रेडियो प्लेबैक वार्षिक टॉप टेन - क्रिसमस और नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित


ComScore
प्लेबैक की टीम और श्रोताओं द्वारा चुने गए वर्ष के टॉप १० गीतों को सुनिए एक के बाद एक. इन गीतों के आलावा भी कुछ गीतों का जिक्र जरूरी है, जो इन टॉप १० गीतों को जबरदस्त टक्कर देने में कामियाब रहे. ये हैं - "धिन का चिका (रेड्डी)", "ऊह ला ला (द डर्टी पिक्चर)", "छम्मक छल्लो (आर ए वन)", "हर घर के कोने में (मेमोरीस इन मार्च)", "चढा दे रंग (यमला पगला दीवाना)", "बोझिल से (आई ऍम)", "लाईफ बहुत सिंपल है (स्टैनले का डब्बा)", और "फकीरा (साउंड ट्रेक)". इन सभी गीतों के रचनाकारों को भी प्लेबैक इंडिया की बधाईयां

Wednesday, June 30, 2010

किसी राह में, किसी मोड पर....कहीं छूटे न साथ ओल्ड इस गोल्ड के हमारे हमसफरों का



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 429/2010/129

ल्याणजी-आनंदजी के सुर लहरियों से सजी इस लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर' में आज छा रहा है शास्त्रीय रंग। इसे एक रोचक तथ्य ही माना जाना चाहिए कि तुलनात्मक रूप से कम लोकप्रिय राग चारूकेशी पर कल्याणजी-आनंदजी ने कई गीत कम्पोज़ किए हैं जो बेहद कामयाब सिद्ध हुए हैं। चारूकेशी के सुरों को आधार बनाकर "छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए" (सरस्वतीचन्द्र), "मोहब्बत के सुहाने दिन, जवानी की हसीन रातें" (मर्यादा), "किसी राह में किसी मोड़ पर (मेरे हमसफ़र), "अकेले हैं चले आओ" (राज़), "एक तू ना मिला" (हिमालय की गोद में), "कभी रात दिन हम दूर थे" (आमने सामने), "बेख़ुदी में सनम उठ गए जो क़दम" (हसीना मान जाएगी), "जानेजाना, जब जब तेरी सूरत देखूँ" (जाँबाज़) जैसे गीतों की याद कल्याणजी-आनंदजी के द्वारा इस राग के विविध प्रयोगों के उदाहरण के रूप में फ़िल्म संगीत में जीवित रहेगी। चारूकेशी का इतना व्यापक व विविध इस्तेमाल शायद ही किसी और संगीतकार ने किया होगा! दूसरे संगीतकारों के जो दो चार गानें याद आते हैं वो हैं लक्ष्मी-प्यारे के "आज दिल पे कोई ज़ोर चलता नहीं" (मिलन), "मेघा रे मेघा रे मत परदेस जा रे" (प्यासा सावन), मदन मोहन का "बै‍याँ ना धरो हो बलमा" (दस्तक), और रवीन्द्र जैन का "श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम" (गीत गाता चल)। ऒरकेस्ट्रेशन भले ही पाश्चात्य हो, लेकिन उस पर भी शास्त्रीय रागों के इस्तेमाल से मेलोडी में इज़ाफ़ा करने से कल्याणजी-आनंदजी कभी नहीं पीछे रहे। उनका हमेशा ध्यान रहा कि गीत मेलोडियस हो, सुमधुर हो, और शायद यही कारण है कि उनके बनाए गीतों की लोकप्रियता आज भी वैसे ही बरकरार है जैसा कि उस ज़माने में हुआ करता था। उनका संगीत मास और क्लास, दोनों को ध्यान में रखते हुए बनाया जाता रहा है। दोस्तों, आज हम राग चारूकेशी पर आधारित १९७० की फ़िल्म 'मेरे हमसफ़र' का गीत सुनने जा रहे हैं "किसी राह में किसी मोड़ पर, कहीं चल ना देना तू छोड़ कर, मेरे हमसफ़र मेरे हमसफ़र"। लता मंगेशकर और मुकेश की आवाज़ें, गीतकार आनंद बक्शी के बोल! जीतेन्द्र और शर्मीला टैगोर पर एक ट्रक के उपर फ़िल्माया गया था यह गाना। फ़िल्म तो ख़ास नहीं चली, लेकिन यह गीत अमर हो कर रह गया।

आज ३० जून है। कल्याणजी भाई का जन्मदिवस। 'हिंद-युग्म' की तरफ़ से हम कल्याणजी भाई को श्रद्धांजली अर्पित करते हैं उन्ही के रचे इस ख़ूबसूरत और दिल को छू लेने वाले गीत के ज़रिए। कल्याणजी भाई का २४ अगस्त २००० में निधन हो गया, आनंदजी भाई के बड़े भाई और उनके सुरीले हमसफ़र उनसे हमेशा के लिए बिछड़ गए। लेकिन यह भी सच है कि कल्याणजी भाई अपनी धुनों के ज़रिए हमेशा जीवित रहेंगे। आनंदजी भाई ने कल्याणजी भाई के अंतिम समय का हाल कुछ इस तरह से बयान किया था विविध भारती के उसी इंटरव्यू में - "फ़ादर फ़िगर थे। सब से दुख की बात मुझे लगती है कि ये जब बीमार थे, अस्पताल में मैं उनसे मिलने गया। तो अक्सर ऐसा होता है कि मिलने नहीं देते हैं; डॊक्टर्स कहते हैं कि इनको रेस्ट करने दो, समझते नहीं हैं इस बात को कि आख़िरी टाइम जो होता है। तो जाने से पहले आख़िरी दिन, जब मैं उनसे मिलने अंदर गया, तो उनकी आँख में आँसू थे और वो कुछ बोलना चाहते थे। अब क्या कहना चाहते थे यह समझ में नहीं आया। डॊक्टर कहने लगे कि 'dont disturb him, dont disturb him'. मुझे समझ में नहीं आया कि क्या कहना चाहते थे। वह बात दिल में ही रह गई। उनके जाने के बाद मैं रो रहा था तो किसी ने कहा कि मत रो। मैंने कहा कि अब नहीं रो‍ऊँ तो कब रो‍ऊँ!" दोस्तों, कल्याणजी भाई इस फ़ानी दुनिया से जाकर भी हमारे बीच ही हैं अपनी कला के ज़रिए। आज का यह प्रस्तुत गीत हमें इसी बात का अहसास दिलाता है। यह गीत हम अपनी तरफ़ से ही नहीं बल्कि आनंदजी भाई की तरफ़ से भी डेडिकेट करना चाहेंगे उनके बड़े भाई, गुरु और हमसफ़र कल्याणजी भाई के नाम।

"तेरा साथ है तो है ज़िंदगी,
तेरा प्यार है तो है रोशनी,
कहाँ दिन ये ढल जाए क्या पता,
कहाँ रात हो जाए क्या ख़बर,

मेरे हमसफ़र, मेरे हमसफ़र।
किसी राह में किसी मोड़ पर,
कहीं चल ना देना तू छोड़ कर,
मेरे हमसफ़र, मेरे हमसफ़र।"



क्या आप जानते हैं...
कि कल्याणजी-आनंदजी को १९९६ में फ़िल्म जगत में विशिष्ट सेवाओं के लिए मध्य प्रदेश सरकार द्वारा प्रदत्त 'लता मंगेशकर पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस गीत के दो वर्जन हैं फिल्म में, एक आशा की आवाज़ में है, दूसरे वर्जन जो कल बजेगा उसके गायक बताएं -३ अंक.
२. गीतकार बताएं इस शानदार गीत के - २ अंक.
३. संजय दत्त अभिनीत फिल्म का नाम बताएं - २ अंक.
४. फिल्म की नायिका का नाम क्या है - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी आपके ३ अंकों का त्याग भी काम नहीं आया, खैर आपको और अवध जी को २-२ अंकों की बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Tuesday, June 29, 2010

हमने काटी हैं तेरी याद में रातें अक्सर.. यादें गढने और चेहरे पढने में उलझे हैं रूप कुमार और जाँ निसार



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९०

"जाँ निसार अख्तर साहिर लुधियानवी के घोस्ट राइटर थे।" निदा फ़ाज़ली साहब का यह कथन सुनकर आश्चर्य होता है.. घोर आश्चर्य। पता करने पर मालूम हुआ कि जाँ निसार अख्तर और निदा फ़ाज़ली दोनों हीं साहिर लुधियानवी के घर रहा करते थे बंबई में। अब अगर यह बात है तब तो निदा फ़ाज़ली की कही बातों में सच्चाई तो होनी हीं चाहिए। कितनी सच्चाई है इसका फ़ैसला तो नहीं किया जा सकता लेकिन "नीरज गोस्वामी" जी के ब्लाग पर "जाँ निसार" साहब के संस्मरण के दौरान इन पंक्तियों को देखकर निदा फ़ाज़ली के आरोपों को एक नया मोड़ मिल जाता है - "जांनिसार साहब ने अपनी ज़िन्दगी के सबसे हसीन साल साहिर लुधियानवी के साथ उसकी दोस्ती में गर्क कर दिए. वो साहिर के साए में ही रहे और साहिर ने उन्हें उभरने का मौका नहीं दिया लेकिन जैसे वो ही साहिर की दोस्ती से आज़ाद हुए उनमें और उनकी शायरी में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ. उसके बाद उन्होंने जो लिखा उस से उर्दू शायरी के हुस्न में कई गुणा ईजाफा हुआ."

पिछली महफ़िल में "साहिर" के ग़मों और दर्दों की दुनिया से गुजरने के बाद उनके बारे में ऐसा कुछ पढने को मिलेगा.. मुझे ऐसी उम्मीद न थी। लेकिन क्या कीजिएगा.. कई दफ़ा कई चीजें उम्मीद के उलट चली जाती हैं, जिनपर आपका तनिक भी बस नहीं होता। और वैसे भी शायरों की(या किसी भी फ़नकार की) ज़िन्दगी कितनी जमीन के ऊपर होती हैं और कितनी जमीन के अंदर.. इसका पता आराम से नहीं लग पाता। जैसे कि साहिर सच में क्या थे.. कौन जाने? हम तो उतना हीं जान पाते हैं, जितना हमें मुहय्या कराया जाता है। और यह सही भी है.. हमें शायरों के इल्म से मतलब होना चाहिए, न कि उनकी जाती अच्छाईयों और खराबियों से। खैर........ हम भी कहाँ उलझ गए। महफ़िल जाँ निसार साहब को समर्पित है तो बात भी उन्हीं की होनी चाहिए।

निदा फ़ाज़ली जब उन शायरों का ज़िक्र करते हैं जो लिखते तो "माशा-अल्लाह" कमाल के हैं, लेकिन अपनी रचना सुनाने की कला से नावाकिफ़ होते हैं... तो वैसे शायरों में "जाँ निसार" साहब का नाम काफ़ी ऊपर आता है। निदा कहते हैं:

जाँ निसार नर्म लहज़े के अच्छे रूमानी शायर थे... उनके अक्सर शेर उन दिनों नौजवानों को काफ़ी पसंद आते थे। कॉलेज के लड़के-लड़कियाँ अपने प्रेम-पत्रों में उनका इस्तेमाल भी करते थे– जैसे,

दूर कोई रात भर गाता रहा
तेरा मिलना मुझको याद आता रहा

छुप गया बादलों में आधा चाँद,
रौशनी छन रही है शाखों से
जैसे खिड़की का एक पट खोले,
झाँकता है कोई सलाखों से

लेकिन अपनी मिमियाती आवाज़ में, शब्दों को इलास्टिक की तरह खेंच-खेंचकर जब वह सुनाते थे, तो सुनने वाले ऊब कर तालियाँ बजाने लगाते थे। जाँ निसार आखें बंद किए अपनी धुन में पढ़े जाते थे, और श्रोता उठ उठकर चले जाते थे.

अभी भी ऐसे कई शायर हैं जिनकी रचनाएँ कागज़ पर तो खुब रीझाती है, लेकिन उन्हें अपनी रचनाओं को मंच पर परोसना नहीं आता। वहीं कुछ शायर ऐसे होते हैं जो दोनों विधाओं में माहिर होते हैं.. जैसे कि "कैफ़ी आज़मी"। कैफ़ी आज़मी का उदाहरण देते हुए "निदा" कहते हैं:

कैफ़ी आज़मी, बड़े-बड़े तरन्नुमबाज़ शायरों के होते हुए अपने पढ़ने के अंदाज़ से मुशायरों पर छा जाते थे. एक बार ग्वालियर के मेलामंच से कैफी साहब अपनी नज़्म सुना रहे थे.

तुझको पहचान लिया
दूर से आने वाले,
जाल बिछाने वाले

दूसरी पंक्तियों में ‘जाल बिछाने वाले’ को पढ़ते हुए उनके एक हाथ का इशारा गेट पर खड़े पुलिस वाले की तरफ था. वह बेचारा सहम गया. उसी समय गेट क्रैश हुआ और बाहर की जनता झटके से अंदर घुस आई और पुलिसवाला डरा हुआ खामोश खड़ा रहा

मंच से कहने की कला आए ना आए, लेकिन लिखने की कला में माहिर होना एक शायर की बुनियादी जरूरत है। वैसे आजकल कई ऐसे कवि और शायर हो आए हैं, जो बस "मज़ाक" के दम पर मंच की शोभा बने रहते हैं। ऐसे शायरों की जमात बढती जा रही है। जहाँ पहले कैफ़ी आज़मी जैसे शायर मिनटों में अपनी गज़लें सुना दिया करते थे, वहीं आजकल ज्यादातर मंचीय कवि घंटों माईक के सामने रहते हुए भी चार पंक्तियाँ भी नहीं कह पाते, क्योंकि उन्हें बीच में कई सारी "फूहड़" कहानियाँ जो सुनानी होती हैं। पहले के शायर मंच पर अगर उलझते भी थे तो उसका एक अलग मज़ा होता था.. आजकल की तरह नहीं कि व्यक्तिगत आक्षेप किए जा रहे हैं। निदा ऐसे हीं दो महान शायरों की उलझनों का जिक्र करते हैं -

नारायण प्रसाद मेहर और मुज़्तर ख़ैराबादी, ग्वालियर के दो उस्ताद शायर थे.

मेहर साहब दाग़ के शिष्य और उनके जाँनशीन थे, मुज़्तर साहब दाग़ के समकालीन अमीर मीनाई के शागिर्द थे. दोनों उस्तादों में अपने उस्तादों को लेकर मनमुटाव रहता था, दोनों शागिर्दों के साथ मुशायरों में आते थे और एक दूसरे की प्रशंसा नहीं करते.


अब आप सोच रहे होंगे कि ये आज मुझे क्या हो गया है.. जाँ निसार अख्तर की बात करते-करते मैं ये कहाँ आ गया। घबराईये मत... "मेहर" साहब और "खैराबादी" साहब का जिक्र बेसबब नहीं।

दर-असल "खैराबदी" साहब कोई और नहीं जाँ निसार अख्तर के अब्बा थे और "मेहर" साहब "जाँ निसार" के उस्ताद..

