रेडियो प्लेबैक वार्षिक टॉप टेन - क्रिसमस और नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित


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प्लेबैक की टीम और श्रोताओं द्वारा चुने गए वर्ष के टॉप १० गीतों को सुनिए एक के बाद एक. इन गीतों के आलावा भी कुछ गीतों का जिक्र जरूरी है, जो इन टॉप १० गीतों को जबरदस्त टक्कर देने में कामियाब रहे. ये हैं - "धिन का चिका (रेड्डी)", "ऊह ला ला (द डर्टी पिक्चर)", "छम्मक छल्लो (आर ए वन)", "हर घर के कोने में (मेमोरीस इन मार्च)", "चढा दे रंग (यमला पगला दीवाना)", "बोझिल से (आई ऍम)", "लाईफ बहुत सिंपल है (स्टैनले का डब्बा)", और "फकीरा (साउंड ट्रेक)". इन सभी गीतों के रचनाकारों को भी प्लेबैक इंडिया की बधाईयां

Sunday, October 31, 2010

उलझन हज़ार कोई डाले....कभी कभी जोश में गायक भी शब्द गलत बोल जाते हैं, कुछ ऐसा हुआ होगा इस गीत में भी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 516/2010/216

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के एक और नए सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं और इन दिनों आप सुन और पढ़ रहे हैं लघु शृंखला 'गीत गड़बड़ी वाले'। इस शृंखला का दूसरा हिस्सा आज से पेश हो रहा है। आज जिस गीत को हमने चुना है उसमे है शाब्दिक गड़बड़ी। यानी कि ग़लत शब्द का इस्तेमाल। इससे पहले हमने जिन अलग अलग प्रकारों की गड़बड़ियों पर नज़र डाला है, वो हैं गायक का ग़लत जगह पे गा देना, गायक का किसी शब्द का ग़लत उच्चारण करना, गीत के अंतरों में पंक्तियों का आपस में बदल जाना, तथा फ़िल्मांकन में गड़बड़ी। आज हम बात करेंगे ग़लत शब्द के इस्तेमाल के बारे में। सन् १९७७ में एक फ़िल्म आई थी 'चांदी सोना', जिसमें आशा भोसले, किशोर कुमार और मन्ना डे का गाया एक गाना था "उलझन हज़ार कोई डाले, रुकते कहाँ हैं दिलवाले, देखो ना आ गये, मस्ताने छा गए, बाहों में बाहें डाले"। इस गीत के आख़िरी अंतरे में किशोर कुमार गाते हैं -

"जैसे बहार लिए खड़ी हाथों के हार,
दीवानों देखो ना सदियों से तेरा मेरा था इंतज़ार।"

दोस्तों, आपने कभी सुना है "हाथों के हार" के बारे में? "बाहों के हार" आपने सुना होगा पर "हाथों के हार" कुछ हज़म नहीं होता। उर्दू साहित्य में "हाथों के हार" नाम की कोई चीज़ नहीं है। तो फिर इस गीत में "बाहों" का इस्तमाल क्यों नहीं किया गया? "हाथों के हार" कुछ अटपटा सा नहीं लगता?

फ़िल्म 'चांदी सोना' का निर्माण किया था संजय ख़ान ने और वो ख़ुद इस फ़िल्म के निर्देशक और नायक भी थे। इस फ़िल्म की नायिका थीं परवीन बाबी, और उल्लेखनीय बात यह कि इस फ़िल्म में हिंदी सिनेमा के तीन मशहूर विलेन ने अभिनय किया - प्राण, रणजीत, और डैनी। फ़िल्म में संगीत था राहुल देव बर्मन का और गानें लिखे मजरूह सुल्तानपुरी साहब ने। दोस्तों, यह जो ग़लती इस गीत में हुई है, इसके लिए कौन ज़िम्मीदार है इस बात को आज सही सही कोई नहीं बता सकता। क्या किशोर दा के ही गाते वक़्त ग़लत शब्द उनके मुंह से निकल गया होगा? या फिर जिस किसी ने भी उन्हें काग़ज़ पर यह गीत लिख कर दिया होगा, उनसे ग़लती हुई होगी? और शायद इस गीत के रेकॊर्डिंग् के दौरान भी माजरूह साहब स्टुडियो में मौजूद नहीं रहे होंगे, वरना वो इस ग़लती की तरफ़ इशारा ज़रूर कर देते। ख़ैर, जो भी हुआ होगा, सच्चाई यही है कि इस गीत में यह गड़बड़ी हो गई। माफ़ी चाहूँगा दोस्तों, कि यह गीत कोई ख़ास ऐसा गीत नहीं है जो 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर बजना ही चाहिए। लेकिन क्योंकि हम गड़बड़ी वाले गानें आपको बता रहे हैं, इसलिए इस गीत को हमने शामिल कर लिया। तो आइए सुना जाए ८ मिनट अवधि का यह गीत आशा, किशोर और मन्ना डे की आवाज़ों में।



क्या आप जानते हैं...
कि 'चांदी सोना' फ़िल्म में राज कपूर ने एक जिप्सी सिंगर की भूमिका अदा की थी।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ०७ /शृंखला ०२
ये धुन गीत के इंटरल्यूड और पंच ट्यून की है-


अतिरिक्त सूत्र - निर्देशक यश चोपड़ा की कामियाब फिल्म है ये.

सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल २ - नायिका कौन है - १ अंक
सवाल ३ - संगीतकार बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
श्याम कान्त जी अभी भी आगे हैं. शरद जी देखकर सुखद लगा. रोमेंद्र जी का भी खाता खुला है दूसरी शृंखला में.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Saturday, October 30, 2010

ई मेल के बहाने यादों के खजाने - आज बारी है रोमेंद्र सागर जी की पसंद के गीत के



नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस साप्ताहिक अंक में आप सभी का स्वागत है। 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का एक ऐसा स्तंभ है जिसमें हम आप ही की बात करते हैं, और आप ही के पसंद के गीत सुनवाते हैं। फ़िल्मी गीत हर किसी के जीवन से जुड़ा होता है। कुछ गीत अगर हमें अपने बचपन की यादें ताज़ा कर देते हैं तो कुछ जवानी के दिनों के। कुछ गीतों से हमारा पीछे छोड़ आया प्यार वापस ज़िंदा हो जाता है तो कुछ गीत हमारे जुदाई के दिनों के हमसफ़र बन जाते हैं। हम भी यही चाहते हैं कि आप अपनी इन खट्टी मीठी यादों को हमारे साथ बाँटें इस साप्ताहिक अंक के ज़रिए। कोई तो गीत ऐसा ज़रूर होगा जिसे सुनकर आपको कोई ख़ास बात अपनी ज़िंदगी की एकदम से याद आ जाती होगी! तो लिख भेजिए हमें oig@hindyugm.com के पते पर, ठीक उसी तरह से जिस तरह हमारे दूसरे साथी लिख भेज रहे हैं।

और अब आज के फ़रमाइशी गीत की बारी। इस बार लिखने वाले हैं हमारे रोमेन्द्र सागर साहब। रोमेन्द्र जी लिखते हैं ----

"अनीता सिंह जी की फरमाईश को देखा तो कुछ अपना भी मन मचल सा गया !एक गीत है मुकेश की आवाज़ में ...फिल्म "मन तेरा तन मेरा" से ....बोल कुछ इस तरह से हैं :- "ज़िंदगी के मोड़ पर हम तुम मिले और खो गए ,अजनबी थे और फिर हम अजनबी से हो गए ..."

वाह रोमेन्द्र जी, किस भूले बिसरे गीत की आपने याद दिला दी है! सिर्फ़ गीत ही नहीं, मेरा ख़याल है कि 'मन तेरा तन मेरा' फ़िल्म का नाम भी लोग भूल चुके होंगे। यह १९७१ की फ़िल्म थी जिसके निर्देशक थे बी. आर. इशारा, जिन्होंने इस गीत को लिखा भी है। भले ही बी. आर. इशारा ने इस गीत को लिखा है, लेकिन इशारा साहब जाने जाते हैं बतौर फ़िल्म निर्देशक। ७० के दशक में उनकी बनाई फ़िल्में काफ़ी लोकप्रिय हुए थे। १९६९ और १९९६ के बीच उन्होंने कुल ३४ हिंदी फ़िल्मों का निर्माण/निर्देशन किया। उन्होंने ही अभिनेत्री परवीन बाबी को अहमदाबाद विश्वविद्यालय से खोज निकाला था। ७० के दशक में बनीं उनकी कुछ उल्लेखनीय फ़िल्में रहीं 'चेतना', 'मान जाइए', 'एक नज़र', 'मिलाप', और 'दिल की राहें'। ८० के दशक में 'वो फिर आयेगी' काफ़ी चर्चित हॊरर फ़िल्म थी।

और अब बात करते हैं इस गीत के संगीतकार सपन-जगमोहन की। दरअसल यह भी एक संगीतकार जोड़ी है सपन सेनगुप्ता और जगमोहन बक्शी की। सपन - जगमोहन ने हिंदी फ़िल्मों में पदर्पण किया १९६३ की फ़िल्म 'बेगाना' के ज़रिए और उसी फ़िल्म से चर्चा में आ गये थे। रफ़ी के गाये और शैलेन्द्र के लिखे "फिर वो भूली सी याद अई है" को ज़बरदस्त कामयाबी मिली थी। इसी फ़िल्म में मुकेश का "न जाने कहाँ खो गया वो ज़माना" अधिक लोकप्रिय तो नहीं हुआ, पर आगे चलकर मुकेश सपन जगमोहन के मुख्य गायक के रूप में जाने गये। 'मन तेरा तन मेरा' में मुकेश के गाये इस गीत को ज़्यादा तो नहीं सुना गया लेकिन दर्द की भावयुक्त अभिव्यक्ति के कारण सुनने में अच्छा लगता है। रूपक ताल में कम्पोज़ इस गीत के अंतरे के बाद और मुखड़े पर वापस लौटने के बीच का सरोद का तीव्र प्रयोग बहुत प्रभावशाली बन पड़ा है। तो आइए इस सुंदर लेकिन विस्मृत गीत को सुनें और शुक्रिया अदा करें रोमेन्द्र सागर जी का जिन्होंने इस गीत की तरफ़ हमारा ध्यान आकर्षित किया।

गीत - ज़िंदगी के मोड़ पर हम तुम मिले और खो गये (मन तेरा तन मेरा)


तो ये था आज का 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने'। अगले हफ़्ते आप ही में से फिर किसी दोस्त की यादों और गीत के साथ उपस्थित होंगे। अब आप से अगली मुलाक़ात होगी रविवार की नियमित कड़ी में, इन दिनों चल रहे 'गीत गड़बड़ी वाले' शृंखला के अंतर्गत। तब के लिए अनुमति दीजिए, नमस्कार!

सुजॉय चट्टर्जी

Friday, October 29, 2010

सुनो कहानी: पानी की जाति - विष्णु प्रभाकर



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में हरिशंकर परसाई की एक सुन्दर कहानी मुण्डन का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं विष्णु प्रभाकर की "पानी की जाति", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 4 मिनट 48 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

"पानी की जाति" का टेक्स्ट गद्य कोश पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।


मेरे जीने के लिए सौ की उमर छोटी है
~विष्णु प्रभाकर (१२ जून १९१२ - ११ अप्रैल २००९)


हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी


युवक ने उसे तल्खी से जवाब दिया, "हम मुसलमान हैं।"
(विष्णु प्रभाकर की "पानी की जाति" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें:
VBR

#One hundred Ninth Story, Pani Ki Jati: Vishnu Prabhakar/Hindi Audio Book/2010/41. Voice: Anurag Sharma

Thursday, October 28, 2010

बदरा छाए रे, कारे कारे अरे मितवा...कभी कभी खराब फिल्मांकन अच्छे खासे गीत को ले डूबते हैं



