँद" और शेर था -

चाँद से फूल से या मेरी जुबाँ से सुनिए,
हर तरफ आपका किस्सा है जहाँ से सुनिए...

निदा साहब का लिखा ये खूबसूरत शेर था...मनु जी पूरी तरह चूक गए, पर नीलम जी का निशाना एकदम सही लगा. जवाब मिलते ही महफिल जम गयी. मनु जी ने हरकीरत हकीर जी की कविता का ये अंश सुनाया -

रात आसमां में
इक सिसकता चाँद देखा
उसकी पाजेब नही बजती थी
चूड़ियाँ भी नहीं खनकती थीं
मैंने घूंघट उठा कर देखा
उसके लब सिये हुए थे .....!!

वाह बहुत खूब...नए श्रोता आशीष ने कुछ शेर याद दिलाये जैसे -

चाँद के साथ कई दर्द पुराने निकले,
कितने गम थे जो तेरे गम के बहाने निकले....

और

तुझे चाँद बनके मिला जो तेरे सहिलो पे खिला था जो
वो था एक दरिया विसाल का सो उतर गया उसे भूल जा.

नीलम जी ने फ़रमाया -

हमें दुनिया की ईदों से क्या ग़ालिब (ग़ालिब????)
हमारा चाँद दिख जाए हमारी ईद समझो...

क्या ये ग़ालिब का शेर है नीलम जी ? मनु जी बेहतर बता पायेंगें. नीरज जी भी चुप चाप महफिल का आनंद लेते रहे, अब ऐसे में शन्नो जी कैसे पीछे रह सकती हैं. उन्होंने महफिल में कुछ हंसी के गुब्बारे उछाले जैसे -

बाल पूरी तरह से जबसे सर के गायब हुये हैं
सर नहीं अब उसे लोग अक्सर चाँद ही कहते हैं.

हा हा हा....महफ़िल में रंग ज़माने वाले सभी श्रोताओं को बधाई...

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.


हरियाला सावन ढोल बजाता आया....मानसून की आहट पर कान धरे है ये मधुर समूहगान



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 91

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिए आज हम एक बड़ा ही अनोखा समूहगान लेकर आये हैं। सन् १९५३ में बिमल राय की एक मशहूर फ़िल्म आयी थी 'दो बीघा ज़मीन'। बिमल राय ने अपना कैरियर कलकत्ते के 'न्यू थियटर्स' में शुरु किया था और उसके बाद मुंबई आकर 'बौम्बे टाकीज़' से जुड़ गये जहाँ पर उन्होने कुछ फ़िल्में निर्देशित की जैसे कि १९५२ में बनी फ़िल्म 'माँ'। उस वक़्त 'बौम्बे टाकीज़' बंद होने के कगार पर थी। इसलिए बिमलदा ने अपनी 'प्रोडक्शन' कंपनी की स्थापना की और अपने कलकत्ते के तीन दोस्त, सलिल चौधरी, नवेन्दु घोष और असित सेन के साथ मिलकर सलिल चौधरी की बंगला उपन्यास 'रिक्शावाला' को आधार बनाकर 'दो बीघा ज़मीन' बनाने की ठानी। सलिलदा की बेटी अंतरा चौधरी ने एक बार बताया था इस फ़िल्म के बारे में, सुनिए उन्ही के शब्दों में - "१९५२ में ऋत्विक घटक बिमलदा को 'रिक्शावाला' दिखाने ले गये। बिमलदा इस फ़िल्म से इतने प्रभावित हुए कि उन्होने मेरे पिताजी को अपनी कंपनी के साथ जुड़ने का न्योता दे बैठे, और इस तरह से बुनियाद पड़ी 'दो बीघा ज़मीन' की। ये दोनो एक दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। मुझे अभी भी याद है कि जब बिमलदा बहुत सुबह सुबह हमारे घर आया करते थे और मेरे पिताजी के बिस्तर के पास कुर्सी में बैठकर अख़बार पढ़ते रहते और पिताजी के उठने का इंतज़ार करते। मेरी माँ उन्हे जगाना भी चाहे तो बिमलदा मना कर देते थे।" यह तो थी 'दो बीघा ज़मीन' और 'रिक्शावाला' की बात, लेकिन ऐसा भी कहा गया है कि 'दो बीघा ज़मीन' ख़्वाजा अहमद अब्बास की कहानी पर बनी फ़िल्म 'धरती के लाल' से भी प्रेरित था। यहाँ उल्लेखनीय बात यह है कि अब्बास साहब और सलिलदा, दोनो ही 'इपटा' के सदस्य थे। बलराज साहनी, निरुपा राय और रतन कुमार अभिनीत 'दो बीघा ज़मीन' हिंदी फ़िल्म इतिहास की एक बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्म रही है।

