रेडियो प्लेबैक वार्षिक टॉप टेन - क्रिसमस और नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित


ComScore
प्लेबैक की टीम और श्रोताओं द्वारा चुने गए वर्ष के टॉप १० गीतों को सुनिए एक के बाद एक. इन गीतों के आलावा भी कुछ गीतों का जिक्र जरूरी है, जो इन टॉप १० गीतों को जबरदस्त टक्कर देने में कामियाब रहे. ये हैं - "धिन का चिका (रेड्डी)", "ऊह ला ला (द डर्टी पिक्चर)", "छम्मक छल्लो (आर ए वन)", "हर घर के कोने में (मेमोरीस इन मार्च)", "चढा दे रंग (यमला पगला दीवाना)", "बोझिल से (आई ऍम)", "लाईफ बहुत सिंपल है (स्टैनले का डब्बा)", और "फकीरा (साउंड ट्रेक)". इन सभी गीतों के रचनाकारों को भी प्लेबैक इंडिया की बधाईयां

Sunday, July 31, 2011

दिन ढल जाए हाय रात न जाए....सरफिरे वक्त को वापस बुलाती रफ़ी साहब की आवाज़



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 711/2011/151

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है आप सभी का इस सुरीले सफ़र में। कृष्णमोहन मिश्र जी द्वारा प्रस्तुत दो बेहद सुंदर शृंखलाओं के बाद मैं, सुजॉय चटर्जी वापस हाज़िर हूँ इस नियमित स्तंभ के साथ। इस स्तंभ की हर लघु शृंखला की तरह आज से शुरु होने वाली शृंखला भी बहुत ख़ास है, और साथ ही अनोखा और ज़रा हटके भी। दोस्तों, आप में से बहुत से श्रोता-पाठकों को मालूम होगा कि 'आवाज़' के मुख्य सम्पादक सजीव सारथी की लिखी कविताओं का पहला संकलन हाल ही में प्रकाशित हुआ है, और इस पुस्तक का शीर्षक है 'एक पल की उम्र लेकर'। जब सजीव जी नें मुझसे अपनी इस पुस्तक के बारे में टिप्पणी चाही, तब मैं ज़रा दुविधा मे पड़ गया क्योंकि कविताओं की समीक्षा करना मेरे बस की बात नहीं। फिर मैंने सोचा कि क्यों न इस पुस्तक में शामिल कुल ११० कविताओं में से दस कविताएँ छाँट कर और उन्हें आधार बनाकर फ़िल्मी गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला पेश करूँ? फ़िल्मी गीत जीवन के किसी भी पहलु से अंजान नहीं रहा है, इसलिए इन १० कविताओं से मिलते जुलते १० गीत चुनना भी बहुत मुश्किल काम नहीं था। तो सजीव जी के मना करने के बावजूद मैं यह क़दम उठा रहा हूँ और उनकी कविताओं पर आधारित प्रस्तुत कर रहा हूँ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'एक पल की उम्र लेकर'।

'एक पल की उम्र लेकर' शृंखला की पहली कड़ी के लिए इस पुस्तक में प्रकाशित जिस कविता को मैंने चुना है, वह है 'सरफ़िरा है वक़्त'। आइए पहले इस कविता को पढ़ें।

उदासी की नर्म दस्तक
होती है दिल पे हर शाम
और ग़म की गहरी परछाइंयाँ
तन्हाइयों का हाथ थामे
चली आती है
किसी की भीगी याद
आंखों में आती है
अश्कों में बिखर जाती है

दर्द की कलियाँ
समेट लेता हूँ मैं
अश्कों के मोती
सहेज के रख लेता हूँ मैं

जाने कब वो लौट आये

वो ठंडी चुभन
वो भीनी ख़ुशबू
अधखुली धुली पलकों का
नर्म नशीला जादू
तसव्वुर की सुर्ख़ किरणें
चन्द लम्हों को जैसे
डूबते हुए सूरज में समा जाती है
शाम के बुझते दीयों में
एक चमक सी उभर आती है

टूटे हुए लम्हें बटोर लेता हूँ मैं
बुझती हुई चमक बचा लेता हूँ मैं

जाने कब वो लौट आये

सरफिरा है वक़्त
कभी-कभी लौट आता है,

दोहराने अपने आप को।


शाम की उदासी, रात की तन्हाइयाँ, अंधेरों में बहती आँसू की नहरें जिन्हें अंधेरे में कोई दूसरा देख नहीं सकता, बस वो ख़ुद बहा लेता है, दिल का बोझ कम कर लेता है। किसी अपने की याद इस हद तक घायल कर देती है कि जीने की जैसे उम्मीद ही खोने लगती है। और फिर कभी अचानक मन में आशा की कोई किरण भी चमक उठती है कि उसकी याद की तरह शायद कभी वो ही लौट आये, क्योंकि वक़्त तो सरफिरा होता है न? कभी कभी दाम्पत्य जीवन में छोटी-छोटी ग़लतफ़हमिओं और अहम की वजह से पति-पत्नी में भी अनबन हो जाती है, रिश्ते में दरार आती है, और कई बार दोनों अलग भी हो जाते हैं। लेकिन कुछ ही समय में होता है पछतावा, अनुताप। और ऐसे में अपने साथी की यादों के सिवा कुछ नहीं होता करीब। ऐसी ही एक सिचुएशन बनी थी फ़िल्म 'गाइड' में। गीतकार शैलेन्द्र की कलम नें देव आनन्द साहब की मनस्थिति को कुछ इन शब्दों में क़ैद किया था - "दिन ढल जाये हाये रात न जाये, तू तो न आये तेरी याद सताये"। सजीव जी की उपर्योक्त कविता में भी मुझे इसी भाव की छाया मिलती है। तो आइए सुना जाये फ़िल्म 'गाइड' का यह सदाबहार गीत रफ़ी साहब की आवाज़ में। आज ३१ जुलाई, रफ़ी साहब की पुण्यतिथि पर 'हिंद-युग्म आवाज़' परिवार की तरफ़ से हम इस गायकों के शहंशाह को देते हैं ये सुरीली श्रद्धांजली।



और अब एक विशेष सूचना:
२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

और अब वक्त है आपके संगीत ज्ञान को परखने की. अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - फिल्म के नायक थे अनिल धवन.
सूत्र २ - आवाज़ है मुकेश की.
सूत्र ३ - पहले अंतरे की दूसरी पंक्ति में शब्द है -"दीवानगी"

अब बताएं -
गीतकार बताएं - ३ अंक
फिल्म का नाम बताएं - २ अंक
संगीतकार बताएं - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी, हिन्दुस्तानी जी और सत्यजीत जी ने शानदार शुरुआत की है, इस बार सत्यजीत जी से खास उम्मीद रहेगी कि वो अमित जी को टक्कर दे सकें

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Saturday, July 30, 2011

"नीक सैयाँ बिन भवनवा नाहीं लागे सखिया..." - रिमझिम फुहारों के बीच श्रृंगार रस में पगी कजरी



सुर संगम - 31 -लोक संगीत शैली "कजरी" (प्रथम भाग)

महिलाओं द्वारा समूह में प्रस्तुत की जाने वाली कजरी को "ढुनमुनियाँ कजरी" कहा जाता है| भारतीय पञ्चांग के अनुसार भाद्रपद मास, कृष्णपक्ष की तृतीया (इस वर्ष 16 अगस्त) को सम्पूर्ण पूर्वांचल में "कजरी तीज" पर्व धूम-धाम से मनाया जाता है|

शास्त्रीय और लोक संगीत के प्रति समर्पित साप्ताहिक स्तम्भ "सुर संगम" के आज के अंक में हम लोक संगीत की मोहक शैली "कजरी" अथवा "कजली" से अपने मंच को सुशोभित करने जा रहे हैं| पावस ने अनादि काल से ही जनजीवन को प्रभावित किया है| लोकगीतों में तो वर्षा-वर्णन अत्यन्त समृद्ध है| हर प्रान्त के लोकगीतों में वर्षा ऋतु को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है| उत्तर प्रदेश के प्रचलित लोकगीतों में ब्रज का मलार, पटका, अवध की सावनी, बुन्देलखण्ड का राछरा, तथा मीरजापुर और वाराणसी की "कजरी"; लोक संगीत के इन सब प्रकारों में वर्षा ऋतु का मोहक चित्रण मिलता है| इन सब लोक शैलियों में "कजरी" ने देश के व्यापक क्षेत्र को प्रभावित किया है| "कजरी" की उत्पत्ति कब और कैसे हुई; यह कहना कठिन है, परन्तु यह तो निश्चित है कि मानव को जब स्वर और शब्द मिले होंगे और जब लोकजीवन को प्रकृति का कोमल स्पर्श मिला होगा, उसी समय से लोकगीत हमारे बीच हैं| प्राचीन काल से ही उत्तर प्रदेश का मीरजापुर जनपद माँ विंध्यवासिनी के शक्तिपीठ के रूप में आस्था का केन्द्र रहा है| अधिसंख्य प्राचीन कजरियों में शक्तिस्वरूपा देवी का ही गुणगान मिलता है| आज "कजरी" के वर्ण्य-विषय काफी विस्तृत हैं, परन्तु "कजरी" गायन का प्रारम्भ देवी गीत से ही होता है|