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 515/2010/215

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! इन दिनों जारी है लघु शृंखला 'गीत गड़बड़ी वाले', और इसमें अब तक हमने आपको चार गानें सुनवा चुके हैं जिनमें कोई ना कोई भूल हुई थी, और उस भूल को नज़रंदाज़ कर गाने में रख लिया गया था। दोस्तों, अभी दो दिन पहले ही हमने 'बाप रे बाप' फ़िल्म का गीत सुनवाते वक़्त इस बात का ज़िक्र किया था कि किस तरह से फ़िल्मांकन के ज़रिए आशा जी की ग़लती को गीत का हिस्सा बना दिया था किशोर कुमार ने। लेकिन दोस्तों, अगर फ़िल्मांकन से इस ग़लती को सम्भाल लिया गया है, तो कई बार ऐसे भी हादसे हुए हैं कि फ़िल्मांकन की व्यर्थता की वजह से अच्छे गानें गड्ढे में चले गए। अब आप ही बताइए कि अगर गीत में बात हो रही है काले काले बादलों की, बादलों के गरजने की, पिया मिलन के आस की, लेकिन गाना फ़िल्माया गया हो कड़कते धूप में, वीरान पथरीली पहाड़ियों में, तो इसको आप क्या कहेंगे? जी हाँ, कई गानें ऐसे हुए हैं, जो कम बजट की फ़िल्मों के हैं। क्या होता है कि ऐसे निर्माताओं के पास धन की कमी रहती है, जिसकी वजह से उन्हें विपरीत हालातों में भी शूटिंग् कर लेनी पड़ती है और समझौता करना पड़ता है फ़िल्म के साथ, फ़िल्मांकन के साथ। आज हम आपको एक ऐसा ही गीत सुनवाने जा रहे हैं जिसके फ़िल्मांकन में गम्भीर त्रुटि हुई है। यह गीत है फ़िल्म 'मान जाइए' का, लता मंगेशकर का गाया, नक्श ल्यालपुरी का लिखा, और जयदेव का स्वरबद्ध किया, "बदरा छाए रे, कारे कारे अरे मितवा, छाए रे, अंग लग जा ओ मितवा"। बेहद सुंदर गीत, और क्यों ना हो, जब जयदेव के धुनों को लता जी की आवाज़ मिल जाए, तो इससे सुरीला, इससे मीठा और क्या हो सकता है भला! 'मान जाइए' १९७२ की बी. डी. पाण्डेय की फ़िल्म थी जिसके निर्देशक थे बी. आर. इशारा। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे राकेश पाण्डेय, रेहाना सुल्तान, असीत सेन, लीला मिश्र, जलाल आग़ा प्रमुख।

और अब बात करते हैं इस गीत के फ़िल्मांकन के बारे में। मेरा मतलब है फ़िल्मांकन में हुई त्रुटि के बारे में। मैं क्या साहब, ख़ुद नक्श ल्यालपुरी साहब से ही जानिए, जो बहुत नाराज़ हुए थे अपने इस गीत के फ़िल्मांकन को देखने के बाद। बातचीत का जो अंश हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं, वह हुई थी नक्श साहब और विविध भारती के कमल शर्मा के बीच 'उजाले उनकी यादों के कार्यक्रम' में।

नक्श: गाने के पिक्चराइज़ेशन पर भी बहुत कुछ डीपेण्ड करता है। एक खराब पिक्चराइज़ेशन गाने को नुकसान पहुँचा सकता है, गाने को बरबाद कर सकता है।

कमल: क्या ऐसा कोई 'बैड एक्स्पीरिएन्स' आपको हुआ है?

नक्श: एक नहीं, बल्कि बहुत सारे हुए। बहुत बार मेरे साथ हुआ है कि ग़लत पिक्चराइज़ेशन ने मेरे गाने को ख़तम कर दिया है। एक गाना था जिसकी शूटिंग् शिमला में होनी थी। गीत के दो अंतरे थे, जिनमें से एक बगीचे में फ़िल्माया जाना था और दूसरा अंतरा बर्फ़ के उपर जिसमें नायक नायिका को स्केटिंग् करते हुए दिखाये जाना था। तो मैंने उसी तरह से ये दो अंतरे लिखे। लेकिन जब फ़िल्म पूरी हुई और मैंने यह गाना देखा, तो मैं तो हैरान रह गया यह देख कर कि दोनों अंतरों का फ़िल्मांकन बिलकुल उल्टा हुआ है। जो अंतरा बगीचे में फ़िल्माया जाना चाहिए था, उसे बर्फ़ के उपर फ़िल्मा लिया गया। बर्फ़ वाले अंतरे के लिए मैंने लिखा था "पर्वत के दामन में चाँदी के आंगन में डोलते बोलते बदन", लेकिन यह निर्देशक के सर के उपर से निकल गई।

कमल: इस तरह के गड़बड़ी की कोई और मिसाल दे सकते हैं आप?

नक्श: एक गाना था "बदरा छाये रे", जिसके पिक्चराइज़ेशन में ज़रूरत थी बारिश की, हरियाली की। लेकिन फिर वही बात, जब मैंने फ़िल्म देखी, तो मुझे सिवाय सूखी घाँस के चारों तरफ़ और कुछ नज़र नहीं आया। अगर मैं आउटडोर के लिए कोई गाना लिखता हूँ तो आप उसे इनडोर में पिक्चराइज़ नहीं कर सकते। मेरे गीतों में पिक्चराइज़ेशन का बहुत बड़ा हाथ होता है।

दोस्तों, आप भी यू-ट्युब में इस गीत का विडियो देखिएगा, सच में बेहद अफ़सोस की बात है कि चिलचिलाती धूप में, नीले आसमान तले, रूखे वीरान पथरीले पहाड़ों में एक ऐसे गीत की शूटिंग हुई है जिसके बोल हैं "बदरा छाये रे कारे कारे अरे मितवा"। अगर ऐसे फ़िल्मांकन को देख कर गीतकार नाराज़ होता है, तो यह उसका हक़ है नाराज़ होने का। चलिए, फ़िल्मांकन को अब छोड़िए, और सुनिए यह सुमधुर रचना फ़िल्म 'मान जाइए' से।



क्या आप जानते हैं...
कि हिंदी फ़िल्मों में गीत लिखने के अलावा नक्श ल्यालपुरी ने कुल ४६ पंजाबी फ़िल्मों के लिए भी गीत लिखे हैं।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ०६ /शृंखला ०२
ये धुन गीत के लंबे प्रील्यूड की है-


अतिरिक्त सूत्र - इस गीत में ये प्रिल्यूड जिसका कुछ हिस्सा हमने सुनवाया, लगभग आधे गीत के बराबर है यानी कि गीत की लम्बाई का करीब आधा हिस्सा प्रिल्यूड में चला जाता है.
सवाल १ - इस फिल्म के नाम जैसा आजकल एक चेवनप्राश भी बाजार में है, नाम बताएं फिल्म का- १ अंक
सवाल २ - आशा किशोर और साथियों के गाये इस गीत के संगीतकार बताएं - १ अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
श्याम कान्त जी दूसरी शृंखला का आधा सफर खतम हुआ है आज, और अभी तक आप आगे हैं ७ अंकों से, अब अगली कड़ी रविवार को होगी. उम्मीद है तब तक आप परीक्षाओं से निपटकर आ पायेंगें, हमारी शुभकामनाएँ लेते जाईये. अमित जी और बिट्टू जी भी बहुत बढ़िया चल रहे हैं. अवध जी गलत हो गए आप इस बार, इंदु जी, तभी तो कहते हैं हमेशा दिल की सुना कीजिये

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, October 27, 2010

मैं प्यार का राही हूँ...मुसाफिर रफ़ी साहब ने हसीना आशा के कहा कुछ- सुना कुछ



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 514/2010/214

'गीत गड़बड़ी वाले' शृंखला की आज है चौथी कड़ी। पिछले तीन कड़ियों में आपने सुने गायकों द्वारा की हुईं गड़बड़ियाँ। आज हम बात करते हैं एक ऐसी गड़बड़ी की जो किस तरह से हुई यह बता पाना बहुत मुश्किल है। यह गड़बड़ी है किसी युगल गीत में गायक और गायिका के दो अंतरों की लाइनों का आपस में बदल जाना। यानी कि गायक ने कुछ गाया, जिसका गायिका को जवाब देना है। और अगर यह जवाब गायिका दूसरे अंतरें में दे और दूसरे अंतरे में गायक के सवाल का जवाब वो पहले अंतरे में दे, इसको तो हम गड़बड़ई ही कहेंगे ना! ऐसी ही एक गड़बड़ी हुई थी फ़िल्म 'एक मुसाफ़िर एक हसीना' के एक गीत में। यह फ़िल्मालय की फ़िल्म थी जिसका निर्माण शशधर मुखर्जी ने किया था, राज खोसला इसके निर्देशक थे। ओ. पी. नय्यर द्वारा स्वरबद्ध यह एक आशा-रफ़ी डुएट था "मैं प्यार का राही हूँ"। गीतकार थे राजा मेहन्दी अली ख़ान। अब इस गीत में क्या गड़बड़ी हुई है, यह समझने के लिए गीत के पूरे बोल यहाँ पर लिखना ज़रूरी है। तो पहले इस गीत के बोलों को पढिए, फिर हम बात को आगे बढ़ाते हैं।

मैं प्यार का राही हूँ,
तेरी ज़ुल्फ़ के साये में,
कुछ देर ठहर जाऊँ।

तुम एक मुसाफ़िर हो,
कब छोड़ के चल दोगे,
यह सोच के घबराऊँ।

तेरे बिन जी ना लगे अकेले,
हो सके तो मुझे साथ ले ले,
नाज़नीं तू नहीं जा सकेगी,
छोड़ कर ज़िंदगी के झमेले,
जब छाये घटा याद करना ज़रा,
सात रंगों की उम्र कहानी।

प्यार की बिजलियाँ मुस्कुरायें,
देखिए आप पर गिर ना जाये,
दिल कहे देखता ही रहूँ मैं,
सामने बैठकर ये अदायें,
ना मैं हूँ नाज़नीं ना मैं हूँ महजबीं,
आप ही की नज़र की दीवानी।

इस गीत के पहले अन्तरे में रफी की पंक्तियाँ हैं, "तेरे बिन जी लगे ना अकेले... नाज़नीं तू नहीं जा सकेगी छोड़कर ज़िन्दगी के झमेले", जिसके जवाब में आशा गाती हैं, "जब भी छाए घटा याद करना ज़रा सात रंगों की हूँ मैं कहानी"; और फिर दूसरे अन्तरे में रफी गाते हैं, "प्यार की बिजलियाँ मुस्कुराएँ ... दिल कहे देखता ही रहूँ मैं सामने बैठकर ये अदाएँ", जिसके जवाब में आशा की पंक्तियाँ हैं, "ना मैं हूँ नाज़नीं ना मैं हूँ महजबीं"। अगर गीत के भाव, अर्थ और भाव की दृष्टि से देखें तो प्रतीत होता है कि इन दो अंतरों में आशा भोसले की पंकियाँ आपस में बदल गईं हैं। अब गीत लिखते वक़्त राजा मेहन्दी अली ख़ान से ऐसी भूल तो यकीनन असम्भव है, तो फिर ऐसी गड़बड़ी हो कैसे गई। हाँ, यह हो सकता है कि उन दिनों ज़ेरॊक्स की सुविधा या कम्प्युटर प्रिण्ट तो होते नहीं थे, गायकों को अपने गानें ख़ुद ही गीतकार से लेकर लिख लेने पड़ते थे। तो हो सकता है कि किसी ने लिखते वक़्त यह गड़बड़ी कर दी होगी। क्या असल में यह एक गड़बड़ी थी या फिर राजा साहब ने ऐसा ही लिखा था, यह अब हम कभी नहीं जान पाएँगे क्योंकि राजा साहब तो अब हमारे बीच रहे नहीं। शायद यह राज़ एक राज़ बन कर ही रह जाएगी। तो आइए इस गड़बड़ी का किसी को भी दोष दिए बग़ैर इस सुंदर युगल गीत का आनंद उठाएँ।



क्या आप जानते हैं...
कि गीतकार राजा मेहन्दी अली ख़ान फ़िल्मी गीतकार बनने से पहले आकाशवाणी में काम करते थे, जहाँ पर उनके साथियों में से एक थे जाने माने साहित्यिक उपेन्द्रनाथ अश्क़।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ०५ /शृंखला ०२
ये धुन है गीत के प्रील्यूड की है-


अतिरिक्त सूत्र - लता की आवाज़ में आपने ये शुरूआती बोल सुने गीत के

सवाल १ - गीतकार बताएं - २ अंक
सवाल २ - संगीतकार कौन थे इस लो बजट फिल्म के - १ अंक
सवाल ३ - फिल्म में थी रेहाना सुल्तान, निर्देशक बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी २ अंक कमा लिए आपने. श्याम कान्त जी दरअसल आपके अमित जी के और बिट्टू जी के जवाब देने का अंदाज़ एक जैसा है इस करण हो सकता है सुजॉय जी ने कुछ शंका व्यक्त की हो, बहरहाल आप जारी रहे, शरद जी सही जवाब १ अंक आपके, और अवध जी एक जवाब रह गया था कम से कम वही दे देते :)

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, October 26, 2010

मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना.. राहत साहब की दर्दीली आवाज़ में इस ग़मनशीं नज़्म का असर हज़ार गुणा हो जाता है



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०२

भी कुछ महीनों से हमने अपनी महफ़िल "गज़लगो" पर केन्द्रित रखी थी.. हर महफ़िल में हम बस शब्दों के शिल्पी की हीं बातें करते थे, उन शब्दों को अपनी मखमली, पुरकशिश, पुर-असर आवाज़ों से अलंकृत करने वाले गलाकारों का केवल नाम हीं महफ़िल का हिस्सा हुआ करता था। यह सिलसिला बहुत दिन चला.. हमारे हिसाब से सफल भी हुआ, लेकिन यह संभव है कि कुछ मित्रों को यह अटपटा लगा हो। "अटपटा"... "पक्षपाती"... "अन्यायसंगत"... है ना? शर्माईये मत.. खुलकर कहिए? क्या मैं आपके हीं दिल की बात कर रहा हूँ? अगर आप भी उन मित्रों में से एक हैं तो हमारा कर्त्तव्य बनता है कि आपकी नाराज़गी को दूर करें। तो दोस्तों, ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि वे सारी महफ़िलें "बड़े शायर" श्रृंखला के अंतर्गत आती थीं और "बड़े शायर" श्रृंखला की शुरूआत (जिसकी हमने विधिवत घोषणा कभी भी नहीं की थी) आज से ८ महीने और १० दिन पहले मिर्ज़ा ग़ालिब पर आधारित पहली कड़ी से हुई थी। ७१ से लेकर १०१ यानि कि पूरे ३१ कड़ियों के बाद पिछले बुधवार हमने उस श्रृंखला पर पूर्णविराम डाल दिया। और आज से हम "फ़्रीलासिंग" की दुनिया में वापस आ चुके हैं यानि कि किसी भी महफ़िल पर किसी भी तरीके की रोक-टोक नहीं, कोई नियम-कानून नहीं.. । अब से गायक, ग़ज़लगो और संगीतकार को बराबर का अधिकार हासिल होगा, इसलिए कभी कोई महफ़िल गुलुकार को पेश-ए-नज़र होगी तो कभी ग़ज़लगो के रदीफ़ और काफ़ियों की मोमबत्तियों से महफ़िलें रौशन की जाएँगीं.. और कभी तो ऐसा होगा कि संगीतकार के राग-मल्हार से सुरों और धुनों की बारिसें उतरेंगी ज़र्रा-नवाज़ों के दौलतखाने में। और हर बार महफ़िल का मज़ा वही होगा.. न एक टका कम, न आधा टका ज्यादा। तो इस दुनिया में पहला कदम रखा जाए? सब तैयार हैं ना?

