रेडियो प्लेबैक वार्षिक टॉप टेन - क्रिसमस और नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित


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प्लेबैक की टीम और श्रोताओं द्वारा चुने गए वर्ष के टॉप १० गीतों को सुनिए एक के बाद एक. इन गीतों के आलावा भी कुछ गीतों का जिक्र जरूरी है, जो इन टॉप १० गीतों को जबरदस्त टक्कर देने में कामियाब रहे. ये हैं - "धिन का चिका (रेड्डी)", "ऊह ला ला (द डर्टी पिक्चर)", "छम्मक छल्लो (आर ए वन)", "हर घर के कोने में (मेमोरीस इन मार्च)", "चढा दे रंग (यमला पगला दीवाना)", "बोझिल से (आई ऍम)", "लाईफ बहुत सिंपल है (स्टैनले का डब्बा)", और "फकीरा (साउंड ट्रेक)". इन सभी गीतों के रचनाकारों को भी प्लेबैक इंडिया की बधाईयां

Sunday, November 13, 2011

लल्ला लल्ला लोरी....जब सुनाने की नौबत आये तो यही लोरी बरबस होंठों पे आये



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 786/2011/226

मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और नई सप्ताह के साथ हम उपस्थित हैं, मैं सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ, आप सभी का इस सुरीले सफ़र में फिर एक बार स्वागत करते हैं। आमतौर पर बच्चों के साथ माँ के रिश्ते को ज़्यादा अहमियत दी जाती है, फ़िल्मों में भी माँ और बच्चे के रिश्ते को ज़्यादा साकार किया गया है। पर कई फ़िल्में ऐसी भी बनीं जिनमें पिता-पुत्र या पिता-पुत्री के सम्बंध को पर्दे पर साकार किया गया। ऐसी कई फ़िल्मों में पिता द्वारा गाई लोरियाँ भी रखी गईं, हालाँकि संख्या में ये बहुत कम हैं। पर इन लोरियों के माध्यम से गीतकारों नें वो सब जज़्बात, वो सब मनोभाव भरें जो एक पिता के मन में होता है अपने बच्चे के लिए। ऐसी ही कुछ लाजवाब पुरुष लोरियों को लेकर इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में जारी है लघु शृंखला 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी', जिसमें आप दस लोरियाँ सुन रहे हैं दस अलग अलग गायकों के गाये हुए। अब तक आपनें चितलकर, तलत महमूद, हेमन्त कुमार, मन्ना डे और मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ें सुनी। और ये लोरियाँ केवल पाँच अलग गायक ही नहीं, बल्कि पाँच अलग गीतकारों के लिखे और पाँच अलग संगीतकारों द्वारा स्वरबद्ध किए हुए थे। ये गीतकार-संगीतकार जोड़ियाँ हैं राजेन्द्र कृष्ण - सी. रामचन्द्र, ख़ुमार बाराबंकवी - नाशाद, शक़ील - नौशाद, प्रेम धवन - रवि, और शैलेन्द्र - शंकर-जयकिशन। ५० और ६० के दशकों के बाद आज हम ७० के दशक में क़दम रखते हुए आपको सुनवाने जा रहे हैं गायक की मुकेश की गाई हुई लोरी और इसमें गीतकार-संगीतकार जोड़ी है आनन्द बक्शी - राहुल देव बर्मन। १९७७ की फ़िल्म 'मुक्ति' की यह कालजयी लोरी है "लल्ला लल्ला लोरी, दूध की कटोरी, दूध में बताशा, मुन्नी करे तमाशा"।

गायक मुकेश की आवाज़ भी बहुत ही कोमल है और लोरियों के लिए तो बिल्कुल पर्फ़ेक्ट। उनकी गाई फ़िल्म 'मिलन' की लोरी "राम करे ऐसा हो जाए, मेरी निन्दिया तोहे मिल जाए" हम जितनी भी बार सुनें एक अद्भुत अनुभव होता है। इसी तरह से 'मुक्ति' की यह लोरी भी अपने ज़माने का हिट गीत रहा है। शशि कपूर पर ज़्यादातर किशोर कुमार और रफ़ी साहब की आवाज़ ही सजी है, पर कई फ़िल्मों में मुकेश नें उनका पार्श्वगायन किया है जैसे कि 'मुक्ति', 'दिल ने पुकारा', 'माइ लव' आदि। 'मुक्ति' फ़िल्म की तमाम जानकारियाँ हमनें उस अंक में दिया था जिसमें हमनें मुकेश का ही गाया "सुहानी चाँदनी रातें हमें सोने नहीं देती" गीत सुनवाया था। आज बस इस लोरी की बात करते हैं। इस लोरी के भी दो संस्करण है; मुकेश वाले संसकरण का मिज़ाज हँसमुख है जिसमें पिता अपनी पुत्री को प्यार करते हुए यह लोरी गाते हैं, जबकि लता जी वाला संस्करण सैड वर्ज़न है। पिता के बिछड़ जाने के बाद जब बच्चा अपनी माँ से पापा कब आयेंगे पूछता है, तो उसे सम्भालते हुए, सुलाते हुए माँ उसी लोरी को गाती हैं, पर "मुन्नी करे तमाशा" के जगह पर बोल हो जाते हैं "जीवन खेल तमाशा"। दोनों ही संस्करण अपने आप में उत्कृष्ट है। क्योंकि इस शृंखला में हम गायकों की गाई लोरियाँ बजा रहे हैं, इसलिए लता जी वाला संस्करण हम फिर कभी सुनवाने की कोशिश करेंगे अगर सम्भव हो सका तो। आइए मुकेश की कोमल आवाज़ में सुनें यह लोरी।



पहचानें अगला गीत, इस सूत्र के माध्यम से -
मूलत: एक हास्य अभिनेता पर फ़िल्माई यह लोरी है, जो इस फ़िल्म के नायक भी हैं, पर यह फ़िल्म हास्य फ़िल्म नहीं बल्कि एक मर्मस्पर्शी फ़िल्म है। जिस बच्चे के लिए यह लोरी गाई जा रही है, उसका फ़िल्म में नाम है 'हिन्दुस्तान'। बताइए किस फ़िल्म के लोरी की बात हो रही है?

पिछले अंक में
अमित जी सवाल तो पढ़िए ध्यान से

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Saturday, November 12, 2011

सुर संगम में आज - एन. राजम् के वायलिन-तंत्र बजते नहीं, गाते हैं...



सुर संगम- 43 – संगीत विदुषी डॉ. एन. राजम् की संगीत-साधना


सुर संगम के इस सुरीले सफर में, मैं कृष्णमोहन मिश्र, आज एक बेहद सुरीले गज-तंत्र वाद्य वायलिन और इस वाद्य की स्वर-साधिका डॉ. एन. राजम् के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आपसे चर्चा करने जा रहा हूँ। डॉ. राजम् वायलिन जैसे पाश्चात्य वाद्य पर उत्तर भारतीय संगीत पद्यति को गायकी अंग में वादन करने वाली प्रथम महिला स्वर-साधिका हैं। उनकी वायलिन पर अब तक जो कुछ भी बजाया गया है, उसका प्रारम्भ स्वयं उन्हीं से हुआ है। गायकी अंग में वायलिन-वादन उनकी विशेषता भी है और उनका अविष्कार भी।

डॉ. राजम् के पिता नारायण अय्यर कर्नाटक संगीत पद्यति के सुप्रसिद्ध वायलिन वादक और गुरु थे। वायलिन की प्रारम्भिक शिक्षा उन्हें अपने पिता से ही प्राप्त हुई। बाद में सुविख्यात संगीतज्ञ पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर से उन्हें उत्तर भारतीय संगीत पद्यति में शिक्षा मिली। इस प्रकार शीघ्र ही उन्हें संगीत की दोनों पद्यतियों में कुशलता प्राप्त हुई। पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर अपने प्रदर्शन-कार्यक्रमों में एन. राजम् को वायलिन संगति के लिए बैठाया करते थे। संगति के दौरान उनका यही प्रयास होता था कि उनके गुरु जो क्रियाएँ कण्ठ से करते हों, उन्हें यथावत वायलिन के तंत्रों पर उतारा जाए। इस साधना के बल पर मात्र १७ वर्ष की आयु में एन. राजम् गायकी अंग में वायलिन-वादन में दक्ष हो गईं। उस दौर के संगीतविदों ने गायकी शैली में वायलिन-वादन को एक नया आविष्कार माना और इसका श्रेय एन. राजम् को दिया गया। उनके गायकी अंग के वादन में जैसी मिठास और करुणा है, उसे सुन कर ही अनुभव किया जा सकता है। उनके वादन में कोई चमत्कारिक लटके-झटके नहीं, बल्कि सादगी और तन्मयता है। सुनने वालों को ऐसा प्रतीत होता है, मानो वायलिन के तंत्र बजते नहीं बल्कि गा रहे हों। लीजिए, डॉ. एन. राजम् के वायलिन को राग जयजयवन्ती का गायन करते हुए, आप भी सुनें। प्रस्तुति में पण्डित अभिजीत बनर्जी ने तबला संगति की है।

डॉ. एन. राजम् : राग – जयजयवन्ती : आलाप और बन्दिश


एन. राजम् की प्रारम्भिक संगीत शिक्षा दक्षिण भारतीय कर्नाटक संगीत पद्यति में हुई थी। उन दिनों दक्षिण भारत में वायलिन प्रचलित हो चुका था, किन्तु उत्तर भारतीय संगीत में इस वाद्य का पदार्पण नया-नया ही हुआ था। एन. राजम् की आयु उस समय मात्र १२ वर्ष थी। अपने गुरु पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर के मार्गदर्शन में उन्होने वायलिन को गायकी अंग में बजाने का निश्चय किया। स्वर और लय का ज्ञान तो उन्हें पहले से ही था, गुरु जी की स्वरावली का अनुसरण करते-करते वादन में भाव, रस और माधुर्य उत्पन्न करने की कठोर साधना उन्होने की। ध्रुवपद-धमार, खयाल-तराना, ठुमरी-दादरा आदि गायन की सभी विधाओं की बारीकियों का गहन अध्ययन कर वायलिन पर साध लिया। उन दिनों अधिकतर वादको ने तंत्रकारी अंग में ही वायलिन को अपनाया था। परन्तु एन. राजम् का मानना था कि सारंगी की भाँति वायलिन भी गायकी अंग के निकट है। आइए अब सुनते हैं- डॉ. एन. राजम् से राग दरबारी की दो खयाल रचनाएँ जो विलम्बित एकताल में और द्रुत तीनताल में निबद्ध है।

डॉ. एन. राजम् : राग – दरबारी : विलम्बित एकताल और द्रुत तीनताल


विदुषी एन. राजम् के गुरु पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर ग्वालियर घराने के थे, इसलिए स्वयं को इसी घराने की शिष्या मानतीं हैं। घरानॉ के सम्बन्ध में उनका मत है कि कलाकार को किसी एक ही घराने में बंध कर नहीं रहना चाहिए, बल्कि हर घराने की अच्छाइयों का अनुकरण करना चाहिए। घरानों की प्राचीन परम्परा के अनुसार तीन पीढ़ियों तक यदि विधा की विशेषता कायम रहे तो प्रथम पीढ़ी के नाम से घराना स्वतः स्थापित हो जाता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो आने वाले समय में राजम् जी के नाम से भी यदि एक नए घराने का नामकरण हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। डॉ. राजम् को प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता पण्डित नारायण अय्यर से मिली। उनके बड़े भाई पण्डित टी.एन. कृष्णन् कर्नाटक संगीत पद्यति के प्रतिष्ठित और शीर्षस्थ वायलिन-वादक रहे हैं। डॉ. राजम् की एक भतीजी कला रामनाथ वर्तमान में विख्यात वायलिन-वादिका हैं। राजम् जी की सुपुत्री और शिष्या संगीता शंकर अपनी माँ की शैली में ही गायकी अंग में वादन कर रहीं हैं। यही नहीं संगीता की दो बेटियाँ अर्थात डॉ. राजम् की नातिनें- नंदिनी और रागिनी भी अपनी माँ और नानी के साथ मंच पर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर रही हैं।