"कजरी" के वर्ण्य-विषय ने जहाँ एक ओर भोजपुरी के सन्त कवि लक्ष्मीसखी, रसिक किशोरी आदि को प्रभावित किया, वहीं हजरत अमीर खुसरो, बहादुर शाह ज़फर, सुप्रसिद्ध शायर सैयद अली मुहम्मद 'शाद', हिन्दी के कवि अम्बिकादत्त व्यास, श्रीधर पाठक, द्विज बलदेव, बदरीनारायण उपाध्याय 'प्रेमधन' आदि भी "कजरी" के आकर्षण मुक्त न हो पाए| यहाँ तक कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी अनेक कजरियों की रचना कर लोक-विधा से हिन्दी साहित्य को सुसज्जित किया| साहित्य के अलावा इस लोकगीत की शैली ने शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में भी अपनी आमद दर्ज कराई| उन्नीसवीं शताब्दी में उपशास्त्रीय शैली के रूप में ठुमरी की विकास-यात्रा के साथ-साथ कजरी भी इससे जुड़ गई| आज भी शास्त्रीय गायक-वादक, वर्षा ऋतु में अपनी प्रस्तुति का समापन प्रायः "कजरी" से ही करते है| कजरी के उपशास्त्रीय रूप का परिचय देने के लिए हमने अपने समय की सुप्रसिद्ध गायिका रसूलन बाई के स्वरों में एक रसभरी "कजरी" -"तरसत जियरा हमार नैहर में..." का चुनाव किया है| यह लोकगीतकार छबीले की रचना है; जिसे रसूलन बाई ने ठुमरी के अन्दाज में प्रस्तुत किया है| इस "कजरी" की नायिका अपने मायके में ही दिन व्यतीत कर रही है, सावन बीतने ही वाला है और वह विरह-व्यथा से व्याकुल होकर अपने पिया के घर जाने को उतावली हो रही है| लीजिए, आप भी सुनिए यह कजरी गीत -

कजरी -"तरसत जियरा हमार नैहर में..." - गायिका : रसूलन बाई


मूलतः "कजरी" महिलाओं द्वारा गाया जाने वाला लोकगीत है| परिवार में किसी मांगलिक अवसर पर महिलाएँ समूह में कजरी-गायन करतीं हैं| महिलाओं द्वारा समूह में प्रस्तुत की जाने वाली कजरी को "ढुनमुनियाँ कजरी" कहा जाता है| भारतीय पञ्चांग के अनुसार भाद्रपद मास, कृष्णपक्ष की तृतीया (इस वर्ष 16 अगस्त) को सम्पूर्ण पूर्वांचल में "कजरी तीज" पर्व धूम-धाम से मनाया जाता है| इस दिन महिलाएँ व्रत करतीं है, शक्तिस्वरूपा माँ विंध्यवासिनी का पूजन-अर्चन करती हैं और "रतजगा" (रात्रि जागरण) करते हुए समूह बना कर पूरी रात कजरी-गायन करती हैं| ऐसे आयोजन में पुरुषों का प्रवेश वर्जित होता है| यद्यपि पुरुष वर्ग भी कजरी गायन करता है; किन्तु उनके आयोजन अलग होते हैं, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे| "कजरी" के विषय परम्परागत भी होते हैं और अपने समकालीन लोकजीवन का दर्शन कराने वाले भी| अधिकतर कजरियों में श्रृंगार रस (संयोग और वियोग) की प्रधानता होती है| कुछ "कजरी" परम्परागत रूप से शक्तिस्वरूपा माँ विंध्यवासिनी के प्रति समर्पित भाव से गायी जाती है| भाई-बहन के प्रेम विषयक कजरी भी सावन मास में बेहद प्रचलित है| परन्तु अधिकतर "कजरी" ननद-भाभी के सम्बन्धों पर केन्द्रित होती हैं| ननद-भाभी के बीच का सम्बन्ध कभी कटुतापूर्ण होता है तो कभी अत्यन्त मधुर भी होता है| दोनों के बीच ऐसे ही मधुर सम्बन्धों से युक्त एक "कजरी" अब हम आपको सुनवाते हैं, जिसे केवल महिलाओं द्वारा समूह में गायी जाने वाली "कजरी" के रूप प्रस्तुत किया गया है| इस "कजरी" को स्वर दिया है- सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका विदुषी गिरिजा देवी, प्रभा देवी, डाली राहुत और जयता पाण्डेय ने| आप भी सुनिए; यह मोहक कजरी गीत-

समूह कजरी -"घरवा में से निकली ननद भौजाई ..." - गिरिजा देवी, प्रभा देवी, डाली राहुत व जयता पाण्डेय


"कजरी" गीत का एक प्राचीन उदाहरण तेरहवीं शताब्दी का, आज भी न केवल उपलब्ध है, बल्कि गायक कलाकार इस "कजरी" को अपनी प्रस्तुतियों में प्रमुख स्थान देते हैं| यह "कजरी" हजरत अमीर खुसरो की बहुप्रचलित रचना है, जिसकी पंक्तियाँ हैं -"अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया..." | अन्तिम मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फर की एक रचना -"झूला किन डारो रे अमरैयाँ..." भी बेहद प्रचलित है| भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की कई कजरी रचनाओं को विदुषी गिरिजादेवी आज भी गातीं हैं| भारतेन्दु ने ब्रज और भोजपुरी के अलावा संस्कृत में भी कजरी-रचना की है| एक उदाहरण देखें -"वर्षति चपला चारू चमत्कृत सघन सुघन नीरे | गायति निज पद पद्मरेणु रत, कविवर हरिश्चन्द्र धीरे |" लोक संगीत का क्षेत्र बहुत व्यापक होता है| साहित्यकारों द्वारा अपना लिये जाने के कारण कजरी-गायन का क्षेत्र भी अत्यन्त व्यापक हो गया| इसी प्रकार उपशास्त्रीय गायक-गायिकाओं ने भी "कजरी" को अपनाया और इस शैली को रागों का बाना पहना कर क्षेत्रीयता की सीमा से बाहर निकाल कर राष्ट्रीयता का दर्ज़ा प्रदान किया| शास्त्रीय वादक कलाकारों ने "कजरी" को सम्मान के साथ अपने साजों पर स्थान दिया, विशेषतः सुषिर वाद्य के कलाकारों ने| सुषिर वाद्यों; शहनाई, बाँसुरी, क्लेरेनेट आदि पर कजरी की धुनों का वादन अत्यन्त मधुर अनुभूति देता है| "भारतरत्न" सम्मान से अलंकृत उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ की शहनाई पर तो "कजरी" और अधिक मीठी हो जाती थी| यही नहीं मीरजापुर की सुप्रसिद्ध कजरी गायिका उर्मिला श्रीवास्तव आज भी अपने कार्यक्रम में क्लेरेनेट की संगति अवश्य करातीं हैं| आइए अब हम आपको सुषिर वाद्य बाँसुरी पर कजरी धुन सुनवाते हैं, जिसे सुप्रसिद्ध बाँसुरी वादक पण्डित पन्नालाल घोष ने प्रस्तुत किया है-

बाँसुरी पर कजरी धुन : वादक - पन्नालाल घोष


ऋतु प्रधान लोक-गायन की शैली "कजरी" का फिल्मों में भी प्रयोग किया गया है| हिन्दी फिल्मों में "कजरी" का मौलिक रूप कम मिलता है, किन्तु 1963 में प्रदर्शित भोजपुरी फिल्म "बिदेसिया" में इस शैली का अत्यन्त मौलिक रूप प्रयोग किया गया है| इस कजरी गीत की रचना अपने समय के जाने-माने लोकगीतकार राममूर्ति चतुर्वेदी ने और संगीतबद्ध किया है एस.एन. त्रिपाठी ने| यह गीत महिलाओं द्वारा समूह में गायी जाने वाली "ढुनमुनिया कजरी" शैली में मौलिकता को बरक़रार रखते हुए प्रस्तुत किया गया है| इस कजरी गीत को गायिका गीत दत्त और कौमुदी मजुमदार ने अपने स्वरों से फिल्मों में कजरी के प्रयोग को मौलिक स्वरुप दिया है| आप यह मर्मस्पर्शी "कजरी" सुनिए और मैं कृष्णमोहन मिश्र आपसे "कजरी लोक गायन शैली" के प्रथम भाग को यहीं पर विराम देने की अनुमति चाहता हूँ| अगले रविवार को इस श्रृंखला का दूसरा भाग लेकर पुनः उपस्थित रहूँगा|

"नीक सैंयाँ बिन भवनवा नाहीं लागे सखिया..." : फिल्म - बिदेसिया : गीता दत्त, कौमुदी मजुमदार व साथी


और अब बारी है इस कड़ी की पहेली की जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

पहेली: सुर-संगम के २८वें अंक में हमने आपको पंडित गणेश प्रसाद मिश्र की आवाज़ में "टप्पा" सुनाया था| आगामी अंक में हम आपको सुनवाएँगे उनके दादा जी की आवाज़ में कजरी| आपको बताना है उनका नाम|

पिछ्ली पहेली का परिणाम: अमित जी को एक बार फिर से बधाई!!!
अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तंभ को और रोचक बना सकते हैं!आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० बजे कृष्णमोहन जी के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

खोज व आलेख - कृष्णमोहन मिश्र

प्रस्तुति - सुमित चक्रवर्ती


आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

रफ़ी साहब की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजली एक चित्र-प्रदर्शनी के ज़रिये, चित्रकार हैं श्रीमती मधुछंदा चटर्जी



ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 52

ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' में। दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' ७०० अंक पूरे कर चुका है, और अब देखते ही देखते 'शनिवार विशेषांक' भी आज अपना एक साल पूरा कर रहा है। पिछले साल ३१ जुलाई की शाम हमनें इस साप्ताहिक स्तंभ की शुरुआत की थी 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' के रूप में, और उस पहले अंक में हमनें गुड्डो दादी का ईमेल शामिल किया था जो समर्पित था गायिका सुरिंदर कौर को। आज ३० जुलाई 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेषांक' की ५२ वी कड़ी में हम नमन कर रहे हैं गायकी के बादशाह मोहम्मद रफ़ी साहब को, जिनकी कल ३१ जुलाई को पुण्यतिथि है। लेकिन उन्हें श्रद्धांजली अर्पित करने का ज़रिया जो हमने चुना है, वह ज़रा अलग हट के है। हम न उन पर कोई आलेख प्रस्तुत करने जा रहे हैं और न ही उन पर केन्द्रित कोई साक्षात्कार लेकर आये हैं। बल्कि हम प्रस्तुत कर रहे हैं एक चित्र-प्रदर्शनी। यह रफ़ी साहब के चित्रों की प्रदर्शनी ज़रूर है, लेकिन यह प्रदर्शनी खींची हुई तस्वीरों की नहीं है, बल्कि उनके किसी चाहने वाले की चित्रकारी है। रफ़ी साहब के चाहनेवालों की तादाद कम होना तो दूर, दिन ब दिन बढ़ती चली जा रही है। आज हम आपसे मिलवा रहे हैं कोलकाता निवासी श्रीमती मधुछंदा चटर्जी से, जो रफ़ी साहब की गायकी की दीवानी तो हैं ही, वो एक बहुत अच्छी चित्रकार भी हैं, जिन्होंने रफ़ी साहब की बिल्कुल जीवंत स्केचेस बना कर सब को चकित कर दिया है। उनका साक्षात्कार तो हम मधुछंदा जी की व्यक्तिगत कारणों की वजह से नहीं ले सके, पर उन्होंने इस अंक के लिए हमें एक संदेश लिख भेजा है, जिसे हम नीचे पेश कर रहे हैं; पर उससे पहले आइए उनके बनाये रफ़ी साहब के स्केचेस की यह प्रदर्शनी देख लें।

निम्न लिंक पर क्लिक कीजिये और एक अलग विंडो में इन चित्रों को देखिये
चित्र प्रदर्शनी

कहिये यह चित्र-प्रदर्शनी कैसी लगी दोस्तों? अब रफ़ी साहब के लिए मधुछंदा जी के शब्दों की कलाकारी भी आज़मा लीजिये...