अगर आप में से किसी ने कल का "ताज़ा सुर ताल" देखा हो तो एक शख्स के बारे में मेरी राय से जरूर वाकिफ़ होंगे। ये शख्स ऐसे हैं जिनके लिए सात सुर इन्द्रधनुष के सात रंगों की तरह हैं.. इन सात रंगों के बिखरने से जो रंगीनी पैदा होती है, वही रंगीनी इनके मिज़ाज़ में भी नज़र आती है और इन सात रंगों के मिलने से जो सुफ़ेदी उभरती है, वो सुफ़ेदी, वो सादापन, वो सीधापन इनके दिल का अहम हिस्सा है या यूँ कहिए कि पूरा का पूरा दिल है। नुसरत साहब के बाद अगर इन्हें कव्वालियों का बादशाह कहा जाए तो कोई ज्यादती न होगी। अलग बात है कि आजकल ये कव्वालियाँ कम हीं गाते हैं। मैंने इसी बात को ध्यान में रखते हुए लिखा था कि "राहत साहब के बारे में कोई नया क्या कह सकता है, वे हैं हीं बेहतरीन। मुझे भी यह बात हमेशा खटकती थी(है) कि उन्हें उनके माद्दे जितना मौका नहीं मिल रहा। मैंने उनकी पुरानी कव्वालियाँ सुनी हैं। कुछ सालों पहले तक हिन्दी फिल्मों में भी कव्वालियाँ बनती थीं, जिन्हें साबरी बंधु गाया करते थे अमूमन.. लेकिन अब बनती हीं नहीं। अब बने तो राहत साहब से बढकर कोई उम्मीदवार न होगा। मेरी तो यही चाहत है कि हिन्दी फिल्मों में फिर से ऐसे सिचुएशन तैयार किये जाएँ।" जी हाँ, मैं राहत फ़तेह अली खान की हीं बात कर रहा हूँ। आज की महफ़िल इन्हीं शख्सियत को समर्पित है। यूँ तो राहत साहब ने आजकल हर फिल्म में एक सुकूनदायक गाना देने का बीड़ा उठाया हुआ है, लेकिन मेरी राय में यह इनकी क्षमता से हज़ारों गुणा कम है। इन्होंने "पाप" के "मन की लगन" से जब हिन्दी फिल्मों में पदार्पण किया था तो यकीनन हमारे भारतीय संगीत उद्योग को एक बेहद गुणी कलाकार की प्राप्ति हुई थी, लेकिन उसी वक़्त सूफ़ी संगीत ने एक अनमोल हीरा खो दिया था। अगर आप राहत साहब के "पाप" के पहले की रिकार्डिंग्स देखेंगे तो खुद-ब-खुद आपको मेरी बात समझ आ जाएगी कि कल के राहत और आज के राहत में क्या फ़र्क है और कहाँ फ़र्क है। मैं आज भी राहत साहब का बहुत बड़ा मुरीद हूँ, लेकिन मैं हर पल यही दुआ करता हूँ कि जिस तरह नुसरत साहब अपनी विशेष गायकी के लिए याद किए जाते हैं, वैसे हीं राहत साहब को भी उनकी बेमिसाल गलाकारी के लिए जाना जाए। इन्हें इनकी कव्वालियों, ग़ज़लों और गैर-फिल्मी गीतों से प्रसिद्धि मिले, ना कि फिल्मी गानों से, क्योंकि कालजयी तो वही होता है जो दिल को छू ले और आजकल दिल को छूने वाले फिल्मी गीत बिरले हीं बनते हैं।

यह तो सभी जानते हैं कि राहत साहब नुसरत साहब के वंश के हैं, लेकिन कई सारे लोगों को यह गलतफ़हमी है कि राहत नुसरत के बेटे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि राहत नुसरत के भतीजे हैं। राहत साहब के अब्बाजान फ़ार्रूख फ़तेह अली खान अपने दूसरे भाईयों के साथ नुसरत साहब की मंडली का हिस्सा हुआ करते थे.. पूरे परिवार की एक मंडली सजती थी। उसी मंडली में अपने छुटपन से हीं राहत बैठा करते थे और नुसरत साहब की हर ताल में ताल मिलाते थे। नुसरत साहब इन्हें मौका भी पूरा देते थे। किसी एक आलाप की शुरूआत करके आलाप निबाहने का काम राहत को दे देते थे और राहत भी उस आलाप को क्या खूब अंज़ाम देते थे। छुटपन से हीं चलता यह सिलसिला तब खत्म हुआ, जब नुसरत साहब इस जहां-ए-फ़ानी से रूख्सत कर गए। उसके बाद इन्होंने हीं नुसरत साहब की जगह ली।

राहत साहब का जन्म १९७४ में फ़ैसलाबाद में हुआ था। इन्होंने अपना पहला पब्लिक परफ़ॉरमेंश ११ साल की उम्र में दिया जब ये अपने चाचाजान के साथ ग्रेट ब्रिटेन गए थे। २७ जुलाई १९८५ को बरमिंघम में हुए इस कन्सर्ट में इन्होंने कई सारे एकल ग़ज़ल गाए, जिनमें प्रमुख हैं: "मुख तेरा सोणया शराब नलों चंगा ऐ" और "गिन गिन तारें लंग गैयां रातां"। मैंने पहले हीं बताया कि बॉलीवुड में इन्होंने अपना पहला कदम "पाप" के जरिये रखा था। वहीं हॉलीवुड में इनकी शुरुआत हुई थी फिल्म "डेड मैन वाकिंग" से, जिसमें संगीत दिया था नुसरत साहब और अमेरिकन रॉक बैंड पर्ल जैम के एड्डी वेड्डर ने। फिर २००२ में "जेम्स होमर" के साथ इन्होंने "द फ़ोर फ़ेदर्स" के साउंडट्रैक पर काम किया। २००२ में हीं "द डेरेक ट्र्क्स बैंड" के एलबम "ज्वायफ़ुल न्वायज़" में इनका एक गीत "मकी/माकी मदनी" शामिल हुआ। अभी कुछ सालों पहले हीं "मेल गिब्सन" की "एपोकैलिप्टो" में इनकी आवाज़ गूंजी थी। भले हीं बॉलीवुड और हॉलीवुड में इन्होंने काम किया हो, लेकिन इस दौरान वे अपने मादर-ए-वतन पाकिस्तान को नहीं भूले। तभी तो पाकिस्तान जाकर इन्होंने दो देशभक्ति गीत "धरती धरती" और "हम पाकिस्तान" रिकार्ड किया। अभी हाल में हीं इन्होंने "हिन्दुस्तान-पाकिस्तान" की एकता के लिए "अमन की आशा" एलबम का शीर्षक गीत गाया है। ये पाकिस्तान की आवाज़ थे जबकि हिन्दुस्तान की कमान संभाली थी शंकर महादेवन ने। संगीत में राहत साहब के इसी योगदान को देखते हुए "यू के एशियन म्युज़िक अवार्ड्स" की तरफ़ से इन्हें साल २०१० के "बेस्ट इंटरनेशनल एक्ट" की उपाधि से नवाज़ा गया है। हम कामना करते हैं कि ये आगे भी ऐसे हीं पुरस्कार और उपाधियाँ प्राप्त करते रहें और हमारी श्रवण-इन्द्रियों को अपनी सुमधमुर अवाज़ का ज़ायका देते रहें।

बातें बहुत हो गईं..अब वक़्त है आज की नज़्म से रूबरू होने का। चूँकि इस गाने के अधिकतर शब्द पंजाबी के हैं और मुझे कहीं भी इस गाने के बोल हासिल नहीं हुए, इसलिए अपनी समझ से मैंने शब्दों को पहचानने की कोशिश की है। अब ये बोल किस हद तक सही हैं, इसका फैसला आप सब हीं कर सकते हैं। मैं आपसे बस यही दरख्वास्त करता हूँ कि जिस किसी को भी सही लफ़्ज़ मालूम हों, वह टिप्पणियों के माध्यम से हमारी सहायता जरूर करें। या तो रिक्त स्थानों की पूर्ति कर दें या फिर पूरा का पूरा गाना हीं टिप्पणी में डाल दें। उम्मीद है कि आप हमें निराश नहीं करेंगे। चलिए तो हम भी आपको निराश न करते हुए आज की महफ़िल की लाजवाब नज़्म का दीदार करवाते हैं। मुझे भले हीं इसका पूरा अर्थ न पता हो, लेकिन राहत साहब की आवाज़ में छिपे दर्द को महसूस कर सकता हूँ। आवाज़ में उतार-चढाव से इन्होंने दु:ख का जो माहौल गढा है, आप न चाहते हुए भी उसका एक हिस्सा बन जाते हैं। "मेरा दिल तड़पे दिलदार बने"- यह पंक्ति हीं काफ़ी है, आपके अंदर बैठे नाज़ुक से दिल को मोम की तरह टुकड़े-टुकड़े करने को। दिल का एक-एक टुकड़ा आपको रोने पर बाध्य न कर दे तो कहना!

हाल सुनावां किसनु दिल दा, दिल नईं लगदा यार बिना,
मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना..

सोचा मैंके प्यार जता दें (.....)
हाथे खोके जावन वाला.. सोंचा पा गया पल्ले
ईंज मैं रोई, जी मैं ______ के खोई,
कूंज (गूंज) तड़प दीदार बिना,
मैरा दिल तड़पे दिलदार बिना

दिन तो लेके शामत(?) आई, रांवां तकदी रैंदी,
वो की जाने, रोंदी(?) कमली, की की दुखरे सहदीं
मेड़ें चलदी, जीवे नाल पइ बलदी,
(...)
मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना

खपरांदे वीच फंस गई जाके आसां वाली बेरी
समझ न आए केरे वेल्ले हो गई ये फुलकेरी
मोरे केड़ा, मेरे नाल जेड़ा
रुस बैठा तकरार बिना,
मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना

हाल सुनावां किसनु दिल दा, दिल नईं लगदा यार बिना,
मेरा दिल तड़पे दिलदार बिना..