सलिल चौधरी के संगीत की एक ख़ास बात यह रही है कि उनके बहुत सारे गीतों में जन-जागरण के सुर झलकते हैं। संगीत उनके लिए एक हथियार की तरह था जिससे वो समाज में क्रांति की लहर पैदा करना चाहते थे। सलिलदा के व्यक्तित्व को जानने के लिए उनके बनाये इस तरह के जोशीले गीतों को सुनना बेहद ज़रूरी हो जाता है। दृढ़ राजनैतिक विचारों और सामाजिक कर्तव्यों के प्रति जागरूक होने की वजह से उनका संगीत उस ज़माने के दूसरे संगीतकारों से बिल्कुल अलग हुआ करता था। फ़िल्म 'दो बीघा ज़मीन' मे भी उन्होने इस तरह के कम से कम दो गीत हमें दिये हैं। एक तो है "धरती कहे पुकार के मौसम बीता जाये" और दूसरा गीत है "हरियाला सावन ढोल बजाता आया", और यही दूसरा गीत आज सुनिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। गीतकार शैलेन्द्र भी 'इपटा' के सक्रीय सदस्य थे। सलिलदा के समाज में क्रांति पैदा करने वाले संगीत को अपने जोशीले असरदार बोलों से इस फ़िल्म में समृद्ध किया शैलेन्द्र ने। मन्ना डे, लता मंगेशकर, और साथियों की आवाज़ों में किसान परिवारों के उत्साह भरे इस गीत को सुनिए और गरमी के इस मौसम में सावन को जल्द से जल्द आने का न्योता दीजिए।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. राज कुमार और माला सिन्हा अभिनीत इस फिल्म में संगीत है सी रामचंद्र का.
२. परवेज़ शम्सी ने लिखा है ये मधुर युगल गीत.
३. मुखड़े में शब्द है - "कहानी".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
बहुत दिनों बाद दिलीप जी के सर बंधा है विजेता का ताज. बधाई हो दिलीप जी और पराग जी आपको भी बधाई सही गीत पहचाना

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



Sunday, May 24, 2009

सफल 'हुई' तेरी आराधना - अंतिम कडी



अब तक आपने पढ़ा -

आनंद आश्रम से शुरू हुआ सफ़र...., हावड़ाब्रिज से कश्मीर की कली तक... ,रोमांटिक फिल्मों के दौर में आराधना की धूम..., और अमर प्रेम, अजनबी और अनुराग जैसी कामियाब फिल्मों का सफ़र अब पढें आगे....


शक्ति सामंत को समर्पित 'आवाज़' की यह प्रस्तुति "सफल हुई तेरी आराधना" एक प्रयास है शक्तिदा के 'फ़िल्मोग्राफी' को बारीक़ी से जानने का और उनके फ़िल्मों के सदाबहार 'हिट' गीतों को एक बार फिर से सुनने का। पिछले अंक में हमने ज़िक्र किया था १९७४ की फ़िल्म 'अजनबी' का। आइए अब आगे बढ़ते हैं और क़दम रखते हैं सन १९७५ में। यह साल भी शक्तिदा के लिए एक महत्वपूर्ण साल रहा, इसी साल आयी फ़िल्म 'अमानुष' जिसका निर्माण व निर्देशन दोनो ही उन्होने किया। पहली बार बंगला के सर्वोत्तम नायक उत्तम कुमार को लेकर उन्होने यह फ़िल्म बनायी, साथ में थीं उनकी प्रिय अभिनेत्री शर्मिला। इसी फ़िल्म के बारे में बता रहे हैं ख़ुद शक्तिदा - "१९७२ में कलकत्ता में 'नक्सालाइट' का बहुत ज़्यादा 'प्राबलेम' शुरु हो गया था। कलकत्ता फ़िल्म इंडस्ट्री का बुरा हाल था। उससे पहले उत्तमदा ने एक 'पिक्चर' यहाँ बनाई थी 'छोटी सी मुलाक़ात' जो शायद अच्छी नहीं चली थी, या जो भी थी, 'He couldn't establish himself yet'। तो एक दिन रात को उन्होने ऐसे ही कह दिया कि 'क्या मैं दोबारा यहाँ पे आ नहीं सकता हूँ?' मैने कहा 'ज़रूर, मैं आपको लेकर एक 'पिक्चर' बनाउँगा'। तो मैने सोचा कि यह बंगला 'पिक्चर' है तो ज़्यादातर 'आर्टिस्ट्स' वहीं के ले लूँ। कुछ यहाँ के 'आर्टिस्ट्स' को छोड़कर सब वहाँ के 'आर्टिस्ट्स' को मैने लिया। और भगवान की दया से वह पिक्चर भी चल पड़ी।"