जाँ निसार अख्तर किस परिवार से ताल्लुकात रखते थे- इस बारे में "विजय अकेला" ने "निगाहों के साये" किताब में लिखा है:

जाँ निसार अख्तर उस मशहूर-ओ-मारुफ़ शायर मुज़्तर खै़राबादी के बेटे थे जिसका नाम सुनकर शायरी किसी शोख़ नाज़नीं की तरह इठलाती है। जाँ निसार उस शायरी के सर्वगुण सम्पन्न और मशहूर शायर सय्यद अहमद हुसैन के पोते थे जिनके कलाम पढ़ने भर ही से आप बुद्धिजीवी कहलाते हैं। हिरमाँ जो उर्दू अदब की तवारीख़ में अपना स्थान बना चुकी हैं वे जाँ निसार अख़्तर की दादी ही तो थीं जिनका असल नाम सईदुन-निसा था। अब यह जान लीजिए कि हिरमाँ के वालिद कौन थे। वे थे अल्लामा फ़ज़ल-ए-हक़ खै़राबादी जिन्होंनें दीवान-ए-ग़ालिब का सम्पादन किया था और जिन्हें १८५७ के सिपाही-विद्रोह में शामिल होने और नेतृत्व करने के जुर्म में अंडमान भेजा गया था। कालापानी की सजा सुनाई गयी थी।

शायर की बेगम का नाम साफ़िया सिराज-उल-हक़ था, जिसका नाम भी उर्दू अदब में उनकी किताब ‘ज़ेर-ए-नज़र’ की वजह से बड़ी इज़्ज़त के साथ लिया जाता है। और साफ़िया के भाई थे मजाज़। उर्दू शायरी के सबसे अनोखे शायर। आज के मशहूर विचारक डॉ. गोपीचन्द्र नारंग ने तो इस ख़ानदान के बारें में यहाँ तक लिख दिया है कि इस खा़नदान के योगदान के बग़ैर उर्दू अदब की तवारीख़ अधूरी है।

जाँ निसार अख्तर न सिर्फ़ गज़लें लिखते थे, बल्कि नज़्में ,रूबाईयाँ और फिल्मी गीत भी उसी जोश-ओ-जुनून के साथ लिखा करते थे। फिल्मी गीतों के बारे में तो आपने "ओल्ड इज गोल्ड" पर पढा हीं होगा, इसलिए मैं यहाँ उनकी बातें न करूँगा। एक रूबाई तो हम पहले हीं पेश कर चुके हैं, इसलिए अब नज़्म की बारी है। मुझे पूरा यकीन है कि आपने यह नज़्म जरूर सुनी होगी, लेकिन यह न जानते होंगे कि इसे "जां निसार" साहब ने हीं लिखा था:

एक है अपना जहाँ, एक है अपना वतन
अपने सभी सुख एक हैं, अपने सभी ग़म एक हैं
आवाज़ दो हम एक हैं.


इस शायर के बारे में क्या कहूँ और क्या अगली कड़ी के लिए रख लूँ कुछ भी समझ नहीं आ रहा। फिर भी चलते-चलते ये दो शेर तो सुना हीं जाऊँगा:

अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शे’र फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं

सोचो तो बड़ी चीज़ है तहजीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं


"जाँ निसार" साहब के बारे में और भी कुछ जानना हो तो यहाँ जाएँ। वैसे इतना तो आपको पता हीं होगा कि "जाँ निसार अख्तर" आज के सुविख्यात शायर और गीतकार "जावेद अख्तर" के पिता थे।

आज के लिए इतना हीं काफ़ी है। तो अब रूख करते हैं आज की गज़ल की ओर। आज जो गज़ल लेकर हम आप सब के बीच हाज़िर हुए हैं उसे तरन्नुम में सजाया है "रूप कुमार राठौड़" ने। लीजिए पेश-ए-खिदमत है यह गज़ल, जिसमें यादें गढने और चेहरे पढने की बातें हो रही हैं:

हमने काटी हैं तेरी याद में रातें अक्सर
दिल से गुज़री हैं सितारों की बरातें अक्सर

और तो कौन है जो मुझको ______ देता
हाथ रख देती हैं दिल पर तेरी बातें अक्सर

हम से इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर

उनसे पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुमने
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "दामन" और शेर कुछ यूँ था-

बस अब तो मेरा दामन छोड़ दो बेकार उम्मीदो
बहुत दुख सह लिये मैंने बहुत दिन जी लिया मैंने

पिछली बार की महफ़िल-ए-गज़ल की शोभा बनीं शन्नो जी। महफ़िल में शन्नो जी और सुमित जी के बीच "गज़लों में दर्द की प्रधानता" पर की गई बातचीत अच्छी लगी। इसी वाद-विवाद में अवनींद्र जी भी शामिल हुए और अंतत: निष्कर्ष यह निकला कि बिना दर्द के शायरों का कोई अस्तित्व नहीं होता। शायर तभी लिखने को बाध्य होता है, जब उसके अंदर पड़ा दर्द उबलने की चरम सीमा तक पहुँच जाता है या फिर वह दर्द उबलकर "ज्वालामुखी" का रूप ले चुका होता है। "खुशियों" में तो नज़्में लिखी जाती हैं, गज़लें नहीं। महफ़िल में आप तीनों के बाद अवध जी के कदम पकड़े। अवध जी, आपने सही पकड़ा है... वह इंसान जो ज़िंदगी भर प्यार का मुहताज रहा, वह जीने के लिए दर्द के नगमें न लिखेगा तो और क्या करेगा। फिर भी ये हालत थी कि "दिल के दर्द को दूना कर गया जो गमखार मिला "। आप सबों के बाद अपने स्वरचित शेरों के साथ महफ़िल में मंजु जी और शरद जी आएँ जिन्होंने श्रोताओं का दामन दर्द और खलिश से भर दिया। आशीष जी का इस महफ़िल में पहली बार आना हमारे लिए सुखदायी रहा और उनकी झोली से शेरों की बारिश देखकर मन बाग-बाग हो गया। और अंत में महफ़िल का शमा बुझाने के लिए "नीलम" जी का आना हुआ, जो अभी-अभी आए नियमों से अनभिज्ञ मालूम हुईं। कोई बात-बात नहीं धीरे-धीरे इन नियमों की आदत पड़ जाएगी :)

ये रहे महफ़िल में पेश किए गए शेर:

जुल्म सहने की भी कोई इन्तहां होती है
शिकायतों से अपनी कोई दामन भर गया. (शन्नो जी)

आसुओ से ही सही भर गया दामन मेरा,
हाथ तो मैने उठाये थे दुआ किसकी थी (अनाम)

मेरे दामन तेरे प्यार की सौगात नहीं
तो कोई बात नही,तो कोई बात नही । (शरद जी)

काँटों में खिले हैं फूल हमारे रंग भरे अरमानों के
नादान हैं जो इन काँटों से दामन को बचाए जाते हैं. (शैलेन्द्र)

अपने ही दामन मैं लिपटा सोचता हूँ
आसमाँ पे कुछ नए गम खोजता हूँ (अवनींद्र जी)

तेरे आने से खुशियों का दामन चहक रहा ,
जाने की बात से दिल का आंगन छलक रहा . (मंजु जी)

कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला,
बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला,
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले,
देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला || (हरिवंश राय बच्चन)

दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्लाह
फिर चाहे दीवाना कर दे या अल्लाह (क़तील शिफ़ाई)

शफ़क़,धनुक ,महताब ,घटाएं ,तारें ,नगमे बिजली फूल
उस दामन में क्या -क्या कुछ है,वो दामन हाथ में आये तो (अनाम)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

ये मेरा दिल यार का दीवाना...जबरदस्त ऒरकेस्ट्रेशन का उत्कृष्ट नमूना है ये गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 428/2010/128

'दिल लूटने वाले जादूगर' - कल्याणजी-आनंदजी के धुनों से सजी इस लघु शृंखला में आज हम और थोड़ा सा आगे बढ़ते हुए पहुँच जाते हैं सन‍ १९७८ में। ७० के दशक के मध्य भाग से हिंदी फ़िल्मों का स्वरूप बदलने लगा था। नर्मोनाज़ुक प्रेम कहानियो से हट कर, ऐंग्री यंग मैन की इमेज हमारे नायकों को दिया जाने लगा। इससे ना केवल कहानियों से मासूमीयत ग़ायब होने लगी, बल्कि इसका प्रभाव फ़िल्म के गीतों पर भी पड़ा। क्योंकि गानें फ़िल्म के किरदार और सिचुयशन को केन्द्र में रखते हुए ही बनाए जाते हैं, ऐसे में गीतकारों और संगीतकारों को भी उसी सांचे में अपने आप को ढालना पड़ा। जो नहीं ढल सके, वो पीछे रह गए। कल्याणजी-आनंदजी एक ऐसे संगीतकार थे जिन्होने हर बदलते दौर को स्वीकारा और उसी के हिसाब से सगीत तैयार किया। और यही वजह है कि १९५८ में उनके गानें जितने लोकप्रिय हुआ करते थे, ८० के दशक में भी लोगों ने उनके गीतों को वैसे ही हाथों हाथ ग्रहण किया। हाँ, तो हम ज़िक्र कर रहे थे १९७८ के साल की। इस साल अमिताभ बच्चन की मशहूर फ़िल्म आई थी 'डॊन', जिसमें इस जोड़ी का संगीत था। सुपर स्टार नम्बर-१ पर पहुँचे अमिताभ बच्चन अभिनीत कई फ़िल्मों में संगीत देकर कल्याणजी-आनंदजी अपनी व्यावसायिक हैसीयत को आगे बढ़ाते रहे। बिग बी के साथ इस जोड़ी की कुछ माह्त्वपूर्ण फ़िल्मों के नाम गिनाएँ आपको? 'ज़ंजीर', 'डॊन', 'मुक़द्दर का सिकंदर', 'गंगा की सौगंध', 'ख़ून पसीना', 'लावारिस', आदि। वापस आते हैं 'डॊन' पर। किरदार और कहानी के हिसाब से इस फ़िल्म के गानें बनें और ख़ूब हिट भी हुए। अनजान के लिखे और किशोर दा के गाए "ख‍इ के पान बनारसवाला", "अरे दीवानों मुझे पहचानो", और "ई है बम्बई नगरीय तू देख बबुआ" जैसे गीतों ने तहलका मचा दिया चारों तरफ़। लता-किशोर का डुएट "जिसका मुझे था इंतेज़ार" भी काफ़ी सुना गया। लेकिन एक और गीत जिसका एक ख़ास और अलग ही मुक़ाम है, वह है आशा भोसले का गाया और हेलेन पर फ़िल्माया हुआ "ये मेरा दिल यार का दीवाना"। यह एक कल्ट सॊंग् है जिसकी चमक कुछ इस तरह की है कि आज ३० साल बाद भी वैसी की वैसी बरकरार है। ज़बरदस्त ऒरकेस्ट्रेशन से सजी यह गीत उस समय का सब से ज़्यादा पाश्चात्य रंग वाला गीत था। कल्याणजी-आनंदजी ने जिस तरह का संयोजन इस गाने में किया है कि इस गीत को बजाए बग़ैर आगे बढ़ने को दिल नहीं चाहता। आज की कड़ी में इसी गीत की धूम!

आशा भोसले और कल्याणजी-आनंदजी के शुरु शुरु में बहुत कम ही गानें आए। जैसा कि पंकज राग अपनी किताब 'धुनों की यात्रा' में (पृष्ठ संख्या ५५७) में लिखते हैं कि आशा के तो कल्याणजी-आनंदजी के साथ सातवें और आठवें दशक के म्ध्य तक कम ही उल्लेखनीय गीत हैं। आशा भोसले आश्चर्यजनक रूप से कल्यानजी-आनंदजी खेमे से गायब सी रही हैं। यदि लता नहीं उपलब्ध हुईं तो इन्होनें सुमन कल्याणपुर, गीता दत्त या फिर नई गायिकाओं जैसे कमल बारोट, उषा तिमोथी, हेमलता, कृष्णा कल्ले को मौका दिया, पर आशा को सातवें दशक के मध्य तक तो बिलकुल नहीं। इस तथ्य की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है, हालाँकि कारण सम्भवत: किसी निर्माता द्वारा आरम्भ में ही दोनों के बीच न चाहते हुए एक ग़लतफ़हमी ही रही। पर उसके बाद 'दिल ने पुकारा' (१९६७) के "किस ज़ालिम हो क़ातिल" से आशा भी शामिल हो गईं कल्याणजी-आनंदजी कैम्प में। ख़ैर, हम बात रहे थे "ये मेरा दिल यार का दीवाना की"। इस गीत की खासियत मुझे यही लगती है कि इसका जो ऒरकेस्ट्रेशन हुआ है, इसके जो म्युज़िक पीसेस हैं, वो बहुत ज़्यादा प्रोमिनेण्ट हैं। इतने प्रोमिनेण्ट कि अगर इन्हे गीत से अलग कर दिया जाए तो गीत की आत्मा ही चली जाएगी। अक्सर इस गीत को गुनगुनाते हुए इन पीसेस को भी साथ में गुनगुनाना पड़ता है। इस गीत के इंटरल्युड में से एक पीस को एक नामी टीवी चैनल ने अपने किसी कार्यक्रम के शीर्षक संगीत में इस्तेमाल किया है। तो दोस्तों, इस ज़बरदस्त नग़में को सुनिए और सलाम कीजिए आशा जी की गायकी और कल्याणजी-आनंदजी भाई की वक़्त के साथ साथ अपने आप को ढालने की प्रतिभा को!



क्या आप जानते हैं...
कि लक्ष्मीकांत और प्यारेलाल करीब ९ सालों तक कल्याणजी-आनंदजी के सहायक रहे।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. कल्याणजी आनंदजी ने इस राग पर कई सारे कामियाब गीत बनाये, "छोड दे सारी दुनिया" भी इसी राग पर है जिस पर कल का ये गीत होगा, राग बताएं -३ अंक.
२. मुकेश और लता के गाये इस युगल गीत को किसने लिखा है - २ अंक.
३. ये इस फिल्म का शीर्षक गीत है, किन पर फिल्माया गया है ये गीत - २ अंक.
४. फिल्म का नाम बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर अब शरद जी आगे हो गए हैं, पर अवध जी अभी भी मौका है आपके पास, कल का गीत हमारे महिला श्रोताओं के लिए खास रहा, इसे पसंद करने के लिए धन्येवाद

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Monday, June 28, 2010

"मिस्टर सिंह ऐण्ड मिसेज मेहता" के घर सुमधुर गीतों और ग़ज़लों के साथ आए हैं उस्ताद शुजात खान और शारंग देव



ताज़ा सुर ताल २४/२०१०

विश्व दीपक - ७० के दशक के मध्य भाग से लेकर ८० के दशक का समय कलात्मक सिनेमा का स्वर्णयुग माना जाता है। उस ज़माने में व्यावसायिक सिनेमा और कलात्मक सिनेमा के बीच की दूरी बहुत ही साफ़-साफ़ नज़र आती है। और सब से बड़ा फ़र्क था कलात्मक फ़िल्मों में उन दिनों गीतों की गुजाइश नहीं हुआ करती थी। लेकिन धीरे धीरे सिनेमा ने करवट बदली, और आज आलम कुछ ऐसा है कि युं तो समानांतर विषयों पर बहुत सारी फ़िल्में बन रही हैं, लेकिन उन्हे कलात्मक कह कर टाइप कास्ट नहीं किया जाता। इन फ़िल्मों की कहानी भले ही समानांतर हो, लेकिन फ़िल्म में व्यावसायिक्ता के सभी गुण मौजूद होते हैं। और इसलिए ज़ाहिर है कि गीत-संगीत भी शामिल होता है।

सुजॊय - आपकी इन बातों से ऐसा लग रहा है कि 'ताज़ा सुर ताल' में आज हम ऐसे ही किसी फ़िल्म के गानें सुनने जा रहे हैं।

विश्व दीपक - बिलकुल! आज हमने चुना है आने वाली फ़िल्म 'मिस्टर सिंह ऐण्ड मिसेज मेहता' के गीतों को।