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "आरज़ू" और शेर कुछ यूँ था-

उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में

इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:

आरजू है हमारी आप से जनाब !
यूँ लंबी छुट्टी न किया करें जनाब . (मंजु जी)

ये दिल न कोई आरजू ऐसी कभी कर
कि दम तोड़ दे तेरे अंदर ही वो घुटकर. (शन्नो जी)

आरजू ही ना रही सुबह वतन की अब मुझको,
शाम ए गुरबत है अजब वक्त सुहाना तेरा (अनाम)

न आरज़ू ,न तमन्ना,न हसरत-ओ-उम्मीद
मुझे जगह न मिली फिर भी सर छुपाने को (जनाब सरवर)

दिल की यह आरज़ू थी कोई दिलरुबा मिले,
लो बन गया नसीब कि तुम हम से आ मिले. (हसन कमाल)

आरज़ू तो खूब रही कि आप जल्दी लौट आयें,
देर से ही सही, खैर मकदम है आपका (पूजा जी)

पिछली महफ़िल की शुरूआत हुई सजीव जी और शन्नो जी की शुभकामनाओं के साथ। हम आप दोनों का तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करते हैं। शन्नो जी, आप आईं तो पहले लेकिन शान-ए-महफ़िल का खिताब मंजु जी ले गईं क्योंकि आपके बताए हुए शब्द पर इन्होंने चार पंक्तियाँ लिख डालीं। महफ़िल फिर से पटरी पर आ गई है, यह सूचना शायद सभी मित्रों के पास सही वक़्त पर नहीं पहुँची थी, इसलिए तो २-३ दिनों तक बस आप तीन लोगों के भरोसे हीं महफ़िल की शमा जलती रही। फिर जाकर सुमित जी का आना हुआ। सुमित जी के बाद अवध जी आए जिन्होंने अपने पसंदीदा गुलुकार की ग़ज़ल को खूब सराहा और इस दौरान हमें शुक्रिया भी कहा। अवध जी, शुक्रिया तो हमें आपका करना चाहिए, जो आपने हबीब साहब की कुछ और ग़ज़लों से हमारी पहचान करवाई। हम जरूर हीं उन ग़ज़लों का महफ़िल का हिस्सा बनाएँगे। वैसे यह बताईये कि "गजरा बना के ले आ मलिनिया" और "गजरा लगा के ले आ सजनवा" एक हीं ग़ज़ल या दो मुख्तलिफ़? अगर दो हैं तो हम दूसरी ग़ज़ल ढूँढने की अवश्य कोशिश करेंगे। और अगर आपके पास ये ग़ज़लें हों (ऑडिया या फिर टेक्स्ट) तो हमें भेज दें, हमें सहूलियत मिलेगी। महफ़िल की आखिरी शमा पूजा जी के नाम रही, जो अंतिम दिन ज़फ़र के दरबार का मुआयना करने आई थीं :) चलिए आप आईं तो सही.. महफ़िल को "रिस्टार्ट" करने के साथ-साथ मुझे मेरे जन्मदिवस की भी बधाईयाँ मिलीं। मैं आप सभी मित्रों का इसके लिए तह-ए-दिल से आभारी हूँ।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

बोल मेरे मालिक क्या यही तेरा इन्साफ है....जब लता जी की इस छोटी सी गलती को नज़रंदाज़ कर दिया गया



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 513/2010/213

'गीत गड़बड़ी वाले', दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं यह शृंखला, जिसके अंतर्गत वो गानें शामिल हो रहे हैं जिनमें कोई कोई न कोई गड़बड़ी हुई है। अब तक हमने दो युगल गीत सुनें हैं जिनमें एक गायक ने ग़लती से दूसरे गायक की लाइन पर गा उठे हैं। सहगल साहब और आशा जी की ग़लतियों के बाद आज बारी स्वर कोकिला लता मंगेशकर की। जी नहीं, लता जी के किसी अन्य गायक की लाइन पर नहीं गाया, बल्कि उन्होंने एक शब्द का ग़लत उच्चारण किया है। छोटी "इ" के स्थान पर बड़ी "ई" गा बैठीं हैं लाता जी इस गीत में। यह है फ़िल्म 'हलाकू' का गीत "बोल मेरे मालिक तेरा क्या यही है इंसाफ़, जो करते हैं लाख सितम उनको तू करता माफ़"। इस गीत में लता ने यूंही "मालिक" की जगह "मलीक" गाया है। इस गीत को ध्यान से सुनने पर इस ग़लती को आप पकड़ सकते हैं। लेकिन यह गीत इतना सुंदर है, इतना कर्णप्रिय है कि इस ग़लती को नज़रंदाज़ करने को जी चाहता है। हसरत जयपुरी का लिखा गीत है और संगीत है शंकर जयकिशन का। क्योंकि यह ईरान की कहानी पर बनी फ़िल्म है, इसलिए संगीत संयोजन भी उसी शैली का किया है एस. जे ने और इस गीत में कोरस का भी क्या ख़ूब प्रयोग हुआ है प्रील्युड और इंटरल्युड्स में। डी. डी, कश्यप निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे अजीत, मीना कुमारी, प्राण, राज मेहरा, हेलेन, मिनू मुमताज़, सुंदर, वीणा और निरंजन शर्मा। लता मंगेशकर के अलावा मोहम्मद रफ़ी और आशा भोसले ने फ़िल्म में गीत गाए।

'हलाकू' एक पीरियड फ़िल्म थी, इसलिए आइए आपको इसकी कहानी से थोड़ा सा अवगत करवाया जाए। हलाकू (प्राण) ईरान का राजा है जो पूरे देश का शासन कर रहा है और पूरी सख़्ती के साथ। ऐसे ही एक बार उनकी मुलाक़ात होती है निलोफ़र (मीना कुमारी) से और उन पर फ़िदा होते हैं और उनसे शादी करने की सोचते हैं। लेकिन उधर उनकी पत्नी भी है (मिनू मुमताज़), जो उनके इस द्वितीय विवाह के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती है। उधर निलोफ़र हलाकू से प्यार ही नहीं करती, बल्कि वो तो परवेज़ (अजीत) से प्यार करती है। निलोफ़र हलाकू के मनसूबे को पूरा नहीं होने दे सकती। क्या निलोफ़र और परवेज़ अत्याचारी हलाकू से बच कर अपनी प्यार की दुनिया बसा पाएँगे? यही है हलाकू की कहानी। आज का जो प्रस्तुत गीत है उसके बोलों से यह साफ़ ज़ाहिर है कि निलोफ़र हलाकू के अत्याचार से तंग आकर उपरवाले से यह शिकायत कर रही है कि "बोल मेरे मालिक तेरा क्या यही है इंसाफ़, जो करते हैं लाख सितम उनको तू करता माफ़"। 'हलाकू' फ़िल्म को आज तक लोगों ने याद रखा है इसके गीतों की वजह से। प्रस्तुत गीत के अलावा दो और मशहूर गीत हैं रफ़ी साहब और लता जी के गाये - "आजा के इंतज़ार में जाने को है बहार भी, तेरे बग़ैर ज़िंदगी दर्द बन के रह गई", तथा "दिल का करना ऐतबार कोई, भूले से भी ना करना ऐतबार कोई"। इस फ़िल्म के सभी गानें अरब-मंगोल शैली के थे, संयोजन की दृष्टि से भी और गायकी की दृष्टि से भी। ये गानें आगे चलकर आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर ज़रूर सुन पाएँगे, फिलहाल सुना जाए "बोल मेरे मालिक"।



क्या आप जानते हैं...
कि साल १९५६ शंकर जयकिशन के लिए एक बेहद सफल साल था। 'हलाकू' के अलावा इस साल इस जोड़ी ने जिन फ़िल्मों में संगीत दिया, वो हैं 'बसंत बहार', 'चोरी चोरी', 'क़िस्मत का खेल', 'नई दिल्ली', 'पटरानी', और 'राज हठ'। लेकिन इनमें से कोई भी आर. के. बैनर के नहीं थे।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ०३ /शृंखला ०२
ये धुन है गीत के पहले इंटर ल्यूड की -


अतिरिक्त सूत्र - ये एक युगल गीत है जिसमें पुरुष आवाज़ रफ़ी साहब की है

सवाल १ - राज खोसला निर्देशित इस फिल्म के संगीतकार बताएं - १ अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं, जिसके सभी गीत दमदार थे - १ अंक
सवाल ३ - गीतकार कौन हैं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर श्याम कान्त जी ने २ अंकों के सवाल का सही जवाब देकर अधिकतम अंक लूट लिए, पर कल का दिन रहा दो ऐसे प्रतिभागियों के नाम जिनका कल खाता खुला. शंकर लाल जी बहुत दिनों से कोशिश में थे और देखिये क्या खूब शुरूआत की है, अवध जी तो कहने को पुराने खिलाडी हैं पर इस नयी प्रतियोगिता में पहली बार खाता खोल पाए हैं, बढिए स्वीकार करें.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, October 25, 2010

राहत साहब के सहारे अल्लाह के बंदों ने संगीत की नैया को संभाला जिसे नॉक आउट ने लगभग डुबो हीं दिया था



ताज़ा सुर ताल ४१/२०१०


विश्व दीपक - सभी दोस्तों को नमस्कार! सुजॊय जी, कैसी रही दुर्गा पूजा और छुट्टियाँ?

सुजॊय - बहुत बढ़िया, और आशा है आपने भी नवरात्रि और दशहरा धूम धाम से मनाया होगा!

विश्व दीपक - पिछले हफ़्ते सजीव जी ने 'टी.एस.टी' का कमान सम्भाला था और 'गुज़ारिश' के गानें हमें सुनवाए।

सुजॊय - सब से पहले तो मैं सजीव जी से अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर दूँ। नाराज़गी इसलिए कि हम एक हफ़्ते के लिए छुट्टी पे क्या चले गए, कि उन्होंने इतनी ख़ूबसूरत फ़िल्म का रिव्यु ख़ुद ही लिख डाला। और भी तो बहुत सी फ़िल्में थीं, उन पर लिख सकते थे। 'गुज़ारिश' हमारे लिए छोड़ देते!

विश्व दीपक - लेकिन सुजॊय जी, यह भी तो देखिए कि कितना अच्छा रिव्यु उन्होंने लिखा था, क्या हम उस स्तर का लिख पाते?

सुजॊय - अरे, मैं तो मज़ाक कर रहा था। बहुत ही अच्छा रिव्यु था उनका लिखा हुआ। जैसा संगीत है उस फ़िल्म का, रिव्यु ने भी पूरा पूरा न्याय किया। चलिए अब आज की कार्यवाही शुरु की जाए। वापस आने के बाद जैसा कि मैं देख रहा हूँ कि बहुत सारी नई फ़िल्मों के गानें रिलीज़ हो चुके हैं। इसलिए आज भी दो फ़िल्मों के गानें लेकर हम उपस्थित हुए हैं। पहली फ़िल्म है 'अल्लाह के बंदे' और दूसरी फ़िल्म है 'नॊक आउट'।

विश्व दीपक - शुरु करते हैं 'अल्लाह के बंदे' से। यह फ़िल्म बाल अपराध विषय पर केन्द्रित है। किस तरह से आज बच्चे गुमराह हो रहे हैं, यही इस फ़िल्म का मुद्दा है। फ़िल्म की कहानी के केन्द्रबिंदु में है दो लड़के जो अपनी ज़िंदगी का पहला मर्डर करते हैं १२ वर्ष की आयु में। उन्हें 'जुवेनाइल प्रिज़न' में भेज दिया जाता है, जहाँ से वापस आने के बाद वो अपने स्लम पर राज करने की कोशिश करते हैं। रवि वालिया निर्मित और फ़ारुक कबीर निर्देशित इस फ़िल्म की कहानी फ़ारुक ने ही लिखी है। १२ नवंबर २०१० को प्रदर्शित होने वाली इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार हैं विक्रम गोखले, ज़ाकिर हुसैन, शरमन जोशी, फ़ारुक कबीर, अतुल कुलकर्णी, और नसीरूद्दीन शाह।

सुजॊय - फ़िल्म के गीत संगीत का पक्ष भी मज़ेदार है क्योंकि इसमें एक नहीं, दो नहीं, बल्कि पाँच संगीतकारों ने संगीत दिया है, जब कि सभी गानें केवल एक ही गीतकार सरीम मोमिन ने लिखे हैं। रवायत तो एक संगीतकार और एक से अधिक गीतकारों की रही है, लेकिन इसमें पासा पलट गया है। भले ही पाँच संगीतकार हैं, लेकिन पूरी टीम को लीड कर रहे हैं चिरंतन भट्ट। बाक़ी संगीतकार हैं कैलाश खेर - नरेश - परेश, तरुण - विनायक, हमज़ा फ़ारुक़ी, और इश्क़ बेक्टर। तो लीजिए फ़िल्म का पहला गीत सुना जाए, चिरंतन भट्ट का संगीत और आवाज़ें हैं हमज़ा फ़ारुक़ी और कृष्णा की।

गीत - मौला समझा दे इन्हें


विश्व दीपक - सूफ़ी रॉक के रंग में रंगा यह गाना था। इस तरह का सूफ़ी संगीत और रॉक म्युज़िक का फ़्युज़न पहली बार सुनने को मिल रहा है। यह गीत आजकल ख़ूब बज रहा है चारों तरफ़ और तेज़ी से लोकप्रियता के पायदान चढ़ता जा रहा है। फ़िल्म के दो प्रमुख चरित्रों पर फ़िल्माया यह गीत फ़िल्म की कहानी को समर्थन देता है। गीत में ऐटिट्युड भी है, मेलडी भी, आधुनिक रंग भी, और आध्यात्मिक अंग भी है इसमें। सरीम मोमिन ने भी अच्छे बोल दिए हैं, जिसमें ग़लत राह पर चलने वालों को सही राह दिखाने की ऊपरवाले से प्रार्थना की जा रही है।