और अब इस अंक को विराम देते हुए हम आपको विदुषी डॉ. एन. राजम् द्वारा प्रस्तुत राग भैरवी का एक दादरा सुनवाते हैं। यह उल्लेखनीय है कि उनके गुरु पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर ने मंच पर कभी भी ठुमरी-दादरा प्रस्तुत नहीं किया। उपशास्त्रीय संगीत का ज्ञान उन्होने वाराणसी में प्राप्त किया था। वाराणसी के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संगीत संकाय में पहले प्रोफेसर और बाद में विभागाध्यक्ष होकर सेवानिवृत्त हुई। लीजिए, सुनिए- विदुषी डॉ. एन. राजम् की वायलिन पर राग भैरवी में दादरा-

डॉ. एन. राजम् : राग – भैरवी : दादरा


और अब बारी है इस कड़ी की पहेली की जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

सुर संगम 44 की पहेली : इस ऑडियो क्लिप को सुन कर संस्कार गीतों के अन्तर्गत आने वाली लोक संगीत की विधा को पहचानिए। सही पहचान करने पर आपको मिलेंगे 5 अंक


चित्र परिचय
ऊपर बाएं - विदुषी डा. एन. राजम्
नीचे दायें - डा. एन. राजम्अपनी सुपुत्री संगीता शंकर के साथ


पिछ्ली पहेली का परिणाम : सुर संगम के 43वें अंक में पूछे गए प्रश्न का सही उत्तर है- वायलिन और राग दरबारी। इस अंक की पहेली के पहले भाग का सही उत्तर हमारे एक नए पाठक/श्रोता उज्ज्वल कुमार ने और दूसरे भाग का सही उत्तर क्षिति तिवारी ने दिया है। दोनों विजेताओं को मिलते हैं 5-5 अंक। इन्हें हार्दिक बधाई।

अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। अगले रविवार को हम एक और संगीत-कलासाधक अथवा विधा के साथ पुनः उपस्थित होंगे। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तम्भ को और रोचक बना सकते हैं! आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

Thursday, November 10, 2011

आज कल में ढल गया....रफ़ी साहब की आवाज़ में लोरी का वात्सल्य



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 785/2011/225

मस्कार! 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी' की पाँचवी कड़ी में आज आवाज़ रफ़ी साहब की। दोस्तों, रफ़ी साहब और लोरी का जब साथ-साथ ज़िक्र हो तो सबसे पहले जो दो गीत याद आते हैं वो हैं फ़िल्म 'ब्रह्मचारी' का "मैं गाऊँ तुम सो जाओ" और फ़िल्म 'बेटी-बेटे' का "आज कल में ढल गया दिन हुआ तमाम"। दोनों ही मास्टरपीसेस हैं अपनी अपनी जगह और मज़े की बात तो यह है कि दोनों ही शैलेन्द्र नें लिखे हैं और संगीत दिया है शंकर जयकिशन नें। बस इतना ज़रूर है कि 'ब्रह्मचारी' के गीत को व्यवसायिक कामयाबी ज़्यादा मिली, जबकि स्तर की बात करें तो 'बेटी-बेटे' का गीत ज़्यादा बेहतर लगता है। मैं बड़ा परेशान हो गया कि इन दोनों में से किस लोरी को चुना जाये, अन्त में "आज कल में ढल गया" के पक्ष में ही मन बना लिया। इस लोरी की सब से ख़ास बात यह है कि इसमें रफ़ी साहब नें हर एक शब्द में जान डाल दी है, आत्मा डाल दी है। और एस.जे. के ऑरकेस्ट्रेशन की भी क्या तारीफ़ करें! और शैलेन्द्र का काव्य, उफ़! गायक, गीतकार, और संगीतकार, तीनों के टीमवर्क नें इस लोरी को उस मुकाम तक पहुँचाया है कि इसमें किसी तरह का नुक्स निकाल पाना असंभव है। वायलिन और पियानो की ध्वनियों से शुरु हो कर इस गीत को रफ़ी साहब आगे बढ़ाते हैं "आज कल में ढल गया, दिन हुआ तमाम, तू भी सो जा सो गई रंग भरी शाम"।

गीत के अंतरों में लाइन दो बार गाई जाती है, पहली बार रफ़ी साहब नें सीधे सीधे गाया है जबकि दोहराव करते वक़्त उसमें इस तरह से जज़्बात भरे हैं कि जो उनके तरह का कोई भावुक गायक ही गा सकता है। शैलेन्द्र के लेखन की बात करें तो "नींद कह रही है चल, मेरी बाहें थाम" में कितना सुन्दर मानवीकरण किया है उन्होंने। इस लोरी के एक अंतरे में पंक्ति है "जी रहे हैं फिर भी हम सिर्फ़ कल की आस पर"। ठीक इसी तरह के बोल उन्होंने "मैं गाऊँ तुम सो जाओ" में भी लिखा था - "पर जग बदला, बदलेगी एक दिन तक़दीर हमारी, कल तुम जब आँखें खोलोगे, तब होगा उजियारा"। इसी उम्मीद पर, इसी आशा पर तो दुनिया टिकी हुई है। शैलेन्द्र अपने इन्हीं सरल पर गहरे अर्थ वाले बोलों के लिए याद किए जाते रहे हैं। और रफ़ी साहब इस लोरी को समाप्त करते हुए "जिनके आहटें सुनी, जाने किसके थे क़दम" को इस तरह से गाया है कि जो किसी भी गायक के लिए एक लेसन है कि किस तरह से धुन पर नियंत्रण रखते हुए दर्द को उजागर करना चाहिए। इस लोरी के कुल तीन संस्करण फ़िल्म में है। पहला रफ़ी साहब का एकल, दूसरा लता जी का एकल जो एक बच्चे पर फ़िल्माया गया है, और तीसरा रफ़ी और लता का डुएट है जो सुनिल दत्त और जमुना (फ़िल्म की नायिका) पर फ़िल्माया गया है। आज हम सुनने जा रहे हैं रफ़ी साहब का एकल संस्करण। आइए आनन्द लें रफ़ी साहब की आवाज़ में वात्सल्य रस का।



पहचानें अगला गीत, इस सूत्र के माध्यम से -
मुकेश की आवाज़ में इस फ़िल्म का एक अन्य गीत 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में बज चुका है। इस लोरी का एक सैड वर्ज़न लता जी की आवाज़ में भी है। बताइए फ़िल्म का नाम।

पिछले अंक में


खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


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Wednesday, November 9, 2011

तुझे सूरज कहूँ या चन्दा...शायद आपके पिता ने भी कभी आपके लिए ये गाया होगा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 784/2011/224

मस्कार! दोस्तों, इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हम प्रस्तुत कर रहे हैं लघु शृंखला 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी'। इस शृंखला में आपनें बलराज साहनी पर फ़िल्माया तलत साहब का गाया फ़िल्म 'जवाब' का गीत सुना था। आज एक बार फिर बलराज साहब पर फ़िल्माई एक लोरी हम आपके लिए ले आये हैं, और इस बार आवाज़ है मन्ना डे की। एक समय ऐसा था जब किसी वयस्क चरित्र पर जब भी कोई गीत फ़िल्माया जाना होता तो संगीतकार और निर्माता मन्ना दा की खोज करते। इस बात का मन्ना दा नें एक साक्षात्कार में हँसते हुए ज़िक्र भी किया था कि मुझे बुड्ढों के लिए प्लेबैक करने को मिलते हैं। मन्ना दा की आवाज़ में कुछ ऐसी बात है कि नायक से ज़्यादा उनकी आवाज़ वयस्क चरित्रों पर फ़िट बैठती थी। लेकिन इससे उन्हें नुकसान कुछ नहीं हुआ, बल्कि कई अच्छे अच्छे अलग हट के गीत गाने को मिले। आज उनकी गाई जिस लोरी को हम सुनने जा रहे हैं, वह भी एक ऐसा ही अनमोल नग़मा है फ़िल्म-संगीत के धरोहर का। १९६९ की फ़िल्म 'एक फूल दो माली' का यह गीत है "तुझे सूरज कहूँ या चन्दा, तुझे दीप कहूँ या तारा, मेरा नाम करेगा रोशन जग में मेरा राजदुलारा"। प्रेम धवन के बोल और रवि का संगीत। इस गीत के बोल हैं तो बड़े साधारण, पर शायद हर माँ-बाप के दिल की आवाज़ है। हर माँ-बाप की यह उम्मीद होती है कि उसका बच्चा बड़ा हो कर बहुत नाम कमाये, उनका नाम रोशन करे। और यही बात इस गीत का मूल भाव है।

पिता-पुत्र के रिश्ते के इर्द-गिर्द घूमती 'एक फूल दो माली' देवेन्द्र गोयल की फ़िल्म थी, जिसमें बलराज साहनी, संजय ख़ान और साधना मुख्य भूमिकाओं में थे। बलराज साहनी को इस फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेता के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार के लिए नामांकन मिला था। फ़िल्म की भूमिका कुछ इस तरह की थी कि सोमना (साधना), एक ग़रीब लड़की, अपनी विधवा माँ लीला के साथ भारत-नेपाल बॉर्डर की किसी पहाड़ी में रहती हैं और सेब के बाग़ में काम करती है जिसका मालिक है कैलाश नाथ कौशल (बलराज साहनी)। कौशल पर्वतारोहण का एक स्कूल भी चलाता है जिसमें अमर कुमार (संजय ख़ान) एक विद्यार्थी है। सोमना और अमर मिलते हैं, प्यार होता है, और दोनों शादी करने ही वाले होते हैं कि एक तूफ़ान में अमर और सह-पर्वतारोहियों के मौत की ख़बर आती है। पर उस वक़्त सोमना गर्भवती हो चुकी होती हैं। उसे और उसके बच्चे को बचाने के लिए कौशल उससे शादी कर लेते हैं और बच्चे को अपना नाम देते हैं। ख़ुद पिता न बन पाने की वजह से उनका सोमना के बच्चे के साथ कुछ इस तरह का लगाव हो जाता है कि कोई कह ही नहीं सकता कि वो उस बच्चे का पिता नहीं है। पर नियति को कुछ और ही मंज़ूर था। पाँच वर्ष बाद जब सोमना और कौशल अपने बेटे का छठा जनमदिन मना रहे होते हैं, उस पार्टी में अमर आ खड़ा होता है। आगे कहानी का क्या अंजाम होता है, यह तो आप ख़ुद ही देख लीजिएगा फ़िल्म की डी.वी.डी मँगवा कर, फ़िलहाल इस बेहद ख़ूबसूरत लोरी का आनन्द लीजिए मन्ना दा के स्वर में।



पहचानें अगला गीत, इस सूत्र के माध्यम से -
शैलेन्द्र, शंकर-जयकिशन और मोहम्मद रफ़ी के कम्बिनेशन की यह लोरी है, पर इसे शम्मी कपूर पर फ़िल्माई नहीं गई है। तो बताइए किस लोरी की हम बात कर रहे हैं? अतिरिक्त हिण्ट - इस लोरी के तीन संस्करण हैं - रफ़ी सोलो, लता सोलो, रफ़ी-लता डुएट।