सुजॊय - मैंने इस फ़िल्म के बारे में कुछ ऐसा सुन रखा है कि इसकी कहानी विवाह से बाहर के संबंध पर आधारित है और इस एक्स्ट्रा-मैरिटल संबंध का एक कारण है बांझपन। वैसे इस तरह की कहानी का अंदाज़ा आप फ़िल्म के शीर्षक से ही लगा सकते हैं। विश्व दीपक जी, अभी आप समानांतर सिनेमा की बात कर रहे थे, तो मैं यह जोड़ना चाहूँगा कि इस फ़िल्म के निर्देशक हैं प्रवेश भरद्वाज, जिन्होने फ़िल्म निर्माण की बारिक़ियाँ सीखी है श्याम बेनेगल, गुलज़ार, अरुणा राजे और गोविंद निहलानी जैसे दिग्गज फ़िल्मकारों से जो समानांतर और कलात्मक सिनेमा के स्तंभ माने जाते रहे हैं। तो अब देखना यह है कि प्रवेश ने इस फ़िल्म को कैसी ट्रीटमेण्ट दी है।

विश्व दीपक - तो फ़िल्म की थोड़ी सी भूमिका हमने अपने पाठकों को दी, अब सीधे आ जाते हैं फ़िल्म के गीतों पर। इससे पहले कि गीतों की चर्चा शुरु करें, आइए इस फ़िल्म का पहला गीत यहाँ सुन लिया जाए, फिर बात को आगे बढ़ाएँगे।

गीत: ऐ ख़ुदा तू कुछ तो बता ज़रा


सुजॊय - यह गीत था उस्ताद शुजात हुसैन ख़ान की आवाज़ में। जी हाँ, ये वही शुजात हुसैन ख़ान हैं जो एक जाने माने सितार वादक हैं इमदादख़ानी घराना के। शुजात खान साहब मशहूर सितार वादक उस्ताद विलायत खान के सुपुत्र हैं। इस फ़िल्म का संगीत शुजात खान साहब ने हीं तैयार किया है, सह-संगीतकार शारंग देव पंडित के साथ मिल कर।

विश्व दीपक - गीत सुन कर अच्छा लगा, कुछ-कुछ उस्ताद राशिद ख़ान साहब का गाया 'जब वी मेट' के गीत "आओगे जब तुम ओ साजना" की तरफ़ लगा कुछ जगहों पर। गीत का संगीत साफ़ सुथरा और कर्णप्रिय है, साज़ों के महाकुंभ के ना होने से एक सूदिंग अहसास होता है। एक सुकून का अहसास होता है गीत को सुनते हुए। शास्त्रीय कलाकार होने की वजह से इस मिट्टी के संगीत की मधुरता को शुजात साहब ने इस गीत में भली भांति समा दिया है।

सुजॊय - शुजात हुसैन ख़ान का जन्म १४ अगस्त १९६० में हुआ था। उनके सितार के ६० से उपर ऐल्बम्स बने हैं और उन्हे ग्रैमी नॊमिनेशन भी मिल चुका है। उनकी गायकी के भी चर्चे हैं। वे बैण्ड 'ग़ज़ल' में केहान कल्होर के साथ परफ़ार्म भी कर चुके हैं।

विश्व दीपक - चलिए अब दूसरे गीत की तरह नज़र दौड़ाते हैं। यह गीत है श्रेया घोषाल की आवाज़ में - "बारहाँ दिल में एक सवाल आया, आज सोचा तो ये ख़याल आया, दो क़दम साथ बस चले तुम हम, हमसफ़र तो ना थे ना कभी तुम हम"। न जाने कितने अरसे के बाद इस तरह के ग़ज़लनुमा अल्फ़ाज़ किसी हिंदी फ़िल्मी गीत में सुनने को मिल रहे है। इसके लिए हम धन्यवाद देते हैं फ़िल्म के गीतकार अमिताभ वर्मा को। श्रेया के आवाज़ की मिठास ने गीत की मधुरता को कई गुणा बढ़ा दिया है।

गीत: बारहाँ दिल में एक सवाल आया (श्रेया)


विश्व दीपक - इसी गीत का एक मेल वर्ज़न भी है के.के की आवाज़ में। अगर आप इजाज़त दें तो इसे भी सुनते चले?

सुजॊय - नेकी और पूछ पूछ?

गीत: बारहाँ दिल में एक सवाल आया (के.के)


सुजॊय - जैसा कि मैंने सोचा था, ठीक वैसे ही के.के ने फिर एक बार हमे निराश नहीं किया। मुझे इस दौर के गायकों में के.के. की आवाज़ सब से ज़्यादा अच्छी लगती है। वो अपना एक लो प्रोफ़ाइल मेन्टेन करते हैं, और एक के बाद एक लाजवाब गीत गाते चले जा रहे हैं।

विश्व दीपक - अच्छा सुजॊय जी, ये बताईये कि यह गीत था या ग़ज़ल?

सुजॊय - बढिया मज़ाक करते हैं आप। एक तरफ़ तो ’महफ़िल-ए-ग़ज़ल' आप होस्ट करते हैं, और दूसरी तरफ़ सवाल मुझसे पूछ रहे हैं :-) चलिए यूँ करते हैं, इस गीत के बोल यहाँ लिख डालते हैं, और फिर मैं गेस करता हूँ कि क्या यह ग़ज़ल की परिभाषा को पूरा करती है या नहीं!

"बारहाँ दिल में एक सवाल आया, आज सोचा तो ये ख़याल आया,

दो क़दम साथ बस चले तुम हम, हमसफ़र तो ना थे ना कभी तुम हम।

तेरी बातों पे मुस्कुराए आँखें, तेरी ख़ुशबू से गुनगुनाए साँसें,

मेरे इस दिल को बस एक ही ग़म, हमसफ़र तो न थे कभी तुम हम।

आज फिर तेरी याद आई है, पास मेरे मेरी तन्हाई है,

चलो अच्छा है टूटे सारे भरम, हमसफ़र तो न थे कभी तुम हम।"

सुजॊय - मुझे तो ग़ज़ल ही लग रही है, थोड़ा सा कन्फ़्युज़न है। चलिए आप ही बता दीजिए।

विश्व दीपक - सुजॊय जी, भले हीं महफ़िल-ए-ग़ज़ल मैं होस्ट करता हूँ, लेकिन मैं ग़ज़लों की परिभाषा से दूर हीं रहता हूँ, लेकिन चूँकि प्रश्न मैंने पूछा था तो जवाब भी देना हीं पड़ेगा। रदीफ़ और काफ़िये के हिसाब से तो ये गज़ल है.. बस इसमें मतला नहीं है। लेकिन कई सारी ऐसी ग़ज़लें लिखी गई हैं, जो बिना मतला और बिना मक़ता के होती हैं। अगर मैं "बहर" की बात न करूँ, जो कि मैं जानकारियों के अभाव में कर भी नहीं सकता, तो मेरे हिसाब से ये सोलह आने ग़ज़ल हीं है। अब मैं पाठकों और श्रोताओं से कहूँगा कि जिन किन्हीं को "बहर" की जानकारी हो, वो अंतिम निर्णय दें। खैर "ग़ज़ल" की बाकी बातें फिर कहीं किसी और महफ़िल में की जाएगी। अभी तो आगे बढते हैं और सुनते हैं अगला गीत "फ़रियाद है शिकायत है" जिसे रीचा शर्मा ने गाया है अपने उसी अंदाज़ में। लेकिन आवाज़ को उन्होने उतना ऊँचा नहीं उठाया है जितना वो अक्सर करती हैं, बल्कि कुछ नर्म अंदाज़ में गाने को निभाया है।

सुजॊय - और गीत में एक क़व्वालीनुमा अंदाज़ है... रीदम में और संगीत की शैली में। तो चलिए सुनते हैं यह गाना।

गीत: फ़रियाद है शिकायत है


विश्व दीपक - ’मिस्टर सिंह ऐण्ड मिसेस मेहता' के निर्देशक और संगीतकारों के नाम तो हम बता चुके है, साथ ही गीतकार का नाम भी। अब यह बता दें कि इस फ़िल्म के निर्माता हैं टुटु शर्मा और मनु एस. कुमारन, तथा फ़िल्म में मुख्य कलाकार हैं प्रशांत नारायण, अरुणा शील्ड्स, नावेद असलम और लुसी हसन।

सुजॊय - विश्व दीपक जी, टुटु शर्मा का नाम सुनकर मुझे एक ऐसी बात याद आ गई, जो भले हीं इस फिल्म के गानों से न जुड़ी है, लेकिन इस फिल्म से उसका गहरा नाता है। आपने अभी तक इस बात का जिक्र नहीं किया कि यह फिल्म रीलिज होने के पहले हीं लीक हो चुकी थी। मार्केट में इसकी "सीडी" खुलेआम बिकने लगी थी। इस फिल्म से पहले ऐसी हीं घटना दो और फिल्मों के साथ हो चुकी है। वे फिल्में हैं - "पाँच" और "तेरा क्या होगा जॉनी"... और आश्चर्य की बात तो ये है कि इन तीनों फिल्मों का निर्माता एक हीं इंसान है... टुटु शर्मा।

विश्व दीपक - यानि कि फिल्म लीक करने में टुटु शर्मा का भी हाथ हो सकता है। लेकिन इससे इनका क्या फायदा होगा। खैर हमें क्या लेना.. इन घटनाओं से। हमें तो बस संगीत से दरकार है। इसलिए इन बातों में न उलझते हुए हम अगले गाने की ओर रूख करते हैं, जिसे अपनी आवाज़ें दी हैं उदित नारायण और श्रेया घोषाल ने। यह भी एक नर्मोनाज़ुक रोमांटिक डुएट है "बेहोशी नशा ख़ुशबू, क्या क्या ना हमारी सांसों में"।

सुजॊय - ये बोल सुन कर लग रहा है कि एक और ग़ज़लनुमा अंदाज़ का गाना। बहुत दिनों के बाद उदित जी की आवाज़ सुनाई दे रही है इस फ़िल्म में। शुजात साहब का सुकूनदायक संगीत और अमिताभ वर्मा के पुर-असर बोल। बस इतना ही कहने को जी चाहता है कि अच्छी गायकी, उम्दा संगीत, पुर-असर बोल, क्या क्या न मौजूद है इस गाने में"! सुनिए, कुल ८ मिनट १९ सेकण्ड्स का यह गीत है।

गीत: बेहोशी नशा ख़ुशबू


विश्व दीपक - और अब हम आ पहुँचे हैं फ़िल्म के अंतिम गीत पर। और इस बार आवाज़ है रूप कुमार राठौड़ की। इसमें भी वही ठहराव, वही मासूमियत, वही सुकून, वही ग़ज़लनुमा अंदाज़। शुजात साहब ने तो जैसे मेलडी और अच्छे संगीत की धारा उतार कर रख दी है फ़िल्म संगीत संसार में, और साथ ही यह सिद्ध भी शायद करने वाले हैं कि अच्छा संगीत किसी युग किसी दौर का मोहताज नहीं होता। अगर कलाकार चाहे तो अच्छा काम किसी भी दौर में, किसी भी परिस्थिति में किया जा सकता है।

सुजॊय - बिलकुल ठीक कहा आपने। इस गीत की बात करें तो इसमें जगजीत सिंह के गायन शैली का प्रभाव सुनाई देता है। गीत के बोल हैं "इन्ही में डूब के एक रोज़ ख़ुद को खोया था, इन्ही की याद में कई रात मैं ना सोया था, इन्ही की हर ख़ुशी हर ग़म में साथ रोया था"। आगे अमिताभ वर्मा लिखते हैं कि "तब ऐसी अजनबी लगती नहीं थीं ये आँखें", इसलिए गीत को शीर्षक दिया गया है "अजनबी आंखें"। वैसे गीत में इस मिट्टी की महक है, लेकिन इसका जो रीदम और ऒरकेस्ट्रेशन है, वह पश्चिमी है। ख़ास कर इंटरल्युड म्युज़िक में तो हेवी इन्स्ट्रुमेण्ट्स का प्रयोग हुआ है, रॊक शैली का।

गीत: अजनबी आँखें


"मिस्टर सिंह ऐण्ड मिसेस मेहता" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ****१/२

सुजॊय - वाह! मज़ा आ गया। सच पूछिए तो एक लम्बे अरसे के बाद इतना उम्दा संगीत किसी हिंदी फ़िल्म में सुनने को मिला। हर गीत अच्छा है, बोल और संगीत, दोनों की दृष्टि से ही। दूसरे गीतकार कुछ सबक ज़रूर लेंगे ऐसी उम्मीद हम करते हैं। सस्ते गीत लिख कर उसे व्यावसायिकता की ज़रूरत करार देते हुए जो गीतकार फ़िल्म संगीत के समुंदर में गंदगी डाल रहे हैं, उनसे यही गुज़ारिश है कि कृपया इस फ़िल्म के गीतों को सुनें।

विश्व दीपक - अच्छा सुजॊय जी, आपने ज़िक्र किया था कि इस फ़िल्म में शारंग देव पंडित भी संगीतकार हैं, तो उन्होने किस गीत की धुन बनाई?

सुजॊय - नहीं, ये सभी गानें शुजात साहब के ही थे। दर-असल इस फ़िल्म के साउण्ड ट्रैक में चार इन्स्ट्रुमेण्टल पीसेस भी शामिल किए गए हैं जो शारंग जी की काम्पोज़िशन्स हैं। तो चलिए... मुझे जितना कहना था मैंने कह दिया, अब आपकी बारी है।

विश्व दीपक - सुजॊय जी, मैं भी आपसे इत्तेफ़ाक़ रखता हूँ कि इस फिल्म के संगीत में सब कुछ खास है। मेरे हिसाब से इतना "मनभावन" संगीत इस साल अभी तक किसी और फिल्म में सुनने को नहीं मिला। फिल्म चलेगी या पिटेगी... यह अलग मुद्दा है, लेकिन यह संगीत हिट है। दुआ करता हूँ कि आने वाले दिनों में किसी और संगीतकार की झोली से भी ऐसा हीं संगीत बरसे। खत्म हो रही मेलोडी और गुम हो रही फिल्मी-ग़ज़लों को बचाने का इससे अच्छा कोई और रास्ता मुझे नज़र नहीं आ रहा। दिल में एक सुकून लेकर चलिए अब हम दोनों श्रोताओं से विदा लेते हैं... खुदा हाफ़िज़!

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # ७०- आप ने फ़िल्म 'वैसा भी होता है -२' मे अपने अभिनय के लिए सराहे गए थे और आपने केतन मेहता की फ़िल्म 'रंग रसिया' में भी एक किरदार निभाया था। बताइए हम किस अभिनेता या अभिनेत्री की बात कर रहे हैं?

TST ट्रिविया # ७१- इंगलैण्ड के किस संगीत विद्यालय ने उस्ताद शुजात हुसैन ख़ान का विज़िटिंग्‍ फ़ैकल्टी के रूप में स्वागत किया था?

