रेडियो प्लेबैक वार्षिक टॉप टेन - क्रिसमस और नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित


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प्लेबैक की टीम और श्रोताओं द्वारा चुने गए वर्ष के टॉप १० गीतों को सुनिए एक के बाद एक. इन गीतों के आलावा भी कुछ गीतों का जिक्र जरूरी है, जो इन टॉप १० गीतों को जबरदस्त टक्कर देने में कामियाब रहे. ये हैं - "धिन का चिका (रेड्डी)", "ऊह ला ला (द डर्टी पिक्चर)", "छम्मक छल्लो (आर ए वन)", "हर घर के कोने में (मेमोरीस इन मार्च)", "चढा दे रंग (यमला पगला दीवाना)", "बोझिल से (आई ऍम)", "लाईफ बहुत सिंपल है (स्टैनले का डब्बा)", और "फकीरा (साउंड ट्रेक)". इन सभी गीतों के रचनाकारों को भी प्लेबैक इंडिया की बधाईयां

Thursday, September 30, 2010

नफरत की दुनिया को छोडकर प्यार की दुनिया में, खुश रहना मेरे यार.... करुण रस और रफ़ी साहब की आवाज़



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 495/2010/195

हास्य रस के बाद आज ठीक विपरीत दिशा में जाते हुए करुण रस की बारी। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार। 'रस माधुरी' शृंखला में आज ज़िक्र करुण रस का। करुण रस, यानी कि दुख, सहानुभूति, हमदर्दी, जो उत्पन्न होती है लगाव से, किसी वस्तु या प्राणी के साथ जुड़ाव से। जब यह लगाव हमसे दूर जाने लगता है, बिछड़ने लगता है, तो करुण रस से मन भर जाता है। करुण रस आत्म केन्द्रित होने का भी कभी कभी लक्षण बन जाता है। इसलिए शास्त्र में कहा गया है कि करुण रस को आत्मकेन्द्रित दुख से ज़रूरतमंदों के प्रति हमदर्दी जताने में परिवर्तित कर दिया जाए। किसी तरह के दुख के निवारण के लिए यह जान लेना ज़रूरी है कि दुख अगर आता है तो एक दिन चला भी जाता है। ज़रूरी नहीं कि किसी से जुदाई ही करुण रस को जन्म देती है। एकाकीपन भी करुण रस को जन्म दे सकता है। करुण रस मनुष्य के जीवन के हर पड़ाव में आता है। जवान होते बच्चों में देखा गया है कि जब वो उपेक्षित महसूस करते हैं तो दूसरों से हमदर्दी की चाह रखने लगते हैं। जब इंसान बूढ़ा होने लगता है तो अलग तरह का करुण रस होता है कि जिसमें उसे उसके जीवन भर का संचय भी बेमतलब लगने लगता है। मृत्यु के निकट आने पर करुण रस अपने चरम पर पहूँच जाता है। लेकिन अगर इंसान शाश्वत आत्मा में विश्वास रखता है तो इस समय भी वो करुण रस से बच सकता है और जीवन के अंतिम क्षण तक आनंद ले सकता है इस ख़ूबसूरत जीवन का। दोस्तों, हिंदी फ़िल्मों में करुण रस के गीतों की कोई कमी नहीं है। हमने जो गीत चुना है वह है मोहम्मद रफ़ी साहब का गाया फ़िल्म 'हाथी मेरे साथी' का "नफ़रत की दुनिया को छोड़ के प्यार की दुनिया में ख़ुश रहना मेरे यार"।

'हाथी मेरे साथी' १९७१ की फ़िल्म थी और उस समय के लिहाज़ से यह एक स्वप्न फ़िल्म थी ख़ास कर बच्चों के लिए, क्योंकि इस तरह से जानवरों को मुख्य भूमिका में लेकर कोई फ़िल्म पहले नहीं बनी थी। हाथियों से स्टण्ट्स बच्चों और बड़ों, सभी को ख़ूब अभिभूत किया था उस ज़माने में। युं तो फ़िल्म के अधिकतर गानें किशोर कुमार और लता मंगेशकर ने गाए, जो ख़ुशरंग गानें थे, लेकिन फ़िल्म का अंतिम गीत एक बड़ा ही दुखद, करुण गीत था, जिसे रफ़ी साहब से गवाया गया था। दोस्तों, देखिए उम्र का इंसान के मिज़ाज पर, स्वाद पर कैसा प्रभाव होता है, जब मैं छोटा था और रेडियो में इस फ़िल्म के गानें सुना करता था, उन दिनों शायद यह गीत मुझे सब से कम पसंद आता था, जब कि लता और किशोर के "सुन जा ऐ ठण्डी हवा", "दिलबरजानी चली हवा मस्तानी" और "चल चल चल मेरे हाथी" जैसे गीत बहुत भाते थे। लेकिन अब मैं यह गर्व के साथ कह सकता हूँ कि रफ़ी साहब का गाया "नफ़रत की दुनिया को छोड़ के प्यार की दुनिया में" इस फ़िल्म का सर्वोत्तम गीत है। इंसानों के गुज़र जाने के सिचुएशन पर तो बहुत से गानें बनें हैं, लेकिन यह गीत फ़िल्म के असली नायक, एक हाथी के मर जाने पर उसका रखवाला (राजेश खन्ना) रोते हुए गाता है। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने जिस तरह से अपने संगीत के माध्यम से इस गीत में करुण रस का संचार किया है, और आनंद बक्शी साहब ने जिस तरह के बोल लिखे हैं इस गीत में, इसे सुन कर शायद ही कोई होगा जिसकी आँखें नम ना हुई होंगी। यहाँ पर यह बताना अत्यंत आवश्यक है कि इस गीत के लिए Society for Prevention of Cruelty to Animals ने आनंद बक्शी को पुरस्कृत किया था, जो अपने आप में अकेला वाक्या है। इस क्रूर जगत की कितनी बड़ी सच्चाई है इन शब्दों में कि "जब जानवर कोई इंसान को मारे, कहते हैं दुनिया में वहशी उसे सारे, एक जानवर की जान आज इंसानों ने ली है, चुप क्यों है संसार"। लीजिए, करुण रस पर आधारित इस गीत को सुनिए और अपने इर्द गिर्द अगर आपको जानवरों पर अत्याचार की कोई घटना दिखाई दे तो नज़दीकी उचित सरकारी कार्यालय या किसी एन.जी.ओ को तुरंत इसकी जानकारी दें।



क्या आप जानते हैं...
कि 'हाथी मेरे साथी' हिंदी का पहला ऐल्बम था जिसने बिक्री के लिए विक्रय डिस्क जीता, जो था एच. एम. वी का रजत डिस्क।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. भयानक रस का उदाहरण है अगले अंक का गीत। गीत के मुखड़े में एक गीतकार का नाम भी आता है। संगीतकार बताएँ। ३ अंक।
२. साल १९६५ की इस फ़िल्म में एक सेन्सुअस युगल गीत भी है जिसमें आशा की नहीं, बल्कि किसी और ही गायिका की आवाज़ है। फ़िल्म का नाम बताएँ। १ अंक।
३. संगीतकार का नाम अगर समझ गए हैं तो गीतकार बताना ज़्यादा मुश्किल नहीं। कौन हैं इस गीत के गीतकार? ३ अंक।
४. फ़िल्म के निर्देशक कौन हैं? ३ अंक।


पिछली पहेली का परिणाम -
कल तो सभी प्रतिभागी खूब अच्छे मूड में दिखे, और जवाब भी सब सही दिए, लगता है हास्य रस में डूबे गीत का असर था ये

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, September 29, 2010

चील चील चिल्लाके कजरी सुनाए.....हास्य रस में सराबोर होकर सुनिए ये गीत, हंसिये, हंसायिये और खुश रहिये



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 494/2010/194

'रस माधुरी' शृंखला की चौथी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला में इन दिनों हम रसों की बात कर रहे हैं और नौ कड़ियों की इस शृंखला की हर कड़ी में एक रस की चर्चा कर रहे हैं और उस रस पर आधारित कोई लोकप्रिय फ़िल्मी गीत बजा रहे हैं। शृंगार, अद्भुत और शांत रस के बाद आज बारी हास्य रस की। हास्य रस, यानी कि ख़ुशी के भाव जो अंदर से हम महसूस करते हैं। बनावटी हँसी को हास्य रस नहीं कहा जा सकता। हास्य रस इतना संक्रामक होता है कि आप इस रस को अपने आसपास के लोगों में भी पल में आग की तरह फैला सकते हैं। सीधे सरल शब्दों में हास्य का अर्थ तो यही होता है कि ख़ुश होना, जो चेहरे पर हँसी या मुस्कुराहट के ज़रिए खिलती है, लेकिन जो शुद्ध हास्य होता है वह हम अपने अंदर बिना किसी कारण के ही महसूस करते हैं। और यह भाव तब उत्पन्न होती है जब हम यह समझ या अनुभूति कर लेते हैं कि ईश्वर या जीवन हम पर महरबान है। इस तरह का हास्य एक दैवीय रस होता है, जिसे एक दैवीय तृप्ति भी कह सकते हैं। हास्य रस के जो सब से विपरीत रस हैं वो हैं करुण, भयानक और रौद्र। इन्हें हास्य रस के शत्रु भी आप कह सकते हैं। ख़ुशी या ह्युमर हम हमेशा ही अपने अंदर रख सकते हैं, लेकिन हँसी या हास्य लगातार नहीं उत्पन्न किया जा सकता। हास्य की मात्रा या परिमाण किसी परिस्थिति से भी ज़्यादा निर्भर करती है शरीर में ख़ुशी की उर्जा की मात्रा पर। जिस तरह से कल हमने बात की थी कि शांत रस को अपने अंदर महसूस करने के लिए मेडिटेशन या ध्यान करने की आवश्यकता है, उसी तरह से आजकल हास्य पर भी काफ़ी ध्यान दिया जा रहा है। जगह जगह लाफ़टर क्लब खुल रहे हैं। हास्य द्वारा तनाव से मुक्ति मिल सकती है और एक स्वस्थ वातावरण पैदा होती है मन मस्तिष्क में। यकीन मानिए, हँसी एक बहुत ही संक्रामक चीज़ है, और इसे अपने अंदर उत्पन्न करने का सब से अच्छा तरीका है कि हम इसे दूसरों के अंदर उत्पन्न करने की कोशिश करें।

हिंदी फ़िल्मों में शुरु से ही हास्य का बहुत बड़ा स्थान रहा है। पुराने ज़माने में प्रमुख नायक नायिका की जोड़ी के साथ साथ एक पैरलेल कॊमेडियन नायक - नायिका की जोड़ी भी फ़िल्म में चलती थी। लेकिन कुछ गिने चुने नायक ऐसे भी हुए जो ख़ुद एक हीरो होने के साथ साथ ज़बरदस्त कॊमेडियन आरटिस्ट भी रहे। दोस्तों, हिंदी फ़िल्म इतिहास में अगर हास्य रस की बात करें, तो हरफ़नमौला कलाकार किशोर कुमार से बेहतर नाम और क्या हो सकता है! एक ज़बरदस्त गायक तो वो थे ही, साथ ही अभिनय में भी माशाल्लाह! उन्होंने अपने अभिनय और गायन शैली से फ़िल्मों में और फ़िल्मी गीतों में जिस तरह से हास्य रस को बढ़ावा दिया है, शायद ही किसी और ने इस पैमाने पर दिया होगा। जब भी किशोर दा को इस तरह के किसी हास्य गीत को गाने का अवसर मिलता, तो उस गीत को वो अपने अंदाज़ से कुछ इस तरह से पेश करते कि वो गीत फिर उस गीतकार या संगीतकार का नहीं रह जाता, वह पूरी तरह से किशोर दा का बन कर रह जाता था। उनके बहुत से ऐसे गानें हैं जिन्हें सुनते हुए आज इतने बरस बाद भी हम हँस हँस कर लोट पोट हो जाते हैं, पेट में दर्द होने लगता है हँसते हँसते। उनके गाए इन तमाम गीतों में से आज के लिए हमने जिस गीत को चुना है वह है सन् १९६२ की फ़िल्म 'हाफ़ टिकट' का, और गीत के बोल हैं "चील चील चिल्लाके कजरी सुनाए, झूम झूम कौवा भी ढोलक बजाए", जो फ़िल्म में भी उन्होंने ही गाया है और साथ में प्राण साहब भी हैं। गीतकार शैलेन्द्र और संगीत सलिल चौधरी का। लेकिन जैसा कि हमने कहा कि किशोर दा ऐसे हास्य गीतों को जिस अदा व अंदाज़ से गाते हैं कि ऐसा लगता है कि गीत को उन्होंने ही लिखा व स्वरबद्ध किया है। अजीब-ओ-गरीब हरकतों से भरपूर और बिलकुल बच्चों वाले अंदाज़ में गाया यह गीत किशोर दा के सदाबहार हास्य गीतों में शामिल है, जिसकी चमक आज भी वैसी की वैसी बरक़रार है। इस गीत के बारे में ज़्यादा कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है, बस सुनिए और खिलखिलाइए।



क्या आप जानते हैं...
कि १९ नवंबर १९२५ को सोनारपुर, बंगाल में जन्मे सलिल चौधरी के पिता आसाम के चाय बागानों में डॊक्टर थे। पिता के पास पाश्चात्य संगीत का बड़ा संग्रह था, और इस तरह से सलिल दा का बचपन असम, बंगाल और बिहार के मज़दूरों के लोकगीतों के साथ साथ इस विशाल ख़ज़ाने को आत्मसात करते हुए बीता