'अमानुष' फ़िल्म की 'शूटिंग भी रोमांच से भरा हुआ था। इस फ़िल्म को 'शूट' करने के लिए शक्तिदा अपनी पूरी टीम को लेकर बंगाल के सामुद्रिक इलाके 'सुंदरबन' गए जो 'रायल बेंगाल टाइगर' के लिए प्रसिद्ध है। पूरी टीम के लिए वह एक अविस्मरणीय यात्रा रही। वहाँ पर सिर्फ़ एक ऐसी जगह थी जहाँ शेर नहीं आ सकते थे। एक छोटा सा द्वीप जिसके चारों तरफ़ सिर्फ़ पानी ही पानी। वहाँ पर १५० लोगों के रहने लायक तंबू लगाये गये थे और 'मोटर बोट्स' की सहायता से सामानों का आवाजाही हो रहा था। उन लोगों ने साफ़ देखा की पानी में छोटी छोटी 'शार्क' मछलियाँ तैर रही हैं। इसलिए उन्हे यह निर्देश था कि कोई भी पानी में ना उतरें। साथ ही यह भी बताया गया था कि रात में कोई तंबू से बाहर ना निकले, यहाँ तक कि हाथ भी तंबू से बाहर ना निकालें क्युंकि एक ताज़े माँस के टुकड़े के लिए ख़ूंखार शेर पानी में डुबकी लगाए छुपे होते हैं। 'अमानुष' के शुरुआती दिनों में शक्तिदा उत्तम कुमार के घर ख़ूब जाया करते थे। उन्ही के घर पर वो गायक संगीतकार श्यामल मित्रा से मिले, और वहीं पर उन्होने श्यामलदा से निवेदन किया कि वो इस फ़िल्म के गीतों को स्वरबद्ध करें। श्यामल मित्रा इस बात पर राज़ी हुए कि गीतों के बोल अच्छे स्तर के होने चाहिए।

गीत: दिल ऐसा किसी ने मेरा तोड़ा (अमानुष)


'अमानुष' फ़िल्म में गीत लिखे थे इंदीवर साहब ने। कितनी अजीब बात है कि 'अमानुष' के इस 'हिट' गीत के लिए गीतकार इंदीवर और गायक किशोर कुमार को 'फ़िल्म-फ़ेयर अवार्ड' से सम्मानित किया गया, लेकिन संगीतकार श्यामल मित्रा वंचित रह गये। ख़ुशी फिर भी इस बात की रही कि हिंदी फ़िल्मों के पहली ब्रेक में ही उन्होने अपार सफलता हासिल की। हिंदी फ़िल्मों में आने से पहले वे बंगाल के जानेमाने गायक और संगीतकार बन चुके थे। फ़िल्म 'अमानुष' में इस तरह के असाधारण गाने लिखने के बाद शक्तिदा इंदीवर साहब के 'फ़ैन' बन गए। लेकिन क्या आपको पता है कि इंदीवर का लिखा कौन सा गाना शक्तिदा को सबसे ज़्यादा पसंद था? वह गीत था १९५४ की फ़िल्म 'बादबान' का। यह गीत सुनने से पहले आपको यह भी बता दें कि इस फ़िल्म के संवाद और स्क्रीनप्ले शक्तिदा ने ख़ुद लिखे थे जो उन दिनो निर्देशक फणी मजुमदार के सहायक के रूप में काम कर रहे थे बौम्बे टाकीज़ में। बौम्बे टाकीज़ की आर्थिक अवस्था बहुत ख़राब हो चुकी थी। यह फ़िल्म इस कंपनी में काम करने वाले मज़दूरों के लिए बनाई गयी थी, जिसके लिए किसी भी कलाकार ने कोई पैसे नहीं लिए। अशोक कुमार, देव आनंद, लीला चिटनिस, उषा किरन जैसे कलाकारों ने इस फ़िल्म में काम किया था। संगीतकार थे तिमिर बरन और एस. के पाल। अभी उपर इंदीवर के लिखे जिस गीत का ज़िक्र हम कर रहे थे, उसे गाया था गीता दत्त ने, और एक वर्ज़न हेमन्त कुमार की आवाज़ में भी था। सुनिए गीताजी की वेदना भरी आवाज़ में "कैसे कोई जीये ज़हर है ज़िंदगी"।