पिछले अंक में
बहुत अच्छे उज्जवल

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


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Tuesday, November 8, 2011

चन्दन का पलना रेशम की डोरी....लोरी की मिठास और हेमंत दा की आवाज़



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 783/2011/223

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार! इन दिनों इस स्तंभ में आप आनन्द ले रहे हैं पुरुष गायकों द्वारा गाई फ़िल्मी लोरियों से सजी इस लघु शृंखला 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी' का। आज के अंक की लोरी भी यही है जिससे इस शृंखला का नाम रखा गया है। हेमन्त कुमार की गाई हुई १९५४ की फ़िल्म 'शबाब' की लोरी "चंदन का पलना, रेशम की डोरी, झुलना झुलाऊँ निन्दिया को तोरी"। शक़ील बदायूनी के बोल, नौशाद का संगीत। लोरी फ़िल्माई गई है भारत भूषण पर। वैसे इस लोरी के दो संस्करण हैं, पहला हेमन्त दा की एकल आवाज़ में और दूसरे में लता जी भी उनके साथ हैं। एकल संस्करण में महल का दृश्य है जिसमें गायक बने भारत भूषण इस लोरी को गाते हैं और पर्दे के उस पार कक्ष में नूतन बिस्तर में बैठी हैं। राजा और दासियाँ/ सहेलियाँ छुप-छुप कर यह दृश्य देख रहे हैं। मैंने फ़िल्म तो नहीं देखी पर इस गीत के विडियो को देख कर ऐसा लगता है जैसे नूतन को नींद न आने की बिमारी है और उन्हें सुलाने के लिए राजमहल में गायक को बुलाया गया है लोरी गाने के लिए। नूतन के सो जाते ही सहेलियाँ ख़ुशी से हंस पड़ती हैं।

दोस्तों, कल ही हम बात कर रहे थे कि जब भी फ़िल्मों में किसी पुरुष पर लोरी फ़िल्माने की बात आई, संगीतकार नें ऐसे गायक को चुना जिनकी आवाज़ मखमली हो, कोमल हो। हेमन्त कुमार भी एक ऐसे ही गायक रहे जिनकी आवाज़ गम्भीर होते हुए भी बेहद कोमल और मधुर है। नौशाद साहब नें हेमन्त कुमार को इस लोरी के लिए चुना और उस समय हेमन्त कुमार नवोदुत गायक थे बम्बई में। उन्होंने इसे इतनी ख़ूबसूरती के साथ गाया कि यह एक कालजयी लोरी बन गई है। इस लोरी के बारे में हेमन्त दा नें 'विविध भारती' के सम्भवत: 'जयमाला' कार्यक्रम में कहा था - "जब मैं १९५१ में बम्बई आया, नौशाद साहब उस वक़्त आइडील म्युज़िक डिरेक्टर थे। ऐसा सिन्सियरिटी, साधना देखा नहीं। रिदम के साथ-साथ मेलडी उन्होंने ही शुरु की थी, इसमें कोई शक़ नहीं। उन्होंने मुझे बुलाया और अपनी फ़िल्म 'शबाब' का एक गीत "ओ चंदन का पलना" गाने का ऑफ़र दिया। मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा था कि नौशाद साहब नें मुझे गाने के लिए बुलाया है। राग पीलू पर आधारित यह गाना डुएट भी था और सोलो भी।" जी हाँ, डुएट वर्ज़न में लता जी हेमन्त दा के साथ हैं। लेकिन आज हम हेमन्त दा की एकल आवाज़ में इस लोरी का आनन्द लेने जा रहे हैं। तो प्रस्तुत है "चंदन का पलना, रेशम की डोरी..."।



पहचानें अगला गीत, इस सूत्र के माध्यम से -
संजय ख़ान और साधना अभिनीत एक फ़िल्म की यह लोरी है, पर लोरी इन दोनों में से किसी पर भी फ़िल्माई नहीं गई है। गायक वो हैं जिन्हें अफ़सोस रहा है कि केवल बूढ़े चरित्रों के लिए ही उनकी आवाज़ ज़्यादा ली गई। किस लोरी की हम बात कर रहे हैं?

पिछले अंक में
वाह अमित जी

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, November 7, 2011

सो जा तू मेरे राजदुलारे सो जा...लोरी की जिद करते बच्चे पिता को भी माँ बना छोड़ते हैं



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 782/2011/222

'चंदन का पलना, रेशम की डोरी' - 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में कल से हमने शुरु की है पुरुष गायकों द्वारा गाई हुई फ़िल्मी लोरियों पर आधारित यह लघु शृंखला। लोरी, जिसे अंग्रेज़ी में ललाबाई (lullaby) कहते हैं। आइए इस 'ललाबाई' शब्द के उत्स को समझने की कोशिश करें। सन् १०७२ में टर्कीश लेखक महमूद अल-कशगरी नें अपनी किताब 'दीवानूल-लुगत अल-तुर्क' में टर्कीश लोरियों का उल्लेख किया है जिन्हें 'बालुबालु' कहा जाता है। ऐसी धारणा है कि 'बालुबालु' शब्द 'लिलिथ-बाई' (लिलिथ का अर्थ है अल्विदा) शब्द से आया है, जिसे 'लिलिथ-आबी' भी कहते हैं। जिउविश (Jewish) परम्परा में लिलिथ नाम का एक दानव था जो रात को आकर बच्चों के प्राण ले जाता था। लिलिथ से बच्चों को बचाने के लिए जिउविश लोग अपने घर के दीवार पर ताबीज़ टांग देते थे जिस पर लिखा होता था 'लिलिथ-आबी', यानि 'लिलिथ-बाई', यानि 'लिलिथ-अल्विदा'। इसी से अनुमान लगाया जाता है कि अंग्रेज़ी शब्द 'ललाबाई' भी 'लिलिथ-बाई' से ही आया होगा। और शायद यहीं से 'लोरी' शब्द भी आया होगा। है न दिलचस्प जानकारी! लोरी एक ऐसा गीत है जो यूनिवर्सल है, हर देश में, हर राज्य में, हर प्रान्त में, हर समुदाय में, हर घर में गाई जाती है। भारत के अलग अलग राज्यों में अलग अलग भाषाओं में लोरी का अलग अलग नाम है। असमीया में लोरी को 'निसुकोनी गीत' या 'धाईगीत' कहते हैं तो बंगला में 'घूमपाड़ानी गान' कहा जाता है; गुजराती में 'हल्लार्दु' तो कन्नड़ में 'जोगुला हाडु'; मराठी में 'अंगाई' और सिंधी में 'लोली' कहते हैं। दक्षिण भारत में मलयालम में 'थराट्टु पट्टू', तमिल में 'थालाट्टू' और तेलुगू में लोरी को 'लली पाटलू' कहा जाता है। दोस्तों, इन प्रादेशिक शब्दों को लिखने में अगर ग़लतियाँ हुईं हों तो क्षमा चाहूँगा।

और अब आज की लोरी। दोस्तों, यूं तो लोरी महिलाएँ गाती हैं, पर अगर पुरुषों से लोरियाँ गवाना हो तो इस बात का ज़रूर ध्यान रखा जाता है कि वह सुनने में कोमल, मुलायम लगे, सूदिंग लगे, जिससे बच्चा सो जाये। हर गायक की आवाज़ में लोरी सफल नहीं हो सकती। इसलिए फ़िल्मी संगीतकारों नें इस बात का ध्यान रखा है कि लोरियों के लिए ऐसे गायकों को चुना जाये जिनकी आवाज़ या तो मखमली हो या फिर वो ऐसे अंदाज़ में गायें कि सुनने में मुलायम लगे। आज हम जिस लोरी को सुनने जा रहे हैं उसे गाया है मखमली आवाज़ वाले तलत महमूद साहब नें। यह है १९५५ की फ़िल्म 'जवाब' की लोरी "सो जा तू मेरे राजदुलारे सो जा, चमके तेरी किस्मत के सितारे राजदुलारे सो जा"। गीतकार ख़ुमार बाराबंकवी की लिखी लोरी, जिसे स्वरबद्ध किया कमचर्चित संगीतकार नाशाद नें। 'इस्माइल फ़िल्म्स' के बैनर तले इस्माइल मेमन नें इस फ़िल्म का निर्माण व निर्देशन किया था और मुख्य भूमिकाओं में थे नासिर ख़ान, गीता बाली, जॉनी वाकर, मुकरी, अचला सचदेव, अशरफ़ ख़ान और बलराज साहनी। प्रस्तुत लोरी बलराज साहनी पर फ़िल्माया गई है। लोरी के शुरु होने से पहले बच्चा ज़िद करता है लोरी के लिए तो बलराज साहनी कहते हैं - "तू जीता मैं हारा, तू मुझे माँ बनाके ही छोड़ेगा"। तो आइए तलत साहब की मख़मली आवाज़ में सुनते हैं यह ख़ूबसूरत लोरी, पर ध्यान रहे, सो मत जाइएगा।



पहचानें अगला गीत, इस सूत्र के माध्यम से -
भारत भूषण गायक बने राजमहल में लोरी सुना रहे हैं रानी की भूमिका में नूतन को सुलाने के लिए और सखियाँ और राजा दूर से चोरी-चोरी नज़ारा देख रहे हैं। किस गायक की आवाज़ में है यह लोरी?

पिछले अंक में

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


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Sunday, November 6, 2011

धीरे से आजा री अँखियन में...सी रामचंद्र रचित एक कालजयी लोरी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 781/2011/221

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी रसिक श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार! दोस्तों, ज़िन्दगी की शायद सबसे आनन्ददायक अनुभूति होती है माँ-बाप बनना। यह एक ऐसी ख़ुशी है जिसका शब्दों में बयान नहीं हो सकती। ईश्वर की परम कृपा से मुझे भी पिछले दिनों पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उस नन्हे के आने से जैसे ज़िन्दगी की धारा ही बदल गई। रात-रात जाग कर बच्चे को सुलाना कुछ और ही आनन्द प्रदान करती है। पुराने ज़माने में मायें लोरियाँ गा कर अपने बच्चों को सुलाती थीं, पर अब यह प्रथा केवल माओं तक सीमित नहीं रही। पिता भी समान रूप से घर के काम-काज में योगदान देते हुए बच्चों को सुलाने तक में अपना योगदान देते हैं। दोस्तों, अब तक लोरियों की तरफ़ मेरा ज़्यादा ध्यान नहीं जाता था, पर अब तो जैसे रातों को लोरियाँ याद कर कर गाने को जी चाहता है। इसी से मुझे ख़याल आया कि क्यों न 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में एक ऐसी शृंखला चलाई जाए जिसमें पुरुष गायकों द्वारा गाई हुई लोरियों को शामिल किए जाएँ। गायिकाओं द्वारा गाई लोरियों की तो फ़िल्मों में कोई कमी नहीं है, पर गायकों की लोरियाँ फ़िल्मों में बहुत ज़्यादा सुनने को नहीं मिला। तो आइए आज से प्रस्तुत है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी'। इस शृंखला में दस अलग अलग गायकों की आवाज़ों में आप सुनेंगे दस बेहतरीन फ़िल्मी लोरियाँ, जिन्हें सुनते हुए आप के अन्दर भी वात्सल्य रस का संचार होने लगेगा।

फ़िल्मों में पुरुष लोरियों की बात करें तो सबसे पुरानी और सुपरहिट लोरी जो याद आ रही है, वह है कुंदनलाल सहगल की गाई १९४० की फ़िल्म 'ज़िन्दगी' की लोरी "सो जा राजकुमारी सो जा, सो जा मैं बलिहारी सो जा"। सहगल साहब की मख़मली आवाज़ में इस लोरी की कुछ और ही अलग जगह है। इसके बाद १९४३ में अनिल बिस्वास के संगीत में अशोक कुमार नें फ़िल्म 'किस्मत' में गाई थी एक और कामयाब लोरी "धीरे धीरे आ रे बादल धीरे धीरे आ, मेरा बुलबुल सो रहा है, शोरगुल न मचा"। ये दोनों ही लोरियाँ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हम बजा चुके हैं। इसलिए हम सीधे आ जाते हैं ५० के दशक में। 'चंदन का पलना, रेशम की डोरी' की पहली कड़ी में प्रस्तुत है चितलकर की आवाज़ में १९५१ की फ़िल्म 'अलबेला' की लोरी "धीरे से आजा री अँखियन में निन्दिया आजा री आजा, धीरे से आजा"। राजेन्द्र कृष्ण का लिखा गीत है और सी. रामचन्द्र का संगीत। इस लोरी के फ़िल्म में दो संस्करण हैं, एक लता जी की एकल आवाज़ में, और दूसरा एक डुएट था चितलकर और लता के युगल स्वरों में। रहमान और गीता बाली पर फ़िल्माई इस युगल लोरी का फ़िल्मांकन अलग हट के है। एक तरफ़ रहमान और गीता बाली कार में जाते हुए रहमान यह लोरी गाते हैं ख़ुश-मिज़ाज में और गीता बाली सुनते हुए सो जाती हैं। गीत के मध्य भाग में दूसरी तरफ़ बिमला कुमारी अपने पिता के साथ दिखती हैं दर्द भरे अंदाज़ में इस लोरी को गाती हुईं। इस तरह से एक ही लोरी में चितलकर ख़ुशी-ख़ुशी इसे गाते हैं जबकि लता जी वाला हिस्सा दर्दीला है। बहुत ही मशहूर लोरी है और सी. रामचन्द्र नें राग पीलू और दादरा ताल में कितना मीठा इसे कम्पोज़ किया है, आइए सुनते हैं इस कालजयी लोरी को।



अगला गीत पहचानें, हिंट ये है
तलत महमूद की मखमली आवाज़ में यह लोरी सज रही है उस अभिनेता पर जिन पर मन्ना डे की गाई हुई एक अन्य लोरी भी फ़िल्माई गई है। बताइए तलत महमूद की गाई यह कौन सी लोरी है?