TST ट्रिविया # ७२- उदित नारायण और श्रेया घोषाल ने 'मिस्टर सिंह....' फ़िल्म में एक युगल गीत गाया है। बताइए कि इन दोनों की आवाज़ में वह कौन सा युगल गीत है जिसमें "बेकल", "सहयोग", "वातावरण", "झरना" जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है।


TST ट्रिविया में अब तक -
पिछले हफ़्ते के सवालों के जवाब:

१. फ़िल्म 'फ़िदा' के गीत "आजा वे माही"।
२. 'रन' (२००४)।
३. फ़िल्म 'दिल माँगे मोर' का "ऐसा दीवाना हुआ ये दिल आप के प्यार में" और फ़िल्म 'राज़' का "आप के प्यार में हम संवरने लगे"।

पिछली बार की बैठक खाली हीं गई... किसी ने हमारी महफ़िल की तरह रूख नहीं किया। सीमा जी, किधर हैं आप? उम्मीद करते हैं कि दुबारा ऐसी स्थिति नहीं आएगी।

ओ बाबुल प्यारे....लता की दर्द भरी आवाज़ में एक बेटी की गुहार



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 427/2010/127

दिल लूटने वाले जादूगर कल्याणजी-आनंदजी के स्वरबद्ध गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की सातवीं कड़ी में हम फिर एक बार सन् १९७० की ही एक फ़िल्म का गीत सुनने जा रहे हैं। देव आनंद-हेमा मालिनी अभिनीत सुपर डुपर हिट फ़िल्म 'जॊनी मेरा नाम'। एक फ़िल्म को सफल बनाने के लिए जिन जिन साज़ो सामान की ज़रूरत पड़ती है, वो सब मौजूद थी इस फ़िल्म में। बताने की ज़रूरत नहीं कि फ़िल्म के गीत संगीत ने भी एक बेहद महत्वपूर्ण पक्ष निभाया। फ़िल्म का हर एक गीत सुपरहिट हुआ, चाहे वह आशा-किशोर का गाया "ओ मेरे राजा" हो या किशोर की एकल आवाज़ में "नफ़रत करने वालों के सीने में प्यार भर दूँ", उषा खन्ना के साथ किशोर दा का गाया "पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले" हो, आशा जी की मादक आवाज़-ओ-अंदाज़ में "हुस्न के लाखों रंग" हो, या लता जी के गाए दो गीत "मोसे मोरा श्याम रूठा" और "ओ बाबुल प्यारे"। इंदीवर और अनजान के लिखे इस फ़िल्म के ये सारे गीत गली गली गूंजे। अब इस फ़िल्म से किसी एक गीत को आज यहाँ पर सुनवाने की बात आई तो हम कुछ दुविधा में पड़ गए कि किस गीत को बजाया जाए। फिर शब्दों के स्तर पे अगर ग़ौर करें, तो "ओ बाबुल प्यारे" गीत को ही फ़िल्म का सर्वश्रेष्ठ गीत माना जाना चाहिए, ऐसा हमारा विचार है। और इसीलिए हमने इसी गीत को चुना है। सिचुएशन कुछ ऐसा है कि नायिका के बूढ़े पिता को क़ैद कर रखा गया है, और क़ैदख़ाने के ठीक बाहर नायिका यह गीत गा रही है, इस बात से बिल्कुल बेख़बर कि उनके और उनके पिता के बीच का फ़ासला बहुत ही कम है। गीत के बोलों में अनजान साहब ने जान डाल दी है कि गीत को सुनते हुए जैसे कलेजा कांप उठता है। मुखड़े में "ओ" का इस्तेमाल इस तरह का शायद ही किसी और गाने में किसी ने किया होगा! "ओ बाबुल प्यारे, ओ रोये पायल की छमछम, ओ सिसके सांसों की सरगम, ओ निसदिन तुझे पुकारे मन हो"। पिता-पुत्री के रिश्ते पर बने गीतों में यह एक बेहद महत्वपूर्ण गीत रहा है। गीत के तीसरे अंतरे में राजा जनक और सीता का उल्लेख करते हुए नायिका गाती हैं - "जनक ने कैसे त्याग दिया है अपनी ही जानकी को, बेटी भटके राहों में, माता डूबी आहों में, तरसे तेरे दरस को नयन"। और कल्याणजी-आनंदजी ने इस गीत की धुन भी कुछ ऐसी बनाई है कि बताना मुश्किल है कि गीतकार, गायिका और संगीतकार में किसे नम्बर एक माना जाए इस गीत के लिए!

फ़ारूख़ क़ैसर, आनंद बक्शी, इंदीवर और राजेन्द्र कृष्ण के बाद आज हम अनजान साहब की रचना सुन रहे हैं, और बताना ज़रूरी है कि अनजान साहब ने कल्याणजी-आनंदजी के साथ एक लम्बा सफ़र तय किया है। तो क्यों ना आज आनंदजी के 'उजाले उनकी यादों के' वाली मुलाक़ात से उस अंश को यहाँ प्रस्तुत किया जाए जिसमें उनसे पूछा गया था कि उनके हिसाब से उनका सब से अच्छा काम किस गीतकार के साथ हुआ है। सवाल पूछ रहे हैं विविध भारती के वरिष्ठ उद्‍घोषक श्री कमल शर्मा।

प्र: आनंदजी, आपको लगता है कि आपका जो 'best work' है, वो इंदीवर जी के साथ में हुआ है या आनंद बक्शी साहब के साथ में हुआ है?

उ: नहीं, हमने, क्या हुआ, जब अनजान जी आए न, अनजान जी से एक बात कही मैंने। तो स्ट्रगल के दिनों में जब आनजान जी आए, तो अनजान जी से कहा कि काम, बडे सीधे आदमी थे, बड़े सीधे सच्चे आदमी थे, उनसे कहा कि काम तो ईश्वर दिलाएगा, लेकिन ये जो स्ट्रगल पीरियड चला है आपका, इसमें एक ही काम कर लीजिए आप, कि तीन 'म्युज़िक डिरेक्टर्स' चल रहे हैं - कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और आर.डी. बर्मन - इन तीनों के पास जाओ कि पुरिया क्या बेचनी है, माल क्या देना है। बोले हर जगह तो गाना ही लिखूँगा। मैंने कहा कि ऐसा नही होता है, हर किसी का एक अलग लिखवाने का अंदाज़ होता है। तो बोले कि वह क्या होता है? मैंने कहा कि वो सोचो आप और फिर दो दिन के बाद आइए आप, ज़रा सोच के आइए कि क्या करना है। तो दूसरे तीसरे दिन आए तो बोले कि थोड़ी बात समझ में आई, कि आपके गानों में मैंने देखा कि फ़िलोसोफ़ी चाहिए। मैंने कहा कि सही कहा आपने, हमारे गीतों में फ़िलोसोफ़ी चाहिए कहीं ना कहीं, डायरेक्टली या इनडायरेक्टली। कि अपने हाथों से हवाओं को गिरफ़्तार ना कर, कि पहले पेट पूजा, फिर काम करो कोई दूजा, कुछ ना कुछ तो आएगा ही। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के वहाँ थोड़ा गिरा गाना लाना पड़ेगा, क़व्वाली का रंग, थोड़ा ठेका लाना पड़ेगा, और आर.डी के पास जाएँगे तो लास्ट नोट जो होगी वह लम्बी होगी, तो ऊ, ई नहीं चलेगा वहाँ पे। तो बाद मे अनजान जी जब मिले, बहुत काम करने लगे थे, बोले 'गुरु, वह पुरिया बहुत काम आ रही है, जहाँ भी जाओ फ़टाफ़ट काम हो जाता है, कि उसके वहाँ जाना है तो क्या देना है'।

प्र: गुरु मंत्र तो आप ही से मिला था! (हँसते हुए)

उ: अब क्या हुआ था कि एक गाना था हमारा, फ़िल्म लाइन में चलता है ना, जुमले चलते हैं, कभी कुछ चलता है, कभी कुछ, बीच में जानू, जानेमन, जानेजिगर, ये सब चलने लगा था। मैंने अनजान जी को बोला कि अनजान जी, एक काम कीजिए ना, सारे के सारे एक में डाल देते हैं हम लोग, जानू, जानम, जानेमन, जानेवफ़ा, जानेजहाँ। अनजान जी बोले 'जान छूटे इनसे'।

तो दोस्तों, कुछ हँसी मज़ाक की बातें हो गईं, लेकिन अब वापस आते हैं आज के गीत के मूड पर, जो कि दर्द भरा है। लता जी के दर्दीले अंदाज़ में एक बेटी का अपने पिता को आहवान! सुनते हैं....



क्या आप जानते हैं...
कि कमल बारोट से कल्याणजी-आनंदजी ने कुछ बड़े सुंदर ग़ैर-फ़िल्मी गीत गवाए हैं और आज भी "पिया रे प्यार", "पास आओ कि मेरी" जैसे गीतों का अपना अलग आकर्षण है।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. ये एक एक्शन पैक फिल्म का हिट गीत है, जिसके नए संस्करण को इस फिल्म की लेखक जोड़ी में से एक के सुपुत्र ने निर्देशित किया था, फिल्म बताएं -२ अंक.
२. इस गीत को उसके संगीत संयोजन के लिए खास याद किया जाता है, किस गायिका की आवाज़ है इसमें - २ अंक.
३. मूल फिल्म के निर्देशक कौन थे - ३ अंक.
४. किस मशहूर अभिनेत्री पर फिल्माया गया था ये डांस नंबर- २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अरे अवध जी किसी सवाल को जवाब तो दिए होते, कम से कम दो अंक ही मिल जाते, खैर इस सही जवाब के साथ ३ अंक लिए शरद जी ने और आपसे आगे निकल आये, इंदु जी अपने व्यस्तता के बीच भी oig में आना नहीं भूलती यही उनका प्यार है...

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Sunday, June 27, 2010

यूहीं तुम मुझसे बात करती हो...इतने जीवंत और मधुर युगल गीत कहाँ बनते हैं रोज रोज



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 426/2010/126

'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नई सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं। इन दिनों हम आप तक पहुँचा रहे हैं सुप्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी कल्याणजी-आनंदजी के स्वरबद्ध गीतों से सजी लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर'। इस शृंखला के पहले हिस्से में पिछले हफ़्ते आपने पाँच गीत सुनें, और आज से अगले पाँच दिनों में आप सुनेंगे पाँच और गीत। तो साहब हम आ पहुँचे थे ७० के दशक में, और जैसा कि हमने आपको बताया था कि ७० का दशक कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और आर.डी. बर्मन का दशक था। यह कहा जाता है कि इन तीनों ने रिकार्डिंग् स्टुडियो पर जोड़-तोड़ से ऐडवांस बुकिंग्' करनी शुरु कर दी थी कि और किसी संगीतकार को अपने गीतों की रिकार्डिंग् के लिए स्टुडियो ही नहीं मिल पाता था। 'आराधना' की सफलता के बाद यह ज़माना राजेश खन्ना और किशोर कुमार के सुपर स्टारडम का भी था। कल्याणजी-आनंदजी भी इस लहर में बहे और सन् १९७० में राजेश खन्ना के दो सुपर हिट फ़िल्मों में मुख्यत: किशोर कुमार को ही लिया। ये दो फ़िल्में थीं 'सफ़र' और 'सच्चा झूठा'। 'सफ़र' में "ज़िंदगी का सफ़र", "जीवन से भरी तेरी आँखें", तथा 'सच्चा झूठा' में "दिल को देखो चेहरा ना देखो", "मेरी प्यारी बहनिया बनेगी दुल्हनिया" और "कहदो कहदो तुम जो कहदो" (लता के साथ)जैसे गानें किशोर दा ने ही गाए थे। लेकिन रफ़ी साहब ने 'सच्चा झूठा' में लता जी के साथ मिलकर एक युगल गीत गाया था जिसे लोगों ने ख़ूब ख़ूब पसंद किया, और इसी गीत को आज हम लेकर आए हैं आपको सुनवाने के लिए। "युंही तुम मुझसे बात करती हो या कोई प्यार का इरादा है, अदाएँ दिल की जानता ही नहीं मेरा हमदम भी कितना सादा है"। राजेश खन्ना और मुमताज़ पर फ़िल्माए लता-रफ़ी डुएट्स में जिन दो गीतों की याद हमें सब से पहले आती है, उनमें से एक है लक्ष्मी-प्यारे के संगीत में 'दो रास्ते' का गीत "दिल ने दिल को पुकारा मुलाक़ात हो गई" और दूसरा गीत है आज का यह प्रस्तुत गीत।

सन् १९९७ में कल्याणजी भाई विविध भारती के स्टुडियो में तशरीफ़ लाए थे और गणेश शर्मा को एक इंटरवियू दिया था। चलिए आज उसी का एक अंश यहाँ पर पेश किए देते हैं। गणेश शर्मा कल्याणजी भाई से पूछते हैं कि कल्याणजी भाई, आपको बहुत बड़े बड़े अवार्ड, पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है, जिसमें राष्ट्रपति पुरस्कार, पद्मश्री। कोई ऐसा यादगार लम्हा किसी अवार्ड फ़ंकशन का, अवार्ड लेते हुए, आप श्रोताओं को बताना चहेंगे?

कल्याणजी: कोई भी अवार्ड मिलता है ख़ुशी तो मिलती है, उसमें कोई सवाल नहीं उठता है, लेकिन मुझे लगता है कि जनता का जो अवार्ड है, वह सब से बड़ा है क्योंकि जब भी हम काम करते हैं, उनकी क्या ख़ुशी हुई है, उनकी क्या क्लैपिंग् हुई है, लेकिन जब भी कोई अवार्ड लिया तो ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है हमारी कि हम चाहते हैं कि जितने प्यार से लोगों ने यह अवार्ड दिया है, तो हम इस संगीत के ज़रिये क्या समाज की सेवा कर सकते हैं, क्या देश की सेवा कर सकते हैं, क्या हमारे आने वाले भाइयों के लिए कर सकते हैं, ये हमेशा हमेशा मन में रहता है। फिर अगर आप मज़ाक की बात करें तो फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड, बहुत बड़ा अवार्ड है, और हमें यह 'कोरा काग़ज़' के लिए मिला। बहुत लेट मिला था, २५ साल, २७ साल इंडस्ट्री में रहने के बाद। वहाँ पूछा गया कि यह अवार्ड मिलने से आप को क्या महसूस हो रहा है? मैंने कहा कि बहुत ख़ुशी हो रही है, क्यों नहीं ख़ुशी होगी, बड़ी उमर में लड़का हुआ है!

और आइए अब सुनते हैं राजेश खन्ना और मुमताज़ पर फ़िल्माया गया लता-रफ़ी की युगल आवाज़ों में आनंद बक्शी साहब की रचना फ़िल्म 'सच्चा झूठा' से।



क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्मों से हट कर कल्याणजी व्यक्तिगत जीवन में आचार्य रजनीश (ओशो) के भक्त थे।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस फिल्म के एक अन्य गीत में उषा खन्ना ने किशोर दा की आवाज़ से आवाज़ मिलायी थी, फिल्म का नाम बताएं -२ अंक.
२. गीत के एक अंतरे में रामायण के एक अंश का जिक्र है, गीत के बोल बताएं - २ अंक.
३. गीतकार बताएं - ३ अंक.
४. लता ने किस अभिनेत्री के लिए पार्श्व गायन किया है इस गीत में - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अवध जी पहले जरूर आये, पर ३ अंकों का सवाल अपने गुरु के लिए छोड़ गए, वी डी ने भी हाथ आजमाया और २ अंक से खाता खोल ही दिया, इंदु जी जल्दी आईये, आपकी अनुपस्तिथि में मैदान जरा खाली दिख रहा है

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Friday, June 25, 2010

सुनो कहानी: एक गधे की वापसी - भाग 1 - अनुराग शर्मा के स्वर में



सुनो कहानी: एक गधे की वापसी - भाग 1 - कृश्न चन्दर

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में एक हिन्दी लोक कथा सात ठगों का किस्सा का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं कृश्न चन्दर की कहानी "एक गधे की वापसी", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 8 मिनट 56 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



यह तो कोमलांगियों की मजबूरी है कि वे सदा सुन्दर गधों पर मुग्ध होती हैं
~ पद्म भूषण कृश्न चन्दर (1914-1977)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी

मैं महज़ एक गधा आवारा हूँ।
( "एक गधे की वापसी" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)
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#Eighteeth Story, Ek Gadhe Ki Vapasi: Folklore/Hindi Audio Book/2010/24. Voice: Anurag Sharma

Thursday, June 24, 2010

एक नया अंदाज़ फिज़ा में बिखेरा "उड़न छूं" ने, जिसके माध्यम से वापसी कर रहे हैं बिश्वजीत और सुभोजित



Season 3 of new Music, Song # 11

दोस्तों, आवाज़ संगीत महोत्सव २०१० में आज का ताज़ा गीत है एक बेहद शोख, और चुलबुले अंदाज़ का, इसकी धुन कुछ ऐसी है कि हमारा दावा है कि आप एक बार सुन लेंगें तो पूरे दिन गुनगुनाते रहेंगें. इस गीत के साथ इस सत्र में लौट रहे हैं पुराने दिग्गज यानी हमारे नन्हें सुभोजित और गायक बिस्वजीत एक बार फिर, और साथ हैं हमारे चिर परिचित गीतकार विश्व दीपक तन्हा भी. जहाँ पिछले वर्ष परीक्षाओं के चलते सुभोजित संगीत में बहुत अधिक सक्रिय नहीं रह पाए वहीं बिस्वजीत ने करीब एक वर्ष तक गायन से दूर रह कर रियाज़ पर ध्यान देने का विचार बनाया था. मगर देखिये जैसे ही आवाज़ का ये नया सत्र शुरू हुआ और नए गानों की मधुरता ने उन्हें अपने फैसले पर फिर से मनन करने पर मजबूर कर दिया, अब कोई मछली को पानी से कब तक दूर रख सकता है भला. तो लीजिए, एक बार फिर सुनिए बिस्वजीत को, एक ऐसे अंदाज़ में जो अब तक उनकी तरफ़ से कभी सामने नहीं आया, और सुभो ने भी वी डी के चुलबुले शब्दों में पंजाबी बीट्स और वेस्टर्न अंदाज़ का खूब तडका लगाया है इस गीत में

गीत के बोल -


आते जाते
काटे रास्ता क्यूँ,
बड़ी जिद्दी है री तू
हो जा चल उड़न छूं..