सुजॊय - ऊंची पट्टी पर गाये इस गीत में हमज़ा और कृष्णा ने अच्छी जुगलबंदी की है। इससे पहले कुष्णा का गाया हिमेश रेशम्मिया की तर्ज़ पर फ़िल्म 'नमस्ते लंदन' का गीत मुझे याद आ रहा है, "मैं जहाँ भी रहूँ"। उस गीत में कृष्णा अंतरे में जिस तरह की ऊँची पट्टी पर "कहने को साथ अपने एक दुनिया चलती है, पर छुप के इस दिल में तन्हाई पलती है, बस याद साथ है", और यही वाला हिस्सा इस गीत का आकर्षक हिस्सा है।

विश्व दीपक - आइए अब दूसरे गीत की तरफ़ बढ़ते हैं, यह है कैलाश खेर का गाया "क्या हवा क्या बादल"। संगीत है कैलाश खेर और उनके साथी नरेश और परेश का।

गीत - क्या हवा क्या बादल


सुजॊय - सितार जैसी धुन से शुरू होने वाले इस गीत में एक दर्दीला रंग है। दर्दीला केवल इसलिए नहीं कि जिस तरह से कैलाश ने इसे गाया है या जो भाव यह व्यक्त कर रहा है, बल्कि सबकुछ मिलाकर इस गीत को सुनते हुए थोड़ी सी उदासी जैसे छा जाती है। कैलासा टीम का बनाया यह गीत बिल्कुल उसी अंदाज़ का है। यह फ़िल्म का शीर्षक गीत भी है, और इसी गीत का एक और वर्ज़न भी है जिसकी अवधि है ७ मिनट।

विश्व दीपक - बस कहना है कि इस गीत को सुनकर कैलासा बैण्ड का कोई प्राइवेट ऐल्बम गीत जैसा लगा। लेकिन अच्छे बोल, अच्छा संगीत, कुल मिलाकर अच्छे गीतों की फ़ेहरिस्त में ही शामिल होगा यह गीत। आइए अब मूड को थोड़ा सा बदला जाए और सुना जाए रवि खोटे और फ़ारुक कबीर की आवा्ज़ों में एक छोटा सा गाना "रब्बा रब्बा"। नवोदित संगीतकार जोड़ी तरुण और विनायक की प्रस्तुति, जिसमें है रॉक अंदाज़। ज़्यादा कुछ कहने लायक नहीं है। सुनिए और मन करे तो झूमिए।

गीत - रब्बा रब्बा


सुजॊय - मुझे ऐसा लगता है कि यह गीत और अच्छा बन सकता था अगर इसकी अवधि थोड़ी और ज़्यादा होती। जब तक इस गीत का रीदम ज़हन में चढ़ने लगता है, उसी वक़्त गाना ख़त्म हो जाता है। इसे अगर रॉकक थीम के ऐंगल से सोचा जाए तो उतना बुरा नहीं है, लेकिन गीत के रूप में ज़रा कमज़ोर सा लगता है। चलिए अगले गाने पे चलते हैं और इस बार आवाज़ सुनिधि चौहान की।

विश्व दीपक - एक धीमी गति वाला गीत, कम से कम साज़ों का इस्तेमाल, सुनिधि की गायन-दक्षता का परिचय, कुल मिलाकर यह गीत "मायूस" हमें मायूस नहीं करता। इसमें भी दर्द छुपा हुआ है। वैसे फ़िल्म की कहानी से ही पता चलता है कि नकारात्मक सोच ही फ़िल्म का विषय है, ऐसे में फ़िल्म के गानों में वह "फ़ील गूड" वाली बात कहाँ से आ सकती थी भला! इस गीत को स्वरबद्ध किया है हमज़ा फ़ारुक़ी ने।

सुजॊय - जिस तरह का कम्पोज़िशन है, हर गायक इसे निभा नहीं सकता या सकती। सुनिधि जैसी गायिका के ही बस की बात है यह गीत। चलिए सुनते हैं।

गीत - मायूस


विश्व दीपक - और अब जल्दी से फ़िल्म का अंतिम गाना भी सुन लिया जाए इश्क़ बेक्टर और साथियों की आवाज़ में। "काला जादू हो गया रे", जी हाँ, यही है इस गीत के बोल। सुन कर तुरंत हमें हाल ही में आई फ़िल्म 'खट्टा मीठा' का गीत "बुल-शिट" की याद आ जाती है। आम रोज़ मर्रा की ज़िंदगी से उठाये विषयों को लेकर यह पेप्पी नंबर बनाया गया है।

सुजॊय - ख़ासियत कोई नहीं पर सुनने लायक ज़रूर है। इसका रीदम कैची है जो हमें गीत को अंत तक सुनने पर मजबूर करता है। कुछ कुछ अनु मलिक या बप्पी लाहिड़ी स्टाइल का गाना है। अगर अच्छे और निराले ढंग से फ़िल्माया जाए, तो इस गाने को लम्बे समय तक लोग याद रख सकते हैं। सुनिए...

गीत - काला जादू हो गया रे


सुजॊय - 'अल्लाह के बंदे' जिस तरह की फ़िल्म है, उस हिसाब से इसके गानें अच्छे ही बने हैं। मेरा पिक है "मौला" और "क्या हवा क्या बादल"।

विश्व दीपक - मौला मुझे भी बेहद पसंद आया। सरीम ने सोच-समझकर शब्दों का चुनाव किया है। कोई भी लफ़्ज़ गैर-ज़रूरी नहीं लगता। इस तरह से यह गीत बड़ा हीं सुंदर बन पड़ा है। सच कहूँ तो हिन्दी फिल्मों में सूफ़ी-रॉक सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई, लगा कि कुछ तो अलग किया जा रहा है। जहाँ तक "क्या हवा क्या बादल" की बात है तो गीत की शुरूआत में मुझे कैलाश थोड़े अटपटे-से लगे, लेकिन अंतरा आते-आते कैलाश-नरेश-परेश अपने रंग में वापस आ चुके थे। सुनिधि का गाया "मायूस" भी अच्छा बन पड़ा है।

सुजॊय - आइए अब आज की दूसरी फ़िल्म 'नॉक आउट' की तरफ़ बढ़ते हैं। फ़िल्म का शीर्षक सुन कर शायक आप अपनी नाक सिकुड़ लें यह सोच कर कि इस तरह की फ़िल्म मे अच्छे गानों की गुंजाइश कहाँ होती है, है न? अगर आप ऐसा ही कुछ सोच रहे हैं तो ज़रा ठहरिए, इस फ़िल्म में कुल ६ गानें हैं, जिनमें से ३ गानें बहुत सुंदर हैं जबकि बाक़ी के ३ गानें चलताऊ क़िस्म के हैं। इसलिए हम आपको यहाँ पर ३ गानें सुनवा रहे हैं।

विश्व दीपक - 'नॉक आउट' के निर्देशक हैं मणि शंकर, संगीतकार हैं गौरव दासगुप्ता, गानें लिखे हैं विशाल दादलानी, पंछी जालोनवी और शेली ने। फ़िल्म के मुख्य चरित्रों में हैं संजय दत्त, कंगना रनौत, इरफ़ान ख़ान, गुलशन ग्रोवर, रुख़सार, अपूर्व लखिया और सुशांत सिंह।

सुजॊय - संगीतकार गौरव दासगुप्ता का नाम अगर आपकी ज़हन में नहीं आ रहा है तो आपको याद दिला दूँ कि इन्होंने इससे पहले २००७ में 'दस कहानियाँ', २००९ में 'राज़-२' और 'हेल्प' जैसी फ़िल्मों में संगीत दे चुके हैं। देखते हैं 'नॊक आउट' में वो कुछ कमाल दिखा पाते हैं या नहीं। आइए हमारा चुना हुआ पहला गाना सुनिए राहत फ़तेह अली ख़ान की आवाज़ में "ख़ुशनुमा सा ये रोशन हो जहाँ"। गीतकार हैं पंछी जालोनवी।

गीत - ख़ुशनुमा सा ये रोशन हो जहाँ


विश्व दीपक - क्या कोई ऐसी फ़िल्म है जिसमें राहत साहब नहीं गा रहे हैं इन दिनों? लेकिन यह जो गीत था, वह राहत साहब के दूसरे गीतों से अलग क़िस्म का है। हम शायद पिछली बार ही यह बात कर रहे थे कि राहत साहब को अलग अलग तरह के गानें गाने चाहिए ताकि टाइपकास्ट ना हो जाएँ, और उन्होंने इस बात का ख़याल रखना शायद शुरु कर दिया है। जहाँ तक इस गीत का सवाल है, बहुत ही आशावादी गीत है, और पंछी साहब ने अच्छे बोल लिखे हैं। आशावाद, शांति और भाईचारे की भावनाएँ गीत में भरी हुई हैं। संगीत संयोजन भी सुकूनदायक है। गौरव दासगुप्ता का शायद अब तक का सर्वश्रेष्ठ गीत यही है।

सुजॊय - बिल्कुल! और पंछी जालोनवी का ज़िक्र आया तो मुझे उनके द्वारा प्रस्तुत 'जयमाला' कार्यक्रम की याद आ गई जिसमें उन्होंने अपने इस नाम "पंछी" के बारे में कहा था। उन्होंने कुछ इस तरह से कहा था - "फ़ौजी भाइयों, आप सोच रहे होंगे कि इस वक़्त जो शख़्स आप से बातें कर रहा है, उसका नाम पंछी क्यों है। लोग अपनी जाति और मज़हब बदल लेते हैं, मैंने अपने जीन्स (genes) बदल डाले और इंसान से पंछी बन गया (हँसते हुए)। वह ख़याल भी फ़ौज से ही जुड़ा हुआ है। आप लोग बिना किसी भेदभाव के एक साथ दोस्तों की तरह रहते हैं और मक़सद भी एक है, देश की सेवा। पंछियों में भी फ़िरकापरस्ती नहीं होती है। कभी मंदिर में बैठ जाते हैं तो कभी मस्जिद में।"

विश्व दीपक - वाह! बड़े ख़ूबसूरत विचार है जालोनवी साहब के। अच्छा, इसी गीत का एक और वर्ज़न है, जिसे थोड़ा सा बदल कर "ख़ुशनुमा सा वह मौसम" कर दिया गया है, और इस बार आवाज़ है कृष्णा की। इस गीत को भी सुनते चलें, गीत को सुनते हुए आपको फ़िल्म 'लम्हा' के "मादनो" गीत की याद आ सकती है। इस गीत में भी कश्मीरी रंग है, रुबाब और सारंगी के इस्तेमाल से दर्द और तड़प के भाव बहुत अच्छी तरह से उभरकर सामने आया है। एक और ज़रूरी बात कि इस वर्ज़न को पंछी जालोनवी ने नहीं बल्कि शेली ने लिखा है।

सुजॊय - गायक कृष्णा को लोग ज़्यादा याद नहीं करते हैं, उनसे गानें भी कम गवाये जाते हैं, लेकिन मेरा ख़याल है कि उनकी गायकी में वो सब बातें मौजूद हैं जो आजकल के गिने चुने सूफ़ी टाइप के गायकों में मौजूद हैं। भविष्य में इनका भी वक़्त ज़रूर आएगा, ऐसी हमारी शुभकामना है कृष्णा के लिए। और आइए अब इस गीत को सुना जाए।

गीत - ख़ुशनुमा-सा वो मौसम


विश्व दीपक - और अब आज की प्रस्तुति का आठवाँ और अंतिम गीत। 'नॉक आउट' में एक और सुनने लायक गीत है के.के की आवाज़ में, "तू ही मेरी हमनवा मुझमें रवाँ रहा, तू ही मेरे ऐ ख़ुदा साँसों में भी चला"। इस गीत को गौरव ने प्रीतम - के. के स्टाइल के गीत की तरह रूप देने की कोशिश की है। इस गीत में भी सूफ़ी रंग है, मुखड़ा जके "मौला" पे ख़त्म होता है। कम्पोज़िशन भले ही सुना सुना सा लगे, लेकिन अच्छे बोल और अच्छी आवाज़ को पाकर यह गीत कर्णप्रिय बन गया है।

सुजॊय - के.के. की आवाज़ मे एक ताज़गी रहती है जिसकी वजह से उनका गाया हर गीत सुनने में अच्छा लगता है। मुझे नहीं लगता कि के.के. ने कोई ऐसा गीत गाया है जो सुनने लायक ना हो। आइए आज की प्रस्तुति का समापन इस दिलकश आवाज़ से कर दी जाए।

गीत - तू ही मेरी हमनवा


सुजॊय - 'नॉक आउट' के बाक़ी के तीन गीत हैं विशाल दादलानी का गाया फ़िल्म का शीर्षक गीत, सुनिधि चौहान का गाया "जब जब दिल मिले", तथा सुमित्रा और संजीव दर्शन का गाया "गंगुबाई पे आई जवानी"। इन तीनों गीतों में कोई ख़ास बात नहीं है, बहुत ही साधारण, और "गंगुबाई" तो अश्लील है जिसमें गीतकार लिखते हैं "गंगुबाई पे आई जवानी जब से, सारे लौंडे हैरान परेशान तब से"। बेहतर यही होगा कि इन तीनों गीतों को सुने बग़ैर ही पर्दा गिरा दिया जाए।