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. करुण रस पर आधारित यह गीत १९७१ की एक सुपर डुपर हिट फ़िल्म का गीत है और इस गीत के गायक ने इस फ़िल्म में केवल यही गीत गाया है, बाक़ी के गीत लता और किशोर ने गाए हैं। गायक पहचानिए। २ अंक।
२. फ़िल्म के मुख्य किरदार इंसान नहीं बल्कि जानवर हैं। फ़िल्म का नाम बताइए। १ अंक।
३. इस गीत के गीतकार - संगीतकार जोड़ी ने एक साथ सब से ज़्यादा काम किया है। बताइए गीतकार और संगीतकार के नाम। याद रहे दोनों नाम सही बताने पर ही अंक दिए जाएँगे। ४ अंक।
४. फ़िल्म की नायिका कौन हैं? ३ अंक।

पिछली पहेली का परिणाम -
सभी जवाब सही आये, सभी को बधाई...अब गीत का आनंद लीजिए, यही तोहफा है आपका

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Tuesday, September 28, 2010

अल्लाह तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम.....जब अल्लाह और ईश्वर एक हैं तो फिर बवाल है किस बात का, शांति का सन्देश देता लता जी का ये भजन



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 493/2010/193

ज २८ सितंबर, यानी सुरों की मल्लिका लता मंगेशकर का जन्मदिन। लता जी को उनके ८२-वें वर्षगांठ पर हम अपनी ओर से, 'आवाज़' की ओर से और 'आवाज़' के सभी पाठकों व श्रोताओं की ओर से दे रहे हैं जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ। जिस तरह से उन्होंने अपनी आवाज़ के ज़रिए हम सब की ज़िंदगी को मधुरता से भर दिया है, ईश्वर उन्हें दीर्घायु करें और उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करें, ऐसी हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। 'रस माधुरी' शृंखला की आज तीसरी कड़ी में बारी है शांत रस की। शांत रस मन का वह भाव है, वह स्थिति है जिसमें है सुकून, जिसमें है चैन, जिसमें है शांति। किसी भी तरह का हलचल मन को अशांत करती है। इसलिए यह रस तभी जागृत हो सकती है जब हम ध्यान और साधना के द्वारा अपने मन को काबू में रखें, हर चिंता को मन से दूर कर एक परम शांति का अनुभव करें। आजकल मेडिटेशन की तरफ़ लोगों का ध्यान बढ़ गया है। जिस तरह की भागदौड़ की ज़िंदगी आज का मनुष्य जी रहा है, एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़, जीवन में सफल बनने का प्रयास, और उस प्रयास में अगर किसी चीज़ को बलिवेदी पर चढ़ाया जा रहा है तो वह है शांति और सुकून। इसलिए आज लोग मेडिटेशन के द्वारा इस विचलित मनस्थिति से उबरने का प्रयास कर रहे है। दोस्तों, शुरु शुरु में हमने यह सोचा था कि इस रस पर आधारित हम आपको फ़िल्म 'रज़िया सुल्तान' का गीत "ऐ दिल-ए-नादान" सुनवएँगे। इस गीत का जो संगीत है, जो ठहराव है, उससे मन शांत तो हो जाता है, लेकिन अगर इसके लफ़्ज़ों पर ग़ौर करें तो यह मन की व्याकुलता, और हलचल का ही बयान करता है। गाने का रीदम भले ही शांत हो, लेकिन ये शब्द एक अशांत मन से निकल रहे हैं। इसलिए शांत रस के लिए शायद यह गीत सटीक ना हो। इसलिए हमने गीत बदलकर फ़िल्म 'हम दोनों' का सुकूनदायक "अल्लाह तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम" कर दिया। आज भी बहुत से लोग समझते हैं कि यह एक ग़ैर फ़िल्मी पारम्परिक भजन है। बस यही है इस भजन की खासियत और साहिर लुधियानवी की भी, जिन्होंने इस अमर भजन की रचना की। यह भजन नंदा पर फ़िल्माया गया है जो मंदिर में बैठकर अन्य भक्तजनों के साथ गाती हैं।

'हम दोनों' १९६१ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण किया था देव आनंद ने अपने नवकेतन के बैनर तले। फ़िल्म का निर्देशन किया अमरजीत ने। निर्मल सरकार की कहानी पर इस फ़िल्म के संवाद व पटकथा को साकार किया विजय आनंद ने। देव आनंद, नंदा और साधना अभिनीत इस फ़िल्म में संगीत था जयदेव का। इस फ़िल्म में लता जी के गाए दो भजन ऐसे हैं कि जो फ़िल्मी भजनों में बहुत ही ऊँचा मुक़ाम रखते हैं, जिनमें एक तो आज का प्रस्तुत भजन है और दूसरा भजन है "प्रभु तेरो नाम जो ध्याये फल पाए"। लता जी ने कुछ ऐसे डूब कर इन्हें गाया है कि इन्हें सुनकर ही मन पावन हो जाता है। "अल्लाह तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम" भजन की ख़ासीयत है इसकी धर्मनिरपेक्षता। राग गौड़ सारंग पर आधारित यह गीत जब भी सुनें तो मन शांत हो जाता है, सुकून से भर जाता है दिल। बाहर की तेज़ रफ़्तार भरी ज़िंदगी के बीच भी जैसे यह गीत आज भी हमें एक अलग ही चैन-ओ-सुकून की दुनिया में लिए जाता है। १९६२ के चीनी आक्रमण के समय दिल्ली में आयोजित सिने कलाकारों की विशाल मंचीय आयोजन का आरम्भ लता ने इसी भजन से किया था। इस गीत की रेकॊर्डिंग् की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। श्री पंकज राग की किताब 'धुनों की यात्रा' से हमें पता चला कि जिस तरह से उन दिनों लता और सचिन दा के बीच मनमुटाव चल रहा था, तो सचिन दा के सहायक होने की वजह से जयदेव साहब भी इसमें चाहे अनचाहे शामिल हो गए थे। शुरु शुरु में इस रचना को एम. एस. सुब्बूलक्ष्मी से गवाने की योजना थी, पर बाद में लता का नाम तय हुआ। अब लता जयदेव के लिए कैसे गातीं जिनके साथ घोर मनमुटाव चल रहा था! जब रशीद ख़ान को लता के पास भेजा गया तो उन्होंने साफ़ इंकार कर दिया। पर फिर जब लता को यह संदेश पहुँचाया गया कि यदि इस गीत को आप नहीं गाएँगी तो इस फ़िल्म से ही जयदेव को हटाकर किसी और को ले लिया जाएगा, तो लता हिचकीं। वे यह कभी नही चाहती थीं कि उनके कारण किसी का मौका छिन जाए। साथ ही यह भी लता सुन चुकी थीं कि जयदेव ने इस गाने की अलौकिक सी कम्पोज़िशन की है। बहरहाल कारण जो भी हो फ़िल्म संगीत को एक मीलस्तम्भ जैसी रचना तो मिल ही गई। पंडित जसराज ने स्वयं स्वीकार किया है कि इस भजन को रात में सुनकर उनकी आँखों में आँसू आ गए और अभिभूत होकर वे आधी नींद से जाग गए। और लता ने भी १९६७ में घोषित अपने दस सर्वश्रेष्ठ गीतों में तो इसे शामिल किया। तो लीजिए दोस्तों, आप भी सुनिए और हमें पूरा विश्वस है कि अगर आपका मन अशांत है तो इसे सुन कर आपको शांति मिलेगी, सुकून मिलेगा। लता जी को एक बार फिर से जनमदिन की ढेरों शुभकामनाएँ। कल फिर मिलेंगे, नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि 'हम दोनों' फ़िल्म श्याम-श्वेत फ़िल्म थी, लेकिन जून २००७ में इसका रंगीन वर्ज़न जारी किया गया है।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. हास्य रस की बात हो और इस हरफ़नमौला फ़नकार की बात हो, एक ही बात है। किस गायक की आवाज़ में है कल का गीत? १ अंक।
२. गीत के मुखड़े में दो पक्षियों के नाम आते हैं। गीत के बोल बताएँ। २ अंक।
३. यह उस फ़िल्म का गीत है जिसके शीर्षक के दोनों शब्द अंग्रेज़ी के हैं। फ़िल्म का नाम बताएँ। ३ अंक।
४. गीतकार और संगीतकार के नाम बताएँ। दोनों नाम सही होने पर ही अंक मिलेंगे। ४ अंक।

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह सब तीरंदाज़ कामियाब रहे हमारे....बहुत बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Monday, September 27, 2010

अब्बास टायरवाला और रहमान आये साथ एक बार फिर और कहा जवां दिलों से - "कॉल मी दिल..."



ताज़ा सुर ताल ३७/२०१०


सुजॊय - दोस्तों, नमस्कार, और एक बार फिर स्वागत है 'ताज़ा सुर ताल' में। जैसा कि पिछले हफ़्ते विश्व दीपक जी ने थोड़ा सा हिण्ट दिया आज के फ़िल्म के बारे में, कि उनके मनपसंद संगीतकार का संगीत होगा आज की फ़िल्म में, तो चलिए अब वह वक़्त आ गया है कि आपको आज की फ़िल्म का नाम बता दिया जाए। आज हम लेकर आये हैं आने वाली फ़िल्म 'झूठा ही सही' के गानें।

विश्व दीपक - ए. आर. रहमान मेरे मनचाहे संगीतकार हैं, और सिर्फ़ मेरे ही नहीं, आज वो सिर्फ़ इस देश के ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में अपने संगीत के जल्वे बिखेर रहे हैं। वो एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के संगीतकार बन चुके हैं और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत का प्रतिनिधित्व भी कर रहे हैं। तभी तो राष्ट्रमण्डल खेल के शीर्षक गीत के संगीत के लिए उन्ही को चुना गया है।

सुजॊय - 'झूठा ही सही' अब्बास टायरवाला की फ़िल्म है जिसका निर्माण आइ.बी.सी मोशन पिक्चर्स के बैनर तले हो रही है, जिसके मुख्य कलाकार हैं जॊन एब्राहम और पाखी, जो अब्बास साहब की धर्मपत्नी हैं। सोहेल ख़ान, अरबाज़ ख़ान और नसीरुद्दिन शाह ने भी फ़िल्म में अभिनय किया है और सुनने में आया है कि फ़िल्म में माधवन और नंदना सेन अतिथि कलाकार के रूप में नज़र आयेंगे। १५ अक्तुबर २०१० का दिन निर्धारित किया गया है फ़िल्म की शुभमुक्ति के लिए, यानी कि इस साल का यही होगा दशहरा रिलीज़।

विश्व दीपक - सुना है कि पहले इस फ़िल्म का शीर्षक '1-800-Love' रखा गया था, उसके बाद 'Call Me Dil' रखा गया, लेकिन आख़िर में 'झूठा ही सही' का शीर्षक ही फ़ाइनल हुआ। फ़िल्म के प्रोमोज़ देखते हुए ऐसा लग रहा है कि कहानी में कुछ नई बात ज़रूर होगी। जॊन भी एक नए लुक में नज़र आ रहे हैं इस फ़िल्म में। जहाँ तक फ़िल्म के गीत संगीत का सवाल है, साउण्डट्रैक को अच्छा रेस्पॊन्स मिल रहा है।

सुजॊय - तो आइए गीतों का सिलसिला शुरु करते हैं, पहला गीत सुनवा रहे हैं राशिद अली और श्रेया घोषाल की आवाज़ों में।

गीत - क्राई क्राई


विश्व दीपक - एक संक्रामक ट्रैक जिसे कहा जा सकता है, और शायद इसी वजह से यह गीत एक इन्स्टैण्ट हिट भी बन गया है। वैसे भी शुरु से ही अब्बास टायरवाला इस तरह के कैची शब्दों का इस्तेमाल करते आये हैं। "पप्पु काण्ट डान्स साला" के बाद अब्बास और रहमान फिर एक बार एक ऐसा गीत लेकर आये हैं जिसे जनता ने हाथों हाथ लिया है।

सुजॊय - राशिद अली और श्रेया का कम्बिनेशन भी अच्छा लगा, ख़ास कर जहाँ जहाँ राशिद "no no no, kabhi nahi" कहते हैं, बड़ा ही मज़ेदार लगता है। गाना सीधा सरल है, और इस सरलता की वजह से ही यह हिट हो रहा है। एक बार सुनने के बाद जैसे 'क्राई क्राई' दिमाग़ में बैठ जाता है। राशिद अली की आवाज़ जॊन पर फ़िट बैठी है।

विश्व दीपक - रहमान ने अलग अलग साज़ों का इस्तेमाल किया है इस गीत में। जैसे टुकड़ों में बना है यह गीत, लेकिन हर एक टुकड़ा उतना ही आकर्षक, उतना ही लुभाने वाला।

सुजॊय - आइए अब दूसरे गीत की तरफ़ बढ़ा जाए! सुनते हैं जावेद अली और चिनमयी की आवाज़ों में "मैया यशोदा"।

गीत - मैया यशोदा (जमुना मिक्स)


गीत - मैया यशोदा (टेम्स मिक्स)


विश्व दीपक - एक और अच्छा गाना, एक और सुरीला कम्पोज़िशन। रहमान ने जावेद अली और चिनमयी पर जो भार सौंपा, इन दोनों ने उसका पूरा पूरा मान रखा। चिनमयी को बिना सांस छोड़े एक लम्बा सा लाइन इस गीत में गाना पड़ा, जिसे उन्होंने बहुत ही ख़ूबसूरती से निभाया, अंग्रेज़ी में जिसे कहते हैं 'effortlessly'। "मय्या यशोदा" गीत का आधार वही कृष्ण लीला ही है, लेकिन अंतिम अंतरे में यह एक संदेश भी देता है कि बांटने का। अच्छा लिखा हुआ गाना है और शायद इस साल के नवरात्री में डांडिया खेलने वालों को अपना नया गाना मिल गया।