बड़े रूप में देखने के लिए चित्र पर क्लिक कीजिये


मधुछंदा जी ने ख़ास 'हिंद-युग्म आवाज़' के पाठकों के लिए जो संदेश लिख भेजा है, आइए अब उसी संदेश को पढ़ा जाये...

"रफ़ी साहब के लिए यही कह सकती हूँ कि वो सब से महान गायक थे, एक बहुत ही सीधे-सच्चे इंसान, बहुत ही नरम दिल, कम बात करने वाले शांत प्रकृति के इंसान। मुझे गर्व है कि मैं उनका फ़ैन हूँ और हमेशा रहूँगी। और उनकी गायकी? हर किसी को पता है कि फ़िल्म-संगीत के तमाम लेजेन्ड्स उन्हें सब से महान गायक मानते हैं। जहाँ तक मेरी चित्रकारी की बात है, मैंने कहीं से सीखा नहीं। यह तो बस मेरा शौक़ है और जब भी कभी समय मिल पाता है, मैं चित्रकारी करती हूँ।"

तो दोस्तों, यह थे मधुछंदा जी का संदेश, और आइए अब आज का यह अंक समाप्त करने से पहले रफ़ी साहब को श्रद्धांजली स्वरूप सुनते हैं मोहम्मद अज़ीज़ का गाया हुआ फ़िल्म 'क्रोध' का गीत "न फ़नकार तुझसा तेरे बाद आया, मुहम्मद रफ़ी तू बहुत याद आया"। 'हिंद-युग्म आवाज़' परिवार की तरफ़ से रफ़ी साहब की पुण्यतिथि की पूर्वसंध्या पर उन्हें श्रद्धा सुमन।

गीत - मुहम्मद रफ़ी तू बहुत याद आया (क्रोध)


और अब एक विशेष सूचना:

२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

Friday, July 29, 2011

अभिषेक ओझा की कहानी "प्रेम गली अति..."



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की कहानी "गुरुर्ब्रह्मा ..." का पॉडकास्ट उन्हीं की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अभिषेक ओझा की कहानी "प्रेम गली अति...", उन्हीं की आवाज़ में।

कहानी "प्रेम गली अति..." का कुल प्रसारण समय 6 मिनट 52 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट ओझा-उवाच पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।


वास्तविकता तो ये है कि किसे फुर्सत है मेरे बारे में सोचने की, लेकिन ये मानव मन भी न!
~ अभिषेक ओझा

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी
"...ठीक ऐसी ही ठंढ थी... उसे गुस्सा आ रहा था। एक तो उसे ठंड पसंद नहीं थी ऊपर से बर्फ... और ये लड़की। "
(अभिषेक ओझा की "प्रेम गली अति..." से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)

यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#138th Story, Prem Gali Ati : Abhishek Ojha/Hindi Audio Book/2011/19. Voice: Abhishek Ojha

Thursday, July 28, 2011

मेघा बरसने लगा है आज की रात...राग "जयन्ती मल्हार" पर आधारित एक आकर्षक गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 710/2011/150

र्षा गीतों पर आधारित श्रृंखला "उमड़ घुमड़ कर आई रे घटा" की समापन कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ| इस श्रृंखला का समापन हम राग "जयन्ती मल्हार" और इस राग पर आधारित एक आकर्षक गीत से करेंगे| परन्तु आज के राग और गीत पर चर्चा करने से पहले संगीत के रागों और फिल्म-संगीत के बारे में एक तथ्य की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना आवश्यक है| शास्त्रीय संगीत में रागानुकुल स्वरों की शुद्धता आवश्यक होती है| परन्तु सुगम और फिल्म संगीत में रागानुकुल स्वरों की शुद्धता पर कड़े प्रतिबन्ध नहीं होते| फिल्मों के संगीतकार का ज्यादा ध्यान फिल्म के प्रसंग और चरित्र की ओर होता है| इस श्रृंखला में प्रस्तुत किये गए दो गीतों को छोड़ कर शेष गीतों में एकाध स्थान पर राग के निर्धारित स्वरों में आंशिक मिलावट की गई है; इसके बावजूद राग का स्पष्ट स्वरुप इन गीतों में नज़र आता है| गीतों को चुनने में यही सावधानी बरती गई है|


आज हमारी चर्चा में राग "जयन्ती मल्हार" है| वर्षा ऋतु में गाये-बजाये जाने वाले रागों में "जयन्ती मल्हार" भी एक प्रमुख राग है| राग के नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि यह "जयजयवन्ती" और "मल्हार" के मेल से बनता है| वैसे राग "जयजयवन्ती" स्वतंत्र रूप से वर्षा ऋतु के परिवेश को रचने में समर्थ है| राग "जयजयवन्ती" की विलम्बित त्रिताल की एक प्रचलित रचना के शब्दों पर ध्यान दीजिए, इससे आपको राग की क्षमता का अनुमान हो जाएगा|

दामिनि दमके, डर मोहे लागे| उमगे दल-बादल श्याम घटा|
लिख भेजो सखि, उस नंदन को, मेरी खोल किताब देखो बिथा|


"जयजयवन्ती" के साथ जब "मल्हार" का मेल हो जाता है, तब इस राग से अनुभूति और अधिक मुखर हो जाती है| राग "जयन्ती मल्हार" के पूर्वांग में "जयजयवन्ती" और उत्तरांग में "मल्हार" की प्रधानता रहती है| इस राग के आरोह-अवरोह में कोमल और शुद्ध, दोनों निषाद का प्रयोग होता है| अवरोह में कोमल और शुद्ध गान्धार का प्रयोग "मल्हार"का गुण प्रदर्शित करता है| "जयजयवन्ती" की तरह "जयन्ती मल्हार" का वादी स्वर ऋषभ और संवादी स्वर पंचम होता है|

आज हम राग "जयन्ती मल्हार" पर आधारित एक प्यारा सा गीत, जिसे हम आपके लिए लेकर आए हैं वह 1976 में प्रदर्शित फिल्म "शक" से लिया गया है| विकास देसाई और अरुणा राजे द्वारा निर्देशित इस फिल्म के संगीत निर्देशक बसन्त देसाई थे| इस श्रृंखला में बसन्त देसाई द्वारा संगीतबद्ध किया यह तीसरा गीत है| श्रृंखला की सातवीं कड़ी में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि वर्षाकालीन रागों पर आधारित सर्वाधिक गीत बसन्त देसाई ने ही संगीतबद्ध किया है| हालाँकि जिस दौर की यह फिल्म है, उस अवधि में बसन्त देसाई का रुझान फिल्म संगीत से हट कर शिक्षण संस्थाओं में संगीत के प्रचार-प्रसार की ओर अधिक हो गया था| फिल्म संगीत का मिजाज़ भी बदल गया था| परन्तु उन्होंने बदले हुए दौर में भी अपने संगीत में रागों का आधार नहीं छोड़ा| फिल्म "शक" बसन्त देसाई की अन्तिम फिल्म साबित हुई| फिल्म के प्रदर्शित होने से पहले एक लिफ्ट दुर्घटना में उनका असामयिक निधन हो गया| फिल्म "शक" का राग "जयन्ती मल्हार" के स्वरों पर आधारित जो गीत हम सुनवाने जा रहे हैं, उसके गीतकार हैं गुलज़ार और इस गीत को स्वर दिया है आशा भोसले ने| आइए सुनते हैं यह रसपूर्ण गीत-



इसी गीत के साथ "ओल्ड इज गोल्ड" की श्रृंखला "उमड़ घुमड़ कर आई रे घटा" को यहीं विराम लेने के लिए कृष्णमोहन मिश्र को अनुमति दीजिए| इस श्रृंखला में जिन वर्षाकालीन रागों को हमने सम्मिलित किया है, उनके परिचय में सहयोग देने के लिए मैं जाने-माने "इसराज" वादक, वैदिककालीन वाद्य "मयूर वीणा" के अन्वेषक-वादक पण्डित श्रीकुमार मिश्र का ह्रदय से आभारी हूँ| आपको यह श्रृंखला कैसी लगी, हमें अवगत अवश्य कराएँ|

क्या आप जानते हैं...
कि संगीतकार बसन्त देसाई ने कई वृत्तचित्रों में भी संगीत दिया था| फारेस्ट जड के चर्चित वृत्तचित्र "मानसून" में मल्हार-प्रेमी बसन्त देसाई ने संगीत देकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त की थी|

आज के अंक से पहली लौट रही है अपने सबसे पुराने रूप में, यानी अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - ये फिल्म एक क्लास्सिक का दर्जा रखती है हिंदी फिल्म इतिहास में.
सूत्र २ - एक मशहूर लेखक की किताब पर आधारित इस फिल्म के इस गीत को स्वर दिया था रफ़ी साहब ने.
सूत्र ३ - इस दर्द भरे गीत का पहला अंतरा शुरू होता है इस शब्द से - "प्यार"

अब बताएं -
गीतकार बताएं - २ अंक
फिल्म के निर्देशक बताएं - ३ अंक
संगीतकार बताएं - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
कड़े मुकाबले में एक बार फिर अमित जी विजयी बनकर निकले हैं, बहुत बधाई, साथ में क्षति जी को भी बधाई जिन्होंने जम कर मुकाबला किया, इस बार की पहेली में भाग लेने के लिए सभी श्रोताओं का आभार, ये अब तक का सबसे रोचक मुकाबला रहा.