आते जाते
काटे रास्ता क्यूँ,
बड़ी जिद्दी है री तू
हो जा उड़न छूं..

तोले मोले जो तू हर दफ़ा,
हौले हौले छीने हर नफ़ा,
क्या बुरा कि आनाकानी करके
तेरे से बच लूँ..

तोले मोले जो तू हर दफ़ा,
हौले हौले छीने हर नफ़ा,
क्या बुरा कि आनाकानी करके
तेरे से बच लूँ..

छोरी! तू है काँटों जैसी लू.

आते जाते
काटे रास्ता क्यूँ,
बड़ी जिद्दी है री तू
हो जा चल उड़न छूं..

आते जाते
काटे रास्ता क्यूँ,
बड़ी जिद्दी है री तू
हो जा उड़न छूं

झोंके धोखे हीं तू हर जगह,
तोड़े वादे सारे हर तरह,
ये बता कि आवाज़ाही तेरी
कैसे मैं रोकूँ..

झोंके धोखे हीं तू हर जगह,
तोड़े वादे सारे हर तरह,
ये बता कि आवाज़ाही तेरी
कैसे मैं रोकूँ..

छोरी! मैं ना जलना हो के धूँ..

आते जाते
काटे रास्ता क्यूँ,
बड़ी जिद्दी है री तू
हो जा चल उड़न छूं..

आते जाते
काटे रास्ता क्यूँ,
बड़ी जिद्दी है री तू
हो जा उड़न छूं



मेकिंग ऑफ़ "उड़न छू" - गीत की टीम द्वारा

बिस्वजीत: "उड़न-छूं" मेरे लिए एक नया अनुभव था। मैंने आज तक जितने भी गाने किए हैं ये गाना सबसे हटकर है। सुभोजित और विश्व दीपक ने जब यह गाना मुझे सुनाया तभी मैंने इसे गाने का निर्णय कर लिया क्योंकि यह मेरे "ज़ौनर" का नहीं था। इसके शब्द और इसका संगीत मुझे इतना पसंद आया कि "फ़ीलिंग" खुद-ब-खुद आ गए। उम्मीद करता हूँ कि श्रोताओं को भी यह गाना सुनते हुए बहुत मज़ा आएगा।

सुभोजित: हिंद युग्म के लिए मैं २००८ से संगीत का काम कर रहा हूँ. बिस्वजीत और विश्व दीपक के साथ पहले भी बहुत से प्रोजेक्ट कर चुका हूं. ये गाना पहले से सोचकर तो नहीं बनाया था. बस अचानक यूहीं दिमाग में आया, और ट्रेक बना डाला, फिर मैंने विश्व दीपक को दिया इसे शब्द लिखने के लिए और फिर हमने बिस्वजीत को भेजा. अंतिम परिणाम हम सबके लिए बेहद संतोष जनक रहा.

विश्व दीपक: सुभोजित के लिए मैंने "मेरे सरकार" लिखा था, उसके बाद से सुभोजित के साथ जितने भी गाने किए (अमूमन ४-५ तो कर हीं लिए हैं) कोई भी रीलिज नहीं हो पाया, किसी न किसी वज़ह से गाने बीच में हीं अटक जा रहे थे। फिर एक दिन सुभोजित ने मुझे यह ट्युन भेजा.. ट्युन मुझे बेहद पसंद आया (इसमें सुभोजित की छाप नज़र आ रही थी) तो मैंने कह दिया कि यह गाना पेंडिंग में नहीं जाना चाहिए। अच्छी बात है कि उसी दौरान बिस्वजीत सक्रिय हो उठे और हमें पूरा यकीन हो गया कि यह गाना तो पूरा होगा हीं। मैंने इस तरह का गाना पहले कभी नहीं लिखा, जिसमें नायक नायिका से दूर हटने को कह रहा है (मैं तो प्यार-मोहब्बत के गाने लिखने में यकीन रखता हूँ :) ), लेकिन यह ट्युन सुनकर मुझे लगा कि छेड़-छाड़ भरा गाना लिखा जा सकता है। गाना पूरा होने और फिर बिस्वजीत की आवाज़ में इसे सुन लेने के बाद मुझे लगा कि मैं सफल हुआ हूँ.. कितना हुआ हूँ, यह तो आप सब हीं बताएँगे।

बिस्वजीत
बिस्वजीत युग्म पर पिछले 1 साल से सक्रिय हैं। हिन्द-युग्म के दूसरे सत्र में इनके 5 गीत (जीत के गीत, मेरे सरकार, ओ साहिबा, रूबरू और वन अर्थ-हमारी एक सभ्यता) ज़ारी हो चुके हैं। ओडिसा की मिट्टी में जन्मे बिस्वजीत शौकिया तौर पर गाने में दिलचस्पी रखते हैं। वर्तमान में लंदन (यूके) में सॉफ्टवेयर इंजीनियर की नौकरी कर रहे हैं। इनका एक और गीत जो माँ को समर्पित है, उसे हमने विश्व माँ दिवस पर रीलिज किया था।

सुभोजित
संगीतकार सुभोजित स्नातक के प्रथम वर्ष के छात्र हैं, युग्म के दूसरे सत्र में इनका धमाकेदार आगमन हुआ था हिट गीत "आवारा दिल" के साथ, जब मात्र १८ वर्षीया सुभोजित ने अपने उत्कृष्ट संगीत संयोजन से संबको हैरान कर दिया था. उसके बाद "ओ साहिबा" भी आया इनका और बिस्वजीत के साथ ही "मेरे सरकार" वर्ष २००९ में दूसरा सबसे लोकप्रिय गीत बना. अपनी बारहवीं की परीक्षाओं के बाद कोलकत्ता का ये हुनरमंद संगीतकार लौटा है पहली बार इस तीसरे सत्र में इस नए गीत के साथ

विश्व दीपक 'तन्हा'
विश्व दीपक हिन्द-युग्म की शुरूआत से ही हिन्द-युग्म से जुड़े हैं। आई आई टी, खड़गपुर से कम्प्यूटर साइंस में बी॰टेक॰ विश्व दीपक इन दिनों पुणे स्थित एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में बतौर सॉफ्टवेयर इंजीनियर अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। अपनी विशेष कहन शैली के लिए हिन्द-युग्म के कविताप्रेमियों के बीच लोकप्रिय विश्व दीपक आवाज़ का चर्चित स्तम्भ 'महफिल-ए-ग़ज़ल' के स्तम्भकार हैं। विश्व दीपक ने दूसरे संगीतबद्ध सत्र में दो गीतों की रचना की। इसके अलावा दुनिया भर की माँओं के लिए एक गीत को लिखा जो काफी पसंद किया गया।

Song - Udan Chhoo
Voice - Biswajith Nanda
Music - Subhojit
Lyrics - Vishwa Deepak
Graphics - Prashen's media


Song # 11, Season # 03, All rights reserved with the artists and Hind Yugm

इस गीत का प्लेयर फेसबुक/ऑरकुट/ब्लॉग/वेबसाइट पर लगाइए

पल पल दिल के पास तुम रहती हो....कुछ ऐसे ही पास रहते है कल्याणजी आनंदजी के स्वरबद्ध गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 425/2010/125

ल्याणजी-आनंदजी के संगीत सफ़र के विशाल सुर-भण्डार से १० मोतियाँ चुन कर उन पर केन्द्रित लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर' को इन दिनों हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर चला रहे हैं। पिछले चार दिनों से हमने ६० के दशक के गानें सुनें, आइए आज हम आगे बढ़ निकलते हैं ७० के दशक में। ७० का दशक एक ऐसा दशक साबित हुआ कि जिसमें ५० और ६० के दूसरे अग्रणी संगीतकार कुछ पीछे लुढ़कते चले गए, और जिन तीन संगीतकारों के गीतों ने लोगों के दिलों पर व्यापक रूप से कब्ज़ा जमा लिया, वो संगीतकार थे राहुल देव बर्मन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और कल्याणजी-आनंदजी। इन तीनों संगीतकारों ने इस दशक में असंख्य हिट गीत दिए और अपार शोहरत हासिल की। आज हमने जिस गीत को चुना है, वह है फ़िल्म 'ब्लैकमेल' का अतिपरिचित "पल पल दिल के पास तुम रहती हो"। किशोर कुमार और कल्याणजी-आनंदजी के कम्बिनेशन के गानों का ज़िक्र हो और इस गाने की बात ना छिड़े यह असंभव है। १९७३ की फ़िल्म 'ब्लैकमेल' का यह गीत फ़िल्माया गया था, जी नहीं, धर्मेन्द्र पर नहीं, बल्कि राखी पर। राखी को अपने प्रेमी धर्मेन्द्र के प्रेम पत्रों को पढ़ते हुए दिखाया जाता है और पार्श्व में यह गीत चल रहा होता है। भले ही गीत में "ख़त" या "चिट्ठी" का ज़िक्र नहीं है, लेकिन यह है तो सही एक 'लव लेटर सॊंग्'। इस गीत को लिखा था राजेन्द्र कृष्ण साहब ने।

आइए फिर एक बार आज रुख़ करते हैं विविध भारती पर आनंदजी से की गई बातचीत की ओर, शृंखला 'उजाले उनकी यादों के' में, जिसमें इस गीत की चर्चा आनंदजी भाई ने कुछ इस क़दर की थी। "ये कम्पोज़िशन के दो तीन स्टाइल होते हैं। जैसे मैं कहूँगा अपनी स्टाइल में, मैं यानी आनंदजी, मुझे घूमने का बहुत शौक है, कल्याणजी भाई कमरे में बैठने का शौक रखते थे। तो बोलते थे कि भीड़ भड़क्के में कहाँ जाना है? तो मुझे गाना बनाने का शौक है तो गाड़ी लेके निकल पड़ता हूँ, ट्रेन में बैठ जाता हूँ, कुछ नहीं तो टेप रिकार्डर लेके बाथरूम में घुस जाता हूँ, बाथ टब में लेट गया, शावर चालू कर दिया, टेप में अपना गाना बजा दिया, ट्रेन में बैठा तो गाना बजा दिया, बाजे पे हाथ रखने के लिए मैं तैयार नहीं हूँ। मैं ऐसे ही काम करूँगा पहले। क्योंकि बाजे पे आपने हाथ रखा तो एक जगह आपने सुर पकड़ लिया, आप उस सुर में बंध गए, फिर धीरे धीरे आपको लगेगा कि अभी राग में बजाऊँ, कौन से राग में बजाऊँ। तो पहले शुरु में एक्स्प्रेशन दो आप, उसको क्या भाव से आप बोल सकते हैं। उसके बाद धीरे धीरे डेवेलप करने के बाद आपके बाजे पे हाथ रखो, कि भई बाजे पे अब, कौन से सिंगर्स गाने वाले हैं, उसके स्केल पे गाना कैसे बनेगा, क्या बनेगा, उसके बाद उसकी रीदम, उसकी ताल क्या है गाने की, वह मूड को समझते हुए आप विज़ुअलाइज़ कर सकते हैं कि पिक्चराइज़ कैसे होगा गाने का। "पल पल दिल के पास", यह गोल्डी जी के वहाँ आके ऐसे ही गप मारते थे हम लोग। तो युं करते करते, वहाँ बैठे बैठे एक दिन मेरे को बोलते हैं कि एक गाना अपने को करना है ऐसा कि जिसमे मैं कुछ अलग अलग अलग अलग कुछ दिखाना चाहता हूँ, and the guy, he is an educated guy, so piano पे बैठके भी गाएगा, कुछ ये करेगा, लेकिन he is again an Indian guy, तो फ़ीलिंग् भी लानी है। तो हमने बोला कि क्या चाहिए क्या। बोले कि छोटे छोटे टुकड़े होंगे, पिक्चराइज़ करना चाहता हूँ, 'cut one two one two' ऐसे।" और दोस्तों, इस ज़रूरत को पूरा करने में राजेन्द्र कृष्ण साहब ने भी बहुत छोटे छोटे शब्दों का इस्तेमाल इस गीत में किया है "पल", "पल", "दिल", "के", "पास".....।" तो आइए अब इस गीत को सुना जाए। और यहीं पर इस शृंखला का पहला हिस्सा ख़त्म होता है। सोमवार की शाम हम फिर से हाज़िर होंगे इसी शृंखला को आगे बढ़ाने के लिए। तब तक के लिए बने रहिए 'आवाज़' के साथ, नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि स्वतंत्र संगीतकार बनने से पहले कल्याणजी भाई ने लगभग ४०० फ़िल्मों में बतौर संगीत सहायक व वादक काम किया।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. राजेश खन्ना की इस फिल्म की नायिका कौन है -३ अंक.
२. इस युगल गीत के गीतकार कौन है- २ अंक.
३. फिल्म का नाम बताएं - २ अंक.
४. एक अंतरा शुरू होता है इस शब्द से - "रोज", गीत बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
ठीक है अवध जी, आप शरद जी के शिष्य ही सही, पर इस प्रतियोगिता के तीसरे सप्ताह के अंत तक आज भी आप ही आगे हैं, पर इस बार शरद जी ने ये फासला बेहद कम कर दिया है. फिर भी ३ अंकों से आगे होने के कारण इस सप्ताहांत भी आप ही विजेता रहे.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, June 23, 2010

फूल तुम्हें भेजा है खत में....एक बेहद संवेदनशील फिल्म का एक बेहद नर्मो नाज़ुक गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 424/2010/124

ल्याणजी-आनंदजी के संगीत की मिठास इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में घुल रही है। १९५९, १९६४ और १९६५ के बाद आज हम आ पहुँचे हैं साल १९६८ में। यह एक बेहद महत्वपूर्ण पड़ाव वाला साल है इस संगीतकार जोड़ी के करीयर का, क्योंकि इसी साल आई थी फ़िल्म 'सरस्वतीचन्द्र'। पंकज राग अपनी किताब 'धुनों की यात्रा' में लिखते हैं कि "चंदन सा बदन चंचल चितवन" सातवें दशक की युवा पीढ़ी का प्रेम गीत बनकर स्थापित है ही, लेकिन उससे कहीं भी कम नहीं है "फूल तुम्हे भेजा है ख़त में" का सौन्दर्य जो उस ज़माने की आहिस्ता आहिस्ता चलने वाली अपेक्षाकृत कम भाग दौड़ की ज़िंदगी के बीच पनपी रूमानी भावनाओं को बड़े ही मधुर आग्रह से प्रतिध्वनित करती है। क्या ख़ूब कहा है पंकज जी ने। लता जी और मुकेश जी की आवाज़ों में इंदीवर साहब का लिखा हुआ यह बेहद लोकप्रिय व मधुर युगल गीत आज हम लेकर आए हैं। इस फ़िल्म से जुड़े तथ्य तो हम पहले ही आपको दे चुके हैं जब हमने कड़ी नम्बर-१४ में "चंदन सा बदन" सुनवाया था। आज तो बस इसी गीत की बातें होंगी। दोस्तो, यह गीत है तो एक नर्मोनाज़ुक रोमांटिक गीत, लेकिन इसके बनने की कहानी बड़ी दिलचस्प है, जिसे आप आगे पढेंगे तो गुदगुदा जाएँगे। विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' शृंखला में जब आनंदजी तशरीफ़ लाए थे, उन्होने कमल शर्मा के साथ बातचीत के दौरान इस किस्से का ज़िक्र किया था। तो आइए उसी बातचीत का वह अंश यहाँ पेश करते हैं।

प्र: आनंदजी, आपने एक बार ज़िक्र किया था कि कोई लिफ़ाफ़ा आ पहुँचा था, आपके पास कोई चिट्ठी आई थी, कोई 'फ़ैन मेल' आया था जिसमें दिल और फूल बना हुआ था और उससे एक गाना बना था, कौन सा था वह?