विश्व दीपक - आपने सही कहा कि तीन हीं गीत सुनने लायक हैं इस फिल्म के, लेकिन अच्छी बात ये है कि ये तीनों गीत बहुत हीं खूबसूरत हैं। राहत साहब के बारे में कोई नया क्या कह सकता है, वे हैं हीं बेहतरीन। मुझे भी यह बात हमेशा खटकती थी(है) कि उन्हें उनके माद्दे जितना मौका नहीं मिल रहा। मैंने उनकी पुरानी कव्वालियाँ सुनी हैं। कुछ सालों पहले तक हिन्दी फिल्मों में भी कव्वालियाँ बनती थीं, जिन्हें साबरी बंधु गाया करते थे अमूमन.. लेकिन अब बनती हीं नहीं। अब बने तो राहत साहब से बढकर कोई उम्मीदवार न होगा। मेरी तो यही चाहत है कि हिन्दी फिल्मों में फिर से ऐसे सिचुएशन तैयार किये जाएँ। राहत साहब के बाद इन कव्वालियों के लिए अगर कॊई सही उम्मीदवार है तो वो हैं कृष्णा.. इनकी आवाज़ में खालिस सूफ़ियाना अंदाज़ है और पुरअसर कशिश भी। आज की दोनों फिल्मों के गानों में वही गाना अव्वल रहा है, जिसमें कृष्णा की गलाकारी का कमाल है। इससे बढकर और किसी गायक को क्या चाहिए होगा! सुजॉय जी, मैं आपका शुक्रिया अदा करना चाहूँगा कि आपकी बदौलत मैंने इन दों नैपथ्य में लगभग खो चुकी फिल्मों के गानें सुनें। उम्मीद करता है कि अगली बार भी आप ऐसी भी कोई फिल्म (फिल्में) लेकर आएँगे। तब तक के लिए इस समीक्षा को विराम दिया जाए। जय हिन्द!

आवाज़ की राय में

चुस्त-दुरुस्त गीत: मौला और खुशनुमा

लुंज-पुंज गीत: काला जादू

पिया पिया मोरा जिया पुकारे...जब किशोर दा ने खूबसूरती से छुपाया आशा की गलती को



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 512/2010/212

'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कल से हमने शुरु की है लघु शृंखला 'गीत गड़बड़ी वाले', जिसके तहत हम कुछ ऐसे गानें सुन रहे हैं जिनमें किसी ना किसी तरह की गड़बड़ी हुई है, या कोई त्रुटी, कोई कमी रह गई है। कल इसकी पहली कड़ी में आपने सुना कि किस तरह से सहगल साहब ने अमीरबाई की लाइन पर ग़लती से गा उठे और गाते गाते चुप हो गए। बिल्कुल इसी तरह की ग़लती एक बार गायिका आशा भोसले ने भी की थी किशोर कुमार के साथ गाए एक युगल गीत में, जिसमें वो किशोर दा की लाइन पर गा उठीं थीं और गाते गाते रह गयीं। आशा जी की इस ग़लती को किशोर कुमार ने किस तरह से क्लवर अप कर गाने को और भी ज़्यादा लोकप्रिय बना दिया, इसके बारे में हम आपको बताएँगे, लेकिन उससे पहले आपको यह तो बता दें कि यह गीत है १९५५ की फ़िल्म 'बाप रे बाप' का, "पिया पिया पिया मेरा जिया पुकारे, हम भी चलेंगे सइयाँ संग तुम्हारे"। जाँनिसार अख़्तर के बोल और ओ. पी. नय्यर साहब का संगीत। नय्यर साहब के ज़्यादातर डुएट्स आशा और रफ़ी के गाये हुए हैं, लेकिन आशा - किशोर के गाये इस गीत की लोकप्रियता अपनी जगह है। इससे पहले कि आशा भोसले ख़ुद आपको अपनी ग़लती के बारे में बताएँ, हम आपको यह बता दें कि 'बाप रे बाप' अब्दुल रशीद कारदार की फ़िल्म थी जिसमें अभिनय किया किशोर कुमार और चाँद उस्मानी ने। युं तो नौशाद साहब ही कारदार साहब की फ़िल्मों में संगीत देते आए थे, लेकिन १९५२ के बाद ग़ुलाम मोहम्मद, मदन मोहन और रोशन को उन्होंने मौके दिए अपनी फ़िल्मों में, और इस फ़िल्म में वो पहली बार लेकर आए नय्यर साहब को।

और अब इस गीत के सब से महत्वपूर्ण पहलु, यानी कि गड़बड़ी के बारे में जानिए ख़ुद आशा भोसले से। "हमारे किशोर दा, इतने मज़ाकी थे कि जिसकी हद नहीं। पूरा दिन अगर आप उनके साथ गा रहे हों, तो सुबह से लेकर शाम तक इतने हँसाते थे कि हँसते हँसते हमारी आवाज़ भी ख़राब हो जाती थी। हम हाथ जोड़ कर कहते थे, "किशोर दा, प्लीज़ मत हँसाइए, मेरा गला ख़राब हो गया, ख़राश आने लगी"। लेकिन वो बंद ही नही होते थे। एक गाना मैं और हमारे मज़ाकी किशोर दा, हम दोनों गा रहे थे, "पिया पिया पिया मेरा जिया पुकारे", गाना पूरा रिहर्सल होके फ़ाइनल रेकॊर्डिंग् शुरु हुआ। और मैंने ग़लती से उनकी लाइन पे "हँअअ..." ऐसा कह दिया। तो उन्होंने मेरी तरफ़ ऐसे हाथ बढ़ा के कहा कि आगे अब बंद नहीं करना, और वैसे ही रेकॊर्डिंग् चालू रखा। जैसे ही रेकॊर्डिंग् खतम हुआ, गाना खतम हुआ तो मैंने कहा कि "दादा, फिर से करते हैं ना, मैंने ग़लती की, बहुत बड़ी ग़लती की, बीच में बोल दिया"। कहने लगे "बिल्कुल चिंता मत करो, मैं हूँ ना उस पिक्चर में, मैं ही तो हीरो हूँ, जैसे ही हीरोइन गाने लगेगी, मैं उसके मुंह पे हाथ रख दूँगा।" तो दोस्तों, इस तरह से आशा जी की ग़लती को फ़िल्मांकन के ज़रिए कवर-अप कर लिया गया और यह इस गीत की एक मज़ेदार बात भी बन गई। वैसे आपको यह बता दें कि भले ही आशा जी ने अपनी ग़लती का ख़ुद ही इज़हार किया, लेकिन नय्यर साहब का मैंने एक इंटरव्यु पढ़ा है, जिसमें जब उनसे इस बारे में पूछा गया था तो उन्होंने साफ़ इंकार कर दिया था कि कोई ग़लती हुई है। ख़ैर, इस विवाद में जाने से बेहतर यही है कि इस नटखट चुलबुले युगल गीत का आनंद उठाया जाए.



क्या आप जानते हैं...
कि ओ. पी. नय्यर को १७ वर्ष की आयु में ही एच.एम.व्ही के लिए ख़ुद की कम्पोज़ की गई 'कबीर वाणी' और फिर इनायत हुसैन तथा धनीराम के संगीत निर्देशन में गाने का मौका मिला था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ०२ /शृंखला ०२
ये धुन है गीत के पहले इंटर ल्यूड की -


अतिरिक्त सूत्र - इस पीरियड फिल्म में प्राण ने शीर्षक भूमिका की थी

सवाल १ - गायिका की आवाज़ पहचानें - १ अंक
सवाल २ - प्रमुख अभिनेत्री बताएं - १ अंक
सवाल ३ - किस संगीतकार जोड़ी का था संगीत - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
श्याम कान्त जी कमाल कर रहे हैं, शरद जी कहाँ हैं ????, अमित और बिट्टू जी को भी बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, October 24, 2010

क्या हमने बिगाड़ा है, क्यों हमको सताते हो....गुजरे दिनों में लौट चलिए सहगल और अमीरबाई के साथ इस नटखट से गीत में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 511/2010/211

इंसान मात्र से ग़लतियाँ होती रहती हैं। चाहे हम लाख कोशिश कर लें, छोटी मोटी ग़लतियाँ फिर भी हर रोज़ हम कर ही बैठते हैं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है इस महफ़िल में! आप यह सोच रहे होगे कि यह हम क्या ग़लतियों की बातें लेकर बैठ गये। फिर भी दोस्तों, ज़रा सोचिए, क्या ऐसा भी कोई इंसान है जिसने अपने जीवन में कोई ग़लती ना की हो? बल्कि हम युं भी कह सकते हैं कि ग़लतियों से ही हमें सीखने का मौका मिलता है, अपने आप को सुधारने का मौका मिलता है। जिस दिन हमने कोई ग़लती ना की हो, जिस दिन हमें किसी परेशानी का सामना ना करना पड़ा हो, उस दिन हमें यह यकीन कर लेना चाहिए कि हम ग़लत राह पर चल रहे हैं। ये वाणी मेरी नहीं बल्कि स्वामी विवेकानंद की है। आज हम ग़लतियों की बातें इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आज से हम जो शृंखला शुरु कर रहे हैं, उसका भी विषय यही है। युं तो हमारे फ़िल्मी गीतकार, संगीतकार, गायक, गायिकाएँ और फ़िल्म निर्माता व निर्देशक बड़ी ही सावधानी के साथ गानें बनाते हैं और पूरा पूरा पर्फ़ेक्शन उनमें डालने की कोशिश करते हैं, लेकिन फ़िल्मी इतिहास गवाह है कि कई बार ऐसा हुआ है कि इन अज़ीम फ़नकारों से भी थोड़ी भूल चूक हो गई है जाने अनजाने। तो दोस्तों, ऐसे ही कुछ गड़बड़ी वाले गीतों को हम समेट लाये हैं एक लघु शृंखला की शक्ल में। तो लीजिए आज से अगले १० अंकों में सुनिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'गीत गड़बड़ी वाले'। इससे पहले कि हम इस शृंखला के पहले गीत का ज़िक्र करें, हम यह बताना चाहेंगे कि इस शृंखला का उद्देश्य इन महान कलाकारों की ग़लतियाँ निकालना नहीं है। ऐसी ग़ुस्ताख़ी हम नहीं कर सकते। इन कलाकारों ने जो योगदान दिया है, उनकी तुलना में ये छोटी मोटी ग़लतियाँ नगण्य है। आपको याद होगा फ़िल्म 'ख़ूबसूरत' में रेखा का एक संवाद था "हम ये सब आण्टी जी को चोट पहुँचाने के लिए थोड़े कर रहे हैं, हम तो ये सब कर रहे हैं निर्मल आनंद के लिए"। बस यही बात यहाँ भी लागू होती है। यह शृंखला सिर्फ़ और सिर्फ़ निर्मल आनंद के लिए है। तो आइए हम सब हल्के फुल्के अंदाज़ में इस शृंखला का आनंद उठाते हैं, और पहले उन सभी कलाकारों से क्षमा याचना भी कर लेते हैं जिनकी ग़लतियाँ इस शृंखला में उजागर होंगी।

'गीत गड़बड़ी वाले' शृंखला की पहली कड़ी के लिए हम जिस गीत को चुन लाये हैं, उसमें आवाज़ें हैं फ़िल्म जगत के पहले सिंगिंग् सुपरस्टार कुंदन लाल सहगल और अमीरबाई कर्नाटकी की। फ़िल्म 'भँवरा' का यह गीत है "क्या हमने बिगाड़ा है, क्यों हमको सताते हो"। पता है इस गीत में गड़बड़ी कैसी हुई? गीत के आख़िर में अमीरबाई कर्नाटकी की लाइन "तुम हमें अपना बनाते हो" दो बार आना था। लेकिन जैसे ही अमीरबाई एक बार इस लाइन को गाती हैं और दूसरी बार गाने के लिए शुरु करती हैं तो सहगल साहब ग़लती से अपनी लाइन "क्या हमने बिगाड़ा है" गाते गाते रुक जाते हैं। और अमीरबाई की लाइन होने के बाद उसे सही जगह पर गाते हैं। इस तरह से गड़बड़ी वाले गीतों में यह गीत शामिल हो गया। दोस्तों, ४० के दशक का यह एक बेहद मक़बूल गाना है। भले ही सहगल साहब ने इस गीत में ग़लती की हों, लेकिन उससे इस गीत की लोकप्रियता में तनिक भी कमी नहीं आयी थी उस ज़माने में। 'भँवरा' रणजीत मोवीटोन की फ़िल्म थी जिसमें सहगल साहब के साथ थे अरुण, कमला चटर्जी, याकूब, मोनिका देसाई, बृजमाला और केसरी। फ़िल्म में संगीत था खेमचंद प्रकाश का। तो आइए किदार शर्मा निर्देशित १९४४ की इस फ़िल्म के इस अनोखे गीत को सुनते हैं। कल एक ऐसा ही गीत लेकर आयेंगे जिसमें बिल्कुल इसी तरह की गड़बड़ी की है एक और गायक ने। तो अनुमान लगाइए कल के गीत की और मुझे इजाज़त दीजिए, नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि कुंदन लाल सहगल १९४२ में कलकत्ते के न्यु थिएटर्स में इस्तीफ़ा देकर बम्बई के रणजीत मूवीटोन में चले गये थे। उस समय धीरे धीरे फ़्रीलांसिंग् का दौर भी चलने लगा था। १९४४ में जहाँ एक तरफ़ सहगल साहब ने रणजीत के 'भँवरा' में काम किया, वहीं वापस कलकत्ते जाकर न्यु थिएटर्स के 'माइ सिस्टर' में भी अभिनय किया।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ०२ /शृंखला ०२
ये पंक्तियाँ सुनिए गीत की -