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, July 27, 2011

अंग लग जा बालमा..."मेघ मल्हार" के सुरों से वशीभूत नायिका का मनुहार



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 709/2011/149

"ओल्ड इज गोल्ड" पर जारी वर्षाकालीन रागों पर आधारित गीतों की श्रृंखला "उमड़ घुमड़ कर आई रे घटा" की नौवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार फिर उपस्थित हूँ| आज एक बार फिर हम राग "मेघ मल्हार" पर चर्चा करेंगे और उसके बाद इसी राग पर आधारित, श्रृंगार रस से सराबोर संगीतकार शंकर-जयकिशन की एक संगीत रचना का आनन्द लेंगे| श्रृंखला की पहली कड़ी में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि राग "मेघ मल्हार" एक प्राचीन राग है| संगीत शास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों में इस राग को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है| आचार्य लोचन के ग्रन्थ "राग तरंगिणी" में रागों के वर्गीकरण के लिए जिन 12 थाटों का वर्णन है, उनमे एक थाट "मेघ" भी है| प्राचीन राग-रागिनी पद्यति में भी छह मुख्य रागों में "मेघ" भी है| पण्डित विष्णु नारायण भातखंडे द्वारा वर्गीकृत थाट व्यवस्था में यह राग काफी थाट के अन्तर्गत आता है| भातखंडे जी ने "संगीत शास्त्र" के चौथे खण्ड में लिखा है कि राग "मेघ मल्हार" उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में बहुत कम विद्वानों द्वारा प्रयोग किया जाता था, जबकि यह जटिल राग नहीं है| विदुषी शोभा राव ने अपनी पुस्तक "राग निधि" के तीसरे खण्ड में राग "मेघ" और "मेघ मल्हार" को एक ही राग का दो नाम माना है| वर्षाकालीन रागों में यह राग सबसे गम्भीर प्रकृति का होने से विरह-वेदना की अभिव्यक्ति के लिए इस राग के स्वर उपयुक्त होते हैं| कविवर बिहारी ने अपने एक दोहे में राग "मेघ मल्हार" के स्वभाव का बड़ा सटीक चित्रण किया है-

पावक झर तें मेह झर, दाहक दुसह बिसेख,
दहै देह वाके परस, याहि दृगन ही देख |


दोस्तों; बिहारी के इस दोहे की नायिका जिस प्रकार विरह की अग्नि से पीड़ित है, ठीक वैसी ही दशा आज प्रस्तुत किये जाने वाले गीत के नायिका की भी है| आज का गीत हमने 1970 में प्रदर्शित राज कपूर की बेहद महत्वाकांक्षी फिल्म "मेरा नाम जोकर" से लिया है| हसरत जयपुरी के शब्दों और शंकर-जयकिशन द्वारा राग "मेघ मल्हार" के स्वरों का आधार लेकर संगीतबद्ध किये गीत -"कारे कारे बदरा, सुनी सुनी रतियाँ..." को आशा भोसले ने स्वर दिया| सातवें दशक के अन्तिम वर्षों में जब फिल्म "मेरा नाम जोकर" का निर्माण हुआ था, उन दिनों फिल्म संगीत के क्षेत्र में शंकर-जयकिशन यश के शिखर पर थे| फिल्म में उन्होंने एक से एक बढ़ कर सदाबहार गीतों की रचना की थी, इसके बावजूद राज कपूर की यह भव्य परिकल्पना टिकट खिड़की पर असफल ही रही| इस गीत के अलावा फिल्म के अन्य गीतों की रचना भी स्तरीय रही| राग शिवरंजनी पर आधारित -"जाने कहाँ गए वो दिन..." और मन्ना डे की आवाज़ में गाया हुआ गीत -"ऐ भाई जरा देख के चलो..." इस फिल्म के सर्वाधिक लोकप्रिय गीत थे| "जाने कहाँ गए..." गीत के लिए मन्ना डे को पहला फिल्मफेयर पुरस्कार प्राप्त हुआ था| आज प्रस्तुत किये जाने वाले गीत "कारे कारे बदरा..." में वर्षा ऋतु की ध्वनियों का बड़ा प्रभावी प्रयोग किया गया है| आइए हम सब आज इसी रसपूर्ण गीत का आनन्द लेते हैं-
राग मेघ मल्हार : "कारे कारे बदरा सूनी सूनी रतियाँ..." : फिल्म - मेरा नाम जोकर



क्या आप जानते हैं...
कि फिल्म "मेरा नाम जोकर" का यह गीत आर.के. कैम्प की सर्वप्रमुख गायिका लता मंगेशकर को ही गाना था, किन्तु लता जी ने गीत के शब्दों पर आपत्ति की थी| राज कपूर ने गीत या गीत के शब्द तो नहीं बदले, हाँ; पहली बार ("आग" को छोड़ कर) अपनी फिल्म में लता जी की आवाज़ नहीं ली|

आज के अंक से पहली लौट रही है अपने सबसे पुराने रूप में, यानी अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - एक सुरीले संगीतकार (इनके दो गीत पहले ही इस शृंखला में बज चुके हैं)की अंतिम फिल्म थी ये.
सूत्र २ - गायिका आशा जी हैं.
सूत्र ३ - मुखड़े में शब्द है - "रात"

अब बताएं -
गीतकार बताएं - २ अंक
किस राग पर आधारित है ये गीत - ३ अंक
संगीतकार बताएं - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
शृंखला खतम होने की कगार पर है, और अमित जी एक अंक से आगे निकल गए हैं, देखना दिलचस्प होगा कि क्या क्षिति जी इस बार उन्हें मात दे पाती है या नहीं

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, July 26, 2011

छाई बरखा बहार...राग सूर मल्हार के स्वरों का जादू



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 708/2011/148

र्षा ऋतु के रागों पर आधारित गीतों की श्रृंखला "उमड़ घुमड़ कर आई रे घटा" की आठवीं कड़ी में एक बार फिर आपका हार्दिक स्वागत है| दोस्तों; इन दिनों हम प्रकृति के रंग-रस से सराबोर ऐसे गीतों की महफ़िल सजा रहें हैं, जो शब्दों और स्वरों के माध्यम से बाहर हो रही वर्षा के साथ जुगलबन्दी कर रहें हैं| यह पावस के रागों का सामर्थ्य ही है कि इनके गायन-वादन से परिवेश आँखों के सामने उपस्थित हो जाता है| वर्षा ऋतु का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने वाला एक और राग है- "सूर मल्हार"| आज हम आपको इसी राग का संक्षिप्त परिचय कराते हुए राग आधारित गीत भी सुनवाने जा रहें हैं|

यह मान्यता है कि राग "सूर मल्हार" के स्वरों की संरचना भक्त कवि सूरदास ने की थी| इस राग को "सूरदासी मल्हार" भी कहा जाता है| इस राग में सारंग और मल्हार का मेल होता है| काफी थाट के इस राग की गणना मल्हार रागों के अन्तर्गत ही की जाती है| यह औडव-षाडव जाति का राग है, अर्थात आरोह में पाँच और अवरोह में छह स्वरों का प्रयोग होता है| आरोह में शुद्ध गन्धार और शुद्ध धैवत का प्रयोग नहीं होता, किन्तु शुद्ध निषाद का प्रयोग होता है| अवरोह शुद्ध गन्धार रहित होता है, किन्तु कोमल निषाद और धैवत का अल्प प्रयोग किया जाता है| यदि राग "देस" के आरोह-अवरोह से शुद्ध गान्धार हटा दिया जाए तो राग "सूर मल्हार" स्पष्ट परिलक्षित होने लगता है, किन्तु ऐसी स्थिति में वादी-संवादी स्वर षडज-माध्यम के स्थान पर पंचम-ऋषभ हो जाता है|

राग "सूर मल्हार" के अविष्कारक भक्त कवि सूरदास के साहित्य में वात्सल्य के साथ-साथ श्रृंगार रस का अधिकाधिक प्रयोग मिलता है| श्रृंगार के संयोग पक्ष के लिए कृष्ण का अपार सौन्दर्य-युक्त मधुर रूप और रासलीला कारक है; वहीं वियोग पक्ष की अभिव्यक्ति के लिए कृष्ण का गोकुल से मथुरा जाना कारक है| जब गोपियों की आँखों से आँसू-वर्षा हो रही है, तब सूरदास ने मल्हार का सफल प्रयोग किया| नैनों के नीर की उपमा वर्षा ऋतु से कर सूर ने अद्भुत कल्पनाशीलता का परिचय दिया है| सूर-साहित्य से लिए गये ये दो उदाहरण देखें-

सखी इन नैननि तै घन हारे |
बिनहीं रितु बरसत निसि-वासर, सदा मलिन दोउ तारे |

इन नैनन के नीर सखी री, सेज भई घर नाँव,
चाहत हौं ताही पर चढ़ीके हरिजू के ढिंग जाँव|


आइए, अब कुछ चर्चा करते हैं राग "सूर मल्हार" पर आधारित आज के गीत के बारे में| आज का गीत 1969 में प्रदर्शित फिल्म "चिराग" का है| संगीतकार मदनमोहन यूँ तो ग़ज़लों की संगीत रचना में अद्वितीय थे परन्तु उनके संगीतबद्ध राग आधारित गीत भी गुणबत्ता की दृष्टि से अत्यन्त उत्कृष्ट हैं| आरम्भिक वर्षों में मदनमोहन ने राग "भैरवी" पर आधारित कई अच्छे गीतों की रचना की थी| इसके अलावा राग "पीलू" पर आधारित गीत -"मैंने रंग ली आज चुनरिया...", राग "मिश्र खमाज" पर आधारित गीत -"खनक गयो हाय बैरी कंगना...", राग "भीमपलासी" पर आधारित श्रेष्ठतम गीत -"नैनो में बदरा छाए..." आदि कभी न भुलाए जाने वाली रचनाएँ हैं| फिल्म "चिराग" के आज के गीत -"छाई बरखा बहार..." में भी मदनमोहन ने राग "सूर मल्हार" के स्वरों का बेहद आकर्षक प्रयोग किया है| मजरुह सुल्तानपुरी के लिखे, लता मंगेशकर और साथियों द्वारा गाये इस गीत की दो और विशेषताएँ भी हैं| इस गीत में शास्त्रीयता के साथ-साथ लोकरंग की छाया भी मौजूद है| दूसरी विशेषता यह है कि गीत में "कहरवा" ताल का चटक और फैलाव लिये हुए जैसा प्रयोग है वह गीत के श्रोता को थिरकने के लिए विवश कर देने में समर्थ है| यह गीत अभिनेत्री आशा पारेख और लोक नर्तकियों के समूह पर फिल्माया गया है| फिल्म के नायक सुनील दत्त हैं| आप रिमझिम फुहारों के बीच इस गीत का आनन्द लीजिए और आज मुझे यहीं विराम लेने की अनुमति दीजिए|