उ: कमल जी, अब सब हांडी क्यों फोड़ रहे हैं आप? मेरे ग्रैण्ड-चिलड्रेन भी सुन रहे होंगे, वो बोलेंगे दादा ऐसा था क्या? (दोनों हँसते हुए) प्यारे भाइयों और बहनों, कमल जी अब ये सब दिल की बातें पूछ रहे हैं, तो क्या हुआ था कि फ़ैन्स के लेटर्स बहुत आते थे। बहुत सारे लेटर्स आते थे और उन दिनों में क्या था कि फ़ैन्स को आपके लेटर्स चाहिए, फ़ोटो चाहिए, राइटर बनने के लिए कोई आया, ऐक्टर बनने के लिए कोई आया। हम लोगों के बारे में सब को पता था कि भई ये सिंगर्स को ही नहीं ऐक्टर्स को भी चांस देते हैं, डिरेक्टर्स को भी चांस देते हैं, राइटर्स को भी चांस देते है। तो यह एक अड्डा हो गया था कि भई कोई फ़ीज़ वीज़ भी नहीं लगती, बैठ जाओ आके, चाय पानी भी मिलेगी, ऐक्टर ऐक्ट्रेस भी देखने को मिल जाएँगे, सब कुछ होगा। तो ये सब होता था। हम नहीं चाहते थे कि हम जब स्ट्रगल करते थे, कोई अगर कुछ कर रहा है तो एक सहारा तो चाहिए। तो एक लेटर इनका आया, एक सफ़ेद फूल था, और एक लिपस्टिक का सिर्फ़ होंठ बना हुआ था। 'and nothing was there'. 'blank letter'. सिर्फ़ 'to dear' लिखा हुआ था। उपर कल्याणजी-आनंदजी का पता लिखा था और अंदर 'to dear' करके लिख दिया था। तो दोनों में कन्फ़्युशन हो गया कि यह 'to dear' किसको है! मैंने कहा कि यह अपने लिए होगा, भाईसाहब के लिए तो नहीं होगा। ऐसे करके रख लिया। अब रखने के बाद इंदीवर जी आए तो उनको दिखाया मैंने। उनको कहा कि देखो, ऐसे ऐसे ख़त आने लगे हैं अब! (कमल शर्मा ज़ोर से हंस पड़े)। इंदीवर जी बोले कि यह कौन है, होगी तो कोई लड़की, ये होंठ भी तो छोटे हैं, तो लड़की ही होगी। उन्होने पूछा कि किसका नाम लिखा है। मैंने बोला कि 'to dear' करके लिखा है, आप अपना नाम लिख लो, मैं अपना नाम लिख लूँ या कल्याणजी भाई के नाम पे लिख दूँ। बोले कि इस पर तो गाना बन सकता है, फूल तुम्हे भेजा है ख़त में, वाह वाह वाह वाह। 'अरे वाह वाह करो तुम', बोले, "फूल तुम्हे भेजा है ख़त में, फूल नहीं मेरा दिल है", कमाल है! मैंने कहा 'ये लिपस्टिक'? बोले 'भाड़ में जाए लिपस्टिक, इसको आगे बढ़ाते हैं। अब गाना बनने के बाद हुआ क्या कि प, फ, ब, भ, यह तो आप समझ सकते हैं कमल जी कि या तो आप क्रॊस करके गाइए, या लास्ट में आएगा, तो इसके लिए क्या करना पड़ता है, ये मुकेश जी गाने वाले थे, तो जब यह गाना पूरा बन गया तो यह लगा कि ऐसे सिचुयशन पे जो मंझा हुआ चाहिए, वो है कि भाई कोई सहमा हुआ कोई, डायरेक्ट बात भी नहीं की है, "प्रीयतम मेरे मुझको लिखना क्या ये तुम्हारे क़ाबिल है", मतलब वो भी एक इजाज़त ले रही है कि आपके लायक है कि नहीं। यह नहीं कि नहीं नहीं यह तो अपना ही हो गया। वो भी पूछ रही है मेरे से। तो ये मुकेश जी हैं तो पहले "फू...ल", "भू...ल", "भे...जा" भी आएगा, मैंने बोला, 'इंदीवर जी, ऐसा ऐसा है'। बोले कि तुम बनिए के बनिए ही रहोगे, कभी सुधरोगे नहीं तुम। जिसपे गाना हो रहा है, उसको क्या लगेगा? जिसने लिखा है उसको कितना बुरा लगेगा? ऐसे ही रहेगा। तो हमने बोला कि चलो, ऐसे ही रखते हैं। तो उसको फिर गायकी के हिसाब से क्या कर दिया, उसमें ब्रेथ इनटेक डाल दिया, सांस लेके अगर गाया जाए तो "फूल" होगा "फ़ूल" नहीं होगा। बड़ा डेलिकेट, कि वह फ़्लावर था, बहुत नरम नरम, ऐसे ऐसे यह गाना बन गया, लेकिन यह गाना आज भी लोगों को पसंद आता है, क्यों आता है यह समझ में नहीं आता, ये इंदीवर जी का कमाल है, लोगों का कमाल है, उस माहौल का कमाल है!



क्या आप जानते हैं...
कि 'सरस्वतीचन्द्र' के संगीत के लिए कल्याणजी-आनंदजी को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. नायिका पर फिल्माया गया है ये गीत, जो नायक के मनोभावों को महसूस कर रही है, किस गायक की आवाज़ है गीत में -२ अंक.
२. हैंडसम हीरो धमेन्द्र हैं फिल्म के नायक, नायिका कौन है - २ अंक.
३. गीतकार कौन हैं - २ अंक.
४. १९७३ में प्रदर्शित इस फिल्म का नाम बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
सिर्फ अवध जी और शरद जी आमने सामने हैं, कहाँ गए बाकी धुरंधर सब ?

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Tuesday, June 22, 2010

मोहब्बत तर्क की मैंने गरेबाँ सी लिया मैंने.. दिल पर पत्थर रखकर खुद को तोड़ रहे हैं साहिर और तलत



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८९

"सना-ख़्वाने-तक़दीसे-मशरिक़ कहां हैं?" - मुमकिन है कि आपने यह पंक्ति पढी या सुनी ना हो, लेकिन इस पंक्ति के इर्द-गिर्द जो नज़्म बुनी गई थी, उससे नावाकिफ़ होने का तो कोई प्रश्न हीं नहीं उठता। यह वही नज़्म है, जिसने लोगों को गुरूदत्त की अदायगी के दर्शन करवाएँ, जिसने बर्मन दा के संगीत को अमर कर दिया, जिसने एक शायर की मजबूरियों का हवाला देकर लोगों की आँखों में आँसू तक उतरवा दिए और जिसने बड़े हीं सीधे-सपाट शब्दों में "चकला-घरों" की हक़ीकत बयान कर मुल्क की सच्चाई पर पड़े लाखों पर्दों को नेस्तनाबूत कर दिया... अभी तक अगर आपको इस नज़्म की याद न आई हो तो जरा इस पंक्ति पर गौर फरमा लें- "जिसे नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं?" पूरी की पूरी नज़्म वही है, बस एक पंक्ति बदली गई है और वो भी इसलिए क्योंकि फिल्म और साहित्य में थोड़ा फर्क होता है.. फिल्म में हमें अपनी बात खुलकर रखनी होती है। जहाँ तक मतलब का सवाल है तो "सना-ख़्वाने..." में पूरे पूरब का जिक्र है, वहीं "जिसे नाज़ है..." में अपने "हिन्दुस्तान" का बस। लेकिन इससे लफ़्ज़ों में छुपा दर्द घट नहीं जाता.... और इस दर्द को उकेरने वाला शायर तब भी घावों की उतनी हीं गहरी कालकोठरी में जब्त रहता है। इस शायर के बारे में और क्या कहना जबकि इसने खुद कहा है कि "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?" ... जिसे दुनिया का मोह नहीं ,उससे ज़ीस्त और मौत के सवाल-जवाब करने से क्या लाभ! इस शायर को तो अपने होने का भी कोई दंभ, कोई घमंड, कोई अना नहीं है.. वो तो सरे-आम कहता है "मैं पल-दो पल का शायर हूँ..... मुझसे पहले कितने शायर आए और आ कर चले गए....

कल और आएंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले,
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले ।
कल कोई मुझ को याद करे, क्यों कोई मुझ को याद करे
मसरुफ़ ज़माना मेरे लिए, क्यों वक़्त अपना बरबाद करे ॥


इस शायर से मेरा लगाव क्या है, यह मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता। मुझे लिखने का शौक़ है और आज-कल थोड़े गाने भी लिख लेता हूँ... गाना लिखने वालों के बारे में लोग यही ख्याल पालते हैं (लोग क्या... खुद गीतकार भी यही मानते हैं) कि गानों में मतलब का कुछ लिखने के लिए ज्यादा स्कोप, ज्यादा मौके नहीं होते.. लेकिन जब भी मैं इन शायर को पढता हूँ तो मुझे ये सारे ख्याल बस बहाने हीं लगते हैं... लगता है कि कोई अपनी लेखनी से बोझ हटाने के लिए दूसरों के सर पर झूठ का पुलिंदा डाल रहा है। अब अगर कोई शायर अपने गाने में यह तक लिख दे कि

कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है

कि ज़िन्दगी तेरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाँव में
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी जो मेरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी


और लोग उसके कहे हरेक लफ़्ज़ को तहे-दिल से स्वीकार कर लें तो इससे यह साबित हो जाता है कि मतलब का लिखने के लिए मौकों की जरूरत नहीं होती बल्कि यह कहिए कि बेमतलब लिखने के लिए मौके निकालने होते हैं। यह शायर मौके नहीं ढूँढता, बल्कि आपको मौके देता है अपनी अलसाई-सी दुनिया में ताकने का.. उसे निखरने का, उसे निखारने का। आप पशेमान होते हो तो आपसे कहता है

तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले
अपने पे भरोसा है तो ये दाँव लगा ले


ना मुंह छिपा के जियो और ना सर झुका के जियो
गमों का दौर भी आए तो मुस्कुरा के जियो ।


फिर आप संभल जाते हो... लेकिन अगले हीं पल आप इस बात का रोना रोते हो कि आपको वह प्यार नहीं मिला जिसके आप हक़दार थे। यह आपको समझाता है, आप फिर भी नहीं समझते तो ये आपके हीं सुर में सुर मिला लेता है ताकि आपके ग़मों को मलहम मिल सके

जाने वो कैसे लोग थे, जिनके प्यार को प्यार मिला ?
हमने तो जब कलियाँ मांगीं, काँटों का हार मिला ॥


आपको प्यार हासिल होता है, लेकिन आप "बेवफ़ाईयो" का शिकार हो जाते हैं। आपको उदासियों के गर्त्त में धँसता देख यह आपको ज़िंदगी के पाठ पढा जाता है:

तारुफ़ रोग हो जाए तो उसको भूलना बेहतर,
ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा ।
वो अफ़साना जिसे अन्जाम तक लाना न हो मुमकिन,
उसे एक ख़ूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा ॥


इतना सब करने के बावजूद यह आपसे अपना हक़ नहीं माँगता.. यह नहीं कहता कि मैंने तुम्हें अपनी शायरी के हज़ार शेर दिए, तुम्हें तुम्हारी ज़िंदगी के लाखों लम्हें नसीब कराए... यह तो उल्टे सारा श्रेय आपको हीं दे डालता है:

दुनिया ने तजुर्बातो हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूं मैं


यह शायर, जिसके एक-एक हर्फ़ में तसव्वुरात की परछाईयाँ उभरती हैं.. अपने चाहने वालों के बीच "साहिर" के नाम से जाना जाता है। इनके बारे में और कुछ जानने के लिए चलिए हम "विकिपीडिया" और "प्रकाश पंडित" के दरवाजे खटखटाते हैं।

साहिर लुधियानवी का असली नाम अब्दुल हयी साहिर है। उनका जन्म ८ मार्च १९२१ में लुधियाना के एक जागीरदार घराने में हुआ था। माता के अतिरिक्त उनके पिता की कई पत्नियाँ और भी थीं। किन्तु एकमात्र सन्तान होने के कारण उसका पालन-पोषण बड़े लाड़-प्यार में हुआ। मगर अभी वे बच्चा हीं थे कि पति की ऐय्याशियों से तंग आकर उनकी माता पति से अलग हो गई और चूँकि ‘साहिर’ ने कचहरी में पिता पर माता को प्रधानता दी थी, इसलिए उनके बाद पिता से और उसकी जागीर से उनका कोई सम्बन्ध न रहा और उन्हें गरीबी में गुजर करना पड़ा। साहिर की शिक्षा लुधियाना के खालसा हाई स्कूल में हुई। सन् १९३९ में जब वे गव्हर्नमेंट कालेज के विद्यार्थी थे अमृता प्रीतम से उनका प्रेम हुआ जो कि असफल रहा । कॉलेज़ के दिनों में वे अपने शेरों के लिए ख्यात हो गए थे और अमृता उनकी प्रशंसक । लेकिन अमृता के घरवालों को ये रास नहीं आया क्योंकि एक तो साहिर मुस्लिम थे और दूसरे गरीब । बाद में अमृता के पिता के कहने पर उन्हें कालेज से निकाल दिया गया।

सन् १९४३ में साहिर लाहौर आ गये और उसी वर्ष उन्होंने अपनी पहली कविता संग्रह ’तल्खियाँ’ छपवायी। सन् १९४५ में वे प्रसिद्ध उर्दू पत्र अदब-ए-लतीफ़ और शाहकार (लाहौर) के सम्पादक बने। बाद में वे द्वैमासिक पत्रिका सवेरा के भी सम्पादक बने और इस पत्रिका में उनकी किसी रचना को सरकार के विरुद्ध समझे जाने के कारण पाकिस्तान सरकार ने उनके खिलाफ वारण्ट जारी कर दिया। १९४९ में वे दिल्ली आ गये। कुछ दिनों दिल्ली में रहकर वे बंबई आ गये जहाँ पर व उर्दू पत्रिका शाहराह और प्रीतलड़ी के सम्पादक बने। फिल्म आजादी की राह पर (१९४९) के लिये उन्होंने पहली बार गीत लिखे किन्तु प्रसिद्धि उन्हें फिल्म नौजवान, जिसके संगीतकार सचिनदेव बर्मन थे, के लिये लिखे गीतों से मिली।