पिछले अंक में

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


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Saturday, November 5, 2011

मौसिकी अर्श के आफताब : उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ



सुर संगम- 42 – उन्हे मैसूर दरबार से “आफताब-ए-मौसिकी” (संगीत के सूर्य) की उपाधि से नवाजा गया


भारतीय संगीत के प्रचलित घरानों में जब भी आगरा घराने की चर्चा होगी तत्काल एक नाम जो हमारे सामने आता है, वह है- आफताब-ए-मौसिकी उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ। ‘सुर संगम’ के आज के अंक में हम इन्हीं महान गायक कलासाधक को श्रद्धा-सुमन अर्पित करेंगे। पिछली शताब्दी के पूर्वार्द्ध के जिन संगीतज्ञों की गणना हम शिखर-पुरुष के रूप में करते हैं उस्ताद फ़ैयाज़ खान उन्ही में से एक थे। ध्रुवपद-धमार, खयाल-तराना, ठुमरी-दादरा, सभी शैलियों की गायकी पर उन्हें कुशलता प्राप्त थी। प्रकृति ने उन्हें घन, मन्द्र और गम्भीर कण्ठ का उपहार तो दिया ही था, उनके शहद से मधुर स्वर श्रोताओं पर रस-वर्षा कर देते थे।

फ़ैयाज़ खाँ का जन्म ‘आगरा रँगीले घराना’ के नाम से विख्यात ध्रुवपद गायकों के परिवार में हुआ था। दुर्भाग्य से फ़ैयाज़ खाँ के जन्म से लगभग तीन मास पूर्व ही उनके पिता सफदर हुसैन खाँ का इन्तकाल हो गया। जन्म से ही पितृ-विहीन बालक को उनके नाना ग़ुलाम अब्बास खाँ ने अपना दत्तक पुत्र बनाया और पालन-पोषण के साथ-साथ संगीत-शिक्षा की व्यवस्था भी की। यही बालक आगे चल कर आगरा घराने का प्रतिनिधि बना और भारतीय संगीत के अर्श पर आफताब बन कर चमका। फ़ैयाज़ खाँ की विधिवत संगीत शिक्षा उस्ताद ग़ुलाम अब्बास खाँ से आरम्भ हुई, जो फ़ैयाज़ खाँ के गुरु और नाना तो थे ही, गोद लेने के कारण पिता के पद पर भी प्रतिष्ठित हो चुके थे। फ़ैयाज़ खाँ के पिता का घराना ध्रुपदियों का था, अतः ध्रुवपद अंग की गायकी इन्हें संस्कारगत प्राप्त हुई। आगे चल कर फ़ैयाज़ खाँ ध्रुवपद के ‘नोम-तोम’ के आलाप में इतने दक्ष हो गए थे कि संगीत समारोहों में उनके समृद्ध आलाप की फरमाइश हुआ करती थी। आइए आपको भी उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ के स्वर में राग ‘तिलंग’ में नोम-तोम का आलाप सुनवाते हैं।

उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ : आलाप नोम-तोम – राग तिलंग


फ़ैयाज़ खाँ के नाना का घराना खयाल गायकों का था। नाना ने बचपन से ही कठोर रियाज़ कराया। संगीत के घरानों में संगीत-शिक्षा के लिए एक कठोर व्रत का पालन शिष्य से कराया जाता है, जिसे ‘चिल्ला’ कहा जाता है। इस व्रत के अनुसार शिष्य को निरन्तर बारह वर्षों तक प्रतिदिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक संगीत का अभ्यास करना होता है। प्रशिक्षण की इस अवधि में फ़ैयाज़ खाँ ने स्वर-साधना, ध्रुवपद और होरी गायन का कठिन अभ्यास किया। २५ वर्ष की आयु तक वे लोकप्रिय होने लगे थे। उनकी गायकी पर अपने नाना ग़ुलाम अब्बास खाँ के अतिरिक्त तत्कालीन महान गायक नत्थन खाँ, जयपुर के अब्दुल खाँ और सेनिया घराने के अमीर खाँ का भी प्रभाव था। आइए अब हम आपको उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ के स्वरों में राग ‘भंखार’ में आलाप और तीनताल में एक खयाल सुनवाते हैं, जिसके बोल हैं –“हे करतार...”।

उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ : खयाल - आलाप और बन्दिश – राग भंखार


पिछली शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक के चार दशकों तक उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ देश में आयोजित होने वाले संगीत समारोहों के प्राण हुआ करते थे। संगीत-प्रेमियों को सम्मोहित कर लेने की अद्भुत क्षमता उनकी गायकी में थी। उस दौर में उन्हें जनसामान्य की ओर से ‘महफिल के बादशाह’ के नाम से पुकारा जाता था। १९३० के आसपास उस्ताद ने कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर के निवास स्थान जोरासांकों ठाकुरबाड़ी में आयोजित संगीत समारोह में भाग लिया था। समारोह के दौरान वे रवीन्द्रनाथ ठाकुर से अत्यन्त प्रभावित हुए और उन्हें “हिंदुस्तान का सबसे बड़ा शायर” की उपाधि दे दी। अपने प्रभावशाली संगीत से उन्होने देश के सभी संगीत केन्द्रों में खूब यश अर्जित किया। उनकी ख्याति के कारण बड़ौदा राज-दरबार में संगीतज्ञ के रूप में उनकी नियुक्ति हुई। १९३८ में उन्हे मैसूर दरबार से “आफताब-ए-मौसिकी” (संगीत के सूर्य) की उपाधि से नवाजा गया।

उस्ताद की गायकी में जवारीदार स्वर, राग दरबारी का गान्धार, राग श्री का ऋषभ और अनूठी लयकारी श्रोताओं को सम्मोहित करती थी। बोलतान में गीत की पंक्तियों का चमत्कारिक प्रदर्शन किया करते थे। वे स्वर, भाषा, अर्थ, भाव, लय सभी का भरपूर आनन्द लेकर गाते थे। ध्रुवपद और खयाल गायकी में दक्ष होने के साथ-साथ ठुमरी-दादरा गायन में भी वे अत्यन्त कुशल थे। फ़ैयाज़ खाँ ने कलकत्ता (अब कोलकाता) में भैया गनपत राव और मौजुद्दीन खाँ से ठुमरी-दादरा सुना था और संगीत की इस विधा से अत्यन्त प्रभावित हुए थे। ठुमरी के दोनों दिग्गजों से प्रेरणा पाकर फ़ैयाज़ खाँ ने इस विधा में भी दक्षता प्राप्त की। खाँ साहब ठुमरी और दादरा के बीच उर्दू के शे’र जोड़ कर चार चाँद लगा देते थे। इसके साथ ही टप्पे की तानों को भी वे ठुमरी गाते समय जोड़ लिया करते थे। उनके द्वारा गायी गई उपशास्त्रीय रचनाओं में- “बनाओ बतियाँ चलो काहे को झूठी....”, “पानी भरे री कौन अलबेली...” आदि आज भी संगीत प्रेमियों का बीच लोकप्रिय है। इस आलेख को विराम देने से पहले आइए आपको सुनवाते हैं, उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ के स्वर में राग भैरवी में निबद्ध अत्यन्त लोकप्रिय दादरा। खाँ साहब का निधन ५ नवम्बर, १९५० को हुआ था। कल उनकी ६०वीं पुण्यतिथि थी, इस अवसर पर हम उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ को समस्त संगीत-प्रेमियों की ओर से श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए आज यहीं विराम लेते हैं।

उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ : ठुमरी (दादरा) – राग - भैरवी


और अब बारी है इस कड़ी की पहेली की जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

सुर संगम 43 की पहेली : इस ऑडियो क्लिप को सुन कर संगीत वाद्य को पहचानिए। सही पहचान करने पर आपको मिलेंगे 5 अंक, और यदि आपने राग की पहचान भी कर ली तो आपको मिलेंगे 5 बोनस अंक।


पिछ्ली पहेली का परिणाम : सुर संगम के 40वें अंक में पूछे गए प्रश्न का सही उत्तर और विजेता के नाम की घोषणा पिछले अंक में गायक जगजीत सिंह पर विशेष श्रद्धांजलि अंक के कारण हम नहीं कर सके। 40वें अंक की पहेली की विजेता क्षिति तिवारी हैं, बधाई।

अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। अगले रविवार को हम एक और संगीत-कलासाधक के साथ पुनः उपस्थित होंगे। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तम्भ को और रोचक बना सकते हैं! आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

कुछ एल पी गीतों की क्वालिटी तो आजकल के डिजिटल रेकॉर्डिंग् से भी उत्तम थी -विजय अकेला



ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 66 गीतकार विजय अकेला से बातचीत उन्हीं के द्वारा संकलित गीतकार जाँनिसार अख़्तर के गीतों की किताब 'निगाहों के साये' पर (भाग-२)
भाग ०१ यहाँ पढ़ें

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! 'शनिवार विशेषांक' मे पिछले सप्ताह हम आपकी मुलाकात करवा रहे थे गीतकार विजय अकेला से जिनसे हम उनके द्वारा सम्पादित जाँनिसार अख़्तर साहब के गीतों के संकलन की किताब 'निगाहों के साये' पर चर्चा कर रहे थे। आइए आज बातचीत को आगे बढ़ाते हुए आनन्द लेते हैं इस शृंखला की दूसरी और अन्तिम कड़ी।

सुजॉय - विजय जी, नमस्कार और एक बार फिर आपका स्वागत है 'आवाज़' के मंच पर।

विजय अकेला - धन्यवाद! नमस्कार!

सुजॉय - विजय जी, पिछले हफ़्ते आप से बातचीत करने के साथ साथ जाँनिसार साहब के लिखे आपकी पसन्द के तीन गीत भी हमनें सुने। क्यों न आज का यह अंक अख़्तर साहब के लिखे एक और बेमिसाल नग़मे से शुरु की जाये?

विजय अकेला - जी ज़रूर!

सुजॉय - तो फिर बताइए, आपकी पसन्द का ही कोई और गीत।

विजय अकेला - फ़िल्म 'नूरी' का शीर्षक गीत सुनवा दीजिए। ख़य्याम साहब की तर्ज़, लता जी और नितिन मुकेश की आवाज़ें।

गीत - आजा रे आजा रे ओ मेरे दिलबर आजा (नूरी)


सुजॉय - विजय जी, पिछले हफ़्ते हमारी बातचीत आकर रुकी थी इस बात पर कि जाँनिसार साहब के गीतों के ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड्स तो आपको मिल गए, पर समस्या यह आन पड़ी कि इन्हें सूना कहाँ जाये क्योंकि ग्रामोफ़ोन प्लेयर तो आजकल मिलते नहीं हैं। तो किस तरह से समस्या का समाधान हुआ?

विजय अकेला - जी, ये रेकॉर्ड्स सुनना बहुत ज़रूरी था क्योंकि गानों को करेक्टली और शुद्धता के साथ छापना भी तो इस किताब को छापने की एक अहम वजह थी बिना किसी ग़लती के!