क्या आप जानते हैं...
कि संगीतकार मदनमोहन को पहला राष्ट्रीय पुरस्कार शास्त्रीय राग आधारित एक गीत पर ही मिला था| 1970 की फिल्म "दस्तक" के राग "चारुकेशी" की ठुमरी -"बैंया ना धरो..." की संगीत रचना के लिए उन्हें यह पुरस्कार प्रदान किया गया था|

आज के अंक से पहली लौट रही है अपने सबसे पुराने रूप में, यानी अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - आशा जी का आग्रहपूर्ण स्वर है गीत में.
सूत्र २ - एक महान निर्देशक की महत्वकांक्षी फिल्म थी ये.
सूत्र ३ - पहला अंतरा शुरू होता है इस शब्द से - "आज"

अब बताएं -
गीतकार बताएं - ३ अंक
किस राग पर आधारित है ये गीत - २ अंक
संगीतकार बताएं - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
हिन्दुस्तानी जी, वैसे तो ये जरूरी नहीं है कि रागों के नाम अमित जी या क्षिति जी को ही पता हों, पर फिर भी खास आपके लिए आज हमने राग के नाम को २ अंकों का प्रश्न बनाया है, गौर कीजिये कि पिछले कई अंकों से अमित जी राग के नाम से बचकर सेफ खेल रहे हैं, दरअसल ये शृंखला कृष्णमोहन जी खास रूप से वर्षा के रागों पर आधारित बनायीं है इसलिए वो अहम प्रश्न बनकर आता है. कल की पहेली में राग को लेकर कुछ शंकाएं थी, जिसे खुद कृष्ण मोहन जी दूर करना चाहते हैं अपने निम्न सन्देश के माध्यम से-
"सजीव जी,
फडके जी की प्रतिक्रिया को पढ़ा. उनके दिये विवरण का खण्डन या समर्थन न करते हुए केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि फिल्म गीतों में राग के स्वरों की शुद्धता कम ही होती है. मैंने अपने आलेख में जो सन्दर्भ सामग्री ली है उन पृष्ठों की jpg copy और उसके लिंक भेज रहा हूँ. श्री एस.एन. टाटा ने राग आधारित फ़िल्मी गीतों पर महत्वपूर्ण शोध किया है. उनके कार्य को देखते हुए उन्हें सरलता से नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता.

Raga-based Hindi Film Songs
http://www.indiapicks.com/SNT_Hindi/P-361.htm
http://www.indiapicks.com/SNT_Hindi/P-362.htm
"
चूँकि गीत का आरंभिक हिस्सा राग मल्हार (मियां की) पर है और मुख्या गाना सुर मल्हार पर, और हो सकता है कि अविनाश जी और सत्येंदर जी ने शुरू के हिस्से को सुनकर अनुमान लगाया हो, हम अविनाश जी और क्षिति जी दोनों को ही पूरे अंक देना चाहेंगें. अमित जी और सत्यजीत जी को भी बधाई.

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, July 25, 2011

झिर झिर बरसे सावनी अँखियाँ...बरसती बौछारों में तन और मन का अंतरद्वंद



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 707/2011/147

पावस ऋतु के रागों पर आधारित फिल्म-गीतों की श्रृंखला "उमड़ घुमड़ का आई रे घटा" की सातवीं कड़ी में सभी संगीतप्रेमी पाठकों-श्रोताओं का एक बार फिर; मैं कृष्णमोहन मिश्र सहर्ष अभिनन्दन करता हूँ| दोस्तों; इस श्रृंखला की तीसरी कड़ी में हमने आपको राग "गौड़ मल्हार" में निबद्ध एक बन्दिश का रसास्वादन कराया था| आज पुनः हम राग "गौड़ मल्हार" की विशेषताओं और प्रवृत्ति पर चर्चा करेंगे और इस राग पर आधारित एक मधुर गीत का रसास्वादन कराएँगे|

तीसरी कड़ी में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि राग "गौड़ मल्हार" की संरचना सारंग और मल्हार अंग के मेल से हुई है| श्रावण (सावन) मास में अचानक आकाश पर बादल छा जाते हैं और मल्हार अंग के स्वाभाव के अनुरूप रिमझिम फुहारें मानव-मन को तृप्त करने में संलग्न हो जातीं हैं| कुछ ही देर में आकाश मेघ रहित हो जाता है और खुला आकाश सारंग अंग के अनुकूल अनुभूति कराने लगता है| अर्थात राग "गौड़ मल्हार" में दोनों प्रवृत्तियाँ मौजूद रहतीं हैं| इस राग के थाट के बारे में विद्वानों के बीच थोड़ा मतभेद है| कुछ विद्वान इसे खमाज थाट का, तो कुछ इसे काफी थाट के अन्तर्गत मानते हैं| इलाहाबाद के वरिष्ठ संगीतज्ञ पण्डित रामाश्रय झा राग "गौड़ मल्हार" को बिलावल थाट के अन्तर्गत मानते हैं| राग का वादी स्वर मध्यम और संवादी स्वर षडज होता है| राग में शुद्ध मध्यम के साथ कोमल निषाद का प्रयोग आनन्ददायक होता है|

इस राग की एक बड़ी प्यारी सी बन्दिश है जिसे कई सुप्रसिद्ध संगीतज्ञों ने तीनताल में निबद्ध कर प्रभावी ढंग से गाया है-
आए बदरा कारे कारे, हमरे कन्त निपट भए बारे,
ऐसे समय परदेश सिधारे |
एक तो मुरला वन में पुकारे, मोहे जरी को अधिक जरावे |
है कोई ऐसो, पियु को मिलावे; उड़जा पंछी, कौन बिसारे |


राग "गौड़ मल्हार" के इस द्रुत ख़याल में जैसा भाव व्यक्त होता है; ठीक वैसा ही भाव 1968 में प्रदर्शित फिल्म "आशीर्वाद" के हिट गीत -"झिर झिर बरसे सावनी अँखियाँ..." में भी उपस्थित है| इस फिल्म के संगीतकार बसन्त देसाई द्वारा राग "वृन्दावनी सारंग" के स्वरों में संगीतबद्ध एक गीत आप इस श्रृंखला की चौथी कड़ी में सुन चुके हैं| इस श्रृंखला के लिए गीतों का चयन करते समय मेरे लिए यह आश्चर्य का विषय रहा है कि वर्षाकालीन रागों पर आधारित फ़िल्मी गीतों में सर्वाधिक संख्या बसन्त देसाई के संगीतबद्ध किये गीतों की है| वह एक ऐसे संगीतकार थे जिन्होंने संगीत की गुणबत्ता से कभी समझौता नहीं किया| सातवाँ दशक फिल्म संगीत के परिवर्तन का दौर था| इस दशक के अन्तिम वर्षों में बसन्त देसाई द्वारा संगीतबद्ध दो फ़िल्में- "रामराज्य" (1967) और "आशीर्वाद" (1968) प्रदर्शित हुई थी| इन दोनों फिल्मों में बसन्त देसाई ने बदलते दौर के बावजूद न तो शास्त्रीय और लोक संगीत का आधार छोड़ा और न वर्षा ऋतु के रागों के प्रति अपने मोह का त्याग कर पाए| फिल्म "रामराज्य" का राग "सूर मल्हार" पर आधारित गीत -"डर लागे चमके बिजुरिया..." तथा फिल्म "आशीर्वाद" का राग "गौड़ मल्हार" पर आधारित गीत -"झिर झिर बरसे सावनी अँखियाँ..." अपने दशक में जितने लोकप्रिय थे उतनी ही ताजगी से भरे आज भी लगते हैं|

आज हम आपको फिल्म "आशीर्वाद" का राग "गौड़ मल्हार" पर आधारित गीत सुनवाएँगे| गीतकार गुलज़ार के शब्द कहरवा ताल में निबद्ध है और इस गीत को लता मंगेशकर ने स्वर दिया है| फिल्म के निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी और संगीतकार बसन्त देसाई ने इस गीत के फिल्मांकन में अनूठा प्रयोग किया था| फिल्म के प्रसंग के अनुसार नायिका सुमिता सान्याल बाहर हो रही बरसात में नायक संजीव कुमार की प्रतीक्षा कर रही है| वह इसी गीत का रिकार्ड सुनना आरम्भ करती है और बीच बीच में कुछ पंक्तियाँ स्वयं भी गाती है| रिकार्ड का पूरा गीत तो लता मंगेशकर की आवाज़ में है ही; नायिका द्वारा दुहराई पंक्तियाँ भी उन्हीं की आवाज़ में है; जिसे मूल गीत के साथ जोड़ा गया है| आइए सुनते हैं, श्रावण मास का यथार्थ चित्र उकेरने वाला यह गीत-



क्या आप जानते हैं...
क्या आप जानते हैं...कि फिल्म "आशीर्वाद" के एक अन्य गीत -"एक था बचपन..." को लता जी ने बसन्त देसाई की इच्छानुसार नहीं गाया| इसके बाद 1971 की फिल्म "गुड्डी" में बिलकुल नई गायिका वाणी जयराम से महत्वाकांक्षी गीत -"बोले रे पपीहरा..." गवा कर बसन्त देसाई ने अपने ढंग से उस घटना का प्रतिवाद किया| कहने की आवश्यकता नहीं कि "गुड्डी" का यह गीत मल्हार अंग के रागों पर आधारित गीतों की सूची में सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित है|