शायर की हैसियत से ‘साहिर’ ने उस समय आँख खोली जब ‘इक़बाल’ और ‘जोश’ के बाद ‘फ़िराक़’, ‘फ़ैज़’, ‘मज़ाज़’ आदि के नग़्मों से न केवल लोग परिचित हो चुके थे बल्कि शायरी के मैदान में उनकी तूती बोलती थी। कोई भी नया शायर अपने इन सिद्धहस्त समकालीनों से प्रभावित हुए बिना न रह सकता था। अतएव ‘साहिर’ पर भी ‘मजाज़’ और ’फ़ैंज़’ का ख़ासा प्रभाव पड़ा। लेकिन उनका व्यक्तिगत अनुभव जो कि उनके पिता और उनकी प्रेमिका के पिता के प्रति घृणा और विद्रोह की भावनाओं से ओत-प्रोत था, उनके लिए कामगर साबित हुआ। लोगों ने देखा कि फ़ैज़’ या ‘मजाज़’ का अनुकरण करने के बजाय ‘साहिर’ की रचनाओं पर उसके व्यक्तिगत अनुभवों की छाप है और उसका अपना एक अलग रंग भी है।

‘साहिर’ मौलिक रूप से रोमाण्टिक शायर है। प्रेम की असफलता ने उसके दिलो-दिमाग़ पर इतनी कड़ी चोट लगाई कि जीवन की अन्य चिन्ताएँ पीछे जा पड़ी। बस एक प्रेम की बात हो तो कोई सह भी ले, लेकिन उन्हें तो जीवन में दो प्रेम असफलता मिली - पहला कॉलेज के दिनों में अमृता प्रीतम के साथ और दूसरी सुधा मल्होत्रा से। वे आजीवन अविवाहित रहे तथा उनसठ वर्ष की उम्र में २५ अक्टूबर १९८० को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया ।

’साहिर’ की ग़ज़लें बहुत कुछ ऐसा कह जाती हैं, जिसे आप अपनी आँखों में रोककर रखे होते हैं.. न चाहते हुए भी, मन मसोसकर आप उन जज्बातों को पीते रहते हैं। आपको बस एक ऐसे आधार की जरूरत होती है, जहाँ आप अपने मनोभावों को टिका सकें। यकीन मानिए.. बस इसी कारण से, बस यही उद्देश्य लेकर हम आज की गज़ल के साथ हाज़िर हुए हैं। ’साहिर’ के लफ़्ज़ और क्या करने में सक्षम हैं, यह तो आपको गज़ल सुनने के बाद हीं मालूम पड़ेगा.... सोने पे सुहागा यह है कि आपके अंदर घर कर बैठी कड़वाहटों को मिटाने के लिए "तलत महमूद" साहब की आवाज़ की "मिश्री" भी मौजूद है। तो देर किस बात की... पेश-ए-खिदमत है आज की गज़ल:

मोहब्बत तर्क की मैंने गरेबाँ सी लिया मैंने
ज़माने अब तो ख़ुश हो ज़हर ये भी पी लिया मैंने

अभी ज़िंदा हूँ लेकिन सोचता रहता हूँ ये दिल में
कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैंने

तुझे अपना नहीं सकता मगर इतना भी क्या कम है
कि कुछ घड़ियाँ तेरे ख़्वाबों में खो कर जी लिया मैंने

बस अब तो मेरा _____ छोड़ दो बेकार उम्मीदो
बहुत दुख सह लिये मैंने बहुत दिन जी लिया मैंने




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "सितम" और शेर कुछ यूँ था-

भूल जाता हूँ मैं सितम उस के
वो कुछ इस सादगी से मिलता है

पिछली महफ़िल की शान बने "नीरज रोहिल्ला" जी। एक-एक करके महफ़िल में और भी कई सारे मेहमान (मेरे हिसाब से तो आप स्ब घर के हीं है.. मेहमान कहकर मैं महफ़िल की रस्म-अदायगी कर रहा हूँ..बस) शामिल हुए। जहाँ शन्नो जी ने हमारी गलती सुधारी वहीं सुमित जी हर बार की तरह बाद में आऊँगा कहकर निकल लिए। जहाँ सीमा जी ने पहली मर्तबा अपने शेरों के अलावा कुछ शब्द कहे (भले हीं उन शेरों का मतलब बताने के लिए उन्हें अतिरिक्त शब्द महफ़िल पर डालने पड़े, लेकिन उनकी तरफ़ से कुछ अलग पढकर सुखद आश्चर्य हुआ :) ) ,वहीं अवनींद्र जी के शेर अबाध गति से दौड़ते रहें। मंजु जी और नीलम जी ने महफ़िल के अंतिम दो शेर कहे... इन दोनों में एक समानता यह थी कि जहाँ मंजु जी अपनी हीं धुन में मग्न थीं तो वहीं नीलम जी शन्नो जी की धुन में।

इस तरह से एक सप्ताह तक हमारी महफ़िल रंग-बिरंगे लोगों से सजती-संवरती रही। इस दरम्यान ये सारे शेर पेश किए गए:

दुनिया के सितम याद ना अपनी हि वफ़ा याद
अब मुझ को नहीं कुछ भी मुहब्बत के सिवा याद । (जिगर मुरादाबादी)

तकदीर के सितम सहते जिन्दगी गुजर जाती है
ना हम उसे रास आते हैं ना वो हमें रास आती है. (शन्नो जी)

तुम्हारी तर्ज़-ओ-रविश, जानते हैं हम क्या है
रक़ीब पर है अगर लुत्फ़, तो सितम क्या है? (ग़ालिब)

भरम तेरे सितम का खुल चुका है
मैं तुझसे आज क्यों शर्मा रहा हूँ (फ़िराक़ गोरखपुरी)

कितनी शिद्दत से ढाये थे सितम उसने
अब मैं रोया तो ये इश्क मैं रुसवाई है (अवनींद्र जी)

फूल से दिल पे उसका ये सितम देखो
तोड़ के अपनी किताबों मैं सजाया उसने (अवनींद्र जी)

शफा देता है ज़ख्मो को तुम्हारा मरहमी लहजा ,
मगर दिल को सताते हैं वो सितम भी तुम्हारे हैं (अवनींद्र जी)

जिंदगी को याद आ रहे तेरे सितम ,
धड़कने भुलाने की दे रही हैं कसम . (मंजु जी)

सितम ये है कि उनके ग़म नहीं,
ग़म ये है कि उनके हम नहीं (नीलम जी)

और अब एक महत्वपूर्ण सूचना:

हम टिप्पणियों पे नियंत्रण (टिप्पणियों का "मोडरेशन") नहीं करना चाहते, इसलिए हम आपसे अपील करते हैं कि महफ़िल-ए-ग़ज़ल पर शायराना माहौल बनाए रखने में हमारी मदद करें। दर-असल कुछ कड़ियों से महफ़िल पे ऐसी भी टिप्पणियाँ आ रही हैं, जिनका इस आलेख से कोई लेना-देना नहीं होता। उन्हें पढकर लगता है कि लिखने वाले ने बिना ग़ज़ल सुने, बिना आलेख पढे हीं अपनी बातें कह दी हैं। हमारे कुछ मित्रों ने महफ़िल की इस बिगड़ी स्थिति पर आपत्ति व्यक्त की है। इसलिए हम आप सबसे यह दरख्वास्त करते हैं कि अपनी टिप्पणियों को यथा-संभव इस आलेख/गज़ल/शायर/संगीतकार/गुलूकार/शेर तक हीं सीमित रखें। इसका अर्थ यह नहीं है कि आप टिप्पणी देना या फिर महफ़िल में आना हीं बंद कर दें.. तब तो दूसरे मित्र आराम से जान जाएँगे कि हम किनकी बात कर रहे थे :)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

कांकरिया मार के जगाया.....लता का चुलबुला अंदाज़ और निखरा कल्याणजी-आनंदजी के सुरों में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 423/2010/123

ल्याणजी-आनंदजी के स्वरबद्ध गीतों का सिलसिला जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर' के अन्तर्गत। आज कल्याणजी-आनंदजी के संगीत का जो रंग आप महसूस करेंगे, वह रंग है लोक संगीत का, और साथ ही साथ छेड़-छाड़ का, मस्ती का, चुलबुलेपन का। यह एक बेहद यूनिक गीत है। यूनिक इसलिए कहा क्योंकि आम तौर पर हमारी फ़िल्मों में कुछ महफ़िलों में, पार्टियों में गाए जाने वाले किस्म के गीत होते हैं, कुछ लोक नृत्य के गीत होते हैं, और कुछ सड़क पर नाचती गाती टोलियों के टपोरी किस्म के नृत्य गीत होते हैं। लेकिन अगर इन तीनों विविध और एक दूसरे से बिलकुल भिन्न शैलियों को एक ही गाने में इस्तेमाल कर दिया जाए तो कैसा रहेगा? जी हाँ, कल्याणजी-आनंदजी ने यही कमाल तो कर दिखाया है आज के प्रस्तुत गीत में। फ़िल्म 'हिमालय की गोद में' का यह चुलबुला सा गीत लता मंगेशकर की आवाज़ में आज सुनिए इस महफ़िल में। माला सिंहा, जो एक रस्टिक, यानी कि गाँव की गोरी जो शहरी तौर तरीकों से बिल्कुल बेख़बर है, उसे मनोज कुमार एक शहरी पार्टी में ले जाते हैं और वहाँ उन्हे नृत्य प्रदर्शन करने को कहा जाता है। तब वो इस गीत को गाते हुए नृत्य करती हैं। इस गाने की धुन को सुनते हुए आप सचमुच ही हिमालय की गोद में पहुँच जाएँगे। पहाड़ों का लोक संगीत कितना सुकून दायक होती है, इस गीत के ज़रिए भी महसूस किया जा सकता है। और मैं क्या चीज़ हूँ साहब, इस गाने की तारीफ़ तो सचिन देव बर्मन साहब ख़ुद कर चुके हैं विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में, जिसमें उन्होने यह कहा था - "मुझे सभी संगीतकारों का संगीत अच्छा लगता है, पर इतना समय नहीं है कि मैं आपको सभी के गानें सुनाऊँ। अब मैं बात करता हूँ कल्याणजी-आनंदजी भाइयों की। जैसा उनका नाम वैसा काम। कल्याणजी अपनी धुनों से संगीत का कल्याण करते हैं, और आनंदजी अपनी धुनों से सबको आनंद पहुँचते हैं। वो दोनों बहुत ही हँसमुख और बिना घमण्ड वाले इंसान हैं। उनकी एक रचना मुझे बेहद पसंद है जो लोक गीत पर आधारित है, आप भी सुनिए।" ज़रूर सुनेंगे दोस्तों, लेकिन उससे पहले इस गीत के बनने की कहानी तो जान लीजिए ख़ुद आनंदजी से।

कमल शर्मा: आनंदजी, आपका कोई गाना, मार्केट में कोई लड़की जो दातून से किसी को मार रही थी, सुना है उससे भी कोई गाना आपने बनाया था? वह कौन सा गाना था?

आनंदजी: (हंसते हुए) अब बातों ही बातों में आप बहुत सारी बातें निकलवा रहे हैं! देखिए, हर सिचुयशन जो है गाने की, उसके पीछे 'इन्स्पिरेशन' कोई ना कोई तो ज़रूर होगा। तो गिरगाम में हम रहते थे, तो दतवाँ (दातून), हम बनिए लोग जो हैं, दतवाँ कहते हैं, तो दतवाँ लेने के लिए पिताजी ने मुझे भेजा। वो बोलते थे कि दतवाँ जो अच्छी ले आए वो समझदार लड़का है। तो ये है कि एक्ज़ाम्पल होता था। तो दतवाँ लेने के लिए भेजा मुझे तो वहाँ दतवाँ काटने वाली लड़की जो है, वो लड़की दतवाँ काट रही थी और उसके बीच में जो होती है ना, गठान, उसको काट के फेंक देती है, बैठे बैठे वो सामने वाले लड़के को मार रही थी। तो वो भी चिल्ला के बोला 'ए क्या कर रही है तू, ये क्या कर रही है तू?' लड़की बोली कि 'तू भी मार ना!' तो ये एक मुखड़ा आ गया कि यह एक ऐंगल रोमांस का भी है। तो उसको उस भाषा में तो लिख नहीं सकते थे, कंकरिया मार के इशारे, तो जहाँ पे ऐसी सिचुएशन आएगी, उसको हम डाल देंगे, मटके के साथ, वगेरह!

तो आइए दोस्तों, इस थिरकते गीत का आनंद लेते हैं और साथ ही साथ सलाम करते हैं मनोज कुमार और कल्याणजी-आनंदजी की तिकड़ी को! आपको बता दें इस गीत के गीतकार हैं आनंद बक्शी साहब।



क्या आप जानते हैं...
कि 'सहेली' का "जिस दिल में बसा था प्यार तेरा" १९६५ की बिनाका गीतमाला की सालाना पायदान का गीत नम्बर एक बना था, तो इसी साल मुकेश की ही आवाज़ में 'हिमालय की गोद' में का "मैं तो एक ख़्वाब हूँ" ने म्युज़िक डायरेक्टर्स ऐसोसिएशन द्वारा प्रदत्त सर्वश्रेष्ठ गीत का पहला पुरस्कार जीता था।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस खूबसूरत से युगल गीत के गीतकार बताएं -२ अंक.
२. मुखड़े में शब्द है "मोती", फिल्म का नाम बताएं - २ अंक.
३. एक मशहूर उपन्यास पर आधारित है ये फिल्म, जिसे ४ खण्डों में लिखा गया है, किस मूल भाषा में है ये कृति - २ अंक.
४. ये गीत किस नायक नायिका पर फिल्माया गया है - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
इस बार अवध जी पहले आये और ३ अंक चुरा ले गए, शरद जी को दो अंक मिलेंगें पर इंदु जी, इस बार आपका तुक्का नहीं चलेगा. पूर्वी जी आपको बहुत दिनों बाद यहाँ देख बहुत अच्छा लगा

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Monday, June 21, 2010

बहुत कुछ खत्म होके भी हिमेश भाई और संगीत के दरम्यां कुछ तो बाकी है.. और इसका सबूत है "मिलेंगे मिलेंगे"



ताज़ा सुर ताल २३/२०१०

सुजॊय - सभी श्रोताओं व पाठकों का स्वागत है 'ताज़ा सुर ताल' के एक और ताज़े अंक में। इस शुक्रवार वह फ़िल्म आख़िर रिलीज़ हो ही गई जिसकी लोग बड़ी बेसबरी से इंतज़ार कर रहे थे। 'रावण'। अभी दो दिन पहले एक न्यूज़ चैनल पर इस फ़िल्म से संबंधित 'ब्रेकिंग्‍ न्यूज़' का शीर्षक था "मिया पर बीवी हावी"। ग़लत नहीं कहा था उस न्यूज़ चैनल ने। हालाँकि अभिषेक ने अच्छा काम किया है, लेकिन ऐश की अदाकारी की तारीफ़ करनी ही पड़ेगी। देखते हैं फ़िल्म कैसा व्यापार करता है इस पूरे हफ़्ते में।

विश्व दीपक - मैने रावण देखी और मुझे तो बेहद पसंद आई। मैने ना सिर्फ़ इस फिल्म का हिन्दी संस्करण देखा बल्कि इसका तमिल संस्करण (रावणन) भी देखा.. और दुगना आनंद हासिल किया । चलिए 'रावण' से आगे बढ़ते हैं। आज हम इस स्तंभ में जिस फ़िल्म के गानें सुनने जा रहे हैं, वह कई दृष्टि से अनोखा है। पहली बात तो यह कि इस फ़िल्म की मेकिंग बहुत पहले से ही शुरु हो गई थी जब शाहीद और करीना का ब्रेक-अप नहीं हुआ था। तभी तो यह जोड़ी नज़र आएगी इस फ़िल्म में। शायद यही बात फ़िल्म की सफलता का कारण बन जाए, किसे पता! दूसरी बात यह कि इसमें हिमेश रेशम्मिया का संगीत है, लेकिन वैसा संगीत नहीं जैसा कि वो आजकल की फ़िल्मों में दे रहे हैं। मेरा ख़याल है कि इस फ़िल्म के गानें भी बहुत पहले से ही बन चुके होंगे, जिस समय हिमेश अपनी आवाज़ के मुकाबले सोनू निगम, शान, अलका याज्ञ्निक, श्रेया घोषाल जैसे गायकों को ज़्यादा मौका दिया करते थे। इसलिए जिन श्रोताओं को हिमेश की आवाज़ से ऐलर्जी है, वो शायद इस बार इस फ़िल्म के गानें सुनने में दिलचस्पी लें।

सुजॊय - सही कहा आपने। दरसल मुझे जितना पता है, 'मिलेंगे मिलेंगे' आज से पाँच साल पहले प्लान की गई थी, और उस समय हिमेश का स्टाइल कुछ और ही हुआ करता था। इस फ़िल्म के गीतों में सुनने वालों को उस पुराने हिमेश और आज के हिमेश का संगम सुनाई देगा। 'मिलेंगे मिलेंगे' के निर्देशक हैं सतीश कौशिक, जिनके साथ हिमेश ने अपनी सब से बेहतरीन फ़िल्म 'तेरे नाम' में संगीत दिया था। इसके अलावा 'वादा' और 'रन' फ़िल्म में भी ये दोनों साथ में आए थे। और कहने की ज़रूरत नहीं कि इन दो फ़िल्मों के गानें भी चले थे भले ही फ़िल्में फ़्लॊप हुईं थीं। आज इस फ़िल्म के गीतों को सुनते हुए हमें अहसास हो जाएगा कि क्या हिमेश फिर से एक बार पिछले दशक के अपने मेलोडियस गीतों की तरह इस फ़िल्म में भी वैसा ही कुछ संगीत दे पाएँ हैं! 'तेरे नाम', 'दिल मांगे मोर', 'चुरा लिया है तुमने' आदि फ़िल्मों का ज़माना क्या वापस आ पाएगा इस फ़िल्म के ज़रिए?