सुजॊय - और इस गीत के बीच में सितार का वह पीस कितना सुरीला, कितना मधुर सुनाई देता है! "मय्या यशोदा" सुनते ही 'हम साथ साथ हैं' का वह हिट गीत भी याद आ जाता है जिसे अनुराधा पौडवाल, अल्का याज्ञ्निक और कविता कृष्णामूर्ती ने गाया था। लेकिन जावेद और चिनमयी का गाया यह गीत उससे बिल्कुल अलग है। दोनों अपने अपने जगह यूनिक है।

विश्व दीपक - यूनिक तो है, लेकिन इस जौनर में रहमान ने इससे पहले जो गीत बनाया था फ़िल्म 'लगान' के लिए, "राधा कैसे ना जले", उसके मुक़ाबले यह गीत बहुत पीछे है। वैसे यह बत भी सच है कि बार बार "राधा कैसे ना जले" जैसा गीत तो नहीं बन सकता ना! ख़ैर, "मैया यशोदा" के दो वर्ज़न हैं, एक है 'जमुना मिक्स', जिसमें भारतीय बीट्स और भारतीय स्वाद है। बांसुरी, सितार आदि साज़ों का इस्तेमाल, लेकिन पूरा गीत परक्युशन और बेस पर आधारित है। साज़िंदों ने भी कमाल का बजाया है।

सुजॊय - इसी गीत का दूसरा वर्ज़न है 'थेम्स मिक्स', जिसमें रहमान ने कुछ और ज़्यादा परक्युशन और ईलेक्ट्रॊनिक बीट्स का इस्तेमाल किया है। और टेलीफ़ोन के टोन्स को भी मिक्स किया गया है। दोनों को सुनने के बाद आप भी यही कहेंगे कि जमुना थेम्स पर हावी है। आइए अब तीसरे गीत की तरफ़ बढ़ा जाए, यह है "हैलो हैलो" कार्तिक और हेनरी कुरुविला की आवाज़ों में।

गीत - हैलो हैलो


विश्व दीपक - "हैलो हैलो" और उस पर कार्तिक की आवाज़, ऐसे में तो "कार्तिक कॊलिंग कार्तिक" की याद आ जाना ही स्वाभाविक है। औएर वैसे भी दोनों गीतों का मूड एक जैसा है, मतलब वही रिंगटोन न और बीप्स की ध्वनियों का इस्तेमाल।

सुजॊय - कार्तिक ने इस गीत को खुले दिल से गाया है, एक केयरफ़्री अंदाज़ में। रहमान कार्तिक से आजकल अपनी हर फ़िल्म में कम से कम एक गीत ज़रूर गवा रहे हैं। कार्तिक और जावेद अली रहमान के मनपसंद गायक बनते जा रहे हैं ऐसा लग रहा है।

विश्व दीपक - वाक़ई कार्तिक की आवाज़ में एक ताज़गी है, और हिंदी फ़िल्मी नायक के प्राश्वगायन के लिए तो बिल्कुल सटीक है। उनके गाये इस गीत में "मुझे छोड़ दो, मुझे थाम लो, खो जाने दो, मेरा नाम लो, सब ठीक है, जो जाएगा" एक बहुत ही सुंदर प्रवाह में चल पड़ता है। पता नहीं यह गीत लम्बी रेस का घोड़ा बन पाएगा या नहीं, लेकिन फ़िल्हाल तो इसे सुनने में अच्चा ही लग रहा है।

सुजॊय - जहाँ तक साज़ों की बात है, तो इसमें रहमान ने वायलिन और चेलो का इस्तेमाल किया है, टेलीफ़ोन के डायल टोन्स तो हैं ही। और इन सब के पीछे ड्रमिंग्‍ बीट्स। रहमान का वैसे टेलीफ़ोन से नाता पुराना है, याद है न आपको 'हिंदुस्तानी' फ़िल्म का गाना "टेलीफ़ोन धुन में हँसने वाली"? चलिए, आगे बढ़ते हैं और सुनते हैं सोनू निगम की आवाज़ में "दो निशानियाँ"।

गीत - दो निशानियाँ


विश्व दीपक - एक और सुंदर कम्पोज़िशन, और सोनू निगम और रहमान का वही पुराना "दिल से" वाला अंदाज़ वापस आ गया है। एक धीमी लय वाला, कोमल और सोलफ़ुल गीत। पियानो की लगातार बजने वाली ध्वनियाँ गीत के ऒरकेस्ट्रेशन का मुख्य आकर्षण है। थोड़ा सा ग़मगीन अंदाज़ का गाना है लेकिन सोनू ने जिस पैशन के साथ इसे निभाया है, यह इस ऐल्बम का एक महत्वपूर्ण ट्रैक बन गया है यकीनन।

सुजॊय - गीत के बोलों की बात करें तो वो भी सुंदर हैं, गहरे अर्थ वाले हैं, बस एक झटका आपको तब लगा होगा जब इन ख़्वाबों ख़यालों वाले बोलों के बीच भी "फ़ोन" शब्द का ज़िक्र आता है। लेकिन फिर यह गीत के बोलों के साथ इस क़दर घुलमिल गया है कि गीत का अभिन्न अंग बन गया है। इस गीत का एक और वर्ज़न है ऐल्बम में जिसका शीर्षक है 'Heartbreak Reprise'।

विश्व दीपक - टूटे दिल की सदा है यह गीत जो एक मल्हम का काम करती है। "दो निशानियाँ" में सोनू निगम के अलावा बहुत से गायकों ने भी आवाज़ें मिलाई जैसे कि ऋषीकेश कामेरकर, थमसन ऐण्ड्रूज़, नोमान पिण्टो, बियांका गोम्स, डॊमिनिक सेरेजो, समंथा एडवार्ड्स, विविएन पोचा और क्लिण्टन सेरेजो। चलिए आगे निकला जाए, अब की बार आवाज़ श्रेया घोषाल और सुज़ेन डी'मेलो के। "पम प रा", यह है गीत, जो फ़िल्म के दूसरे गीतों की तुलना में एक ऐवरेज गीत है।

सुजॊय - श्रेया और सेज़ेन के गाये इस गीत में ना तो "लट्टू" कर देने वाली कोई बात है और ना ही "ऐ बच्चू" वाला ऐटिट्युड है। चलिए सुनते हैं।

गीत - पम प रा


सुजॊय - इस गीत में जो सब से अच्छी बात है वह है श्रेया की गायकी। उन्हें इस गीत में अपने वोकल रेंज के प्रदर्शन का मौका मिला और उन्होंने साबित भी किया अपने रेंज को, अपने टोनल क्वालिटी को। जैज़ शैली का गाना है, रहमान ने श्रेया से स्कैट सिंगिंग्‍ कर दिखाया है, जिसे श्रेया बख़ूबी निभाया है।

विश्व दीपक - अब अगले गीत में एक नई आवाज़। विजय येसुदास की। क्या ये येसुदास जी के साहबज़ादे हैं? जी हाँ, मेरी तरह आपका अंदाज़ा भी सही है। हिंदी फ़िल्मों के लिए भले उनकी आवाज़ नई हो, लेकिन दक्षिण में ये करीब करीब एक दशक से सक्रीय हैं। बहुत ही अच्छा लग रहा है कि रहमान ने विजय येसुदास से हिंदी गीत गवाया है। येसुदास जी के लिए लोगों के दिलों में बहुत ज़्यादा प्यार है। उनका गाया हर एक गीत उत्कृष्ट रहा है। इसलिए हमे पूरी उम्मीद है कि विजय का भी उसी प्यार से हिंदी फ़िल्म संगीत में स्वागत होगा।

सुजॊय - विजय येसुदास के गाये गीत को पहले सुनते है, फिर गीत की चर्चा करेंगे।

गीत - 'I'll be waiting'


सुजॊय - वाह! अंग्रेज़ी और हिंदी, दोनों के शब्दों को विजय ने आसानी से निभाया है, और एक भाषा से दूसरे भाषा का जो ट्रान्ज़िशन है, उसे भी भली भाँति अंजाम दिया है। अपने पिता की तरह उनकी आवाज़ में भी एक सादगी है, उनके गायन में भी वही सरलता है।

विश्व दीपक - इस गीत को हिंग्लिश कहें तो बेहतर होगा, जैज़ शैली की धुन, लेकिन अंत होता है बड़े ही कोमल तरीके से। गीत की अवधि कम होने की वजह से ऐसा लगता है जैसे दिल नहीं भरा। रहमान सर, आशा है आप अपनी अगली फ़िल्म में भी विजय को मौका देंगे, और हमें मौका देंगे उन्हें सुनने का। और अब हम आपको मौका दे रहे हैं 'झूठा ही सही' फ़िल्म के अंतिम गीत को सुनने का, "call me dil - झूठा ही सही", जिसे गाया है राशिद अली ने।

सुजॊय - जैसा कि शुरु में हमने कहा था कि पहले पहले इस फ़िल्म के शीर्षक के लिए 'Call Me Dil' सोचा गया था, शायद इसीलिए इस गीत को बनाया गया है कि दोनों ही शीर्षक इसमें समा जाये। सुंदर बोल, सुंदर संगीत, सुंदर गायकी, बस इतना ही कहेंगे इस गीत के बारे में।

गीत - call me dil - झूठा ही सही


सुजॊय - हाँ तो दोस्तों, कैसे लगे ये गानें? किसी ख़ास गीत का उल्लेख ना करते हुए मैं इस ऐल्बम को अपनी तरफ़ से ४ की रेटिंग्‍ दे रहा हूँ।

विश्व दीपक -

आवाज़ रेटिंग्स: झूठा हीं सही: ****

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # १०९- चिनमयी ने इसी साल एक और फ़िल्म में गीत गाया है जिसे हमने 'ताज़ा सुर ताल' में शामिल किया है। बताइए कौन सी है वह फ़िल्म?

TST ट्रिविया # ११०- राष्ट्रमण्डल खेल २०१० के लिए ए. आर. रहमान द्वारा रचित गीत के बोल क्या हैं?

TST ट्रिविया # १११- सोनू निगम ने बम्बई आने के बाद सब से पहले संगीतकार उषा खन्ना के संगीत में ऋषीकेश मुखर्जी की एक टीवी धारावाहिक के लिए गीत गाया था। क्या आपको याद है उस धारावाहिक का नाम?


TST ट्रिविया में अब तक -
पिछले हफ़्ते के सवालों के जवाब:

१. बेस्ट फ़िल्म ऒन फ़ैमिली वेलफ़ेयर
२. फ़िल्म 'राही' की लोरी "चाँद सो गया, तारे सो गए"।
३. तीन बार।

अजीब दास्ताँ है ये.....अद्भुत रस में छुपी जीवन की गुथ्थियां जिन्हें सुलझाने में बीत जाती है उम्र सारी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 492/2010/192

'ओल्ड इज़ गोल्ड' में कल से हमने शुरु की है लघु शृंखला 'रस माधुरी' जिसके अंतर्गत हम चर्चा कर रहे हैं नौ रसों की। कुल नौ कड़ियों की इस शृंखला की हर कड़ी में एक रस की चर्चा होगी और साथ ही उस रस पर आधारित कोई मशहूर फ़िल्मी गीत आपको सुनवाया जाएगा। कल की कड़ी मे शृंगार रस का एक बड़ा ही प्यारा सा मीठा सा गीत आपने सुना था लता जी की आवाज़ में। जैसा कि हमने कल बताया था कि इस शृंखला की पहली तीन कड़ियों में आप लता जी के ही गाए गीत सुनेंगे। तो आज उनका गाया जो गीत हमने चुना है उसमें है अद्भुत रस की झलक। गीत पर हम बाद में आते हैं, पहले आइए चर्चा करें अद्भुत रस की। अद्भुत रस का अर्थ है वह भाव जिसमें समाया हुआ है आश्चर्य, कौतुहल, राज़। सभ्यता जब से शुरु हुई है, तभी से मानव जाति नए नए चीज़ों के बारे में जानने की कोशिश करती आई है और आज भी यह परम्परा जारी है। जब हम यह समझते हैं कि दुनिया में ऐसी बहुत सी चीज़ें हैं जिनके बारे में हमें नहीं मालूम, यही भाव हमारे जीवन को और भी ज़्यादा सुंदर और आकर्षक और रोमांचकर बनाता है। और हमारी यही खोज, अज्ञान को ज्ञान में बदलने का प्रयास ही हमारे विकास में सहायक बनती है। इस आध्यात्मिक सफ़र में पहला क़दम ही है 'अद्भुत रस'। यह वह सफ़र है जिसमे हम चल पड़ते हैं सत्य को खोजने के लिए, जीवन की गुत्थी या राज़ को सुलझाने के लिए। 'अद्भुत रस' कोई ऐसा रस नहीं है जिसे आप अपनी मर्ज़ी से अपने अंदर पैदा करें, बल्कि यह तो अपने आप ही पनपता है। अगर आप 'अद्भुत रस' का आनंद लेना चाहते हैं तो बस अपनी आँखें खोले रखिए ताकि ज़िंदगी के हर अनुभव से कुछ ना कुछ सीख मिले। किसी ने इस रस के बारे में ठीक ही कहा है कि "The feeling of Wonder comes when one recognizes one's own ignorance. By cultivating the right attitude towards the miracle of life, the Adbhuta Rasa can be a permanent companion."