आज के अंक से पहली लौट रही है अपने सबसे पुराने रूप में, यानी अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - फिल्म के नायक है सुनील दत्त.
सूत्र २ - गीत फिल्म की प्रमुख अभिनेत्री और उनकी सहेलियों पर फिल्माया गया है.
सूत्र ३ - आरंभ कोरस से होता है जिसमें शब्द आता है -"अंगना"

अब बताएं -
किस राग पर आधारित है ये गीत - ३ अंक
संगीतकार बताएं - २ अंक
गीतकार कौन हैं - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
क्षिति जी अब एक अंक से ही आगे हैं मात्र, अमित जी बढ़िया खेल रहे हैं...पंकज जी क्या बात है क्या पकड़ा है आपने :)

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, July 24, 2011

नाच मेरे मोर जरा नाच...कम चर्चित संगीतकार शान्ति कुमार देसाई की रचना



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 706/2011/146

"ओल्ड इज गोल्ड" पर जारी श्रृंखला "उमड़ घुमड़ कर आई रे घटा" की छठीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः उपस्थित हूँ| आज हम आपके लिए एक बेहद मधुर राग और उतना ही मधुर गीत लेकर आए हैं| दोस्तों; आज का राग है "मियाँ की मल्हार" | इस राग पर आधारित कुछ चर्चित गीत -"बोले रे पपीहरा..." (फिल्म - गुड्डी) और -"भय भंजना वन्दना सुन हमारी..." (फिल्म - बसन्त बहार) आप "ओल्ड इज गोल्ड" की पूर्व श्रृंखलाओं में सुन चुके हैं| इसी राग पर आधारित एक और सुरीला गीत आज हम आपको सुनवाएँगे, परन्तु उससे पहले थोड़ी चर्चा राग "मियाँ की मल्हार" पर करते हैं|

राग "मियाँ की मल्हार" एक प्राचीन राग है| यह तानसेन के प्रिय रागों में से एक है| कुछ विद्वानों का मत है कि तानसेन ने कोमल गान्धार तथा शुद्ध और कोमल निषाद का प्रयोग कर इस राग का सृजन किया था| यह राग काफी थाट का और षाडव-सम्पूर्ण जाति का राग है| अर्थात; आरोह में छह और अवरोह में सात स्वर प्रयोग किये जाते हैं| आरोह में शुद्ध गान्धार का त्याग, अवरोह में कोमल गान्धार का प्रयोग तथा आरोह-अवरोह दोनों में शुद्ध और कोमल दोनों निषाद का प्रयोग किया जाता है| आरोह में शुद्ध निषाद से पहले कोमल निषाद तथा अवरोह में शुद्ध निषाद के बाद कोमल निषाद का प्रयोग होता है| राग "मियाँ की मल्हार", राग "बहार" के काफी निकट है| इन दोनों रागों को एक के बाद दूसरे का गायन-वादन कठिन होता है, किन्तु उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ ने एक बार ऐसा प्रयोग कर श्रोताओं को चमत्कृत कर दिया था| राग "मियाँ की मल्हार" के स्वरों में प्रकृति के मनमोहक चित्रण की तथा विरह-पीड़ा हर लेने की अद्भुत क्षमता है| महाकवि कालिदास रचित "मेघदूत" के पूर्वमेघ, नौवें श्लोक का काव्यानुवाद करते हुए हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि डा. ब्रजेन्द्र अवस्थी कहते हैं-

गिनती दिन जोहती बार जो व्याकुल अर्पित जीवन सारा लिए
प्रिया को लखोगे घन निश्चय ही गतिमुक्त अबाधित धारा लिए
सुमनों-सा मिला ललनाओं को है मन प्रीतिमरंद जो प्यारा लिए
विरहानल में जल के रहता मिलनाशा का एक सहारा लिए |


वास्तव में पावस के उमड़ते-घुमड़ते मेघ, विरह से व्याकुल नायक- नायिकाओं की विरहाग्नि को शान्त करते हैं और मिलन की आशा जगाते हैं| वर्षा ऋतु के प्राकृतिक सौन्दर्य का चित्रण करने की अद्भुत क्षमता भी राग "मियाँ की मल्हार" के स्वरों में है| इस राग पर आधारित और वर्षाकालीन परिवेश का कल्पनाशील चित्रण करता आज का गीत हमने 1964 में प्रदर्शित फिल्म "तेरे द्वार खड़ा भगवान" से चुना है| इस फिल्म की संगीत रचना शान्ति कुमार देसाई नामक एक ऐसे संगीतकार ने की थी, जिनके बारे में आज की पीढ़ी प्रायः अनजान ही होगी| 1934 में चुन्नीलाल पारिख द्वारा निर्देशित फिल्म "नवभारत" से संगीतकार शान्ति कुमार देसाई का फिल्मों में पदार्पण हुआ था| उनके संगीत निर्देशन में कई देशभक्ति गीत अपने समय में बेहद लोकप्रिय हुए थे| शान्ति कुमार देसाई ने अधिकतर स्टंट और धार्मिक फिल्मों में संगीत रचनाएँ की थी| पाँचवें दशक के अन्तिम वर्षों में नई धारा के वेग में उखड़ जाने वाले संगीतकारों में श्री देसाई भी थे| लगभग एक दशक तक गुमनाम रहने के बाद 1964 में फिल्म "तेरे द्वार खड़ा भगवान" के गीतों में फिर एक बार उनकी प्रतिभा के दर्शन हुए| अभिनेता शाहू मोदक और अभिनेत्री सुलोचना अभिनीत इस फिल्म में शान्ति कुमार देसाई ने राग "मियाँ कि मल्हार" के स्वरों में बेहद कर्णप्रिय गीत -"नाच मेरे मोर जरा नाच..." की संगीत रचना की थी| वर्षाकालीन प्रकृति का मनमोहक चित्रण करते पण्डित मधुर के शब्दों को श्री देसाई ने सहज-सरल धुन में बाँधा था| पूरा गीत दादरा ताल में निबद्ध है; किन्तु अन्त में द्रुत लय के तीनताल का टुकड़ा गीत का मुख्य आकर्षण है| मींड और गमक से परिपूर्ण मन्नाडे के स्वर तथा सितार, ढोलक और बाँसुरी का प्रयोग भी गीत की गुणबत्ता को बढ़ाता है| आइए; सुनते हैं, राग "मियाँ की मल्हार" पर आधारित फिल्म "तेरे द्वार खड़ा भगवान" का यह गीत-



क्या आप जानते हैं...
कि मराठी फिल्म "रायगढ़" (१९४०) में शान्ति कुमार देसाई ने लता मंगेशकर के पिता दीनानाथ मंगेशकर के साथ संगीत निर्देशन किया था|

आज के अंक से पहली लौट रही है अपने सबसे पुराने रूप में, यानी अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - फिल्म के नायक है संजीव कुमार.
सूत्र २ - लता की आवाज़ में है गीत.
सूत्र ३ - मुखड़े में शब्द है -"बसंती".

अब बताएं -
किस राग पर आधारित है ये गीत - ३ अंक
फिल्म की नायिका कौन है - २ अंक
गीतकार कौन हैं - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी, अविनाश जी और हिन्दुस्तानी जी बहुत बधाई

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Saturday, July 23, 2011

सुर संगम में आज - सगीत शिरोमणि कुमार गन्धर्व



सुर संगम - 30 - पंडित कुमार गंधर्व

वे अपने गायन में छोटे-छोटे व सशक्त टुकड़ों व तानों के प्रयोग के लिए जाने जाते थे परंतु कैंसर से जूझने के कारण उनकी गायकी में काफ़ी प्रभाव पड़ा

"मोतिया गुलाबे मरवो... आँगना में आछो सोहायो
गेरा गेराई चमेली... फुलाई सुगंधा मोहायो..."


उपरोक्त पंक्तियाँ हैं एक महान शास्त्रीय गायक की रचना के| एक ऐसा नाम जिसे शास्त्रीय भजन गायन में सर्वोत्तम माना गया है, कुछ लोगों का मानना है कि वे लोक संगीत व भजन के सर्वोत्तम गायक थे तो कुछ का मानना है कि उनकी सबसे बहतरीन रचनाएँ हैं उनके द्वारा रचित राग जिन्हें वे ६ से भी अधिक प्रकार के ले व तानों को मिश्रित कर प्रस्तुत करते थे| मैं बात करा रहा हूँ महान शास्त्रीय संगीतज्ञ पंडित कुमार गंधर्व की जिन्हें इस अंक के माध्यम से सुर-संगम दे रहा है श्रद्धांजलि|

कुमार गंधर्व का जन्म बेलगाम, कर्नाटक के पास 'सुलेभवि' नामक स्थान में ८ अप्रैल १९२४ को हुआ, माता-पिता ने नाम रखा ' शिवपुत्र सिद्दरामय्या कोमकलीमठ'| उन्होंने संगीत की शिक्षा उन दिनों जाने-माने संगीताचार्य प्रो. बी. आर. देवधर से ली| बाल्यकाल से ही संगीत में असाधारण प्रतिभा दिखाने के कारण उन्हें 'कुमार गंधर्व' शीर्षक दिया गया - भारतीय पुराणों में गंधर्व को संगीत का देवता माना गया है| उन्होंने १९४७ में भानुमति कांस से विवाह किया तथा देवास, मध्य प्रदेश चले गये| कुछ समय पश्चात वे बीमार रहने लगे तथा टीबी की चिकित्सा शुरू की गयी| चिकित्सा का कोई असर न होने पर उन्हें पुनः जाँचा गया और उनमें फेफड़े का कैंसर पाया गया| कुमार अपने परिवार के अनुनय पर सर्जरी के लिए मान गये जबकि उन्हें भली-भाँति बता दिया गया था की संभवत: सर्जरी के बाद वे कभी न गा सकेंगे| सर्जरी के बाद उनके एक प्रशंसक उनसे मिलने आए जो एक चिकित्सक भी थे| जाँचने पर उन्होंने पाया कि कुमार के सर्जरी के घाव भर चुके हैं तथा उन्हें गायन प्रारंभ करने की सलाह दी| प्रशंसक डाक्टर की चिकित्सा व आश्वासन तथा पत्नी भानुमति की सेवा से पंडित गंधर्व स्वस्थ हो उठे तथा उन्होंने गायन पुनः प्रारंभ किया| तो ये थी बातें पंडित गंधर्व के व्यक्तिगत जीवन की, उनके बारे में और जानने से पहले लीजिए आपको सुनाते हैं उनके द्वारा प्रस्तुत राग नंद में यह सुंदर बंदिश|