सुजॉय - बिल्कुल! ऑथेन्टिसिटी बहुत ज़रूरी है।

विजय अकेला - जी!

सुजॉय - तो फिर रेकॉर्ड प्लेयर का इंतज़ाम हुआ?

विजय अकेला - प्लेयर का इंतज़ाम करना ही पड़ा। महंगी क़ीमत देनी पड़ी।

सुजॉय - महंगी क़ीमत देनी पड़ी, मतलब ऐन्टिक की दुकान में मिली?

विजय अकेला - जी, ठीक समझे आप। मगर एक एक लफ़्ज़ को सौ सौ बार सुन कर पर्फ़ेक्ट होने के बाद ही किताब में लिखा।

सुजॉय - जी जी, क्योंकि ऑडियो क्वालिटी अच्छी नहीं होगी।
विजय अकेला - बिल्कुल सही। पर हमेशा नहीं, कुछ गीतों की क्वालिटी तो आजकल के डिजिटल रेकॉर्डिंग् से भी उत्तम थी।

सुजॉय - सही है! क्या है कि उन गीतों में गोलाई होती थी, आजकल के गीतों में शार्पनेस है पर राउण्डनेस ग़ायब हो गई है, इसलिए ज़्यादा तकनीकी लगते हैं और जज़्बाती कम। ख़ैर, विजय जी, यहाँ पर जाँनिसार साहब के लिखे एक और गीत की गुंजाइश बनती है। बताइए कौन सा गीत सुनवाया जाये?

विजय अकेला - "आँखों ही आँखों में इशारा हो गया", फ़िल्म 'सी.आई.डी' का गीत है।

सुजॉय - नय्यर साहब के संगीत में रफ़ी साहब और गीता दत्त की आवाज़ें।

गीत - आँखों ही आँखों में इशारा हो गया (सी.आई.डी)


सुजॉय - विजय जी, 'निगाहों के साये' किताब का विमोचन कहाँ और किनके हाथों हुआ?

विजय अकेला - जुहू के 'क्रॉसरोड' में गुलज़ार साहब के हाथों हुआ। जावेद अख़्तर साहब और ख़य्याम साहब भी वहाँ मौजूद थे।

सुजॉय - विजय जी, हम अपने पाठकों के लिए यहाँ पर पेश करना चाहेंगे वो शब्द जो गुलज़ार साहब और जावेद साहब नें आपके और आपके इस किताब के बारे में कहे हैं।

विजय अकेला - जी ज़रूर!

गुलज़ार - मुझे ख़ुशी इस बात की है कि यह रवायत अकेला नें बड़ी ख़ूबसूरत शुरु की है ताकि उन शायरों को, जिनके पीछे काम करने वाला कोई नहीं था, या जिनका लोगों नें नेग्लेक्ट किया, या जिनपे राइटर्स ऐसोसिएशन काम करती या ऐसी कोई ऑरगेनाइज़ेशन काम करती, उन शायरों के कलाम को सम्भालने का एक सिलसिला शुरु किया, वरना फ़िल्मों में लिखा हुआ कलाम या फ़िल्मों में लिखी शायरी को ऐसा ही ग्रेड दिया जाता था कि जैसे ये किताबों के क़ाबिल नहीं है, ये तो सिर्फ़ फ़िल्मों में है, बाक़ी आपकी शायरी कहाँ है? ये हमेशा शायरों से पूछा जाता था। यह एक बड़ा ख़ूबसूरत क़दम अकेला नें उठाया है कि जिससे वो शायरी, जो कि वाक़ई अच्छी शायरी है, जो कभी ग़र्द के नीचे दब जाती या रह जाती, उसका एक सिलसिला शुरु हुआ है और उसका आग़ाज़ उन्होंने जाँनिसार अख़्तर साहब से, और बक्शी साहब से किया है, और भी कई शायर जिनका नाम उन्होंने लिया, जैसे राजेन्द्र कृष्ण है, और भी बहुत से हैं, ताकि उनका काम सम्भाला जा सके।


जावेद अख़्तर - सबसे पहले तो मैं विजय अकेला का ज़िक्र करना चाहूँगा, जिन्होंने इससे पहले ऐसे ही बक्शी साहब के गीतों को जमा करके एक किताब छापी थी और अब जाँनिसार अख़्तर साहब के १५१ गीत उन्होंने जमा किए हैं और उसे किताब की शक्ल में 'राजकमल' नें छापा है। ये बहुत अच्छा काम कर रहे हैं और हमारे जो पुराने गीत हैं और मैं उम्मीद करता हूँ कि इसके बाद जो दूसरे शायर हैं, राजेन्द्र कृष्ण हैं, राजा मेहन्दी अली हैं, शैलेन्द्र जी हैं, मजरूह साहब हैं, इनकी रचनाओं को भी वो संकलित करने का इरादा करेगें


सुजॉय - विजय जी, गुलज़ार साहब और जावेद साहब के विचार तो हमने जाने, और यह भी पता चला कि आगे आप किन गीतकारों पर काम करना चाहते हैं। फ़िल्हाल जाँनिसार साहब का लिखा कौन सा गीत सुनवाना चाहेंगे?


विजय अकेला - 'रज़िया सुल्तान' का "ऐ दिल-ए-नादान"

गीत - ऐ दिल-ए-नादान (रज़िया सुल्तान)


सुजॉय - विजय जी, बहुत अच्छा लगा आपसे बातचीत कर, आपकी इस किताब के लिए और इस साहसी प्रयास के लिए हम आपको बधाई देते हैं, पर एक शिकायत है आपसे।

विजय अकेला - वह क्या?

सुजॉय - आप फ़िल्मों में बहुत कम गीत लिखते हैं, ऐसा क्यों?

विजय अकेला - अब ज़्यादा लिखूंगा। सुजॉय - हा हा, चलिए इसी उम्मीद के साथ आज आपसे विदा लेते हैं, बहुत बहुत धन्यवाद और शुभकामनाएँ।

विजय अकेला - शुक्रिया बहुत बहुत!

तो ये थी बातचीत गीतकार विजय अकेला से उनके द्वारा सम्पादित जाँनिसार अख़्तर के गीतों के संकलन की किताब 'निगाहों के साये' पर। अगले सप्ताह फिर किसी विशेष प्रस्तुति के साथ उपस्थित होंगे, तब तक के लिए अनुमति दीजिये, पर आप बने रहिये 'आवाज़' के साथ! नमस्कार!

Friday, November 4, 2011

गिरिजेश राव की कहानी "श्राप"



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने प्रेमचंद की संस्मरणात्मक कहानी "निर्वासन" का पॉडकास्ट अर्चना चावजी और अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं गिरिजेश राव की कहानी "श्राप", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "श्राप" का कुल प्रसारण समय 8 मिनट 2 सेकंड है।

सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट एक आलसी का चिठ्ठा पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

"पास बैठो कि मेरी बकबक में नायाब बातें होती हैं। तफसील पूछोगे तो कह दूँगा,मुझे कुछ नहीं पता "
~ गिरिजेश राव

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

"आज की रात चाँद कौन सी कला में था? था भी या रोते भांजे को बहलाने किसी और लोक की वासी बहन के घर गया था?"
(गिरिजेश राव की कहानी 'श्राप' से एक अंश)

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यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#151st Story, Shraap: Girijesh Rao/Hindi Audio Book/2011/32. Voice: Anurag Sharma

Thursday, November 3, 2011

कहाँ तुम चले गए ...बस यही दोहराते रह गए जगजीत के दीवाने



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 780/2011/220

गजीत सिंह को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'जहाँ तुम चले गए' की अंतिम कड़ी में आप सभी का स्वागत है। दोस्तों, जगजीत सिंह का पंजाबी भाषा और पंजाबी काव्य को लोकप्रिय बनाने और दूर दूर तक फैलाने में भी उल्लेखनीय योगदान रहा है। शिव कुमार बटालवी की कविताओं को जनसाधारण तक पहुँचाने में उनका ऐल्बम 'बिरहा दा सुल्तान' उल्लेखनीय है। "माय नी माय मैं इक शिकरा यार बनाइया", "रोग बन के रह गिया है पियार तेरे शहर दा", "यारियां राब करके मैनुं पाएं बिरहन दे पीड़े वे", "एह मेरा गीत किसी नी गाना" इसी ऐल्बम के कुछ लोकप्रिय गीत हैं। १० मई २००७ को संसद के युग्म अधिवेषन में ऐतिहासिक केन्द्रीय हॉल में जगजीत सिंह नें बहादुर शाह ज़फ़र की ग़ज़ल "लगता नहीं है दिल मेरा" गा कर भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (१८५७) के १५० वर्ष पूर्ति पर आयोजित कार्यक्रम को चार चाँद लगाया। राष्ट्रपति अब्दुल कलाम, प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह, उप-राष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत, लोक-सभा स्पीकर सोमनाथ चटर्जी, और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी वहाँ मौजूद थीं। सन् २००३ में जगजीत सिंह को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।

२००७ के आसपास जगजीत सिंह की सेहत बिगड़ने लगी थी। ब्लड सर्कुलेशन की समस्या के चलते उन्हें २००७ के अक्टूबर में अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था। इससे पहले १९९८ के जनवरी में उन्हें दिल का दौरा पड़ा था जिसके बाद उन्होंने सिगरेट पीना छोड़ दिया था। अभी हाल में ब्रेन हैमरेज से आक्रान्त जगजीत को अस्पताल ले जाया गया, पर वो वापस घर न लौट सके। उनका दिया अंतिम कॉनसर्ट था १६ सितंबर २०११ को नेहरू साइन्स सेन्टर मुंबई में, १७ सितंबर को सिरि फ़ोर्ट ऑडिटोरियम नई दिल्ली में और २० सितंबर को देहरादून के इण्डियन पब्लिक स्कूल में। और फिर ख़ामोश हो गई यह आवाज़ हमेशा हमेशा के लिए। जैसे उन्हीं का गाया गीत साकार हो उठा - "चिट्ठी न कोई संदेस, जाने वो कौन सा देस, जहाँ तुम चले गए"। आइए जगजीत सिंह को समर्पित इस शृंखला का समापन भी हम इसी गीत से करें। उत्तम सिंह के संगीत में यह है गीतकार आनन्द बक्शी की रचना १९९८ की फ़िल्म 'दुश्मन' के लिए। यूं तो यह पुराने फ़िल्म का गीत नहीं है, और इसलिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में शामिल होने के काबिल भी नहीं, पर इसके बोल कुछ ऐसे हैं कि जगजीत जी के जाने की परिस्थिति में बहुत ही ज़्यादा सार्थक बन पड़ा है। आइए इस गीत को सुनें और इस शृंखला को यहीं सम्पन्न करें। पूरे 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से स्वर्गीय जगजीत सिंह को भावभीनी श्रद्धांजली और उनकी पत्नी चित्रा जी के लिए समवेदना और सहानुभूति। अनुमति दीजिए, नमस्कार!



चलिए आज कुछ बातें जगजीत की ही की जाये, हमें बताएं उनके गाये अपने सबसे पसंदीदा ५ गीत...