दोस्तों, अभी उपर हम 'अद्भुत रस' की जिस तरह की परिभाषा से अवगत हुए हैं, उससे तो हमें यकायक जो गीत ज़हन में आया है, वह है फ़िल्म 'दिल अपना और प्रीत पराई' का, "अजीब दास्ताँ है ये, कहाँ शुरु कहाँ ख़तम, ये मंज़िले हैं कौन सी, ना वो समझ सके ना हम"। शैलेन्द्र के जीवन दर्शन पर लिखे तमाम गीत, जिनके लिए वो जाने जाते रहे हैं, उनमें यह गीत भी एक ख़ास मुकाम रखता है। शंकर जयकिशन का सुपरहिट संगीत १९६० के इस फ़िल्म में गूँजा था। जितने फ़िलोसोफ़िकल इस गीत के बोल हैं, उतना ही दिलकश कॊम्पोज़िशन। और संगीत संयोजन के तो क्या कहने। पश्चिमी रंग में रंगे इस संयोजन में सैक्सोफ़ोन और कॊयर (choir) शैली के कोरल सिंगिंग् का अद्भुत संगम सुनने को मिलता है। इसमें ताज्जुब की बात नहीं कि उस साल फ़िल्मफ़ेयर में सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार शंकर जयकिशन को इसी फ़िल्म के गीतों के लिए मिला था। इस गीत की एक सब से बड़ी जो खासियत है, वह है इसका वाल्ट्ज़ शैली का रीदम, जिसे एस. जे ने एक अद्भुत तरीक़े से अंजाम दिया ठीक वैसे ही जैसे इस गीत के बोलों में अद्भुत रस का संचार हो रहा है। तो लीजिए दोस्तों, अब आप भी इस गीत का आनंद लीजिए और नीचे टिप्पणी में अदभुत रस पर आधारित गीतों की एक फ़हरिस्त बनाने की कोशिश कीजिए, नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि साल १९६० के बिनाका गीतमाला के वार्षिक कार्यक्रम में 'दिल अपना और प्रीत पराई' फ़िल्म के दो गीत शामिल हुए थे जिनमें एक था फ़िल्म का शीर्षक गीत (छठे पायदान पर) और दूसरा गीत था "मेरा दिल अब तेरा ओ साजना" (१२-वीं पायदान पर)। यह वाक़ई "अद्भुत" बात है कि "अजीब दास्ताँ है ये" को कोई जगह नहीं मिली।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. कल का रस है 'शांत रस' और इस रस पर आधारित जिस गीत को हमने चुना है उसमें एक भक्ति का पक्ष भी है। फ़िल्म के संगीतकार वो हैं जो किसी ज़माने में सचिन देव बर्मन के सहायक हुआ करते थे। संगीतकार बताएँ। ३ अंक।
२. एक मशहूर शायर व गीतकार की कलम से निकला है यह भजन। उनका नाम बताएँ। ३ अंक।
३. गीत का भाव वही है जो भाव "इतनी शक्ति हमें देना दाता" गीत का है। बताइए यह गीत किस अभिनेत्री पर फ़िल्माया गया है। २ अंक।
४. इस फ़िल्म के शीर्षक से बाद में भी एक फ़िल्म बनीं थी और डबल रोल वाले किरदार की कहानी पर बनने वाले किसी भी फ़िल्म के लिए यह शीर्षक सटीक है। फ़िल्म का नाम बताएँ। २ अंक।

पिछली पहेली का परिणाम -
पवन जी एकदम सही जवाब और इंदु जी के क्या कहने...वैसे अब ये पहेली शृंखला ५०० वीं कड़ी तक ही लागू है, ऐसे में अब हमें कोई नया विजेता मिल पायेगा इस बारे शंका है. इसलिए अगर अवध जी भी शरद जी के साथ पहेली सुलझाने में भागीदार बनें तो कोई ऐतराज़ नहीं है....५०१ वीं कड़ी से प्रतियोगिता नए सिरे से आरंभ होगी....

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Sunday, September 26, 2010

मैं तो प्यार से तेरे पिया मांग सजाऊँगी....नौशाद का रचा ये शृंगार रस से भरपूर गीत है सभी भारतीय नारियों के लिए खास



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 491/2010/191

भाव या जज़्बात वह महत्वपूर्ण विशेषता है जो जीव जंतुओं को उद्‍भीद जगत से अलग करती है। संस्कृत में 'रस' शब्द का अर्थ भले ही स्वाद, जल, सुगंध या फलों के रस के इर्द-गिर्द घूमता हो, लेकिन 'रस' शब्द को जीव जगत के नौ भावों या जज़्बात के लिए भी प्रयोग किया जाता है। ये वो नौ रस हैं जो हमारे मन का हाल बयान करते हैं। अगर हम इन नौ रसों के महत्व को अच्छी तरह समझ लें और किस रस को किस तरह से अपने में नियंत्रित रखना है, उस पर सिद्धहस्थ हो जाएँ, तो जीवन में सच्चे सुख की अनुभूति कर सकते हैं और हमारा जीवन सही मार्ग पर चल सकता है। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार और बहुत बहुत स्वागत आप सब का फिर एक बार इस महफ़िल में। आप सोच रहे होंगे कि मैं फ़िल्मी गीतों को छोड़ कर अचानक रस की बातें क्यों करने लगा। दरअसल, हमारे जो फ़िल्मी गीत हैं, वो ज़्यादातर कहानी के सिचुएशन के हिसाब से बनते हैं। और अगर कहानी है तो उसमें किरदार भी हैं, घटनाएँ भी हैं ज़िंदगी से जुड़े हुए, और तभी तो हर फ़िल्मी गीत में भी किसी ना किसी भाव का, किसी ना किसी जज़्बात का, किसी ना किसी रस का संचार होता ही है। इसलिए हमने सोचा कि क्यों ना एक ऐसी शृंखला चलाई जाए जिसमें इन नौ रसों पर आधारित एक एक गीत सुनवाकर इन रसों से जुड़े कुछ तथ्यों से भी आपका परिचय करवाया जाए! क्या ख़याल है आपका! आइए शुरु करें नौ रसों पर आधारित नौ फ़िल्मी गीतों से सजी लघु शृंखला 'रस माधुरी'! वेदिक काल से जो नौ रस निर्दिष्ट किए गए हैं, उनके नाम हैं शृंगार, हास्य, अद्‍भुत, शांत, रौद्र, वीर, करुण, भयानक, विभत्स। आइए शुरुआत करते हैं शृंगार रस से। शृंगार रस ही वह रस है जिस पर सब से ज़्यादा गीत बनते हैं, क्योंकि यह वह रस है जिसमें है प्यार, पूजा, कला, सौंदर्य और आकर्षण। इसे रसों का राजा (या रानी) माना जाता है और इसी रस पर यह दुनिया टिकी हुई है ऐसी धारणा है। शृंगार शब्द का शाब्दिक अर्थ है सजना सँवरना, लेकिन जब शृंगार रस की बात करें तो इसका अर्थ काफ़ी विशाल हो जाता है और उपर लिखे तमाम भाव इससे जुड़ जाते हैं। यहाँ तक कि भक्ति भी शृंगार रस का ही अंग होता है। शृंगार के भाव के भी दो पहलू हैं - एक है संभोग शृंगार (मिलन) और एक है विप्रलम्भ शृंगार (विरह)।

दोस्तों, १२ सितंबर से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर लगातार आप लता मंगेशकर के गाए गानें सुनते चले आ रहे हैं। आज २६ सितंबर है और दो दिन बाद ही लता जी का जन्मदिन है। ऐसे में उनके गाए गीतों की इस लड़ी को भला हम कैसे टूटने दे सकते हैं! इसलिए हमने यह निर्णय लिया कि २८ सितंबर तक लता जी की आवाज़ ही छायी रहेगी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में। और वैसे भी शृंगार रस की बात हो, आदर्श भारतीय नारी और शृंगार की बात हो, ऐसे में लता जी की आवाज़-ओ-अंदाज़ से बेहतर इस रस के लिए और क्या हो सकती है। युं तो लता जी के गाए असंख्य शृंगार रस के गानें हैं जिनकी लिस्ट बनाने बैठें तो पता नहीं कितने दिन लग जाएँगे, लेकिन हमने इस कड़ी के लिए एक ऐसा गीत चुना है जो हमारे ख़याल इस रस की व्याख्या करने के लिए एक बेहद असरदार गीत है। और यह हम नहीं बल्कि महिलाएँ ख़ुद कह रही हैं। जी हाँ, नौशाद साहब ने ख़ुद इस गीत का ज़िक्र करते हुए ऐसा कहा था। इस गीत के बारे में जानिए ख़ुद नौशाद साहब के ही शब्दों में जिन्होंने इस गीत की रचना की थी। "मद्रास के वीनस कृष्णमूर्ती ने अपनी फ़िल्म 'साथी' के लिए मुझे म्युज़िक डिरेक्टर लिया और मजरूह सुल्तानपुरी को गीतकार। मैंने उनसे कह दिया कि आप मुझे स्टोरी, सिचुएशन समझा दीजिए, मैं उसे डायजेस्ट कर लूँगा, फिर मेरा काम शुरु होगा, शायर मेरे साथ बैठेगा, और मैं गानें बनाकर आपको दे दूँगा, यही मेरे काम करने का स्टाइल है। तो पहला गाना रेकॊर्ड करके मद्रास भेज दिया। फिर मुझे मद्रास बुलाया गया। वहाँ पहुँचा तो पता चला कि गाना सभी को बहुत अच्छा लगा है लेकिन डायरेक्टर श्रीधर साहब चाहते हैं कि गाना थोड़ा सा मॊडर्ण हो। मैंने उनसे कहा कि तब आप सीन भी बदल दीजिए। लगन मंडप और कृष्ण की मूर्ती की जगह चर्च में शूट कर लीजिए, फिर मैं सितार के बदले सैक्सोफ़ोन डाल दूँगा। फिर मैंने दूसरा गाना कॊंगो, बॊंगो वगेरह के साथ मॊडर्ण टाइप का बनाकर मद्रास ले गया। यह गाना भी सभी को पसंद आ गया और यह सवाल खड़ा हो गया कि कौन सा गाना रखा जाए। मैंने उनको यह सजेस्ट किया कि अगर हिंदी समझने वाले लेडीज़ हैं तो उन्हें प्रिव्यू थिएटर में सिचुएशन समझाकर दोनों गानें सुनवाया जाए और फिर उनकी राय ली जाए, उन्हीं को डिसाइड करने दीजिए कि कौन सा गाना अच्छा लगेगा क्योंकि यह गाना एक आम भारतीय स्त्री की भावनाओं से जुड़ी हुई है। सब को यह सुझाव पसंद आया और प्रिव्यू थिएटर में लेडीज़ को बुलाया गया और दोनों गानें बजाए गए। पहला गाना था "मैं तो प्यार से तेरे पिया माँग सजाउँगी" और दूसरा गाना था "मेरे जीवन साथी कली थी मैं तो प्यासी"। तो लेडीज़ जिन्हें हिंदी आती थी, बोलीं कि पहला गाना हमें दे दीजिए, हम हर सुबह अपने शौहर को इसी गाने से जगाया करेंगे।" तो लीजिए, शृंगार रस से भरा हुआ लता जी की मीठी आवाज़ में सुनिए फ़िल्म 'साथी' का यह गीत, मजरूह - नौशाद की रचना, इस फ़िल्म से संबंधित जानकारी हम फिर कभी देंगे जब इस फ़िल्म का कोई और गीत इस महफ़िल में शामिल होगा।



क्या आप जानते हैं...
कि नौशाद साहब शिकार और मछली पकड़ने का बड़ा शौक रखते थे। शक़ील और मजरूह के साथ पवई झील में मछली पकड़ा करते थे। बाद में वे 'महाराष्ट्र स्टेट ऐंगलिंग एसोसिएशन' के अध्यक्ष भी रहे।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. अद्‍भुत रस पर आधारित है यह गीत और गीत के मुखड़े का पहला शब्द भी "अद्‍भुत" का ही पर्यायवाची शब्द है। गीतकार का नाम बताएँ। ४ अंक।
२. इस गीत के मुखड़े के पहले चंद शब्द एक दूसरी फ़िल्म का शीर्षक है जो बनी थी १९९७ में और जिसके निर्देशक थे अजय गोयल। गीत के बोल बताएँ। १ अंक।
३. इस फ़िल्म का जो शीर्षक है उससे प्रेरीत हो कर हमने अभी हाल ही में 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक लघु शृंखला चलाई थी। फ़िल्म का नाम बताएँ। २ अंक।
४. संगीतकार बताएँ। ३ अंक।

पिछली पहेली का परिणाम -
पवन जी, प्रतिभा जी और नवीन जी को तो हम बधाई देते ही हैं, पर आज का दिन तो खास है अवध जी के नाम. अवध जी पहले भी कई बार लक्ष्य के करीब आ आकर चूक गए हैं पर इस बार उन्होंने सफलता पूर्वक इस लक्ष्य को साध लिया है. सभी दोस्तों से अनुरोध है कि वो हमारे अवध भाई को संगीतमयी बधाई देन....अवध जी ओल्ड इस गोल्ड और पूरे आवाज़ परिवार की तरफ़ से भी आपको इस शतक के लिए शत शत बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Saturday, September 25, 2010

ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने - लता विशेषांक



'ओल्ड इज़ गोल्ड' शनिवार विशेष में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। इन दिनों इस साप्ताहिक स्तंभ में हम लेकर आ रहे हैं आप ही के ईमेलों पर आधारित 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने'। जैसा कि आप सब जानते ही हैं कि २८ सितंबर को सुर कोकिला लता मंगेशकर का जन्मदिन है। लता जी को जनमदिन की बधाई और शुभकामना स्वरूप आज के इस अंक के लिए हम लेकर आये हैं एक विशेष प्रस्तुति जिसे हमने तैयार किया है हमारे दो साथियों के ईमेलों के आधार पर। और ये दो साथी हैं हमारी प्यारी गुड्डो दादी, और हमारी एक नई दोस्त अनीता निहालानी, जो ईमेल के माध्यम से कुछ ही दिन पहले हमसे जुड़ी हैं।