अतिरिक्त सूत्र - किशोर कुमार का मशहूर अंदाज़ है जो अभी आपने सुना

सवाल १ - सहगायिका बताएं इस युगल गीत की - १ अंक
सवाल २ - संगीतकार बताएं - १ अंक
सवाल ३ - गीतकार कौन हैं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
वाह श्याम कान्त जी पहली बाज़ी जीतने के बाद दूसरी श्रृखला में भी आपने शानदार शुरूआत की है, २ अंकों की बधाई. अमित जी और बिट्टू जी १ -१ अंक आप दोनों के खाते में भी आये. शंकर लाल जी जैसा कि बटुक नट जी ने कहा कि हम सब आपके साथ हैं...शयर बाज़ार ४ बजे बंद हो जाता है उसके बाद खूब सारा संगीत सुनिए....शाम तक सारी थकान उतर जायेगी....और हाँ एक गुजारिश है आप सब बहुत हद तक नए हैं इस परिवार के अन्य सदस्यों के लिए और हमारे लिए भी....कुछ अपने बारे में विस्तार से हमें लिखें ताकि ये सम्बन्ध और गहरे हो सकें

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Saturday, October 23, 2010

ई मेल के बहाने यादों के खजाने - जब बचपन जवानी और बुढापा सिमट गया था एक गीत में...हमारी श्रोता अनीता जी के लिए



'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' आपके मनपसंद स्तंभ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का ही एक साप्ताहिक विशेषांक है, जिसमें हम आप ही के ईमेल शामिल भी करते हैं और अगर आपने किसी गीत की फ़रमाइश की है तो उसे भी हम इसमें सुनवाते हैं। आज हम दो एक नहीं बल्कि दो दो ईमेल शामिल कर रहे हैं। पहला ईमेल हमें भेजा है ख़ानसाब ख़ान ने। ये लिखते हैं ...

आदाब,
'मजलिस-ए-क़व्वाली' की महफ़िल वाक़ई बहुत बहुत शानदार और जानदार थी। या युं कहें कि आपकी ये अदायगी हमें उस दौर के गानों का और ज़्यादा दीवाना बना गई। आप इतनी गम्भीरता से अपनी प्रस्तुति देते हैं कि हम आख़िर उसमें खो ही जाते हैं। और आपको शुक्रिया कहने के लिए ई-मेल कर ही देते हैं।

'मेरे हमदम मेरे दोस्त' की क़व्वाली "अल्लाह ये अदा कैसी है इन हसीनों में" मुझे सब से ज़्यादा पसंद आई। मेरी पसंद तो आप ने मेरी बिना फ़रमाइश के ही पूरी कर दी। इसके लिए 'आवाज़' की पूरी टीम को तहे दिल से बहुत बहुत धन्यवाद!


ख़ानसाब, बहुत बहुत शुक्रिया आपका। आप समय समय पर इस तरह के ई-मेल भेज कर हमारा हौसला अफ़ज़ाई करते रहते हैं। यकीन मानिए, ये हमारे लिए जैसे टॊनिक का काम करते हैं। और रही बात आपके पसंद की क़व्वाली की, तो शायद आपको याद होगा, इस क़व्वाली के आलेख में मैंने इस बात का ज़िक्र भी किया था कि मुझे भी यह क़व्वाली अत्यन्त प्रिय है। चलिए हम दोनों की पसंद भी मिल गई। आप आगे भी इसी तरह का साथ बनाये रखिएगा। और अप अपनी अगली ग़ज़ल हमे कब भेज रहे हैं?

आइए अब आज के दूसरे ई-मेल पर आते हैं, इसे भेजा है अनीता सिंह ने। सच कहूँ, यह कोई ई-मेल नहीं है। दरअसल, बहुत दिनों पहले हमें 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के किसी अंक में अनीता सिंह की एक टिप्पणी मिली थी, जिसमें उन्होंने एक गीत की फ़रमाइश की थी। उस वक़्त हम उस गीत को सुनवा तो नहीं सके थे, लेकिन हमारे मन में यह बात ज़रूर रह गई थी कि कभी ना कभी हम अनीता जी की पसंद को पूरी कर सके। इसलिए हमने अपने ई-मेल के ड्राफ़्ट्स में उनकी यह टिप्पणी सेव कर के रख लिया था। तो चलिए आज उनकी उस टिप्पणी के साथ उनके पसंद का एक गीत सुना जाए। अनीता सिंह लिखती हैं...

जरा सी देर क्या हुई मैं तों चूक ही गई (पहेली से)। चलिए मेरे प्रश्न का उत्तर अल्पना जी ने दे ही दिया है, तो अपनी एक फरमाइश तो रख ही सकती हूँ न! मुझे एक शरारती गाना बहुत पसंद है, यदि आपके पास हो तो सुनाईयेगा। ''हम गवनवा न जैबे हो बिना झुलनी" और "चाहे तो मोरा जिया लई ले सांवरिया"। दोनो सुचित्रा सेन, अशोक कुमार और धर्मेन्द्र की फिल्म के हैं। फ़िल्म का नाम ???? क्यों बताऊँ???

वाह अनीता जी, बेहद सुंदर दो गीतों की फ़रमाइश आपने भेजी है। अब फ़िल्म का नाम चाहे आप बताएँ या ना बताएँ, यह तो ज़्यादातर लोगों को ही पता होगा। चलिए फिर भी हम बता देते हैं, ये दोनों गीत फ़िल्म 'ममता' के हैं। संगीतकार रोशन की एक महत्वपूर्ण फ़िल्म रही 'ममता' और इस फ़िल्म के सभी गानें बेहद सराहे गये थे। आज हम अनीता जी की फ़रमाइश पर सुनेंगे "हम गवनवा ना जैबे हो बिना झुलनी"। लेकिन गीत सुनवाने से पहले हम अपनी तरफ़ से इस गीत के बारे में कुछ जानकारी आपको दे दें!

अगर आप इस गीत को ध्यान से सुनें, तो आप इस गीत को तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं। पहला भाग है "हम गवनवा न जैबे हो" (ठुमरी), दूसरा भाग है "सकल बन गगन पवन चलत पुर्वाई रे" (खमाज, बहार), और तीसरे भाग मे है "विकल मोरा मनवा उन बिन हाए" (पीलू, बसंत मुखाड़ी)। कम्पोज़िशन, संगीत संयोजन और रागों के इस्तेमाल पर अगर आप ग़ौर करें तो इन तीनों भागों को आप इंसान के जीवन के तीन भागों के रूप में भी देख सकते हैं। पहला हिस्सा बचपन का, दूसरे हिस्से में है यौवन और तीसरे हिस्से में है बुढ़ापा। इस गीत को प्रस्तुत करते हुए रोशन साहब ने यही बात विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में कहा था - "ममता फ़िल्म में ऐसी ही एक सिचुएशन बनी कि जिसमें बचपन, जवानी और बुढ़ापा को दर्शाना था संगीत के माध्यम से। तो ज़ाहिर है कि धुन ही पहले बनाई गई। जहाँ पे शब्दों की ज़्यादा अहमियत होती है, वहाँ गीत पहले लिखा जाता है।" दोस्तों इस गीत के लिए रोशन साहब को जितनी दाद मिलनी चाहिए, उतनी ही दाद मजरूह सुल्तानपुरी को भी मिलनी ही चाहिए। अक्सर यह मान लिया जाता है कि हिंदी के कठिन शब्द शायरी के प्रभाव में बाधा डालते हैं। पर मजरूह साहब ने विकल शब्दों का बड़ी ही कामयाबी और ख़ूबसूरती से प्रयोग कर के हमें दिया एक से सुंदर गीत, और यह गीत भी उन्हीं में से एक है। और रही बात इस गीत की गायिका लता जी की, अब उनकी तारीफ़ में कुछ कहने को बचा है भला! आइए सुनते हैं और अनीता सिंह जी का शुक्रिया अदा करते हैं इस गीत को चुनने के लिए।

गीत - हम गवनवा ना जैबे हो बिना झुलनी (ममता)


तो ये था आज का 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने'। अगर आप भी ख़ानसाब की तरह हमें कुछ कहना चाहते हैं या अनीता जी की तरह कोई गीत सुनवाना चाहते हैं, तो हमें फ़ौरन ई-मेल करें oig@hindyugm.com के पते पर। अब हमें इजाज़त दीजिए, अगले शनिवार आप ही में से फिर किसी दोस्त के ईमेल के साथ हम हाज़िर होंगे। और हाँ, कल से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित शृंखला में एक बेहद अनूठी लघु शृंखला शुरु होने जा रही है। आप में से जिन जिन दोस्तों के स्पीकर काम नहीं करते, या फिर ऒडियो प्ले नहीं होते, उनसे ग़ुज़ारिश है कि जल्द ही उन्हें ठीक करा लें। बिना ऒडियो के आप इस शृंखला का मज़ा नहीं ले पाएँगे। तो कल फिर मिलेंगे, तब तक के लिए, नमस्कार!

प्रस्तुति: सुजॊय

Friday, October 22, 2010

सुनो कहानी - मुण्डन - हरिशंकर परसाई - अनुराग शर्मा



सुनो कहानी: हरिशंकर परसाई की "मुण्डन"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में पाकिस्तानी लेखक अहमद सगीर सिद्दीकी की कहानी "विभाजित" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार हरिशंकर परसाई का व्यंग्य "मुण्डन", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 4 मिनट 48 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



मेरी जन्म-तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है। यह भूल है। तारीख ठीक है। सन् गलत है। सही सन् 1922 है। ।
~ हरिशंकर परसाई (1922-1995)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

यह मामला कुतुब मीनार का नहीं जो सदियों जांच के लिए खड़ी रहेगी। यह आपके बालों का मामला है, जो बढ़ते और कटने रहते हैं।
(हरिशंकर परसाई की "मुण्डन" से एक अंश)

नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3

#One hundred eighth story, Mundan : Harishankar Parsai/Hindi Audio Book/2010/40. Voice: Anurag Sharma

Thursday, October 21, 2010

गाँव से लायी एक सुरीला सपना रश्मि प्रभा और जिसे मिलकर संवार रहे हैं ऋषि, कुहू, श्रीराम और सुमन सिन्हा



दोस्तों, आपने गौर किया होगा कि एक दो शुक्रवारों से हम कोई नया गीत अपलोड नहीं कर रहे हैं. दरअसल बहुत से गीत हैं जिन पर काम चल रहा है, पर ऑनलाइन गठबंधन की कुछ अपनी मजबूरियां भी होती है, जिनके चलते बहुत से गीत अधर में फंस जाते हैं. पर हम आपको बता दें कि आवाज़ महोत्सव का तीसरा सत्र जारी है और अगला नया गीत आप जल्द ही सुनेंगें. इन सब नए गीतों के निर्माण के अलावा भी कुछ प्रोजेक्ट्स हैं जिन पर आवाज़ की टीम पूरी तन्मयता से काम कर रही है. ऐसे ही एक प्रोजेक्ट् से आईये आपका परिचय कराएँ आज.

युग्म से जुड़े सबसे पहले संगीतकार ऋषि एस एक बेहद प्रतिभाशाली संगीतकार हैं, इस बात का अंदाजा, हर सत्र में प्रकाशित उनके गीतों को सुनकर अब तक हमारे सभी श्रोताओं को भी हो गया होगा. आमतौर पर आजकल संगीतकार धुन पहले रचते हैं, ऐसे में दिए हुए शब्दों को धुन पर बिठाना और उसमें जरूरी भाव भरना एक दुर्लभ गुण ही है, और उससे भी दुर्लभ है गुण, शुद्ध कविताओं को स्वरबद्ध करने का. अमूमन गीत एक खास खांचे में लिखे जाते हैं ताकि धुन आसानी से बिठाई जा सके, पर जब कवि कविता लिखता है तो वह इन सब बंधनों से दूर रहकर अपने मन को शब्दों में उंडेलता है. ऐसे में उन लिखे शब्दों उनके भाव अनुसार स्वरबद्ध करना एक चुनौती भरा काम ही है. यही कारण है कि जब हमने किसी कवि की कविताओं को इस प्रोजेक्ट के लिए संगीत में ढालने का मन बनाया तो बतौर संगीतकार ऋषि एस को ही चुना.