पिछले अंक में
अनाम बंधू अपना नाम तो बताएं, मेरे ख़याल से तो वो दिल्ली में ही हैं कृपया इन नंबर पर संपर्क करें ९८७३७३४०४६
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, November 2, 2011

ये तेरा घर ये मेरा घर....आम आदमी की संकल्पनाओं को शब्द दिए जावेद अख्तर ने



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 779/2011/219

गजीत सिंह को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'जहाँ तुम चले गए' में एक बार फिर से मैं, सुजॉय चटर्जी, आपका स्वागत करता हूँ। कल की कड़ी में हमनें आपको जगजीत और चित्रा सिंह के कुछ ऐल्बमों के बारे में बताया। उनके बाद जगजीत जी के कई एकल ऐल्बम आये जिनमें शामिल थे Hope, In Search, Insight, Mirage, Visions, कहकशाँ, Love Is Blind, चिराग, और सजदा। मिर्ज़ा ग़ालिब, फ़िराक़ गोरखपुरी, कतील शिफ़ई, शाहीद कबीर, अमीर मीनाई, कफ़ील आज़ेर, सुदर्शन फ़ाकिर, निदा फ़ाज़ली, ज़का सिद्दीक़ी, नाज़िर बकरी, फ़ैज़ रतलामी और राजेश रेड्डी जैसे शायरों के ग़ज़लों को उन्होंने अपनी आवाज़ दी। जगजीत जी के शुरुआती ग़ज़लें जहाँ हल्के-फुल्के और ख़ुशमिज़ाजी हुआ करते थे, बाद के सालों में उन्होंने संजीदे ग़ज़लें ज़्यादा गाई, शायद अपनी ज़िन्दगी के अनुभवों का यह असर था। ऐसे ऐल्बमों में शामिल थे Face To Face, आईना, Cry For Cry. जगजीत जी के ज़्यादातर ऐल्बमों के नाम अंग्रेज़ी होते रहे, और कईयों में उर्दू शब्दों का प्रयोग हुआ जैसे कि 'सजदा', 'सहर', 'मुन्तज़िर', 'मारासिम' और 'सोज़'। इस शृंखला में आप उनके फ़िल्मी गीत तो सुन ही रहे हैं, नए दौर के कई फ़िल्मों में भी उनके गाये गीत और ग़ज़लें रहे, जैसे कि 'दुश्मन', 'सरफ़रोश', 'तुम बिन', 'तरकीब', 'जॉगर्स पार्क', 'लीला' आदि। ग़ज़लों के अलावा जगजीत सिंह नें भजन और गुरुबानी भी बहुत गाये। उनके गाये ऐसे धार्मिक ऐल्बमों में शामिल हैं 'माँ', 'हरे कृष्णा', 'हे राम' हे राम', इच्छाबल', 'मन जीताई जगजीत' (पंजाबी)। इन ऐल्बमों के ज़रिये उन्होंने वो दर्जा हासिल कर लिया जो दर्जा अनुप जलोटा, हरिओम शरण जैसे भजन गायकों का था।

दोस्तों, अब तक इस शृंखला में शामिल आठ गीतों में प्रथम सात गीत ऐसे थे जिनका संगीत जगजीत सिंह नें तैयार किया था। लता मंगेशकर, आशा भोसले, दिलराज कौर, विनोद सहगल, चित्रा सिंह के एक एक गीत के अलावा दो गीत जगजीत सिंह के गाये हुए भी रहे। और आठवाँ गीत एक पारम्परिक ठुमरी थी जिसे जगजीत और चित्रा नें गाई। आज नवी कड़ी में प्रस्तुत है एक बड़ा ही हँस-मुख और ज़िन्दगी से भरपूर डुएट जगजीत सिंह और चित्रा सिंह की ही आवाज़ों में। फ़िल्म 'साथ-साथ' का यह सदाबहार गीत है "ये तेरा घर ये मेरा घर, किसी को देखना हो गर, तो पहले आके माँग ले, मेरी नज़र तेरी नज़र"। इस फ़िल्म में संगीत था कुलदीप सिंह का। जगजीत और चित्रा के गाये तमाम युगल ग़ज़लें तो हैं ही, इस जोड़ी नें कई फ़िल्मी गीत भी साथ में गाये हैं, जिनमें आज का यह गीत सब से ज़्यादा लोकप्रिय रहा और आज भी एवेरग्रीन डुएट्स में शुमार होता है।



चलिए अब खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
आनंद बख्शी का लिखा है ये गीत जगजीत की आवाज़ से महका

पिछले अंक में

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, November 1, 2011

बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए...पारंपरिक बोलों पर जगजीत चित्रा के स्वरों की महक



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 778/2011/218

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों का स्वागत है इस स्तंभ में जारी शृंखला 'जहाँ तुम चले गए' की आठवीं कड़ी में। आपको याद दिला दें कि यह शृंखला समर्पित है ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह को जिनका हाल में निधन हो गया। ७० के दशक में ग़ज़ल गायकी पर जिन कलाकारों का दबदबा था वो थे नूरजहाँ, मल्लिका पुखराज, बेगम अख़्तर, तलत महमूद, और महदी हसन। इन महारथियों के होने के बावजूद जगजीत सिंह नें अपनी पहचान बना ही ली। १९७६ में उनका पहला एल.पी रेकॉर्ड बाज़ार में आया 'The Unforgetables' के शीर्षक से। इस ऐल्बम की ख़ास बात यह थी कि उन दिनों ग़ज़ल गायकी शास्त्रीय संगीत आधारित हुआ करता था, पर जगजीत सिंह नें हल्के-फुल्के अंदाज़ में ग़ज़लों को गाया और बहुत लोकप्रिय हुईं ये ग़ज़लें। ग़ज़ल के रेकॉर्डों की बिक्री के सारे रेकॉर्ड तोड़ दिए उनकी गाई ग़ज़लों नें। १९६७ में जगजीत सिंह की मुलाक़ात चित्रा से हुई थी जो ख़ुद भी एक गायिका थीं। दो साल बाद दोनों नें शादी कर ली और उनकी यह जोड़ी पहली पति-पत्नी की जोड़ी थी जो गायक-गायिका के रूप में साथ में पर्फ़ॉर्म किया करते। ग़ज़ल जगत को समृद्ध करने में जगजीत सिंह और चित्रा सिंह का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इन दोनों नें जिन ऐल्बमों में साथ में गाया है उनमें शामिल हैं 'Ecstasies', 'A Sound Affair', 'Passions', 'Beyond Time'.

२८ जुलाई १९९० को जगजीत-चित्रा का एकलौता बेटा विवेक एक सड़क दुर्घटना में चल बसा। इसके बाद जगजीत और चित्रा का साथ में बस एक ही ऐल्बम आया 'Someone Somewhere' और इसके बाद चित्रा सिंह नें गाना छोड़ दिया। जगजीत सिंह अक्सर "मिट्टी दा बावा" गीत गाया करते थे जो चित्रा नें किसी पंजाबी फ़िल्म में गाया था और यह गीत कहीं न कहीं उन दोनों की ही कहानी बयान करता, जिसमें कहानी थी अपने किसी प्यारे जन को बहुत ही कम उम्र में खोने की। दोस्तों, आज हम जिस गीत को सुनने जा रहे हैं, उसका संगीत जगजीत सिंह नें नहीं बनाई है, बल्कि यह एक पारम्परिक ठुमरी है, जिसे समय समय पर कई कलाकारों नें गाया है। "बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाये", जी हाँ, जगजीत सिंह और चित्रा सिंह नें यह ठुमरी १९७४ की फ़िल्म 'आविष्कार' के लिए गाई थी। बासु भट्टाचार्य निर्देशित इस फ़िल्म में राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर मुख्य कलाकार थे और संगीत था कानु रॉय का। इस ठुमरी को एक पार्श्वसंगीत के रूप में फ़िल्म में ईस्तेमाल किया गया है। राग भैरवी में जगजीत सिंह और चित्रा सिंह की आवाज़ में यह ठुमरी एक अलग ही अहसास कराती है। आइए आनन्द लें।



चलिए अब खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
कुलदीप सिंह के संगीत में जगजीत चित्रा की जोड़ी थी इस युगल गीत में

पिछले अंक में
सही कहा अमित जी वाकई शानदार गाया है :)

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Monday, October 31, 2011

इश्क़ से गहरा कोई न दरिया....सुदर्शन फाकिर और जगजीत का मेल



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 777/2011/217

'जहाँ तुम चले गए' - इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है जगजीत सिंह को श्रद्धांजली स्वरूप यह लघु शृंखला। कल हमारी बात आकर रुकी थी जगजीत जी के नामकरण पर। आइए आज उनके संगीत की कुछ बातें बताई जाएं। बचपन से ही जगजीत का संगीत से नाता रहा है। श्रीगंगानगर में उन्होंने पण्डित शगनलाल शर्मा से दो साल संगीत सीखा, और उसके बाद छह साल शास्त्रीय संगीत के तीन विधा - ख़याल, ठुमरी और ध्रुपद की शिक्षा ग्रहण की। इसमें उनके गुरु थे उस्ताद जमाल ख़ाँ जो सैनिआ घराने से ताल्लुख़ रखते थे। ख़ाँ साहब महदी हसन के दूर के रिश्तेदार भी थे। पंजाब यूनिवर्सिटी और कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी के वाइस चान्सलर स्व: प्रोफ़ सूरज भान नें जगजीत सिंह को संगीत की तरफ़ प्रोत्साहित किया। १९६१ में जगजीत बम्बई आए एक संगीतकार और गायक के रूप में क़िस्मत आज़माने। उस समय एक से एक बड़े संगीतकार और गायक फ़िल्म इंडस्ट्री पर राज कर रहे थे। ऐसे में किसी भी नए गायक को अपनी जगह बनाना आसान काम नहीं था। जगजीत सिंह को भी इन्तज़ार करना पड़ा। वो एक पेयिंग् गेस्ट बन कर रहा करते थे और शुरुआती दिनों में उन्हें विज्ञापनों के लिए जिंगल्स गाने को मिला करते। उन्हें पहली बार निर्माता सुरेश अमीन नें अपनी गुजराती फ़िल्म 'धरती न छोडूं' में बतौर पार्श्वगायक गाने का मौका दिया। ग़ज़लों की दुनिया में उनका किस तरह से पदार्पण हुआ यह हम कल के अंक में आपको बतायेंगे, फ़िलहाल बात करते हैं आज प्रसारित होने वाले गीत की।

आज प्रस्तुत है १९८४ की फ़िल्म 'रावण' से विनोद सहगल का गाया "इश्क़ से गहरा कोई न दरिया"। वैसे तो इस गीत को लिखा है सुदर्शन फ़ाकिर नें, पर गीत की प्रेरणास्रोत है ग़ालिब का मशहूर शेर "ये इश्क़ नहीं आसां, बस इतना समझ लीजिए, एक आग का दरिया है और डूब के जाना है"। गीत शुरु होने से पहले भी अभिनेता विकास आनन्द (जिन पर यह गीत फ़िल्माया गया है) इसी शेर को कहते हैं। बड़ा ही ख़ूबसूरत गीत है - "इश्क़ से गहरा कोई न दरिया, डूब गया जो उसका पता क्या, लैला जाने, मजनूं जाने, हीर यह जाने, रांझा जाने, तू क्या जाने दीवाने ये बातें तू क्या जाने"। जॉनी बक्शी निर्मित व निर्देशित 'रावण' के मुख्य कलाकार थे स्मिता पाटिल, विक्रम, गुलशन अरोड़ा और ओम पुरी। संगीत के लिए जगजीत सिंह और चित्रा सिंह को लिया गया था। इस फ़िल्म के अन्य गीतों में शामिल हैं भूपेन्द्र के गाये "मसीहा" और "ज़िन्दगी मेरी है", चित्रा सिंह की गाई "चुनरिया" और जगजीत सिंह का गाया "अजनबी"। गायक विनोद सहगल के बारे में यह कहना चाहेंगे कि एक अच्छी आवाज़ के होते हुए भी वो पहली श्रेणी के ग़ज़ल गायकों में शामिल नहीं हो सके, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। टेलीफ़िल्म 'मिर्ज़ा ग़ालिब' में उन्होंने दो ग़ज़लें गाईं पर जगजीत सिंह की ग़ज़लों को ही ज़्यादा सुना गया। विनोद सहगल नें जिन फ़िल्मों में गीत गाये हैं, उनमें शामिल हैं 'सरदार करतारा' (१९८०), 'बेज़ुबान' (१९८२), 'लौंग दा लश्कारा' (१९८६), 'राही' (१९८७), 'जग वाला मेला' (१९८८), 'बिल्लू बादशाह' (१९८९), 'यारां नाल बहारां' (१९९१), 'इन्साफ़ का ख़ून' (१९९१), 'शहीद उधम सिंह' (२०००) और 'बदला' (२००३)। इस फ़िल्मोग्राफ़ी से यह पता चलता है कि जगजीत सिंह को जब भी फ़िल्म में संगीत देने का मौका मिला उन्होंने विनोद सहगल को गाने का मौका दिया। तो आइए आज सलाम करें जगजीत सिंह और विनोद सहगल की जोड़ी को।