गीत: कैसे कोई जियें ज़हर है ज़िंदगी (बादबान)


अमानुष के बाद ७० के दशक के आख़िर के चंद सालों में भी शक्तिदा के फ़िल्मों का जादू वैसा ही बरक़रार रहा। निर्माता-निर्देशक के रूप मे १९७७ मे उनकी फ़िल्म आयी 'आनंद आश्रम' जो 'अमानुष' की ही तरह बंगाल के पार्श्वभूमि पर बनाया गया था। इस फ़िल्म का निर्माण बंगला में भी किया गया था, और इस फ़िल्म मे भी उत्तम कुमार और शर्मिला टैगोर ने अभिनय किया था। बतौर निर्माता, शक्तिदा ने १९७६ मे फ़िल्म 'बालिका बधु' का निर्माण किया, जिसका एक बार फिर बंगाल की धरती से ताल्लुख़ था। शरतचंद्र की बंगला उपन्यास पर आधारित इस फ़िल्म को निर्देशित किया था तरु मजुम्दार ने और फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे सचिन और रजनी शर्मा। गाने लिखे आनंद बक्शी ने और संगीत दिया राहुल देव बर्मन ने। इस फ़िल्म मे आशा भोसले, मोह्द रफ़ी, किशोर कुमार, अमित कुमार और चंद्राणी मुखर्जी ने तो गीत गाये ही थे, ख़ास बात यह है कि इस फ़िल्म मे आनद बक्शी, आर.डी. बर्मन और उनके सहायक और गायक सपन चक्रवर्ती ने भी गानें गाये, और वह भी अलग अलग एकल गीत। इस फ़िल्म का मशहूर होली गीत हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' मे आपको सुनवा ही चुके हैं। बतौर निर्देशक, शक्तिदा ने १९७६ मे 'महबूबा', १९७७ में 'अनुरोध' और १९७९ मे 'दि ग्रेट गैम्बलर' जैसी सफल फ़िल्मों का निर्देशन किया। ये सभी फ़िल्में अपने ज़माने की सुपरहिट फ़िल्में रहीं हैं। वह दौर ऐसा था दोस्तों कि सफल फ़िल्में कहें या शक्तिदा की फ़िल्में कहें, मतलब एक ही निकलता था।

गीत: आप के अनुरोध पे मैं यह गीत सुनाता हूँ (अनुरोध)


८० के दशक के आते आते फ़िल्मों का मिज़ाज बदलने लगा था। कोमलता फ़िल्मों से विलुप्त होती जा रही थी और उनकी जगह ले रहा था 'ऐक्शन' फ़िल्में। बावजूद इस बदलती मिज़ाज के, शक्तिदा ने अपना वही अंदाज़ बरक़रार रखा। इस दशक मे जिन हिंदी फ़िल्मों के वो निर्माता-निर्देशक बने, वो फ़िल्में थीं 'बरसात की एक रात', 'अय्याश', और 'आर-पार'। इन फ़िल्मों के अलावा उन्होने 'आमने सामने', 'मैं आवारा हूँ', 'पाले ख़ान' और 'आख़िरी बाज़ी' जैसी फ़िल्मों का निर्माण किया, तथा 'ख़्वाब', 'आवाज़', और 'अलग अलग' जैसी फ़िल्मों का निर्देशन भी किया। ९० के दशक मे 'गीतांजली' फ़िल्म के वो निर्माता-निर्देशक रहे, तथा 'आँखों में तुम हो' का निर्माण किया व 'दुश्मन' का निर्देशन किया।