दरअसल ये सुझाव कवियित्री रश्मि प्रभा का था. आईये सुनें उनकी ही जुबानी कि ये ख़याल उन्हें कैसे आया.

रश्मि प्रभा - शब्दों के साथ चलते चलते एक दिन देखा कि कुछ शब्द सरगम की धुन में थिरक रहे हैं और हवा कह गई- ज़िन्दगी भावनाओं को गुनगुनाना चाहती है ' .... ऐसा महसूस होते मैंने धुन और स्वर को आवाज़ दी और पलक झपकते ऋषि, कुहू, श्रीराम इमानी का साथ मेरी यात्रा को संगीतमय बना गया,.... ज़िन्दगी के इंतज़ार को देखते हुए गाँव से सपना ले आने की बात सुनकर सुमन सिन्हा भी सहयात्री बने और हमने सोचा ज़िन्दगी की तलाश में हम सब जौहरी बनेंगे ...हर गीत में हमारे ख्वाब, हमारी कोशिशें, हमारे हकीकत हैं --- आइये हम साथ हो लें....

तो यूँ हुई शुरूआत इस प्रोजेक्ट की. जैसा कि उन्होंने बताया कि गायन के लिए कुहू और श्रीराम को चुना गया. दरअसल रश्मि जी कुहू की गायिकी की तभी से मुरीद हो चुकी थी जब से उन्होंने उनकी आवाज़ में "प्रभु जी" गीत सुना था. चूँकि ये गीत जिनके डेमो आप अभी सुनने जा रहे हैं, ये स्टूडियो में भी रिकॉर्ड होंगें बेहद अच्छे तरीके से, तो उस मामले में भी कुहू, श्रीराम और रश्मि जी का एक शहर में होना भी फायदेमंद होगा ऐसे हमें उम्मीद है. रश्मिजी की बातों में आपने एक नाम नया भी है, जिनसे आवाज़ के श्रोता वाकिफ नहीं होंगें शायद. ये हैं सुमन सिन्हा, सुमन जी इस प्रोजेक्ट के आधार बनेगें. ये आवाज़ के नए "महारथी" हैं जो हमारे साथ अब लंबे समय तक निभाने आये हैं. आने वाली बहुत सी ऐसी घोषणाओं में आप इनका जिक्र पढेंगें. सुमन जी मूल रूप से पटना बिहार के रहने वाले हैं और साहित्य संगीत और सिनेमा से इनका जुड़ाव पुराना है. इनके बारे में अधिक जानकारी हम आने वाले समय में आप तक पहुंचाएंगें. फिलहाल बढते हैं इस प्रोजेक्ट् की तरफ जिसके लिए अब तक ३ गीत तैयार हो चुके है. इन तीनों गीतों एक झलक आईये अब आपको सुनवाते हैं एक के बाद एक....



ये तीन गीत हैं -
१. इंतज़ार
२. गाँव से रे
३. फितरत

याद रहे अभी ये संस्करण एक डेमो है, और होम स्टूडियो रेकॉर्डेड है...आपकी राय से हम इसे और बेहतर बना पायेंगें-


मेकिंग ऑफ़ "प्रोजेक्ट कविता ०१" - गीत की टीम द्वारा

श्रीराम ईमानी : I love working with this team. For starters Rishi’s compositions are a pleasure to sing. I like the level of detail that he goes to, particularly the additional vocals, and the emphasis he puts on how each word and line should sound. Rashmi ji’s lyrics are straight from the heart, and the imagery they bring to one’s mind are delightful! And finally, Kuhoo – with whom it has always been a pleasure to sing,both on stage and in the studio. We’ve worked together on several songs from our time together in IIT, and it has been an enjoyable and enriching experience as we grew with each song, and I hope this continues for several years to come. I admire every member of this wonderful team and hope. you all like these songs

कुहू गुप्ता : रश्मि जी की कविताओं में कुछ अलग बात है जो दिल को छू जाती है, शायद ज़िन्दगी की सच्चाई है ! और उस पर ऋषि जी संगीत रचना हो तो सोने पे सुहागा. मुझे ये गाने गाने में बहुत आनंद आया. श्रीराम के साथ मैंने ४-५ साल पहले कॉलेज के स्टेज पर गाया था, सोचा न था आज उसी के साथ मूल रचनाएँ भी गाऊँगी. आशा करती हूँ इस टीम का काम आप सब को पसंद आएगा !

ऋषि एस: The poetry for this set of songs have been hand picked by me from the writings of Rashmi ji. This is the first time I have worked with a female lyricist and the difference in the creative thought process is subtle at some places and apparent at the others. The melodies have been inspired from the thought provoking message and rhythmic structure of the poetry. The lyrical value and musical content have been taken to the next level of listening pleasure by vocalists Kuhoo Gupta and Sriram Emani, who have presented the songs with an apt mix of emotions and musicality. Thanks to the whole team for making these songs happen. Special thanks to hindyugm for showcasing independent musicians.


Creative Commons License
Zindagi by Rishi S is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivs 3.0 Unported License.

हमें उम्मीद है कि आप सब की शुभकामनाओं से हम इस और ऐसे सभी अन्य प्रोजेक्ट्स को बहुत कामियाबी से निभा पायेंगें, हमें आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा.

एक प्यार का नगमा है.....संगीतकार जोड़ी एल पी के विशाल संगीत खजाने को, दशकों दशकों तक फैले संगीत सफर को सलाम करता एक गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 510/2010/210

"मैं एक गाना बोलता हूँ आपको जो मुझे बहुत पसंद है, और सब से बड़ी ख़ुशी मुझे इसलिए है कि वह ट्युन लक्ष्मी जी ने ख़ुद बनायी हुई है। मतलब कम्प्लीट सोच उनकी है, वह गीत है "एक प्यार का नग़मा है"। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार, 'एक प्यार का नग़मा है' शृंखला की अंतिम कड़ी में आपका बहुत बहुत स्वागत है। प्यारेलाल जी के कहे इन शब्दों को हम आगे बढ़ाएँगे, लेकिन उससे पहले हमारे तमाम नये दोस्तों के लिए यह बता दें कि इन दिनों आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुन रहे हैं सगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के स्वरबद्ध गीतों से सजी यह लघु शृंखला और आज इस शृंखला को हम अंजाम दे रहे हैं इस दिल को छू लेने वाले युगल गीत के ज़रिये। फ़िल्म 'शोर' का यह सदाबहार गीत है लता और मुकेश की आवाज़ों में जिसमें है यमन और बिलावल का स्पर्श। इस गीत को मनोज कुमार और नंदा पर बड़ी ही कलात्मक्ता से फ़िल्मांकन किया गया है। आनंद बक्शी, राजेन्द्र कृष्ण, भरत व्यास, राजा मेहंदी अली ख़ान, और मजरूह सुल्तानपुरी के बाद आज बारी गीतकार संतोष आनंद की। मनोज कुमार की कई फ़िल्मों में इन्होंने गीत लिखे और 'रोटी कपड़ा और मकान' के गीत "मैं ना भूलूँगा" के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड भी मिला था। आइए अब प्यारेलाल जी की बातों को आगे बढ़ाया जाए। "इस गीत में क्या है कि यह जो इंटरनैशनल म्युज़िक होता है, इसमें वह ख़ुशबू है, इटरनैशनल अपील है। समझे ना आप! तो ये जो ख़ुशबू है यह पूरी में महक सकती है, ऐसी सुगंध है जो सब पसंद करेंगे। लक्ष्मी जी, नहीं हम साथ साथ में ही हैं, लेकिन कभी कभी मैं सोचता हूँ, तो बैठ के मैं यह सोचता हूँ कि "एक प्यार का नग़मा है, मौजों की रवानी है, ज़िंदगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है"। तो लक्ष्मी जी और मेरे बीच में एक बात है, जो आज बहुत फ़ील होता है और आइ लव दिस ट्युन, इट्स माइ फ़ेवरीट, और यह और ज़्यादा फ़ेवरीट है क्योंकि यह कम्प्लीट सॊंग् इस मेड बाइ लक्ष्मी जी, यह मुझे बहुत ख़ुशी होती है बोलते हुए।"

दोस्तों, प्यारेलाल जी की ये बातें विविध भारती के उसी 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम से हमने बटोरी है। यहीं पर इस गीत की चर्चा ख़त्म नहीं होती है। दरअसल यह गीत एल.पी के करीयर का एक इतना अहम गीत रहा है कि इसकी चर्चा इतने में समाप्त हो ही नहीं सकती। आइए उसी इंटरव्यु का एक और अंश यहाँ प्रस्तुत किया जाये जिसमें भी इस गीत का ज़िक्र हो आया था।

कमल शर्मा: प्यारे जी, ऐसा मौका आया कभी कि साज़िंदे को लेकर किसी डिरेक्टर ने, प्रोड्युसर ने कहा हो कि इनको पैसा बहुत ज़्यादा दे रहे हो, क्या इनका काम है? लेकिन उसकी अहमीयत आपको पता है कि वो आरटिस्ट क्या कमाल कर सकता है।

प्यारेलाल: यहाँ पर देखिए, संगीत ऐसी चीज़ है जिसकी कोई कीमत नहीं है, जो आप जानते भी हैं, फिर भी मैं बोल दूँ आपको कि संगीत जो है इसको बेचा नहीं जा सकता, इस पे पैसे नहीं कमाते, लेकिन आज टाइम आ गया है, आज क्या फिर शुरु हो गया है लेकिन हमेशा मैं तो यह सोचता हूँ कि एक आरटिस्ट, अगर वो एक पीस भी बजा दे, एक लाइन भी गा दे, उसकी जो कीमत है, वह हम नहीं दे सकते। हर एक गाने का अपना एक रूप होता है, तो साज़िंदे जितने होते हैं, जो रीयल आरटिस्ट होते हैं, जैसे हमारे साथ, हमने साथ में काम किया, हरि जी हैं, सुमंत जी हैं फ़्ल्युट के अंदर, और शिव जी हैं, जो आज बड़े बड़े नाम हैं, और हमारे जो अच्छे म्युज़िशियन्स हैं फ़िल्म के, जो फ़िल्म मे ही रह गये, बाहर नहीं गये वो लोग, इनसे क्या होता था कि बहुत समझ के बजाते थे वो लोग, जैसे आपको याद होगा "एक प्यार का नग़मा है", उसमें देखिये जो वायलिन बजाया है, उनका नाम है जयी फ़रनन्डेज़, उन्होंने बजाया है। देखिये, वॊयस और वायलिन का लगता है एक संगम हो रहा है, दोनों, 'इन्स्ट्रुमेण्ट और वॊयस, तो ये चीज़ बहुत काम करती है।

दोस्तों, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के रचे गीतों का आकाश इतना विराट है कि इस छोटी सी शृंखला में उनके संगीत के वयविद्ध को समेट पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। फिर भी हमने कोशिश की कि इस सुरीले महासागर से १० बेमिसाल मोतियाँ चुन कर आपके लिए एक गीत-माला में पिरोया जाये। यह सुरीला हार आपको कैसा लगा हमें ज़रूर लिखिएगा oig@hindyugm.com के पते पर। चलते चलते बस यही कहेंगे कि एल.पी की यात्रा बेशक कुछ दशकों की है, लेकिन उनका संगीत युग युगांतर तक गूजता रहेगा इस धरती पर, बरसता रहेगा सुरीली बारिश के रूप में। लक्ष्मीकांत जी को 'आवाज़' परिवार की ओर से श्रद्धा सुमन, और प्यारेलाल जी के लिए ईश्वर से यही कामना कि उन्हें दीर्घायु करें, उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करें। अब इसी के साथ 'एक प्यार का नग़मा है' शृंखला को समाप्त करने की दीजिए हमें इजाज़त, और आप सुनिए फ़िल्म 'शोर' का यह सदाबहार नग़मा, और सलाम कीजिए लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की सुर साधना को। नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि 'शोर' के लिए मनोज कुमार ने अपने पसंदीदा संगीतकार कल्याणजी-आनंदजी से कुछ मनमुटाव के कारण लक्ष्मी-प्यारे को चुना। और एल.पी ने ऐसा समा बांधा कि अपने आप को मनोज कुमार कैम्प में स्थापित कर लिया।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ०१ /शृंखला ०२
ये पंक्तियाँ सुनिए गीत की -


अतिरिक्त सूत्र - गायक का साथ दिया है अमीरबाई कर्नाटकी ने इस युगल गीत में

सवाल १ - गायक बताएं - १ अंक
सवाल २ - मुखड़े की पहली पंक्ति बताएं - १ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
पहली बाज़ी श्याम कान्त जी के नाम रही...बधाई. अमित जी, बिट्टू जी, शरद जी सभी ने बढ़िया खेला...अगली श्रृंखला के लिए शुभकामनाएं

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

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