चलिए अब खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
जगजीत चित्रा की युगल आवाज़ में ये एक पारंपरिक ठुमरी है

पिछले अंक में
वाह क्षिति जी बहुत दिनों बाद आमद हुई...वेल्कम

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Sunday, October 30, 2011

ये जो घर आँगन है...जगजीत व्यावसायिक सिनेमा के दांव पेचों में कुछ मधुरता तलाश लेते थे



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 776/2011/216

मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस नए सप्ताह में आप सभी का एक बार फिर से मैं, सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ स्वागत करता हूँ। इन दिनों इस स्तंभ में जारी है ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह पर केन्द्रित लघु शृंखला 'जहाँ तुम चले गए'। इस शृंखला में हमारी कोशिश यही है कि जगजीत जी की आवाज़ के साथ साथ ज़्यादातर उन फ़िल्मों के गीत शामिल किए जाएँ जिनका संगीत भी उन्होंने ही तैयार किया है। पाँच गीत आपनें सुनें जो लिए गए थे 'अर्थ', 'कानून की आवाज़', 'राही', 'प्रेम गीत' और 'आज' फ़िल्मों से। आज के अंक के लिए हमने जिस गीत को चुना है, वह है फ़िल्म 'बिल्लू बादशाह' का। यह १९८९ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण सुरेश सिंहा नें किया था और निर्देशक थे शिशिर मिश्र। शीर्षक चरित्र में थे गोविंदा, और साथ में थे शत्रुघ्न सिंहा, अनीता राज, नीलम और कादर ख़ान। जगजीत सिंह फ़िल्म के संगीतकार थे और गीत लिखे निदा फ़ाज़ली और मनोज दर्पण नें। इस फ़िल्म में गोविंदा का ही गाया "जवाँ जवाँ" गीत ख़ूब मशहूर हुआ था जो हसन जहांगीर के ग़ैर फ़िल्मी गीत "हवा हवा" की धुन पर ही बना था। पर जो गीत हम आज सुनने जा रहे हैं उसे गाया है दिलराज कौर नें और फ़िल्म में यह गीत फ़िल्माया गया है उस बालकलाकार पर जिन्होंने फ़िल्म में गोविंदा के बचपन की भूमिका निभाई थी। दृश्य में माँ बनी रोहिणी हत्तंगड़ी भी नज़र आती हैं। इसी गीत को सैड वर्ज़न के रूप में जगजीत सिंह नें ख़ुद गाया था और क्या गाया था! इसे उन्होंने अपनी ऐल्बम 'जज़्बा' में भी शामिल किया था।

दोस्तों, क्योंकि आज हम एक ऐसा गीत सुन रहे हैं जिसमें बातें हैं घर-आंगन की, माँ की, छोटे-छोटे भाई-बहनों की, इसलिए आज आपको जगजीत जी के शुरुआती दिनों के बारे में कुछ बताया जाये! जगजीत सिंह का जन्म राजस्थान के श्रीगंगानगर में अमर सिंह धीमान और बचन कौर के घर हुआ। धर्म से सिख और मूलत: पंजाब के रहने वाले अमर सिंह धीमान एक सरकारी कर्मचारी थे। चार बहनों और तीन भाइयों वाले परिवार में जगजीत को घर में जीत कह कर बुलाते थे। जगजीत को पढ़ाई के लिए श्रीगंगानगर के खालसा हाइ स्कूल में भेजा गया और मैट्रिक के बाद वहीं पर 'गवर्णमेण्ट कॉलेज' में साइन्स स्ट्रीम में पढ़ाई की। उसके बाद उन्होंने आर्ट्स में बी.ए. किया जलंधर के डी.ए.वी. कॉलेज से। और उसके बाद हरियाणा के कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से इतिहास में एम.ए. किया। इस तरह से जगजीत सिंह नें अपनी पढ़ाई पूरी की। आपको पता है जगजीत का नाम शुरु शुरु में जगमोहन सिंह रखा गया था। फिर एक दिन वो अपनी बहन से मिलने चुरू ज़िले के सहवा में गए थे जहाँ नामधारी सम्प्रदाय के एक संत नें उनके गाये श्लोकों को सुन कर उनके बहनोई रतन सिंह को यह सुझाव दिया कि इस लड़के का नाम जगजीत कर दिया जाए क्योंकि इसमें क्षमता है अपनी सुनहरी आवाज़ से पूरे जग को जीतने की। बस फिर क्या था, जगमोहन सिंह बन गए जगजीत सिंह, और उन्होंने वाक़ई इस नाम का नाम रखा और उस संत की भविष्यवाणी सच हुई। दोस्तों, जगजीत जी से जुड़ी कुछ और बातें कल की कड़ी में, फिलहाल सुनते हैं दिलराज कौर की आवाज़ में "ये जो घर आंगन है, ऐसा और कहाँ है, फूलों जैसे भाई-बहन हैं, देवी जैसी माँ है"।



चलिए अब खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
विनोद सहगल की आवाज़ में ये गीत है जिसकी शुरुआत "इश्क" शब्द से होता है

पिछले अंक में
अमित जी ये क्या कम है कि आपने गीत पहचान तो लिया

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Saturday, October 29, 2011

नज़रे करम फरमाओ...जगजीत सिंह के बेमिसाल मगर कमचर्चित शास्त्रीय गायन की एक झलक



सुर संगम- 41 – गायक जगजीत सिंह की संगीत-साधना को नमन


‘ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी गीत-संगीत प्रेमियों का, मैं कृष्णमोहन मिश्र आज ‘सुर संगम’ के नए अंक में स्वागत करता हूँ। पिछले दिनों १० अक्तूबर को विख्यात गीत, ग़ज़ल, भजन और लोक संगीत के गायक और साधक जगजीत सिंह के मखमली स्वर मौन हो गए। सुगम संगीत के इन सभी क्षेत्रों में जगजीत सिंह न केवल भारतीय उपमहाद्वीप में बल्कि पूरे विश्व में लोकप्रिय थे। ‘सुर संगम’ के आज के अंक में हम भारतीय संगीत में उनके प्रयोगधर्मी कार्यों पर चर्चा करेंगे।

जगजीत सिंह का जन्म ८ फरवरी, १९४१ को राजस्थान के गंगानगर में हुआ था। पिता सरदार अमर सिंह धमानी सरकारी कर्मचारी थे। जगजीत सिंह का परिवार मूलतः पंजाब के रोपड़ ज़िले के दल्ला गाँव का रहने वाला है। उनकी प्रारम्म्भिक शिक्षा गंगानगर के खालसा स्कूल में हुई और बाद में माध्यमिक शिक्षा के लिए जालन्धर आ गए। डी.ए.वी. कॉलेज से स्नातक की और इसके बाद कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की।

जगजीत सिंह को बचपन मे अपने पिता से संगीत विरासत में मिला था। गंगानगर मे ही पण्डित छगनलाल शर्मा से दो साल तक शास्त्रीय संगीत सीखा। बाद में सेनिया घराने के उस्ताद जमाल खाँ से ख्याल, ठुमरी और ध्रुवपद की बारीकियाँ सीखीं। आगे चल कर उन्होने ग़ज़ल गायकी के क्षेत्र में कुछ नये प्रयोग कर संगीत की इसी विधा में आशातीत सफलता प्राप्त की, परन्तु जब भी उन्हें अवसर मिला, अपनी रागदारी संगीत शिक्षा को अनेक संगीत सभाओं में प्रकट किया। जगजीत सिंह द्वारा प्रस्तुत किये गए अधिकतर ग़ज़लों, गीतों और भजनों में रागों का स्पर्श स्पष्ट परिलक्षित होता है। राग दरबारी और भैरवी उनके प्रिय राग थे। आइए, आपको सुनवाते हैं, जगजीत सिंह द्वारा प्रस्तुत राग भैरवी का तराना, जिसे उन्होने अपनी कई सभाओं में प्रस्तुत किया था।

जगजीत सिंह : तराना : राग – भैरवी : ताल – तीनताल


द्रुत तीनताल में प्रस्तुत इस तराना में जगजीत सिंह की लयकारी का कौशल सराहनीय है। अतिद्रुत लय में तबले के साथ युगलबन्दी का प्रदर्शन कर उन्होने रागदारी संगीत के प्रति अपनी अभिरुचि को प्रकट किया है। जगजीत सिंह १९५५ में मुम्बई आ गए। यहाँ से उनके संघर्ष का दौर आरम्भ हुआ। मुम्बई में रहते हुए विज्ञापनों के लिए जिंगल्स गाकर, वैवाहिक समारोह अथवा अन्य मांगलिक अवसरों पर गीत-ग़ज़लें गाकर अपना गुजर करते रहे। उन दिनों देश के स्वतंत्र होने के बावजूद ग़ज़ल गायकी के क्षेत्र में दरबारी परम्परा कायम थी। संगीत की यह विधा रईसों, जमींदारों और अरबी-फारसी से युक्त क्लिष्ट उर्दू के बुद्धिजीवियों के बीच ही प्रचलित थी। जगजीत सिंह ने ग़ज़ल को इस दरबारी परम्परा से निकाल कर जनसामान्य के बीच लोकप्रिय करने का प्रयत्न किया। कहने की आवश्यकता नहीं कि उन्हें अपने इस प्रयास में आशातीत सफलता मिली।
उस दौर में ग़ज़ल गायकी के क्षेत्र में नूरजहाँ, मलिका पुखराज, बेग़म अख्तर, तलत महमूद और मेंहदी हसन जैसे दिग्गजॉ के प्रयत्नों से ग़ज़ल, अरबी और फारसी के दायरे से निकल कर उर्दू के साथ नये अंदाज़ में सामने आने को बेताब थी। ऐसे में जगजीत सिंह, अपनी रेशमी आवाज़, रागदारी संगीत का प्रारम्भिक प्रशिक्षण तथा संगति वाद्यों में क्रान्तिकारी बदलाव कर इस अभियान के अगुआ बन गए। आइए यहाँ थोड़ा रुक कर जगजीत सिंह के स्वर में सुनते हैं- राग दरबारी, द्रुत एकताल में निबद्ध एक छोटा खयाल।

जगजीत सिंह : खयाल- “नजरे करम फरमाओ...” : राग – दरबारी : ताल – द्रुत एकताल


जगजीत सिंह ने ग़ज़लों को जब सरल और सहज अन्दाज़ में गाना आरम्भ किया तो जनसामान्य की अभिरुचि ग़ज़लों की ओर बढ़ी। उन्होने हुस्न और इश्क़ से युक्त पारम्परिक ग़ज़लों के अलावा साधारण शब्दों में ढली आम आदमी की ज़िंदगी को भी अपने सुरों से सजाया। जैसे- ‘अब मैं राशन की दुकानों पर नज़र आता हूँ..’, ‘मैं रोया परदेश में...’, ‘ये दौलत भी ले लो...’, ‘माँ सुनाओ मुझे वो कहानी...’ जैसी रचनाओं में आम आदमी को अपने जीवन का यथार्थ नज़र आया। पुरानी ग़ज़ल गायकी शैली में केवल सारंगी और तबले की संगति का चलन था, किन्तु जगजीत सिंह ने सारंगी का स्थान पर वायलिन को अपनाया। उन्होने संगति वाद्यों में गिटार और सन्तूर आदि वाद्यों को भी जोड़ा। ग़ज़ल को जनरुचि का हिस्सा बनाने के बाद १९८१ में उन्होने फिल्म ‘प्रेमगीत’ से अपने फिल्मी गायन का सफर शुरू किया। इस फिल्म का गीत-‘होठों से छू लो तुम मेरा गीत अमर कर दो...’ वास्तव में एक अमर गीत सिद्ध हुआ।