तो आइए सब से पहले पढ़ें कि गुड्डो दादी का क्या कहना है लता जी के बारे में।

सुजॉय बेटा

चिरंजीव भवः

सुर-साम्राज्ञी, भारत की बगिया की कोकिला, लता जी को जन्मदिवस की शुभ मंगल कामनाएँ। १९४७ में संगीतकार पंडित हुस्नलाल जी के घर मिली थी परिवार के साथ। फिर लता जी को शायद १९९० में शिकागो में मिली थी, दो मिनट ही बात हो सकी। सफ़ेद साड़ी लाल बोर्डर के सादे परिधान में बहुत ही सुंदर लग रही थी। स्वर साधना की देवी से मैंने यही पूछा की आप जूते पहन के स्टेज पर क्यों नहीं जातीं, तो यही बोली कि संगीत को नमस्कार मान सम्मान है और मेरे मुख से यही निकला की आपके गीतों का जादू सर पर चढ़ कर गूंजता है, बोलता है, तो मुस्करा दीं। दादी को इतना ही याद है। लता जी का एक गीत फ़िल्म 'महल' का "आएगा आनेवाला" प्रतिदिन सुनती हूँ।

आशीर्वाद के साथ
आपकी गुड्डोदादी
चिकागो से

तो दादी, क्योंकि फ़िल्म 'महल' का यह गीत अभी तक हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शामिल नहीं किया है, तो आइए आज आप की इस मनपसंद गीत को यहाँ सुना जाए। जे. नक्शब के बोल और खेमचंद प्रकाश का संगीत।

गीत - आयेगा आनेवाला (महल)


और अब हम आते हैं अनीता निहालानी जी के ईमेलों पर। जी हाँ, इनके दो ईमेल हमें मिले हैं। एक में इन्होंने लता जी पर एक बहुत ही सुंदर कविता लिख कर भेजी हैं, और दूसरे में लता जी के गाये एक गीत से जुड़ी अपनी यादों को लिख भेज है। तो आइए पहले अनीता जी की लिखी कविता का आनंद लिया जाए।


अनीता जी के साथ साथ हम सभी लता जी को जनमदिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ देते हैं। और आइए अब पढ़ें अनीता जी का दूसरा ईमेल।

सुजोय जी,

लता जी के गीत सुनकर हम बड़े हुए, उन दिनों रेडियो पर दिन-रात उनके गीत बजा करते थे, उन्हें जन्म दिन पर बधाई दे सकूं यह मेरे लिये सौभाग्य की बात है। २५ सितम्बर का मुझे इंतजार रहेगा।

अब रही यादों की बात....तो बात लगभग २६-२७ साल पुरानी है। उस दिन आकाश में मेघ छाए थे, अत्यंत शीतल पवन बह रहा था। मेरे विवाह की बात चल रही थी, खबर आयी भावी पतिदेव को एक साल की ट्रेनिंग के लिये असम जाना है, उससे पहले वे लोग मंगनी की रस्म कर लेना चाहते हैं। जुलाई का महीना था, उन्हें सुबह किसी वक्त पहुंचना था, मैंने हल्के पीले रंग की साड़ी पहनी थी, घर के बांयी और छोटी सी बगीची थी, पुष्प सज्जा के लिये फूल लेने गयीं तभी हवा और तेज हो गयीं, साड़ी का आंचल लहराता हुआ पेड़ की टहनी में अटक गया, हाथ में एक बांस की टोकरी थी, नीचे पानी था, वर्षा बस थमी भर थी। मन में उत्सुकता थी, सब का असर यह हुआ की मैं गिरने ही वाली थी, यह सब कुछ ही पलों में घटा था, तभी भीतर ट्रांजिस्टर पर यह गीत बज उठा "पल भर में यह क्या हो गया...", मैं खुद को सम्भालूँ, इसके पूर्व ही देखा कि मेरे भावी पतिदेव अपने माता-पिता के साथ प्रवेश कर रहे हैं, मैंने घबराते हुए साड़ी का पल्लू छुडाने का प्रयास किया कि टोकरी से फूल नीचे गिर गए, तभी उन्होंने आकर फूल उठाये और मुझे अंदर ले गए, गीत बज रहा था... मैं वह गयीं वह दिल गया....प्यार से तुम बुलाना....आज इतने वर्षों बाद भी जब यह गीत बजता है वह बारिश, हवा और फूल मुझे सिहरा जाते हैं...

अनिता


वाह अनीता जी, सचमुच कुछ गीत हमारे जीवन के साथ ऐसे जुड़ जाते हैं कि फिर जब भी ये गीत कहीं से सुनाई दे जाए तो जैसे एक सिहरन सी दौड़ जाती है तन मन में। आइए आप के इस पसंदीदा गीत का आनंद लें लता जी की आवाज़ में, फ़िल्म 'स्वामी', गीतकार अमित खन्ना और संगीतकार राजेश रोशन।

गीत - पल भर में यह क्या हो गया (स्वामी)


तो ये था इस सप्ताह का 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' जिसे हमने प्रस्तुत किया लता जी को उनके जनमदिन की बधाई स्वरूप। इस अंक के लिए हम ख़ास तौर से गुड्डो दादी और अनीता निहालानी जी का तहे दिल से शुक्रिया अदा करते हैं जिन्होंने िस अंक के लिए हमें अपना सहयोग दिया। तो अब आज के लिए इजाज़त दीजिए, कल फिर मुलाक़ात होगी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नियमीत अंक में। ज़रूर पधारिएगा, नमस्कार!

Friday, September 24, 2010

कृश्न चन्दर - एक गधा नेफा में



सुनो कहानी: एक गधा नेफा में - कृश्न चन्दर

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अर्चना चावजी की आवाज़ में भीष्म साहनी की एक कथा गुलेलबाज़ लड़का का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं कृश्न चन्दर की कहानी "एक गधे की वापसी" का अंतिम भाग, जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 7 मिनट 56 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

एक गधे की वापसी के अंश पढने के लिये कृपया नीचे दिए लिंक्स पर क्लिक करें
एक गधे की वापसी - प्रथम भाग
एक गधे की वापसी - द्वितीय भाग
एक गधे की वापसी - तृतीय भाग

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



यह तो कोमलांगियों की मजबूरी है कि वे सदा सुन्दर गधों पर मुग्ध होती हैं
~ पद्म भूषण कृश्न चन्दर (1914-1977)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी

रुस्तम सेठ मुझसे बहुत खुश हुए और खुश होकर मुझे जान से मारने की सोचने लगे।
( "एक गधा नेफा में" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)
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#One hundred fourth Story, Ek Gadhe Ki Vapasi: Folklore/Hindi Audio Book/2010/36. Voice: Anurag Sharma

Thursday, September 23, 2010

हुए हैं मजबूर होके अपनों से दूर....लता के दस दुर्लभ गीतों की लड़ी का अंतिम नजराना



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 490/2010/190

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस सप्ताह की यह आख़िरी नियमित महफ़िल है और आज समापन भी है इन दिनों चल रही लघु शृंखला 'लता के दुर्लभ दस' का। इस शृंखला में पिछले नौ दिनों से आपने कुल नौ बेहद दुर्लभ गानें सुनें लता जी के गायन करीयर के शुरुआती सालों के। हमने सफ़र शुरु किया था १९४८ के फ़िल्म के गीत से और आज हब यह शृंखला ख़त्म हो रही है तो हम केवल १९५१ तक ही पहुँच सके हैं। इसी से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि लता जी के गाए असंख्य लोकप्रिय गीतों के अलावा भी न जाने कितने ऐसे भूले बिसरे गानें हैं जिनका भी कोई अंत नहीं। शायद इस तरह की कई शृंखलाएँ हमें आगे भी चलानी पड़ेगी, तब भी शायद उतने ही गानें शेष बचे रहेंगे। आज इस शृंखला का समापन हम करने जा रहे हैं १९५१ की फ़िल्म 'प्यार की बातें' के गीत से जिसके बोल हैं "हुए हैं मजबूर होके अपनों से दूर"। तड़पती हुई नरगिस अपने नायक के लिए गाती हैं यह बेमिसाल गीत। आपको बता दें कि 'नरगिस आर्ट कंसर्न' के बैनर तले बनी इस फ़िल्म के निर्देशक थे अख़्तर हुसैन और फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे त्रिलोक कपूर, नरगिस, मारुती, ख़ुर्शीद, कुक्कू, नीलम, नासिर, रशीद और नज़ीर। फ़िल्म में संगीत दिया बुलो सी. रानी ने, लेकिन उपलब्ध जानकारी के अनुसार चोला शामजी का भी नाम है बुलो सी. रानी के साथ में। 'प्यार की बातें' का सिर्फ़ यही गीत नहीं, बल्कि इस फ़िल्म के सभी गीत बेहद अनमोल हैं। आशा भोसले, जी. एम. दुर्रानी, चुन्नीलाल परदेसी, गीता रॊय, मुकेश, और शम्शाद बेग़म जैसी आवाज़ें भी शामिल हैं इस फ़िल्म के साउण्डट्रैक में, और इस फ़िल्म के तमाम गीतों को लिखा है ख़वर जमा, मुनव्वर खन्ना, बेहज़ाद लख़नवी, और मजरूह सुल्तानपुरी ने। आज का प्रस्तुत गीत ख़वर जमा का लिखा हुआ है।

दोस्तों, क्या आपने इससे पहले कभी गीतकार ख़वर जमा का नाम सुना है? ये एक बेहद कमचर्चित गीतकार रहे हैं जिन्हें छोटी बजट की फ़िल्मों में ही गीत लिखने के मौक़े नसीब हुए। उपलब्ध जानकारी के अनुसार जिन फ़िल्मों में इन्होंने गीत लिखे, उनमें शामिल हैं 'प्यार की बातें', 'ख़ूनी ख़ज़ाना', 'फ़रमाइश', '10'O Clock', 'दरोगा जी', 'मेहरबानी', 'पठान' आदि। ख़वर जमा ने कई ग़ैर फ़िल्मी रचनाएँ भी लिखी। बुलो सी. रानी के अलावा जिस संगीतकार के साथ उनकी अच्छी ट्युनिंग् जमी थी, कम वक़्त के लिए ही सही, वो थे हाफ़िज़ ख़ान, यानी कि ख़ान मस्ताना। हाफ़िज़ ख़ान ने शेवन रिज़्वी, ख़ुमार बाराबंकवी, अंजुम पीलीभीती, शेवन दमन के साथ साथ ख़वर जमा के साथ भी अच्छा काम किया। 'फ़रमाइश' में इन्होंने पंडित हुस्नलाल भगतराम के साथ काम किया। फ़िल्म 'पठान' में जिम्मी का संगीत था जिसमें तलत महमूद साहब के गाए गानें मशहूर हुए थे। तो दोस्तों, आइए सुना जाए आज का गीत। और इसी के साथ 'लता के दुर्लभ दस' शृंखला समाप्त होती है। और इस शृंखला को समाप्त करते हुए हम कृतज्ञता ज्ञापन करते हैं श्री अजय देशपाण्डेय का जिन्होंने अपने ख़ज़ाने से इन दस मोतियों को चुन कर हमें भेजा जिससे हम इस ख़ास पेशकश की योजना बना सके। आपको यह शृंखला कैसी लगी हमें ज़रूर लिखिएगा और भविष्य में भी क्या आप इस तरह के दुर्लभ गानें सुनना पसंद करेंगे, इस बारे में भी अपने विचार और सुझाव हमें लिखिएगा। शनिवार 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में फ़िल्म हाज़िर होंगे। तो पधारिएगा ज़रूर शनिवार की शाम भारतीय समयानुसार ठीक ६:३० बजे। तब तक के लिए दीजिए इजाज़त। टिप्पणी और ईमेल पते oig@hindyugm.com के माध्यम से अपने विचार हम तक युंही पहूँचाते रहिएगा। नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि बुलो सी. रानी ने २४ मई १९९३ को आत्महत्या के द्वारा अपनी जीवल लीला समाप्त कर दी थी।

विशेष सूचना:

लता जी के जनमदिन के उपलक्ष्य पर इस शृंखला के अलावा २५ सितंबर शनिवार को 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' में होगा लता मंगेशकर विशेष। इस लता विशेषांक में आप लता जी को दे सकते हैं जनमदिन की शुभकामनाएँ बस एक ईमेल के बहाने। लता जी के प्रति अपने उदगार, या उनके गाए आपके पसंदीदा १० गीत, या फिर उनके गाए किसी गीत से जुड़ी आपकी कोई ख़ास याद, या उनके लिए आपकी शुभकामनाएँ, इनमें से जो भी आप चाहें एक ईमेल में लिख कर हमें २० सितंबर से पहले oig@hindyugm.com के पते पर भेज दें। हमें आपके ईमेल का इंतज़ार रहेगा।


अजय देशपांडे जी ने लता जी के दुर्लभ गीतों को संगृहीत करने के उद्देश्य से एक वेब साईट का निर्माण किया है, जरूर देखिये यहाँ.