राजन अब तो आजा रे - बंदिश(राग नंद)


स्वस्थ होने के पश्चात कुमारजी ने अपनी पहली प्रस्तुति दी वर्ष १९५३ में| इससे पहले वे अपने गायन में छोटे-छोटे व सशक्त टुकड़ों व तानों के प्रयोग के लिए जाने जाते थे परंतु कैंसर से जूझने के कारण उनकी गायकी में काफ़ी प्रभाव पड़ा, वे उस समय के दिग्गज जैसे पं. भिमसेन जोशी की भाँति उन ऊँचाईयो को तो न छू सके परंतु अपने लिए एक अलग स्थान अवश्य बना पाए| शास्त्रीय गायन के साथ-साथ उन्होंने कई और भी प्रकार के संगीत जैसे निर्गुणी भजन तथा लोक गीतों में अपना कौशल दिखाया जिनमें वे अलग अलग रागों की मिश्रित कर, कभी धीमी तो कभी तीव्र तानों का प्रयोग कर एक अद्भुत सुंदरता ले आते थे| आइए सुनें उनके द्वारा प्रस्तुत ऐसे ही एक निर्गुणी भजन को जिसे उन्होंने गाया है राग भैरवी पर, भजन के बोल हैं - "भोला मन जाने अमर मेरी काया..."|

भोला मन जाने अमर मेरी काया - भजन (राग भैरवी)


पंडित गंधर्व का गायन विवादास्पद भी रहा| विशेष रूप से उनकी विलंबित गायकी की कई दिग्गजों ने, जिनमें उनके गुरु प्रो. देवधर भे शामिल थे, ने निंदा की| १९६१ में उनकी पत्नी भानुमति का निधन हो गया, उनसे कुमार को एक पुत्र हुआ| इसके पश्चात उन्होंने देवधर की ही एक और छात्रा वसुंधरा श्रीखंडे के साथ विवाह किया जिनके साथ आयेज चलकर उन्होंने भजन जोड़ी बनाई| कुमारजी को वर्ष १९९० में पद्म-भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया| दुर्भाग्यपूर्ण, १२ जनवरी ११९२ को ६७ वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया परंतु पंडित जी अपने पीछे छोड़ गये अपनी रचनाओं की एक बहुमूल्य विरासत| आइए उन्हें नमन करते हुए तथा इस अंक को यहीं विराम देते हुए सुने उनके द्वारा गाए इस वर्षा गीत को इस वीडियो के माध्यम से|
वर्षा गीत


और अब बारी है इस कड़ी की पहेली की जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

पहेली: यह पारंपरिक लोक संगीत शैली उत्तर-प्रदेश में वर्षा ऋतु के समय गायी जाती है|

पिछ्ली पहेली का परिणाम: अमित जी को बधाई| क्षिति जी कहाँ ग़ायब हैं???

अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तंभ को और रोचक बना सकते हैं!आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० बजे कृष्णमोहन जी के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

प्रस्तुति - सुमित चक्रवर्ती


आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

OIG - शनिवार विशेष - 51 - किशोर दा के कई गीतों में पिताजी का बड़ा योगदान था



पार्श्वगायिका पूर्णिमा (सुषमा श्रेष्ठ) अपने पिता व विस्मृत संगीतकार भोला श्रेष्ठ को याद करते हुए...

ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' में। दोस्तों, १९३१ से लेकर अब तक फ़िल्म-संगीत संसार में न जाने कितने संगीतकार हुए हैं, जिनमें से बहुत से संगीतकारों को अपार सफलता और शोहरत हासिल हुई, और बहुत से संगीतकार ऐसे भी हुए जिन्हें वो मंज़िल नसीब नहीं हुई जिसकी वो हक़दार थे। कभी छोटी बजट की फ़िल्मों में मौका पाने की वजह से तो कभी स्टण्ट या धार्मिक फ़िल्मों का ठप्पा लगने की वजह से, कभी व्यक्तिगत कारणों से और कभी कभी सिर्फ़ क़िस्मत के खेल की वजह से ये प्रतिभाशाली संगीतकार गुमनामी में रह कर चले गए। पर फ़िल्म-संगीत के धरोहर को अपनी सुरीली धुनों से समृद्ध कर गए। ऐसे ही एक कमचर्चित पर गुणी संगीतकार हुए भोला श्रेष्ठ। आज की पीढ़ी के अधिकतर नौजवानों को शायद यह नाम कभी न सुना हुआ लगे, पर गुज़रे ज़माने के सुरीले संगीत में दिलचस्पी रखने वालों को भोला जी का नाम ज़रूर याद होगा। पर बहुत कम ऐसे लोग होंगे जिन्हें यह पता होगा कि भोला श्रेष्ठ दरअसल पार्श्वगायिका पूर्णिमा (सुषमा श्रेष्ठ) के पिता हैं। पिछले दिनों हमनें सम्पर्क किया पूर्णिमा जी से और उनसे जानना चाहा उनके पिता के बारे में। पूर्णिमा जी नें बहुत ही आग्रह के साथ हमें सहयोग दिया और हमसे बातचीत की। तो आइए, आज के इस विशेषांक में प्रस्तुत है पूर्णिमा जी से की हुई बातचीत।

सुजॉय - पूर्णिमा जी, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है 'हिंद-युग्म' के 'आवाज़' मंच पर।

पूर्णिमा जी - नमस्कार!

सुजॉय - पूर्णिमा जी, आज की पीढ़ी के लोग सुषमा श्रेष्ठ और पूर्णिमा के नामों से तो भली-भाँति वाकिफ़ हैं, पर बहुत ही कम लोग ऐसे होंगे जिन्होंने भोला श्रेष्ठ जी का नाम सुना होगा। इसलिए हम चाहते हैं कि आपके पिता भोला जी के बारे में जानें और अपने पाठकों को भी जानकारी दें।

पूर्णिमा जी - ज़रूर!

सुजॉय - तो बताइए अपने पिता के बारे में। क्या उन्हें संगीत विरासत में मिली थी? कहाँ से ताल्लुख़ रखते थे वो?

पूर्णिमा जी - मेरे पिताजी श्री भोला श्रेष्ठ जी का जन्म १७ जून १९२४ में कोलकाता में हुआ था। उन्होंने अपनी पढ़ाई कोलकाता से ही पूरी की। बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि किसी संगीतमय परिवार से ताल्लुख़ न रखते हुए भी वो एक बहुत अच्छे तबला वादक थे। बनारस घराने के दिग्गज कलाकारों से उन्होंने हिंदुस्तानी परकशन की बारीक़ियों को सीखा। फिर १९४९ में वो मुंबई आए फ़िल्मों में अपनी क़िस्मत आज़माने। मुंबई आकर वो जुड़े 'बॉम्बे टॉकीज़' से और सहायक बनें खेमचंद प्रकाश के। बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि फ़िल्म 'महल' के सदाबहार गीत "आयेगा आनेवाला" में उनका कितना बड़ा योगदान था।

सुजॉय - अच्छा? यह तो वाक़ई ताज्जुब की बात है! उसके बाद जब सहायक से स्वतंत्र संगीतकार बनें, तो बतौर स्वतंत्र संगीतकार उन्होंने अपनी पारी कहाँ से शुरु की थी?

पूर्णिमा जी - उनके संगीत से सजी पहली फ़िल्म थी 'नज़रिया' (१९५२), जिसमें गीत लिखे थे राजकुमार संतोषी के पिता श्री पी. एल. संतोषी जी नें। इसके बाद आई फ़िल्म 'नौ लखा हार' (१९५३), 'ये बस्ती ये लोग' (१९५४), 'आबशार' (१९५४) आदि।

सुजॉय - पूर्णिमा जी, एक पिता के रूप में भोला जी को आपने कैसा पाया?

पूर्णिमा जी - एक पिता के रूप में वो बहुत ही सख़्त अनुशासन-पसंद इंसान थे, पर साथ ही साथ फ़्लेक्सिबल भी थे। वो यह नहीं चाहते थे कि मैं या उनका कोई और संतान किसी तरह के क्रीएटिव आर्ट को अपना प्रोफ़ेशन बनाए। शायद अपनी अनुभूतिओं और दुखद परिस्थितिओं को देखने के बाद उनको ऐसा लगा होगा। पर मैं तब तक अपना करीयर शुरु कर चुकी थी। मैं स्टेज पर गाती थी, पर उन्हें इस बात का पता नहीं था क्योंकि वो हमेशा किशोर कुमार जी के साथ टूर पे रहते थे, और जिनके वो सहायक थे अपने अंतिम दिनों तक। एक दिन मेरी माँ की ज़िद की वजह से उन्होंने मुझे मुंबई के किसी स्टेज शो पर गाते हुए सुना और अपने ख़यालात के सामने वो झुके। इसके बाद मैंने उनसे संगीत सीखना शुरु किया।

सुजॉय - मैंने सुना है कि भोला जी का बहुत कम उम्र में देहान्त हो गया था। आपकी उम्र उस वक़्त क्या होगी?