शक्ति दा आज इतनी दूर चले गये हैं लेकिन जो काम वो कर गये हैं, उसकी लौ हमेशा नयी पीढ़ी को राह दिखाती रहेगी, नये फ़िल्मकारों को अच्छी फ़िल्में बनाने की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी। दूसरे शब्दों में उनकी आराधना ज़रूर सफल होगी। चलते चलते उनकी फ़िल्म 'आनंद आश्रम' के शीर्षक गीत का मुखड़ा याद आ रहा है "सफल वही जीवन है, औरों के लिए जो अर्पण है"। शक्तिदा ने भी अपना पूरा जीवन फ़िल्म जगत को और पूरे समाज को सीख देनेवाली अच्छी अच्छी फ़िल्में देते हुए गुज़ार दिये। शक्तिदा को हिंद युग्म की तरफ़ से भावभीनी श्रद्धाजंली।

५ अंकों के इस पूरे आलेख को तैयार करने में विविध भारती के निम्नलिखित कार्यक्रमों से जानकारियाँ बटोरी गयीं:

१. युनूस ख़ान द्वारा प्रस्तुत शक्तिदा को श्रद्धांजलि - "सफल होगी तेरी आराधना"
२. कमल शर्मा से की गयी शक्तिदा की लम्बी बातचीत - "उजाले उनकी यादों के"
३. शक्तिदा द्वारा प्रस्तुत फ़ौजी भाइयों के लिए "विशेष जयमाला" कार्यक्रम


प्रस्तुति: सुजॉय चटर्जी
समाप्त




गैरों के शे'रों को ओ सुनने वाले हो इस तरफ भी करम...दर्द में डूबी किशोर की सदा..



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 90

'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ९०-वीं कड़ी में हम आप सभी का इस्तकबाल करते हैं। कल इस स्तंभ के अंतर्गत आपने सुना था कवि नीरज की रचना 'नयी उमर की नयी फ़सल' फ़िल्म से। नीरज जैसे अनूठे गीतकार का लिखा केवल एक गीत सुनकर यक़ीनन दिल नहीं भरता, इसीलिए हमने यह तय किया कि एक के बाद एक दो गानें आपको नीरजजी के लिखे हुए सुनवाया जाए। अत: आज भी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में गूँजनेवाली है नीरज की एक फ़िल्मी रचना। जैसा कि कल हमने आपको बताया था कि नीरज ने सबसे ज़्यादा फ़िल्मी गीत संगीतकार सचिन देव बर्मन के लिए लिखे हैं। तो आज क्यों ना बर्मन दादा के लिए उनका लिखा गीत आपको सुनवाया जाए! १९७१ में आयी थी फ़िल्म 'गैम्बलर' 'अमरजीत प्रोडक्शन्स' के बैनर तले। देव आनंद और ज़हीदा अभिनीत इस फ़िल्म के गाने बहुत बहुत चले और आज भी चल रहे हैं। ख़ास कर लता-किशोर का गाया "चूड़ी नहीं ये मेरा दिल है" गीत को चूड़ियों पर बने तमाम गीतों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय माना जाता है। लेकिन आज हम इस गीत को यहाँ नहीं बजा रहे हैं बल्कि इसी फ़िल्म का एक ग़मज़दा नगमा लेकर आये हैं किशोरदा की आवाज़ में। "दिल आज शायर है ग़म आज नग़मा है" किशोरदा के श्रेष्ठ दर्दीले गीतों में गिना जाता है और उनके दर्द भरे गीतों के बहुत से सी.डी, कैसेट और रिकार्ड्स पर इस गीत को शामिल किया गया है।

देव आनंद पर फ़िल्माये गये इस गीत की 'सिचुयशन' बहुत ही साधारण सी था, वही नायक नायिका में ग़लतफ़हमी, और फिर एक 'पार्टी' और उसमें नायक का 'पियानो' पर बैठकर दर्द भरा गीत गाना। लेकिन नीरज, बर्मन दादा और किशोरदा ने इस साधारण 'सिचुयशन' को अपने इस असाधारण गीत के ज़रिए अमर बना दिया है। किशोर कुमार की आवाज़ वह आवाज़ है जो वक़्त को रोक कर इंसान को मजबूर कर देती है उसे सुनने के लिए। यह आवाज़ हँसी तो सबको इतना हँसाया कि पेट में बल पड़ जाए, और जब उदास हुई तो सुननेवालों के जख्मों पर जैसे मरहम लगा दिया। किसी उदास दिल को किसी का कान्धा नहीं मिला तो इसी आवाज़ ने उसे कान्धा देकर उसका ग़म दूर कर दिया। जीवन के हर रंग से रंगी यह आवाज़ सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही हो सकती है, हमारे प्यारे किशोरदा की। हमेशा मुस्कुरानेवाले इस चेहरे के पीछे एक तन्हा दिल भी था जो उनके दर्द भरे गीतों से छलक पड़ता और सुननेवालों को रुलाये बिना नहीं छोड़ता। आज के इस गीत में भी कुछ इसी तरह का रंग है, सुनिए...