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. शृंगार रस से लवरेज़ इस गीत में प्यार से शृंगार करने की बात कही गई है। फ़िल्म का नाम बताएँ। २ अंक।
२. मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा गीत है, संगीतकार बताएँ। ३ अंक।
३. गायिका वोही हैं जिनकी आवाज़ एक आदर्श भारतीय नारी की आवाज़ है और ऐसे में शृंगार रस के गानें भला और किनकी आवाज़ में इससे बेहतर लग सकते हैं? गायिका बताएँ। १ अंक।
४. फ़िल्म का शीर्षक वही है जिस नाम से बाद में भी एक फ़िल्म बनीं है और उस फ़िल्म में कुमार सानू की आवाज़ में एक गीत था जिसके मुखड़े में "ज़िंदगी" और "मौत" शब्दों का इस्तेमाल हुआ है। आपको बताना है शृंगार रस वाले गीत के बोल। २ अंक।

पिछली पहेली का परिणाम -
अवध जी मात्र एक अंक दूर हैं अब आप. प्रतिभा जी, किशोर जी और नवीन जी बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, September 22, 2010

श्याम मुरली मनोहर बजाओ....लता के स्वरों में पंडित नरेंद्र शर्मा का लिखा ये भजन आज लगभग भुला सा दिया गया है



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 489/2010/189

ता मंगेशकर के गाए दुर्लभ गीतों की इस शृंखला में आज के लिए हमने जिस गीत को चुना है, वह है १९५१ की फ़िल्म 'नंदकिशोर' का। यह एक धार्मिक फ़िल्म थी और धार्मिक फ़िल्मों के गानें अगर भूले बिसरे बन जाएँ तो उसमें बहुत ज़्यादा हैरत की बात नहीं है। कुछ गिने चुने धार्मिक फ़िल्मों को अगर अलग रखें तो ज़्यादातर इस जौनर की फ़िल्में ही बॊक्स ऒफ़िस पर ठण्डी ही रही और इन फ़िल्मों के गानें भी ज़्यादा सुनाई नहीं दिए। 'नंद किशोर' भी एक ऐसी ही फ़िल्म है जिसमें युं तो बेहद सुरीली मीठे गानें थे, लेकिन अफ़सोस कि ये गानें सही तरीक़े से लोगों तक पहुँच ना सके। नलिनी जयवन्त, दुर्गा खोटे और सुमती गुप्ते अभिनीत इस फ़िल्म में संगीत था स्नेहल भाटकर का तथा शुद्ध हिंदी में ये गानें लिखे पंडित नरेन्द्र शर्मा ने। इस फ़िल्म से जो कृष्ण भजन आपको आज हम सुनवा रहे हैं, उसके बोल हैं "श्याम मुरली मनोहर बजाओ"। युं तो ४० के दशक में स्नेहल भाटकर को सामाजिक फ़िल्मों में संगीत देने का अवसर मिला था, लेकिन ५० के दशक के शुरुआत से ही माइथोलॊजिकल फ़िल्मों के लिए वो अनुबन्धित होते गए और सामाजिक कामयाब फ़िल्मों से वो दूर होते गए। 'नंदकिशोर' का सब से मशहूर गीत था लता का गाया हुआ "राधा के मन की मुरली का पुजारी"। "कल भोर भए हरि जाएँगे" और आज का प्रस्तुत गीत भी मधुर गीत रहे लेकिन इन्हें इतनी प्रसिद्धी नहीं मिली। लेकिन कभी कभी किसी कलाकार को याद रखने के लिए एक ही गीत काफ़ी होता है। और स्नेहल के करीयर में भी एक ऐसा गीत बना जिसने उन्हें अमर कर दिया। "कभी तन्हाइयों में युं हमारी याद आएगी" आज भी जब हम सुनते हैं तो इस विस्मृत संगीतकार की यादें ताज़ा हो जाती हैं, बल्कि इस गीत को सुनते हुए आज भी जैसे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

दोस्तो, आइए आज पंडित नरेन्द्र शर्मा की बातें की जाए। डॊ. रामविलास वर्मा ने अपना एक लेख प्रकाशित किया था 'पंडित नरेन्द्र शर्मा स्मृति ग्रंथ' में, जिसमें उन्होंने शर्मा जी से अपनी एक भेंट का संस्मरण पेश किया था। उनसे उनकी फ़िल्मी यात्रा की शुरुआत के बारे में पूछने पर उन्होंने जवाब दिया था - "१९४३ के फ़रवरी माह में भगवती बाबू अचानक घर आए और बोले, 'देखो, हम तुमको बम्बई ले चलते हैं, फ़िल्मवालों ने बुलाया है गीत लेखन के लिए'। मैंने कहा 'भगवती बाबू, फ़िल्म के लिए गीत लेखन का अभ्यास तो हमें हैं नहीं, बिल्कुल भी नहीं और फिर फ़िल्म वालों से परिचय भी तो नहीं है। भगवती बाबू ने उत्तर दिया - हम भी तो वहाँ हैं, चिन्ता क्यों करते हो, चलो। उनके साथ बम्बई रवाना हुआ। इलाहाबाद से बम्बई की यात्रा में मैंने पूर्वाभ्यास के रोप में एक गीत लिखने की कोशिश की। यह सुन रखा था यहाँ गीत उर्दू में भी लिखना होता है। उर्दू का अभ्यास तो मुझे था ही क्योंकि उ.प्र. में उन दिनों उर्दू दूसरी भाषा के रूप में पढ़ाई जाती थी। जो गीत मैंने यात्रा के दौरान रचा, उसका मुखड़ा था - "ऐ बादे सबा, इठलाती न आ, मेरा गुंचा-ए-दिल तो सूख गया"। ख़ैर, बम्बई पहुँचे। बॊम्बे टाकीज़ संस्था की निर्देशिका थीं उस समय की विख्यात अभिनेत्री देविकारानी। मुझे याद है कि १७ फ़रवरी के अपरान्ह अर्थात् दोपहर बाद हम उनसे मिलने पहुँचे थे। भगवती बाबू साथ में थे। देविका जी से दो घण्टे चर्चा हुई। अन्त में उन्होंने पूछा - आप हमारे बुलावे पर इलाहाबाद से कब रवाना हुए? मैंने उत्तर दिया - १५ फ़रवरी को। इस पर उन्होंने यह कहकर मुझे आश्चर्यचकित कर दिया, 'तो १५ फ़रवरी से आपको बॊम्बे टाकीज़ में नियुक्ति पक्की'। तीन वर्ष हम वहाँ रहे।" तो दोस्तों, पंडित नरेन्द्र शर्मा के इन शब्दों के बाद आइए अब उन्ही का लिखा आज का गीत सुनते हैं फ़िल्म 'नंदकिशोर' से।



क्या आप जानते हैं...
कि संगीतकार स्नेहल भाटकर के संगीत से सजी जो अंतिम हिंदी की दो फ़िल्में आई थीं, उनमें एक था १९८९ की फ़िल्म 'प्यासे नैन' और १९९४ की फ़िल्म 'सहमे हुए सिताए'।

विशेष सूचना:

लता जी के जनमदिन के उपलक्ष्य पर इस शृंखला के अलावा २५ सितंबर शनिवार को 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' में होगा लता मंगेशकर विशेष। इस लता विशेषांक में आप लता जी को दे सकते हैं जनमदिन की शुभकामनाएँ बस एक ईमेल के बहाने। लता जी के प्रति अपने उदगार, या उनके गाए आपके पसंदीदा १० गीत, या फिर उनके गाए किसी गीत से जुड़ी आपकी कोई ख़ास याद, या उनके लिए आपकी शुभकामनाएँ, इनमें से जो भी आप चाहें एक ईमेल में लिख कर हमें २० सितंबर से पहले oig@hindyugm.com के पते पर भेज दें। हमें आपके ईमेल का इंतज़ार रहेगा।


अजय देशपांडे जी ने लता जी के दुर्लभ गीतों को संगृहीत करने के उद्देश्य से एक वेब साईट का निर्माण किया है, जरूर देखिये यहाँ.

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस फ़िल्म के नायक वो हैं जिनकी जोड़ी निरुपा रॊय के साथ बहुत सारी माइथोलोजिकल फ़िल्मों में ख़ूब जमी थी। नायक का नाम बताएँ। २ अंक।
२. जिस बैनर तले इस फ़िल्म का निर्माण हुआ था, वह इस फ़िल्म की नायिका के नाम से ही है। नायिका का नाम बताएँ। २ अंक।
३. फ़िल्मी के शीर्षक में "प्यार" शब्द का इस्तेमाल है। फ़िल्म के संगीतकार का नाम बताएँ। ३ अंक।
४. गीत के मुखड़े में वह शब्द मौजूद है जो शीर्षक था उस फ़िल्म का जिसमें मास्टर ग़ुलाम हैदर ने लता से कुछ बेहद लोकप्रिय गीत गवाए थे। गीत का मुखड़ा बताइए। ३ अंक।

पिछली पहेली का परिणाम -
अवध जी अब बेहद करीब हैं, शायद एक जवाब दूर बस....अन्य सभी को भी बधाई, बेहद मुश्किल सवालों के भी तुरंत जवाब देकर आप सब ने साबित किया है कि आप लोग सच्चे संगीत प्रेमी हैं

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Tuesday, September 21, 2010

कहाँ तक हम उठाएँ ग़म....जब दर्द को नयी सदा दी लता जी ने अनिल बिस्वास के संगीत निर्देशन में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 488/2010/188

गुज़रे ज़माने के अनमोल नग़मों के शैदाईयों और क़द्रदानों, इन दिनों आपकी ख़िदमत में हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर पेश कर रहे हैं लता मंगेशकर के गाए कुछ बेहद दुर्लभ गीतों पर आधारित लघु शृंखला 'लता के दुर्लभ दस'। अब तक आपने इस शृंखला में जितने भी गानें सुनें, उनकी फ़िल्में भी कमचर्चित रही, यानी कि बॊक्स ऒफ़िस पर असफल। लेकिन आज हम जिस फ़िल्म का गीत सुनने जा रहे हैं, वह एक मशहूर फ़िल्म है और इसके कुछ गानें तो बहुत लोकप्रिय भी हुए थे। १९५० की यह फ़िल्म थी 'आरज़ू'। जी हाँ, वही 'आरज़ू' जिसमें तलत महमूद साहब ने पहली पहली बार "ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल" गीत गा कर एक धमाकेदार पदार्पण किया था हिंदी फ़िल्म संगीत संसार में। लेखिका इस्मत चुगताई के पति शाहीद लतीफ़ ने इस फ़िल्म का निर्माण किया था जिसमें मुख्य भूमिकाओं में थे दिलीप कुमार और कामिनी कौशल। इस जोड़ी की यह अंतिम फ़िल्म थी। इस जोड़ी ने ४० के दशक में 'शहीद' और 'नदिया के पार' जैसी फ़िल्मों में कामयाब अभिनय किया था। 'आरज़ू' में संगीत अनिल बिस्वास का था, जिन्होंने इस फ़िल्म में ना केवल तलत महमूद को लौंच किया, बल्कि गायिका सुधा मल्होत्रा से भी उनका पहला पहला फ़िल्मी गीत गवाया था जिसके बोल थे "मिला गए नैन"। इस फ़िल्म में अनिल दा ने अपनी दूसरी फ़िल्मों की तरह ही लता मंगेशकर से बहुत से एकल गीत गवाए। इनमें शामिल हैं लोक धुनों पर आधारित "आई बहार जिया डोले मोरा जिया डोले रे" और "मेरा नरम करेजवा डोल गया"; इन हल्के फुल्के गीतों के अलावा कुछ संजीदे गानें भी थे जैसे "उन्हें हम तो दिल से भुलाने लगे, वो कुछ और भी याद आने लगे", "जाना ना दिल से दूर आँखों से दूर जाके" और "कहाँ तक हम उठाएँ ग़म, जिए अब या कि मर जाएँ"। इनमें से आज के लिए हमने चुना है "कहाँ तक हम उठाएँ ग़म"। क्या दर्द-ए-मौसिक़ी है, क्या अदायगी है, क्या पुर-असर बोल हैं! इस गीत की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है। अब तक जितने भी गीत हमने सुनवाए हैं, हो सकता है कि उन्हें आपने पहले कभी नहीं सुना हो, लेकिन कम से कम इस गीत को तो आप में से बहुतों ने सुना होगा। हाँ, यह बात ज़रूर है कि आज यह गीत कहीं से सुनाई नहीं देता।

प्रेम धवन और मजरूह सुल्तानपुरी ने इस फ़िल्म के गानें लिखे थे, प्रस्तुत गीत मजरूह साहब का लिखा हुआ है। मजरूह साहब की यह तीसरी फ़िल्म थी। इस गीत की चर्चा में यह याद दिलाना ज़रूरी है कि साल १९४९ में, यानी इस 'आरज़ू' के ठीक एक साल पहले एक फ़िल्म 'अंदाज़' आई थी, उसमें लता जी के गाए कई गानें मशहूर हुए थे, और उनमें एक गीत था "उठाए जा उनके सितम और जिये जा"। और 'आरज़ू' के इस गीत में भी ग़म उठाने की ही बात की गई है। और इन दोनों गीतों के गीतकार मजरूह साहब ही थे। इसका मतलब यह है कि "उठाए जा उनके सितम" की अपार कामयाबी की वजह से ही हो सकता है कि फ़िल्म के निर्माता ने कुछ इसी तरह के एक और गीत की माँग की होगी मजरूह साहब और अनिल दा से। क्योंकि आज का गीत मजरूह साहब ने १९५० के आसपास लिखा होगा, इसलिए यहाँ पर हम आपको उनके विविध भारती पर कहे हुए वो बातें पेश कर रहे हैं जिसका नाता १९४५ से १९५२ के समय से है। आप ख़ुद ही पढ़िए मजरूह साहब के शब्दों में। "१९४५ से १९५२ के दरमियाँ की बात है। उस समय मैंने तरक्की पसंद अशार की शुरुआत की थी। मेरे उम्र के जानकार लोगों को यह मालूम होगा कि आज ऐसे अशार जो किसी और के नाम से लोग जानते हैं, वो तरक्की पसंद शायरी मैंने ही शुरुआत की थी। मैं एक बार अमेरिका और कनाडा गया था। वहाँ के कई युनिवर्सिटीज़ में मैं गया, मुझे इस बात की हैरानी हुई कि वहाँ के शायरी पसंद लोगों को मेरे अशार तो याद हैं, पर कोई फ़ैज़ के नाम से, तो कोई फ़रहाद के नाम से, मजरूह के नाम से नहीं।" तो लीजिए दोस्तों, सुनिए लता जी की आवाज़ में यह दर्द भरा गीत और महसूस कीजिए उनकी आवाज़ की मिठास को। वैसे भी दर्दीले गीत ज़्यादा मीठे लगते हैं!