१९९० में एक सड़क दुर्घटना में जगजीत सिंह के इकलौते पुत्र विवेक का निधन हो गया। इस रिक्तता की पूर्ति के लिए उन्होने अपनी संगीत-साधना को ही माध्यम बनाया और आध्यात्मिकता की ओर मुड़ गए। इस दौर में उन्होने अनेक भक्त कवियों के पदों सहित गुरुवाणी को अपनी वाणी दी। आइए इस अंक को विराम देने से पहले जगजीत सिंह के स्वरों में उपशास्त्रीय रचनाओं से भी साक्षात्कार कराते हैं। यह हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि भैरवी उनका सर्वप्रिय राग था। आपको सुनवाने के लिए हमने चुना है, जगजीत सिंह की आवाज़ में दो ठुमरी रचनाएँ। एक मंच प्रदर्शन के दौरान उन्होने पहले भैरवी के स्वरों में थोड़ा आलाप किया, फिर बिना ताल के नवाब वाजिद आली शाह की रचना- ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए...’ और फिर तीनताल में निबद्ध पारम्परिक ठुमरी भैरवी- ‘बाजूबन्द खुल-खुल जाए...’ प्रस्तुत किया है। अन्त में उन्होने तीनताल में निबद्ध तराना का एक अंश भी प्रस्तुत किया है। आइए सुनते हैं, जगजीत सिंह की विलक्षण प्रतिभा का एक उदाहरण।

जगजीत सिंह : ठुमरी और तराना : राग – भैरवी


आज के इस अंक को विराम देने से पहले हम “हिंदयुग्म” परिवार और समस्त संगीत-प्रेमियों की ओर से सुगम संगीत के युग-पुरुष जगजीत सिंह को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। अगले रविवार को हम एक और संगीत-कलासाधक के व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा के साथ पुनः उपस्थित होंगे। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तम्भ को और रोचक बना सकते हैं! आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

जाँनिसार अख्तर की पोयट्री में क्लास्सिकल ब्यूटी और मॉडर्ण सेंसब्लिटी का संतुलन था - विजय अकेला की पुस्तक से



ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 65
गीतकार विजय अकेला से बातचीत उन्हीं के द्वारा संकलित गीतकार जाँनिसार अख़्तर के गीतों की किताब 'निगाहों के साये' पर (भाग-१)

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! 'शनिवार विशेषांक' के साथ मैं एक बार फिर हाज़िर हूँ। दोस्तों, आपनें इस दौर के गीतकार विजय अकेला का नाम तो सुना ही होगा। जी हाँ, वो ही विजय अकेला जिन्होंने 'कहो ना प्यार है' फ़िल्म के वो दो सुपर-डुपर हिट गीत लिखे थे, "एक पल का जीना, फिर तो है जाना" और "क्यों चलती है पवन... न तुम जानो न हम"; और फिर फ़िल्म 'क्रिश' का "दिल ना लिया, दिल ना दिया" गीत भी तो उन्होंने ही लिखा था। उन्हीं विजय अकेला नें भले ही फ़िल्मों में ज़्यादा गीत न लिखे हों, पर उन्होंने एक अन्य रूप में भी फ़िल्म-संगीत जगत को अपना अमूल्य योगदान दिया है। गीतकार आनन्द बक्शी के गीतों का संकलन प्रकाशित करने के बाद हाल ही में उन्होंने गीतकार जाँनिसार अख़्तर के गीतों का संकलन प्रकाशित किया है, जिसका शीर्षक है 'निगाहों के साये'। आइए आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हम विजय अकेला जी से बातचीत करें और जानने की कोशिश करें इस पुस्तक के बारे में।

सुजॉय - विजय जी, बहुत बहुत स्वागत है आपका 'आवाज़' के इस मंच पर। मैं सुजॉय चटर्जी, आप का इस मंच पर स्वागत करता हूँ, नमस्कार!

विजय अकेला - नमस्कार सुजॉय जी!

सुजॉय - सबसे पहले मैं आपको बधाई देता हूँ 'निगाहों के साये' के प्रकाशित होने पर। आगे कुछ कहने से पहले मैं आपको यह बता दूँ कि जाँनिसार साहब का लिखा यह जो गीत है न "ये दिल और उनकी निगाहों के साये", यह बचपन से मेरा पसन्दीदा गीत रहा है।

विजय अकेला - जी, बहुत ही सुकून देने वाला गीत है, और संगीत भी उतना सुकूनदायक है इस गीत का।

सुजॉय - क्या इस किताब के लिए यह शीर्षक 'निगाहों के साये' आप ही नें सुझाया था?

विजय अकेला - जी हाँ।

सुजॉय - यही शीर्षक क्यों?

विजय अकेला - क्योंकि यह उनका न केवल एक हिट गीत था, बल्कि कोई भी इस गीत से उन्हें जोड़ सकता था। यही शीर्षक मुझे सब से बेहतर लगा।

सुजॉय - तो चलिए इसी गीत को सुनते हैं, फ़िल्म 'प्रेम पर्बत' का यह गीत है लता जी की आवाज़ में, जयदेव का संगीत है।
गीत - ये दिल और उनकी निगाहों के साये (प्रेम पर्बत)


सुजॉय - अच्छा विजय जी, यह बताइए कि आप नें संकलन के लिए आनन्द बक्शी जी के बाद जाँनिसार साहब को ही क्यों चुना?

विजय अकेला - बक्शी जी ही की तरह जाँनिसार साहब की भी फ़िल्मी गानों की कोई किताब नहीं आई थी। जाँनिसार साहब भी एक ग़ज़ब के शायर हुए हैं और मैं उनसे मुतासिर रहा हूँ, इसलिए मैंने उन्हें चुना। गोल्डन ईरा उनकी वजह से महकी है, रोशन हुई है ऐसा मैं मानता हूँ।

सुजॉय - विजय जी, इससे पहले कि मैं आप से अगला सवाल पूछूँ, मैं अपने पाठकों की जानकारी के लिए यहाँ पर 'निगाहों के साये' किताब की भूमिका में वो शब्द प्रस्तुत करता हूँ जो किसी समाचार पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं इसी किताब के बारे में।

'निगाहों के साये' मशहूर शायर जाँनिसार अख़्तर की फ़िल्मी यात्रा का एक ऐसा संकलन है जिसमें ग़ज़लों की रवानी है तो गीतों की मिठास भी और भावनाओं का समन्दर है तो जलते हुए जज़्बात भी। इसीलिए इस संकलन के फ़्लैप पर निदा फ़ाज़ली नें लिखा है: "जाँनिसार अख़्तर एक बाहेमियन शायर थे। उन्होंने अपनी पोयेट्री में क्लासिकल ब्यूटी और मॉडर्ण सेंसब्लिटी का ऐसा संतुलन किया है कि उनके शब्द ख़ासे रागात्मक हो गए हैं।" १९३५-३६ में ही जाँनिसार अख़्तर तरक्के पसंद आंदोलन का एक हिस्सा बन गए थे। सरदार जाफ़री, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और साहिर लुधियानवी की तरह अख़्तर साहब फ़िल्मी दुनिया के इल्मी शायर थे। विजय अकेला द्वारा संपादित यह संकलन कई अर्थों में विशिष्ट है। २१८ गीतों को तिथिवार सजाया गया है। पहला गीत 'शिकायत' फ़िल्म से है जिसकी रचना १९४८ में हुई थी और अंतिम गीत 'रज़िया सुल्तान' से है जिसे शायर नें १९८३ में रचा था। यानी ३५ वर्षों का इतिहास इस संकलन में है। कई ऐसी फ़िल्मों के नग़में भी इस संग्रह मे हैं जो अप्रदर्शित रहीं जैसे 'हम हैं राही प्यार के', 'मर्डर ऑन हाइवे', 'हमारी कहानी'। यह विजय अकेला का साहसिक प्रयास ही है कि ऐसी दुर्लभ सूचनाएँ इस पुस्तक में पढ़ने को मिलती हैं। इसके साथ डॉ. गोपी चंद नारंग का संस्मरण 'इंकलाबों की घड़ी' है, जावेद अख़्तर के साथ बातचीत के अंश, नैनिताल और भोपाल से जाँनिसार अख़्तर की बेगम सजिया अख़्तर के लिखे दो ख़त, हसन कमाल की बेबाक टिप्पणी, ख़य्याम का भाव से भरा लेख, सपन (जगमोहन) की भावभीनी श्रद्धांजलि आदि इस पुस्तक में दी गई हैं।


सुजॉय - तो दोस्तों, अब आपको अंदाज़ा हो गया होगा कि विजय जी के इस पुस्तक का क्या महत्व है गुज़रे ज़माने के अनमोल नग़मों के शौकीनों के लिए। अच्छा विजय जी, बातचीत को आगे बढ़ाने से पहले क्यों न एक गीत सुन लिया जाये अख़त्र साहब का लिखा हुआ और आपकी पसंद का भी?


विजय अकेला - ज़रूर, 'छू मंतर' का "ग़रीब जान कर मुझको न तुम मिटा देना"

सुजॉय - वाह! "तुम्ही ने दर्द दिया है तुम्ही दवा देना", आइए सुनते हैं रफ़ी साहब की आवाज़ और नय्यर साहब की तर्ज़।

गीत - ग़रीब जान कर मुझको न तुम मिटा देना (छू मंतर)


सुजॉय - विजय जी, आपके इस पुस्तक के बारे में तो हमनें उस समाचार पत्र में छपे लेख से जान लिया, पर यह बताइए कि हर एक गीत के पूरे-पूरे बोल आपनें कैसे प्राप्त किए? किन सूत्रों का आपनें सहारा लिया?

विजय अकेला - CDs तो जाँनिसार साहब की फ़िल्मों के जैसे मार्केट में थे ही नहीं, एक 'रज़िया सुल्तान' का मिला, एक 'नूरी' का, एक 'सी.आई.डी' का, बस, और नहीं।

सुजॉय - जी, तो फिर बाकी आपनें कहाँ ढूंढे?

विजय अकेला - मुझे फ़िल्म-हिस्टोरियन सी. एम. देसाई साहब के पास जाना पड़ा। फिर आकाशवाणी की लाइब्रेरी में जहाँ FM पे मैं जॉकी भी हूँ, और फिर आख़िर में जावेद (अख़्तर) साहब के भाई शाहीद अख़्तर के पास गया जिनको जाँनिसार साहब नें अपने रेकॉर्ड्स, फ़ोटोज़, रफ़ बूक्स वगेरह दे रखी थी, और जिन्होंने उन्हें सम्भाल कर रखा भी था।

सुजॉय - सुनार को ही सोने की पहचान होती है।

विजय अकेला - मगर रेकॉर्ड्स मिलने के बाद प्रोब्लेम यह आई कि इन्हें कहाँ सुनी जाए, कोई रेकॉर्ड-प्लेयर तो है नहीं आज!

सुजॉय - बिल्कुल! पर आपकी यह समस्या का समाधान कैसे हुआ, यह हम जानेंगे अगली कड़ी में। और भी कुछ सवाल आप से पूछने हैं, लेकिन आज बातचीत को यहीं विराम देंगे, लेकिन उससे पहले जाँनिसार साहब का लिखा आपकी पसंद का एक और गीत सुनना चाहेंगे।

विजय अकेला - "मैं तुम्ही से पूछती हूँ मुझे तुमसे प्यार क्यों है"

सुजॉय - बहुत ख़ूब! 'ब्लैक कैट' फ़िल्म का गीत है, एन. दत्ता का संगीत है, लता जी की आवाज़, सुनते हैं।
गीत - मैं तुम्ही से पूछती हूँ मुझे तुमसे प्यार क्यों है (ब्लैक कैट)


तो दोस्तों, यह थी बातचीत गीतकार विजय अकेला से उनके द्वारा संकलित व सम्पादित गीतकार जाँनिसार अख़्तर के गीतों की किताब 'निगाहों के साये' से सम्बंधित। इस बातचीत का दूसरा व अन्तिम भाग आप तक पहुँचाया जायेगा अगले सप्ताह इसी स्तंभ में। आज अनुमति दीजिये, और हमेशा बने रहिए 'आवाज़' के साथ। नमस्कार!

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