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. विमल राय की इस क्लासिक में था ये बेहद मशहूर समूहगान.
२. सावन की आहट पर कान धरे लोक गीतों की मधुर धुन है सलिल दा के संगीत की.
३. मुखड़े में शब्द है -"ढोल".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
इस बार मनु जी आपका तुक्का सही ही निकला ...बधाई....शरद जी और तपन जी थोड़े देर से आये पर सही जवाब भी लाये, शोभा जी को गीत पसंद आया जानकार ख़ुशी हुई.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



Saturday, May 23, 2009

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (6)



रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत के नए अंक में आपका स्वागत है. आज जो गीत मैं आपके लिए लेकर आया हूँ वो बहाना है अपने एक पसंदीदा संगीतकार के बारे आपसे कुछ गुफ्तगू करने का. "फिर छिडी रात बात फूलों की..." जी हाँ इस संगीतकार की धुनों में हम सब ने हमेशा ही पायी है ताजे फूलों सी ताजगी और खुशबू भी.

१९५२-५३ के आस पास आया एक गीत -"शामे गम की कसम...". इस गीत में तबला और ढोलक आदि वाध्य यंत्रों के स्थान पर स्पेनिश गिटार और इबल बेस से रिदम लेना का पहली बार प्रयास किया गया था. और ये सफल प्रयोग किया था संगीतकार खय्याम ने. खय्याम साहब फिल्म इंडस्ट्री के उन चंद संगीतकारों में से हैं जिन्होंने गीतों में शब्दों को हमेशा अहमियत दी. उन्होंने ऐसे गीतकारों के साथ ही काम किया जिनका साहित्यिक पक्ष अधिक मजबूत रहा हो. आप खय्याम के संगीत कोष में शायद ही कोई ऐसा गीत पायेंगें जो किसी भी मायने में हल्का हो. फिल्म "शोला और शबनम" के दो गीत मुझे विशेष पसंद हैं - "जाने क्या ढूंढती रहती है ये ऑंखें मुझे में..." और "जीत ही लेंगें बाज़ी हम तुम...". राज कपूर और माला सिन्हा अभिनीत फिल्म "फिर सुबह होगी" के उन यादगार गीतों को भला कौन भूल सकता है -"चीनो अरब हमारा...", "आसमान पे है खुदा..." और इस फिल्म का शीर्षक गीत साहिर और खय्याम को जोड़ी के अनमोल मोती हैं. वो रफी साहब का गाया "है कली कली के लब पर..." हो या लता के जादूई स्वरों में वो खनकती सदा "बहारों मेरा जीवन भी संवारों..." खय्याम साहब के संगीत में सचमुच इतनी मधुरता इतना नयापन था कि शायद इन गीतों को लोग आज से सौ सालों बाद भी सुनेंगें तो भी इतना ही मधुर और नया ही पायेंगें.

खय्याम का मूल नाम सआदत हुसैन था. उन्होंने संगीत की तालीम पंडित अमरनाथ जी से हासिल की. ७० के दशक में व्यावसायिक रूप से उन्हें एक बड़ी सफलता मिली यश चोपडा की फिल्म "कभी कभी" से. इस फिल्म के गीतकार भी साहिर ही थे. यश जी के अलावा उनकी प्रतिभा का सही इस्तेमाल किया निर्देशक कमाल अमरोही साहब ने. "शंकर हुसैन" नाम की फिल्म के वो यादगार गीत भला कौन भूल सकता है , -"कहीं एक नाज़ुक...", "आप यूँ फासलों से..." और "आपने आप रातों में...". क्या लाजवाब गीत हैं ये. नूरी, बाज़ार, त्रिशूल , थोडी सी बेवफाई, और उमराव जान जैसी फिल्मों में उनका संगीत बेमिसाल है. "ये क्या जगह है दोस्तों...." "इन आँखों की मस्ती के..." जैसी ग़ज़लें फिल्म संगीत के खजाने की अनमोल धरोहर हैं. ग़ज़लों के बारे में खुद खय्याम साहब ने एक बार फ़रमाया था -"ग़ज़ल बड़ी हसीं और नाज़ुक चीज़ है. यहाँ भी मैंने ट्रडिशनल ग़ज़ल से हटकर कुछ कहने की कोशिश की. शायर ने क्या कहा है शेर के किस लफ्ज़ पर स्ट्र्स देना है. छोटी छोटी तान मुरकी हो लेकिन शेर खराब न हो आदि ख़ास मुद्दों पर ध्यान दिया.ग़ज़ल जैसी हसीं चीज़ में "क्रूड" ओर्केस्ट्रा का इस्तेमाल ज़रूरी नहीं इसलिए मैंने सितार, सारंगी, बांसुरी, तानपुरा स्वरमंडल के साथ धुनें बांधी.".