क्या आप जानते हैं...
कि मजरूह सुल्तानपुरी को सन १९९४ में 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था।

विशेष सूचना:

लता जी के जनमदिन के उपलक्ष्य पर इस शृंखला के अलावा २५ सितंबर शनिवार को 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' में होगा लता मंगेशकर विशेष। इस लता विशेषांक में आप लता जी को दे सकते हैं जनमदिन की शुभकामनाएँ बस एक ईमेल के बहाने। लता जी के प्रति अपने उदगार, या उनके गाए आपके पसंदीदा १० गीत, या फिर उनके गाए किसी गीत से जुड़ी आपकी कोई ख़ास याद, या उनके लिए आपकी शुभकामनाएँ, इनमें से जो भी आप चाहें एक ईमेल में लिख कर हमें २० सितंबर से पहले oig@hindyugm.com के पते पर भेज दें। हमें आपके ईमेल का इंतज़ार रहेगा।


अजय देशपांडे जी ने लता जी के दुर्लभ गीतों को संगृहीत करने के उद्देश्य से एक वेब साईट का निर्माण किया है, जरूर देखिये यहाँ.

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. फ़िल्म के नाम में दो शब्द हैं जिनमें से एक शब्द एक राग का नाम भी है और दूसरा शब्द एक मशहूर पार्श्व गायक का नाम। तो इन दोनों शब्दों को जोड़िए और बताइए फ़िल्म का नाम। ३ अंक।
२. यह एक कृष्ण भजन है। गीतकार बताएँ। ३ अंक।
३. संगीतकार वो हैं जिनके संगीत में एक गीत अभी हाल ही में आपने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुना है 'गीत अपना धुन पराई' शृंखला के अंतर्गत। कौन हैं ये संगीतकार? २ अंक।
४. गीत के मुखड़े का पहला शब्द है "श्याम"। फ़िल्म की नायिका का नाम बताएँ। २ अंक।

पिछली पहेली का परिणाम -


खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Monday, September 20, 2010

खासी तिंग्या का खास अंदाज़ लिए तन्हा राहों में कुछ ढूँढने निकले हैं गुमशुदा बिक्रम घोष और राकेश तिवारी



ताज़ा सुर ताल ३६/२०१०


विश्व दीपक - 'ताज़ा सुर ताल' में आप सभी का फिर एक बार बहुत बहुत स्वागत है! पिछले हफ़्ते हमने एक ऒफ़बीट फ़िल्म 'माधोलाल कीप वाकिंग्‍' के गानें सुने थे, और आज भी हम एक ऒफ़बीट फ़िल्म लेकर हाज़िर हुए हैं। इस फ़िल्म के भी प्रोमो टीवी पर दिखाई नहीं दिए और कहीं से इसकी चर्चा सुनाई नहीं दी। यह फ़िल्म है 'गुमशुदा'।

सुजॊय - अपने शीर्षक की तरह ही यह फ़िल्म गुमशुदा-सी ही लगती है। सुना है कि यह एक मर्डर मिस्ट्री की कहानी पर बनी फ़िल्म है जिसका निर्माण किया है सुधीर डी. आहुजा ने और निर्देशक हैं अशोक विश्वनाथन। फ़िल्म के मुख्य कलाकार हैं रजत कपूर, विक्टर बनर्जी, सिमोन सिंह, राज ज़ुत्शी और प्रियांशु चटर्जी। फ़िल्म में संगीत है बिक्रम घोष का और गानें लिखे हैं राकेश त्रिपाठी ने।

विश्व दीपक - सुजॊय जी, ये बिक्रम घोष कहीं वही बिक्रम घोष तो नहीं हैं जो एक नामचीन तबला वादक हैं और जिनका फ़्युज़न संगीत में भी दबदबा रहा है?

सुजॊय - जी हाँ, आपने बिल्कुल ठीक पहचाना, और आपको यह भी बता दूँ कि बिक्रम के पिता हैं पंडित शंकर घोष जो एक जानेमाने तबला वादक रहे हैं जिन्होंने उस्ताद अली अक़बर ख़ान और पंडित रविशंकर जैसे मैस्ट्रोस का संगत किया है।

विश्व दीपक - जहाँ तक फ़िल्मी करीयर का सवाल है, बिक्रम घोष का हिंदी फ़िल्मों में यह पदार्पण है, जबकि बांगला फ़िल्मों में वो संगीत दे चुके हैं।

सुजॊय - हाँ, उनके संगीत से सजी कुछ बांगला फ़िल्में हैं इति श्रीकांत (२००४), देवकी (२००५), नील राजार देशे (२००८), और पियालीर पासवर्ड (२००९)। साल २००९ में एक फ़िल्म बनी थी अंग्रेज़ी, हिंदी और गुजराती में 'लिटल ज़िज़ू' के नाम से जिसमें बिक्रम घोष ने गिउलियानो मोदारेली के साथ मिलकर संगीत दिया था। और आइए अब बातों को देते हैं विराम और सुनते हैं 'गुमशुदा' का पहला गीत सुनिधि चौहान की आवाज़ में।

गीत - तन्हा राहें


विश्व दीपक - "तन्हा राहें मेरी उलझी सी क्यों लगे, एक नया अरमाँ फिर भी दिल में जगे, ढूंढे नज़रें मेरी अंजानी मंज़िलें, साया भी क्यों मेरा अब फ़साना लगे"; क्योंकि यह एक मर्डर मिस्ट्री फ़िल्म है, इसलिए इस फ़िल्म के गीतों से हमें उसी तरह की उम्मीदें रखनी चाहिए। और इस पहले गीत में भी एक क़िस्म का सस्पेन्स छुपा सा लगता है, जैसे कोई राज़, कोई डर छुपा हुआ हो। सुनिधि की आवाज़ में यह गीत सुन कर फ़िल्म 'दीवानगी' के शीर्षक गीत की याद आ गई। "सपनों से कह दो अब मुझे ना ठगे", गीतकार राकेश तिवारी के इन बोलों में नई बात नज़र आई है।

सुजॊय - और गीत के संगीत संयोजन से भी सस्पेन्स टपक रहा है। साज़ों के इस्तेमाल में भी विविधता अपनाई गई है। परक्युशन से लेकर लातिनो कार्निवल म्युज़िक के नमूने सुने जा सकते हैं इस गीत में। गायकी के बारे में यही कह सकते हैं कि यह स्टाइल सुनिधि का मनचाहा स्टाइल है और इसलिए शायद इस गीत को गाना उनके लिए बायें हाथ का खेल रहा होगा। इस तरह के गानें उन्होंने शुरु से ही बहुत से गाए हैं, इसलिए गायकी के लिहाज़ से कोई नई बात नहीं है इसमें।

विश्व दीपक - आइए अब बढ़ते हैं दूसरे गीत की ओर, इस बार आवाज़ है सोनू निगम की। जब फ़िल्म का शीर्षक ही है 'गुमशुदा' तो इस फ़िल्म के किसी गीत में अगर ढूंढने की बात हो तो इसमें हैरत वाली कोई बात नहीं, है न? इस गीत के बोल हैं "ढूंढो, गली गली डगर डगर नगर नगर शहर शहर अरे ढूंढो, हर सफ़र दर बदर आठों पहर शाम-ओ-सहर अरे ढूंढो"।

गीत - ढूंढो


सुजॊय - इस गीत में अगर ढूंढ़ने जाएँ तो बिक्रम घोष का ज़बरदस्त ऒरकेस्ट्रेशन मिलता है। वैसे गीत का जो बेसिक ट्युन है वह सीधा सादा सा है, एल्किन अरेंजमेण्ट में हेवी ऒरकेस्ट्रेशन का प्रयोग हुआ है। भारतीय और विदेशी साज़ों का अच्छा फ़्युज़न हुआ है। कुछ कुछ क़व्वली शैली का भी सहारा लिया गया है। कहीं कहीं हार्ड रॊक शैली का भी असर मिलता है।

विश्व दीपक - गीतकार राकेश तिवारी की बात करें तो वो एक कोलकाता बेस्ड स्क्रीनप्ले राइटर, संवाद लेखक, गीतकार और निर्देशक हैं। १४ नवंबर १९७० को कोलकाता में जन्में राकेश ने मुंबई मायानगरी की तरफ़ रूख किया साल २००० में। निम्बस टेलीविज़न के साथ उन्होंने काम करना शुरु किया और एशियन स्काइशॊप के लिए बहुत से विज्ञापन लिखे। लेकिन २००२ में वो कोलकाता वापस आ गए और यहीं पर काम करना शुरु कर दिया। राकेश तिवारी करीब १० टीवी धारावाहिक लिख चुके हैं और फ़िल्मों के लिए १६० से उपर गीत लिख चुके हैं। उन्होंने एक बंगला फ़िल्म 'बोनोभूमि' में एक हिंदी गीत भी लिखा है जो फ़िल्म का एकमात्र ऒरिजिनल गीत है।

सुजॊय - 'गुमशुदा' फ़िल्म में कुल ६ गीत हैं और हर गीत एक एकल गीत है और हर गीत में अलग आवाज़ है। सुनिधि चौहान और सोनू निगम के बाद अब इस गीत में आवाज़ जून बनर्जी की है।

गीत - किसने पहचाना


विश्व दीपक - स्पैनिश प्रभाव का एक और उदाहरण था यह गीत, जिसमें अकोस्टिक स्पैनिश लूप पूरे गीत में छाया हुआ है। "किसने पहचाना खेल मन का अंजाना", इस गीत में भी वही सस्पेन्स, वही अद्‍भुत रस! अब तो भई एक जैसा लगने लगा है। "तन्हा राहें" गीत का ही एक्स्टेंशन लगा यह गीत। बस ऒरकेस्ट्र्शन में थोड़ा हेर फेर है।

सुजॊय - इस गीत की गायिका जून बनर्जी एक उभरती गायिका हैं। बांगला फ़िल्मों में उन्होंने कई गीत गाए हैं। हिंदी फ़िल्मों की बात करें तो जून ने २००९ में 'रात गई बात गई' में अनुराग शर्मा के साथ एक युगल गीत गाया था, उससे पहले 'गांधी माइ फ़ादर' में भी उनकी आवाज़ सुनाई दी थी। २००७ में शंकर अहसान लॊय के संगीत में जून बनर्जी ने शंकर महादेवन और विशाल दादलानी के साथ मिलकर 'हाइ स्कूल म्युज़िकल-२' में "उड़ चले" गीत गाया था।

विश्व दीपक - और अब चौथा गीत और चौथी आवाज़, रोनिता डे की, बोल "चुप था पानी चुप थी लहर, एक हवा का झोंका, उठ गया है भँवर"।

गीत - चुप था पानी


सुजॊय - इस गीत में भी वही सपेन्स और डर छुपा है, "गहरा घना दलदल, धंस गया है कमल, कौन किसको रोके, कहदे रुक जा संभल, आनेवाले कल में बीता कल क्यों मिले, ख़्वाबों के रंगों में क्यों ख्वाहिशें घुले"। इस गीत में कोरस का गाया "उंगली पकड़ के मीर मौला रस्ता बता दे मेरे मौला" सुनने में अच्छा लगता है।

विश्व दीपक - अगर आपको इससे पहले के दो गीत ज़्यादा नहीं भाये हों तो इस गीत में बिक्रम घोष ने पूरी कोशिश की है कि उन गीतों की ख़ामियों को पूरा कर दे। अच्छा कॊम्पोज़िशन है और रोनिता डे ने अच्छा निभाया है इसको। और इस गीत में भी परक्युशन का इस्तेमाल सुनाई देता है।

सुजॊय - अब एक रॊक नंबर रुपंकर की आवाज़ में। जी हाँ, वही रुपंकर जो आज बंगाल के एक जाने माने और कामयाब गायक हैं। इनका पूरा नाम है रुपंकर बागची। बंगाल में इनके गाए बांगला गीतों के हज़ारों लाखों चाहने वाले हैं। उनके गाए ग़ैर-फ़िल्मी ऐल्बम्स, फ़िल्मी गीत और विज्ञापन जिंगल्स घर घर गूंज रहे हैं बंगाल में। उन्हें कई पुरस्कारों से भी नवाज़ा जा चुका है। टीवी धारावाहिक 'शोनार होरिन' के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ टाइटल गीत का 'टेलीसम्मान' ख़िताब मिला, तो फ़िल्म 'अंदरमहल' के लिए सर्बश्रेष्ठ गायक का पुरस्कार मिला मशहूर मीडिया ग्रूप 'आनंद बज़ार पत्रिका' से।उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार का भी पुरस्कार मिल चुका है और कई बार सर्वश्रेष्ठ ऐल्बम के पुरस्कार से भी नवाज़े जा चुके हैं। उनके गाये रोमांटिक गानें तो जैसे आज के बांगला युवाओं के दिलों की धड़कन बन गये है।

विश्व दीपक - आज के दौर के रॊक शैली के गायकों में सूरज जगन का नाम इन दिनों सब से उपर चल रहा है। और इस गीत में भी रुपंकर का अंदाज़ सूरज जगन से मिलता जुलता सुनाई दे रहा है। लीजिए आप भी सुनिए।

गीत - इसमे है चमक इसमें है नशा


विश्व दीपक - और अब फ़िल्म का छठा और अंतिम गीत, जिसे गाया है दोहर ने। यह शायद इस ऐल्बम का सब से अनोखा गीत है क्योंकि इसके बोल हिंदी के नहीं बल्कि उत्तरी-पूर्वी भारत के किसी राज्य का है। गीत के बोल हैं "खासी तिंग्या"। भले ही गीत के बोल समझ में ना आते हों लेकिन इस लोक धुन में वही पहाड़ों वाला आकर्षण है जो अपनी तरह खींचता है और इस गीत को सुनते हुए जैसे हम उत्तर-पूर्व में पहुँच जाते हैं।

सुजॊय - वाक़ई इस तरह का संगीत किसी हिंदी फ़िल्म में पहले कभी सुनने को नहीं मिला है। क्योंकि मैं ख़ुद उत्तरपूर्वी भारत में एक लम्बे अरसे तक रह चुका हूँ, शायद इसीलिए यह भाषा बहुत ही जानी-पहचानी-सी लग रही है। लेकिन बात ऐसी है कि उत्तरपूर्व भारत में इतनी सारी जनजातियाँ हैं और सबकी अलग अलग भाषाएँ हैं कि किसी एक भाषा को अलग से पहचान पाना आसान नहीं। मुझे जितना लग रहा है कि यह खासी भाषा है जो मेघालय की एक जनजाति है। लेकिन मैं पक्का कह नहीं सकता। गीत कुछ इस तरह का है "ahai klimnoe khasi tingya, ahai klimnoe khasi tingya, kilma savay kilm thungya, kilma savay kilm thungya"। आइए सुनते हैं, बड़ा मीठा सा गाना है, और क्यों ना हो, लोक गीत होते ही मीठे हैं चाहे किसी भी अंचल के क्यों ना हों!