विश्व दीपक - अब बातों को देते हैं विराम और सुनते हैं फ़िल्म का पहला गीत हिमेश की आवाज़ में। फ़िल्म के गानें लिखे हैं गीतकार समीर ने। और आपको बता दें कि इस गीत के ज़रिए ही फ़िल्म का प्रोमो इन दिनों दिखाया जा रहा है टेलीविज़न पर।

गीत: कुछ तो बाक़ी है


सुजॊय - "कुछ तो बाक़ी है"। विश्व दीपक जी, इस गीत को सुन कर हिमेश की आवाज़ और गायन शैली के बारे में कुछ नहीं कहूँगा क्योंकि कुछ नयी बात कहने की कोई गुंजाइश बाक़ी नहीं है। लेकिन संगीत और संगीत संयोजन अच्छा है और इतना तो ज़रूर कह सकते हैं कि हिमेश के संगीत में अभी बहुत कुछ बाक़ी है। आपका क्या ख़याल है?

विश्व दीपक - यह गीत यक़ीनन एक ऐसा गीत है जो एक मूड बना देता है और दोबारा सुनने के लिए उकसा देता है। समीर की लेखन शैली और स्टाइल साफ़ झलकता है इस गीत में। और जहाँ तक ऒर्केस्ट्रेशन का सवाल है, इसमें तबला, हारमोनियम और सारंगी जैसे साज़ों की ध्वनियों का सुंदर प्रयोग किया गया है। और सब से बड़ी बात यह कि इस गीत के जो बोल हैं वो फ़िल्म के किरदारों पर ही नहीं बल्कि शाहीद-करीना की निजी ज़िंदगी को भी छू जाते हैं। "सब ख़त्म होके भी तेरे मेरे दरमीयाँ कुछ तो बाक़ी है" - अब इस तरह के बोल जान बूझ कर डाले गऎ है या फिर एक महज़ इत्तेफ़ाक़ है, यह तो हम नहीं जानते हैं, लेकिन जो भी है मज़ेदार बन पड़ा है। मीडिया को भी भरपूर ख़ुराक मिलने वाला है इस फ़िल्म के रिलीज़ पर।

सुजॊय - आगे बढ़ते हैं और दूसरा जो गीत है उसे गाया है अलका याज्ञ्निक और जयेश गांधी ने। यह फ़िल्म का शीर्षक गीत है "मिलेंगे मिलेंगे", और इसी का एक और वर्ज़न भी है जिसे हम आगे चलकर सुनेंगे।

गीत: मिलेंगे मिलेंगे (अलका/जयेश)


सुजॊय - बहुत दिनों के बाद अलका की आवाज़ सुन कर अच्छा लगा। एक बात जो मैंने नोटिस की इस गीत को सुनते हुए कि इस गीत का जो ऒरकेस्ट्रेशन है, वह हिमेश के पहले के गीतों में कई कई बार हो चुका है। मुझे पता नहीं वह कौन-सा साज़ है, लेकिन इस गीत में आपको उस साज़ की धुन सुनाई देगी जिसका हिमेश ने "चुरा लिया है तुमने" गीत में भी प्रोमिनेण्ट तरीके से किया था। पार्श्व में कोरस का इस्तेमाल भी हिमेश ने अपने उसी पुराने शैली में किया है। गीत ठीक ठाक है, लेकिन कोई नई बात नज़र नहीं आई।

विश्व दीपक - और अब सोनू निगम और अलका याज्ञ्निक की युगल आवाज़ें। सुजॊय, क्या आप बता सकते हैं कि इससे पहले आपने सोनू और अलका की युगल आवाज़ें किस फ़िल्म में आख़िरी बार सुना था?

सुजॊय - मेरा ख़याल है पिछले ही साल फ़िल्म 'लाइफ़ पार्टनर' में "कल नौ बजे तुम चांद देखना" जो गीत है, उसी में ये दोनों साथ में आए थे।

विश्व दीपक - और उस गीत की तरह यह गीत भी नर्मोनाज़ुक है और इस जोड़ी ने पूरा न्याय किया है। वैसे इसे पूरी तरह से युगल कहना ग़लत होगा। भले ही फ़िल्म के सी.डी पर सोनू और अलका के नाम दिए गए हैं, लेकिन इसमें सुज़ेन डी'मेलो ने अंग्रेज़ी के बोल गाए हैं जिनकी इस गीत में कोई ज़रूरत नहीं थी।

गीत: तुम चैन हो


सुजॊय - बिलकुल सही कहा था आपने कि उन अंग्रेज़ी के शब्दों की कोई ज़रूरत नहीं थी। ज़रा याद कीजिए फ़िल्म 'लगान' के उस गीत को, "ओ री छोरी", जिसमें वसुंधरा दास ने अंग्रेज़ी की पंक्तियाँ गाईं थीं। इसका ज़िक्र मैं यहाँ इसलिए कर रहा हूँ यह बताने के लिए कि उस गीत में वह न्यायसंगत था, लेकिन इस गीत में उसकी ज़रूरत शायद ही थी। ख़ैर, सोनू निगम ने फिर एक बार अपने बेहतरीन अंदाज़ में गायन प्रस्तुत किया है, और हिमेश के अनुसार वो हैं ही आज के नंबर वन गायक। एक बार करण जोहर के 'कॊफ़ी विथ करण' में जब करण ने कई गायकों को १ से १० के स्केल में रेट करने को कहा था, तब हिमेश ने उदित नारयण को ७ और सोनू निगम को १० की रेटिंग्‍ दी थी। अलका के खाते में आए थे ८ की रेटिंग। ख़ैर, ये तो हिमेश की व्यक्तिगत राय थी।

विश्व दीपक - अगला गीत है "इश्क़ की गली है मखमली"। राहत फ़तेह अली ख़ान और जयेश गांधी की आवाज़ें। राहत साहब गाने की शुरुआत करते हैं और फिर उसके बाद जयेश गीत को आगे बढ़ाते हैं। राहत साहब अपने अंदाज़ के ऊँचे सुर में "इश्क़ की गली है मखमली रब्बा" गाते हैं, जब कि जयेश भी अपने ही अंदाज़ में "मेरे दिल को तुमसे कितनी मोहब्बत" गाते हैं। उनकी आवाज़ भी मौलिक आवाज़ है और किसी और से नहीं मिलती।

सुजॊय - इससे पहले राहत फ़तेह अली ने हिमेश रेशम्मिया की धुन पर फ़िल्म 'नमस्ते लंदन' का मशहूर गीत "मैं जहाँ रहूँ" गाया था। लेकिन उस गीत में जो बात थी, वह असर 'मिलेंगे मिलेंगे' के इस गीत में नहीं आ पाया है। चलिए सुनते हैं।

गीत: इश्क़ की गली है मखमली


विश्व दीपक - अगला जो गीत है वह थोड़ा सा अलग हट के है इसलिए क्योंकि आजकल इस तरह के गानें बनने लगभग बंद ही हो गए हैं। ९० के दशक और २००० के दशक के शुरुआती सालों तक इस तरह के "चूड़ी-कंगन" वाले गानें बहुत बनें हैं, लेकिन आज के फ़िल्मों के विषयवस्तु इस तरह के होते हैं कि इस तरह के गीतों के लिए कोई जगह या सिचुएशन ही नहीं पैदा हो पाती। यह है अलका यज्ञ्निक और साथियों की आवाज़ों में "ये हरे कांच की चूड़ियाँ, पहनी तेरे नाम की, राधा हो गई श्याम की"। वैसे बोल तो साधारण हैं लेकिन धुन ऐसी कैची है कि सुनते हुए अच्छा लगता है।

सुजॊय - और गाने के अंत में "मिलेंगे मिलेंगे" वाले गीत की धुन पर कोरस "मिलेंगे मिलेंगे" गा उठते हैं। और विश्व दीपक जी, इस गाने से याद आया कि ६० के दशक में एक फ़िल्म आई थी 'हरे काँच की चूड़ियाँ', जिसमें आशा भोसले का गाया शीर्षक गीत था "बज उठेंगे हरे काँच की चूड़ियाँ"। शैलेन्द्र जी ने उस गीत में मुखड़े और अंतरे में अंतर ना रखते हुए बड़े ही ख़ूबसूरत तरीक़े से लिखा था "धानी चुनरी पहन, सज के बन के दुल्हन, जाउँगी उनके घर, जिन से लागी लगन, आयेंगे जब सजन, जीतने मेरा मन, कुछ न बोलूँगी मैं, मुख न खोलूँगी मैं, बज उठेंगी हरे कांच की चूड़ियाँ, ये कहेंगी हरे कांच की चूड़ियाँ"।

विश्व दीपक - बिलकुल मुझे भी याद है यह गीत और इसे हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर भी तो सुनवाया था। ख़ैर, अलका और सखियों की आवाज़ों में आइए यह गीत सुना जाए और हमारे श्रोताओं को सुनवाया जाए।

गीत: ये हरे काँच की चूड़ियाँ


सुजॊय - और अब हम आ पहुँचे हैं इस फ़िल्म के अंतिम गीत पर। जैसा कि उपर हमने बताया था कि अलका याज्ञ्निक और जयेश गांधी के गाए फ़िल्म के शीर्षक गीत "मिलेंगे मिलेंगे" का एक और वर्ज़न है, तो अब बारी है उसी दूसरे वर्ज़न को सुनने की जिसे ख़ुद हिमेश भाई और श्रेया घोषाल ने गाया है। यक़ीन मानिए, अलका-जयेश वाले वर्ज़न से यह वला वर्ज़न मुझे ज़्यादा अपील किया। और "मिलेंगे मिलेंगे" वाले जगह की ट्युन ऐसी है कि एक हौंटिंग वातावरण जैसा बन जाता है, और इसमें शक़ नहीं कि पूरे फ़िल्म में इसी ट्युन का बार बार इस्तेमाल होता रहेगा।

विश्व दीपक - और इस गीत में शाहीद कपूर भी कुछ लाइनें कहते हैं। सिंथेसाइज़र्स का ख़ूबसूरत इस्तेमाल हुआ है। और फिर से उसी "चुरा लिया है तुमने" वाले साज़ का इस्तेमाल ऒरकेस्ट्रेशन में सुनाई देता है। हिमेश और श्रेया की आवाज़ें एक साथ अच्छी लगती है। फ़िल्म 'रेडियो' का "जानेमन" गीत भी इन दोनों ने ख़ूब गाया था।

गीत: मिलेंगे मिलेंगे (हिमेश/श्रेया)


"मिलेंगे मिलेंगे" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ***१/२

सुजॊय - इन सभी गीतों को सुन कर मैं यह कह सकता हूँ कि भले ही इन गीतों में बहुत ख़ास कोई बात नहीं है, लेकिन गानें मेलोडियस हैं, सुन कर अच्छा लगा। हालाँकि इन गीतों में वो बात नहीं है कि जो फ़िल्म को हिट करा दे, लेकिन अगर फ़िल्म दूसरे पक्षों की वजह से हिट हो जाती है तो ये गानें भी ख़ूब चलेंगे, जैसा कि हमेशा से होता आया है। बस हिमेश भाई को शुभकामनाएँ देते हुए यही कहूँगा कि हिमेश भाई, अभी भी आप में बहुत कुछ बाक़ी है, बेस्ट ऒफ़ लक!

विश्व दीपक - फिर भी इतना तो कहना होगा कि हिमेश भाई का पुराना प्रयास उनके नए प्रयासों से कई कदम आगे है। अपने हीं आप में टाईप-कास्ट हो चुके हिमेश भाई से हम यही अपील करते हैं कि कभी-कभार वो अपने खोल से बाहर निकला करें और "तेरे नाम" जैसे गाने तैयार किया करें। इसी उम्मीद के साथ हम चलते हैं। हाँ, चलते चलते 'ताज़ा सुर ताल' के श्रोताओं व पाठकों से हम यही कहेंगे कि अगले हफ़्ते फिर एक बार आप से इस स्तंभ में यकीनन मिलेंगे मिलेंगे।

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # ६७- "मिलेंगे मिलेंगे" शीर्षक गीत में शाहीद कपूर ने कुछ लाइनें कही हैं। क्या आप कोई और गीत बता सकते हैं जिसमें शाहीद कपूर की आवाज़ शामिल है?

TST ट्रिविया # ६८- 'मिलेंगे मिलेंगे' बोनी कपूर की फ़िल्म है। बोनी कपूर की वह और कौन सी फ़िल्म है जिसमें हिमेश रेशम्मिया ने संगीत दिया है?

TST ट्रिविया # ६९- यह एक सोनू निगम - अलका याज्ञ्निक डुएट है। हिमेश रेशम्मिया का म्युज़िक है। शाहीद कपूर ही नायक हैं। गीत का मुखड़ा उन चार शब्दों से ख़त्म होता है जिन चार शब्दों से अलका याज्ञ्निक का गाया हुआ वह गीत शुरु होता है जो एक मशहूर हॊरर फ़िल्म का है और जिसमे नायिका बनी थीं बिपाशा बासु। बताइए हम किन दो गीतों की बात कर रहे हैं।


TST ट्रिविया में अब तक -
पिछले हफ़्ते के सवालों के जवाब:

१. नरेश शर्मा
२. 'चश्म-ए-बद्दूर'
३. पलाश सेन

सीमा जी, आपने तीनों सवालों के सही जवाब दिए। बधाई स्वीकारें। "इंडलि" जी, हमें आपके प्रस्ताव पर विचार करने के लिए कुछ वक्त चाहिए। विधु जी, गाने पसंद करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

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