खय्याम साहब ने बहुत कम फिल्मों में काम किया है पर जितना भी किया गजब का किया. गैर फ़िल्मी संगीत का भी एक बड़ा खजाना है खय्याम के सुर संसार में. इन पर हम महफिले-ग़ज़ल में हम विस्तार से चर्चा करते रहेंगें. आज तो हम आपके लिए कुछ और लेकर आये हैं. उपर दी गयी सूची में यदि आप गौर से देखें तो एक नाम "मिस्सिंग" है. वैसे तो जानकार उमराव जान को उनका सबसे बेहतर काम मानते हैं पर व्यक्तिगत तौर पर मुझे उनके "रजिया सुलतान" के गाने सबसे अधिक पसंद हैं. कोई ख़ास कारण नहीं है, क्योंकि खय्याम साहब के लगभग सभी गीत मेरे प्रियकर हैं, पर पता नहीं क्यों रजिया सुलतान के गीतों में एक अलग सा ही नशा मिलता है, हर बार जब भी इन्हें सुनता हूँ. लता जी की दिव्य आवाज़ के अलावा एक "चमकती हुई तलवार" सी आवाज़ भी है इन गीतों में, जी हाँ आपने सही पहचाना- ये हैं कब्बन मिर्जा साहब.

कब्बन मिर्जा साहब मुंबई ऑल इंडिया रेडियो से जुड़े हुए थे, जब कमाल अमरोही साहब ने उन्हें रजिया सुलतान में गायक चुना. पर जाने क्या वजह रही कि कब्बन के बहुत अधिक गीत उसके बाद नहीं सुनने को मिले. बहरहाल रजिया सुलतान में उनके गाये दोनों ही गीत संगीत प्रेमियों के जेहन में हमेशा ताजे रहेंगे. रजिया सुलतान के "ए दिले नादान" और "जलता है बदन" तो आप अक्सर सुनते ही रहते हैं. आज सुनिए कब्बन मिर्जा की आवाज़ में वो दो गीत जो कहीं रेडियो आदि पर भी बहुत कम सुनने को मिलता है. "आई जंजीर की झंकार..." और "तेरा हिज्र मेरा नसीब है...." दो ऐसे गीत हैं, जो कलेजे को चीर कर गुजर जाते हैं. उस पर कब्बन की आवाज़ जैसे दूर सहराओं से कोई दिल निकालकर सदा दे रहा हो. एक और गीत है इसी फिल्म में लता की आवाज़ में "ख्वाब बन कर कोई आएगा तो नीद आयेगी...." वाह...क्या नाज़ुक मिजाज़ है....बिलकुल वैसे ही है इस गीत का संयोजन जैसा कि "कहीं एक नाज़ुक सी लड़की..." का है. कोई भी वाध्य अतिरिक्त नहीं. सब कुछ नापा तुला....और भी दो गीत हैं इस फिल्म में जो यकीनन आपने बहुत दिनों से नहीं सुना होगा. दोनों ही उत्तर भारत के लोक धुनों पर आधारित विवाह के गीत हैं -"हरियाला बन्ना आया रे..." और "ए खुदा शुक्र तेरा...शुक्र तेरा..".

तो चलिए दोस्तों इस रविवार सुबह की कॉफी का आनंद खय्याम साहब और कब्बन मिर्जा के साथ लें, फिल्म रजिया सुलतान के इन गीतों को सुनकर -

आई ज़ंजीर की झंकार....(कब्बन मिर्जा)


तेरा हिज्र मेरा नसीब है...(कब्बन मिर्जा)


ख्वाब बन कर कोई आएगा... (लता)


ए खुदा शुक्र तेरा...


हरियाला बन्ना आया रे...




"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.


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