गीत - खासी तिंग्या


सुजॊय - 'गुमशुदा' फ़िल्म के गानों के बारे में यही कहूँगा कि सभी गानें सिचुएशनल है, फ़िल्म को देखते हुए शायद इनका असर पता चलेगा। सिर्फ़ अगर बोल और संगीत की बात है तो "चुप था पानी" और "खासी तिंग्या" मुझे अच्छे लगे। मेरी तरफ़ से ३ की रेटिंग।

विश्व दीपक - सुजॊय जी, इस एलबम पर कोई भी टिप्पणी करने से पहले मैं आपको धन्यवाद देना चाहूँगा क्योंकि आपकी बदौलत हीं हम इन ऑफबीट फिल्मों के गीतों से रूबरू हो पा रहे हैं, नहीं तो आज के समय में कोई भी समीक्षक इन फिल्मों पर अपनी नज़र या अपनी कलम नहीं दौड़ाता या फिर अगर दौड़ाता भी है तो इन फिल्मों (और इनके गीतों) को सिरे से निरस्थ कर देता है। हम बस यही मानकर चलते हैं कि अच्छा संगीत तो बड़े संगीतकारों की झोली से हीं निकल सकता है और इस गलत सोच के कारण बिक्रम घोष जैसे संगीतकार नेपथ्य में हीं रह जाते हैं। मैं आवाज़ के सारे श्रोताओं से यह दरख्वास्त करता हूँ कि अगर आप "गुमशुदा" के गाने सुनने के मूड में नहीं हैं(थे), फिर भी आज के "ताज़ा सुर ताल" में शामिल किए गए इन गानों को एक मर्तबा जरूर सुन लें, उसके बाद निर्णय पूर्णत: आपका होगा कि आगे इन गानों को सुनना है भी या नहीं। जैसा कि सुजॉय जी ने कहा कि संगीतकार ने हिन्दी फिल्मों में अच्छा पदार्पण करने की पूरी कोशिश की है, अब भले हीं इस कोशिश में थोड़ा दुहराव आ गया है, लेकिन इस कोशिश को सराहा जाना चाहिए। सुजॉय जी की रेटिंग को सम्मान देते हुए मैं आज की समीक्षा के समापन की घोषणा करता हूँ। अगली बार एक बड़ा हीं खास एलबम होगा, मेरे सबसे पसंदीदा संगीतकार का... इंतज़ार कीजिएगा।

आवाज़ रेटिंग्स: गुमशुदा: ***

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # १०६- फ़िल्म 'लिटल ज़िज़ू' को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों की किस श्रेणी के तहत पुरस्कृत किया गया था?

TST ट्रिविया # १०७- आज जब मेघालय के खासी लोक संगीत का ज़िक चला है तो बताइए कि वह कौन सी लोरी थी अनिल बिस्वास की स्वरबद्ध की हुई जिसमें उन्होंने खासी लोक धुन का इस्तमाल किया था?

TST ट्रिविया # १०८- निर्देशक अशोक विश्वनाथन को कितनी बार नैशनल अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है?


TST ट्रिविया में अब तक -
पिछले हफ़्ते के सवालों के जवाब:

१. फ़िल्म - सूरजमुखी, गायिका - अर्पिता साहा
२. अल्ताफ़ राजा
३. फ़िल्म 'हिना' की क़व्वाली "देर ना हो जाए कहीं"

रसिया पवन झकोरे आये....लीजिए सुनिए एक और दुर्लभ गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 487/2010/187

'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और सुहानी शाम में हम आप सभी का स्वागत करते हैं। इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर के गाए कुछ बेहद दुर्लभ और भूले बिसरे गीतों से सजी लघु शृंखला 'लता के दुर्लभ दस', जिसके लिए इन गीतों को चुन कर हमें भेजा है नागपुर के श्री अजय देशपाण्डेय ने। हम एक के बाद एक कुल पाँच ऐसे गानें इन दिनों आपको सुनवा रहे हैं जो साल १९५० में जारी हुए थे। तीन गीत हम सुनवा चुके हैं, आज है चौथे गीत की बारी। १९५० में एक फ़िल्म आई थी 'चोर'। सिंह आर्ट्स के बैनर तले इस फ़िल्म का निर्माण हुआ था, और जिसका निर्देशन किया था ए. पी. कपूर ने। यह एक लो बजट फ़िल्म थी जिसमें मुख्य भूमिकाएँ अदा किए मीरा मिश्रा, कृष्णकांत, अल्कारानी, संकटप्रसाद और सोना चटर्जी ने। फ़िल्म में संगीत दिया पंडित गोबिन्दराम ने। इस फ़िल्म से जिस गीत को हम सुनवा रहे हैं उसके बोल हैं "रसिया पवन झकोरे आएँ, जल थल झूमे, नाचे गाएँ, मन है ख़ुशी मनाएँ"। इस गीत को लिखा है गीतकार विनोद कपूर ने। १९४७ से लेकर १९५१ के बीच, यानी कि लता जी के करीयर के शुरुआती सालों में जिन संगीतकारों की मुख्य भूमिका रही, उनमें अक्सर हम अनिल बिस्वास, मास्टर ग़ुलाम हैदर, खेमचंद प्रकाश, नौशाद और शंकर जयकिशन के नाम लेते हैं। लेकिन पंडित गोबिंदराम को लोगों ने भुला दिया है जिन्होंने इसी दौरान लता जी से कुछ बेहद मीठी सुरीली रचनाएँ गवाए हैं। यह बेहद अफ़सोस की बात है कि आज ये तमाम अनमोल गानें कहीं से भी सुनने को नहीं मिलते।

दोस्तों, आज के इस अंक के लिए शोध करते हुए जब मैं अपनी लाइब्रेरी में कुछ बहुत पुराने प्रकाशनों पर नज़र दौड़ा रहा था कि इस फ़िल्म के बारे में या पंडित गोबिंदराम के बारे में, या इसके गीतकार विनोद कपूर के बारे में कुछ जानकारी हासिल कर के आपके साथ बाँट सकूँ, तभी मेरी नज़र पड़ी 'लिस्नर्स बुलेटिन' की १९७९ के नवंबर में प्रकाशित अंक पर जिसमें ना केवल गोबिन्दराम जी पर लेख प्रकाशित हुआ था, बल्कि उस लेख का विषय ही था संगीतकार पंडित गोबिन्दराम द्वारा कोकिल कंठी लत्ता मंगेशकर से गवाए गीतों की चर्चा। दोस्तों, इससे बेहतर भला और क्या हो सकता है कि आज लता जी पर केन्द्रित शृंखला में गोबिन्दराम जी के स्वरबद्ध गीत सुनते हुए हम उसी लेख का भी आनंद लें। उस लेख को लिखा था श्री राकेश प्रताप सिंह ने। राकेश जी लिखते हैं - १९४९ में पं गोबिन्दराम ने ४ फ़िल्मों में संगीत दिया - भोली, दिल की दुनिया, माँ का प्यार, निस्बत - जिसमें 'भोली' तथा 'माँ का प्यार' में लता ने गीत गाए थे। बहुत सम्भव है कि 'माँ का प्यार' में ही गोबिन्दराम के संगीत में लता ने सर्वप्रथम यह गीत गाया था - "तूने जहाँ बनाकर अहसान क्या किया है"। इस फ़िल्म में ईश्वर चन्द्र कपूर ने गीत लिखे थे। फ़िल्म 'भोली' में लता ने जो गीत गाए, उनमें उपलब्ध जानकारी के अनुसार एक गीत था "इतना भी बेक़सों को न आसमाँ सताए"। (दोस्तों, अगर आपको याद हो तो यह गीत पिछले साल हमने लता जी के गाए दुर्लभ गीतों की शृंखला में सुनवाया था)। सन् '५० में गोबिन्दराम के संगीत में ३ फ़िल्में - चोर, राजमुकुट, शादी की रात - रिलीज़ हुईं। फ़िल्म 'चोर' में लता के गाए ४ गीतों में एक मनमोहक गीत था "तू चंदा क्यों मुस्काए", अन्य दो गीत थे "रसिया पवन झकोरे आए" तथा "बन गई प्रेम दीवानी मैं तो"। एक और गीत मीना कपूर व सखियों के साथ था "ओ जमुना किनारे मोरे बालम का देस"; फ़िल्म 'राजमुकुट' में लता के गाए दो एकक गीत थे - "मैं तड़पूँ तेरी याद में" तथा "एक रूप नगर का राजा था"; दो अन्य गीत थे "पनघट पे ना जैयो" (शम्शाद, सखियों के साथ) तथा "मिठाई ले लो बाबू" (राजा गुल के साथ)। फ़िल्म 'शादी की रात' में पं गोबिन्दराम के साथ एस. मोहिंदर तथा अज़ीज़ हिंदी ने भी गीतों की रचना की थी। फ़िल्म के १२ गीतों में से उपलब्ध जानकारी के अनुसार २ गीत लता के थे - "कहो भाभी मेरी कब आएगी" और "हम दिल की कहानी"। तो दोस्तो, इतनी जानकारी के बाद आइए अब आज के गीत का आनंद लिया जाए।



क्या आप जानते हैं...
कि आज भुला दिए गए संगीतकार गोबिन्दराम उस ज़माने के इतने महत्वपूर्ण संगीतकार थे कि जब के. आसिफ़ ने 'मुग़ल-ए-आज़म' की योजना बनाई थी तो संगीतकार के रूप में पहले गोबिन्दराम को ही चुना था।

विशेष सूचना:

लता जी के जनमदिन के उपलक्ष्य पर इस शृंखला के अलावा २५ सितंबर शनिवार को 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' में होगा लता मंगेशकर विशेष। इस लता विशेषांक में आप लता जी को दे सकते हैं जनमदिन की शुभकामनाएँ बस एक ईमेल के बहाने। लता जी के प्रति अपने उदगार, या उनके गाए आपके पसंदीदा १० गीत, या फिर उनके गाए किसी गीत से जुड़ी आपकी कोई ख़ास याद, या उनके लिए आपकी शुभकामनाएँ, इनमें से जो भी आप चाहें एक ईमेल में लिख कर हमें २० सितंबर से पहले oig@hindyugm.com के पते पर भेज दें। हमें आपके ईमेल का इंतज़ार रहेगा।


अजय देशपांडे जी ने लता जी के दुर्लभ गीतों को संगृहीत करने के उद्देश्य से एक वेब साईट का निर्माण किया है, जरूर देखिये यहाँ.

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. किसी का नाम लेकर अपनी ज़िंदगी काटने की बात हो रही है गीत के पहले अंतरे में। गीत का मुखड़ा बताएँ। २ अंक।
२. फ़िल्म का शीर्षक वह है जिस शीर्षक से ६० के दशक में एक बेहद कामयाब म्युज़िकल फ़िल्म बनी थी जिसमें संगीतकार थे शंकर जयकिशन और जिसके एक गीत के प्रील्युड म्युज़िक में मनोहारी दा का बहुत ही सैक्सोफ़ोन पीस था। बताइए कल के गीत के फ़िल्म का नाम। २ अंक।
३. इस फ़िल्म में तलत महमूद और सुधा मल्होत्रा ने भी गीत गाए थे। संगीतकार बताएँ। ३ अंक।
४. इस फ़िल्म में दो गीतकारों ने गीत लिखे थे। इनमें से एक थे प्रेम धवन, आपको बताना है कल बजने वाले इस गीत के गीतकार का नाम। ३ अंक।

पिछली पहेली का परिणाम -
इंदु जी ने दिमाग चलाया और कामियाब रही, अवध जी सही जवाब देकर नर्वस ९० में प्रवेश कर चुके हैं, बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

संग्रहालय

25 नई सुरांगिनियाँ