पूर्णिमा जी - पिताजी अचानक एक दिन दिल का दौरा पड़ने पर चल बसे। उनकी उम्र केवल ४६ वर्ष थी। वह दिन था ११ अप्रैल १९७१, और मैं उस वक़्त ११ साल की थी।

सुजॉय - अपने पिता की विशेषताओं के बारे में कुछ बताइए।

पूर्णिमा जी - पिता जी का दिमाग़ बहुत ही विश्लेषणात्मक था, he had an analytical mind, और उनके सेन्स ऑफ़ ह्युमर के तो क्या कहने थे। पर उन्हें ग़ुस्सा जल्दी आ जाता था, लेकिन बहुत जल्द शांत भी हो जाते थे। उनका दिमाग़ बहुत तेज़ था और हर चीज़ को बारीक़ी से ऑबसर्व करते थे। हालाँकि उन्होंने अपनी औपचारिक शिक्षा पूरी नहीं कर सके, पर उन्होंने ख़ुद ही अपनी शिक्षा पूरी की। He was totally self educated. मैं यह बहुत मानती हूँ कि एक उत्कृष्ट संगीतकार और म्युज़िशियन होने के बावजूद इस फ़िल्म इंडस्ट्री नें उन्हें वो सब कुछ नहीं दिया जिसके वो हक़दार थे। उनकी प्रतिभा का इस बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि किशोर कुमार के स्वरबद्ध कई मशहूर गीतों में उनका बहुत बड़ा योगदान था। "बेकरार दिल तू गायेजा", "पंथी हूँ मैं उस पथ का", "जीवन से ना हार जीने वाले" जैसे गीतों की धुनों में पिता जी का भी बड़ा योगदान था।

सुजॉय - जी, यह मैंने भी कहीं पढ़ा था कि "बेकरार दिल" की धुन भोला जी नें ही बनाई थी। अच्छा, भोला जी द्वारा स्वरबद्ध किन किन गीतों को आप उनकी सर्वोत्तम रचनाएँ मानती हैं?

पूर्णिमा जी - मेरी व्यक्तिगत पसंद होगी "दिल जलेगा तो ज़माने में उजाला होगा", यह १९५४ की फ़िल्म 'ये बस्ती ये लोग' का गीत है। फिर "मैं हूँ हिंदुस्तानी छोरी" (नज़रिया) और "बेकरार दिल तू गायेजा" (दूर का राही), ये सब गीत मेरे दिल के बहुत करीब हैं।

सुजॉय - भोला जी को उनका कौन सा गीत सब से प्रिय था?

पूर्णिमा जी - मेरा ख़याल है "दिल जलेगा" और "बेक़रार दिल" भी उनके पसंदीदा गीत थे।

सुजॉय - भोला जी के बारे में और कोई बात हमारे पाठकों को बताना चाहेंगी?

पूर्णिमा जी - बहुत ज़्यादा लोगों को यह मालूम न होगा कि हालाँकि मेरे पिताजी का जन्म कोलकाता में हुआ और वहीं उनकी परवरिश हुई, और हर दृष्टि से वो एक बंगाली थे, पर जन्म से वो नेपाली थे।

सुजॉय - पूर्णिमा जी, बहुत बहुत शुक्रिया आपका अपने पिता के बारे में वो सब जानकारी दी जो कहीं और से प्राप्त करना मुश्किल था। अगली बार जब हम बातचीत करेंगे तो हम आपके करीयर के बारे में जानना चाहेंगे, आपके एक से एक सुपरहिट गीत की भी चर्चा करेंगे। लेकिन आज चलते चलते भोला जी का कौन सा गीत आप हमारे श्रोताओं को सुनवाना चाहेंगी जो आपकी तरफ़ से भोला जी को डेडिकेशन स्वरूप होगा?

पूर्णिमा जी - एकमात्र गीत जिसे मैं उन्हें समर्पित कर सकती हूँ, वह है "बेक़रार दिल तू गायेजा"।

गीत - बेक़रार दिल तू गायेजा (दूर का राही)


तो ये था फ़िल्म जगत की सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका पूर्णिमा (सुषमा श्रेष्ठ) से उनके पिता व गुज़रे दौर के संगीतकार भोला श्रेष्ठ पर एक बातचीत। अब आज की यह प्रस्तुत समाप्त होती है, नमस्कार!

और अब एक विशेष सूचना:

२८ सितंबर स्वरसाम्राज्ञी लता मंगेशकर का जनमदिवस है। पिछले दो सालों की तरह इस साल भी हम उन पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला समर्पित करने जा रहे हैं। और इस बार हमने सोचा है कि इसमें हम आप ही की पसंद का कोई लता नंबर प्ले करेंगे। तो फिर देर किस बात की, जल्द से जल्द अपना फ़ेवरीट लता नंबर और लता जी के लिए उदगार और शुभकामनाएँ हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेजिये। प्रथम १० ईमेल भेजने वालों की फ़रमाइश उस शृंखला में पूरी की जाएगी।

Friday, July 22, 2011

अनुराग शर्मा की कहानी "गुरुर्ब्रह्मा"



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की कहानी "टोड" का पॉडकास्ट उन्हीं की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा का एक व्यंग्य "गुरुर्ब्रह्मा ...", उन्हीं की आवाज़ में। कहानी "टोड" का कुल प्रसारण समय 2 मिनट 13 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।


पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।।
~ अनुराग शर्मा

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी
"उन्होंने भैंस-सेवा का काम अपने गुर्गों को सौंपकर सरस्वती-सेवा में फ़िर से हाथ आज़माना शुरू किया।"
(अनुराग शर्मा की "गुरुर्ब्रह्मा" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)

यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#137th Story, Gururbrahma : Anurag Sharma/Hindi Audio Book/2011/18. Voice: Anurag Sharma

Thursday, July 21, 2011

राही कोई भूला हुआ, तूफानों में खोया हुआ राह पे आ जाता है...राग "देस मल्हार" के सुरों में बँधा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 705/2011/145

पावस की रिमझिम फुहारों के बीच वर्षाकालीन रागों में निबद्ध गीतों की हमारी श्रृंखला "उमड़ घुमड़ कर आई रे घटा" जारी है| आज श्रृंखला की पाँचवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र पुनः आपका स्वागत करता हूँ| दोस्तों आज का राग है- "देस मल्हार"| श्रृंखला की पहली कड़ी में हमने कुछ ऐसे रागों की चर्चा की थी जो मल्हार अंग के नहीं हैं इसके बावजूद उन रागों से हमें वर्षा ऋतु की सार्थक अनुभूति होती है| ऐसा ही एक राग है "देस", जिसके गायन-वादन से वर्षा ऋतु का सजीव चित्र हमारे सामने उपस्थित हो जाता है| और यदि इसमें मल्हार अंग का मेल हो जाए तो फिर 'सोने पर सुहागा' हो जाता है| आज हम आपको राग "देस मल्हार" का थोड़ा सा परिचय और फिर इसी राग पर आधारित एक मनमोहक गीत सुनवाएँगे|

राग "देस मल्हार" के नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें स्वतंत्र राग "देस" में "मल्हार" अंग का मेल होता है| राग "देस" अत्यन्त प्रचलित और सार्वकालिक होते हुए भी वर्षा ऋतु के परिवेश का चित्रण करने में समर्थ है| एक तो इस राग के स्वर संयोजन ऋतु के अनुकूल है, दूसरे इस राग में वर्षा ऋतु का चित्रण करने वाली रचनाएँ बहुत अधिक संख्या में मिलते हैं| राग "देस" औडव-सम्पूर्ण जाति का राग है, जिसमे कोमल निषाद के साथ सभी शुद्ध स्वरों का प्रयोग होता है| "देस मल्हार" राग में "देस" का प्रभाव अधिक होता है| दोनों का आरोह- अवरोह एक सा होता है| मल्हार अंग के चलन और म रे प, रे म, स रे स्वरों के अनेक विविधता के साथ किये जाने वाले प्रयोग से राग विशिष्ट हो जाता है| राग "देस" की तरह "देस मल्हार" में भी कोमल गान्धार का अल्प प्रयोग किया जाता है| राग का यह स्वरुप पावस के परिवेश को जीवन्त कर देता है| परिवेश-चित्रण के साथ-साथ मानव के अन्तर्मन में मिलन की आतुरता को यह राग बढ़ा देता है| कुछ ऐसे ही मनोभावों का सजीव चित्रण पूर्वांचल के एक भोजपुरी लोकगीत में किया गया है|

हरी हरी भीजे चुनर मोरी धानी, बरस रहे पानी रे हरी |
बादर गरजे चमके बिजुरिया रामा, नहीं आए सैंया मोरा तरसे उमिरिया रामा |
हरी हरी काहे करत मनमानी, बरस रहे पानी रे हरी |
बारह बरिसवा पर अईलन बनिजरवा रामा, चनन बिरिछ तले डारलन डेरवा रामा |
हरी हरी चली मिलन को दीवानी, बरस रहे पानी रे हरी |


इस लोकगीत की नायिका अपने साजन के विरह में व्याकुल है, तभी वर्षा ऋतु का आगमन हो जाता है| गरजते बादल और चमकती बिजली उसे और अधिक व्याकुल कर देते हैं| ऐसे ही मौसम में अचानक उसका साजन बारह वर्ष बाद घर आता है| बाग़ में चन्दन के वृक्ष के नीचे उसने डेरा डाल रखा है और नायिका बरसते पानी में दीवानी की भाँति मिलाने चली है| पावस ऋतु में मानवीय मनोभावों का ऐसा मोहक चित्रण आपको लोकगीतों के अलावा अन्यत्र शायद कहीं न मिले| आज का राग "देस मल्हार" भी इसी प्रकार के भावों का सृजन करता है| राग "देस मल्हार" पर आधारित आज प्रस्तुत किया जाने वाला गीत है, जिसे हमने 1962 में प्रदर्शित फिल्म "प्रेमपत्र" से लिया है| फिल्म के संगीतकार सलिल चौधरी हैं जिनके आजादी से पहले के संगीत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष का स्वर मुखरित होता था तो आजादी के बाद सामाजिक और आर्थिक शोषण के विरुद्ध आवाज़ बुलन्द हुआ करता था| सलिल चौधरी भारतीय शास्त्रीय संगीत, बंगाल और असम के लोक संगीत के जानकार थे तो पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत का भी उन्होंने गहन अध्ययन किया था| उनके संगीत में इन संगीत शैलियों का अत्यन्त संतुलित और प्रभावी प्रयोग मिलता है| आज प्रस्तुत किये जाने वाले गीत -"सावन की रातों में ऐसा भी होता है..." में राग "देस मल्हार" के स्वरों का प्रयोग कर उन्होंने राग के स्वरुप का सहज और सटीक चित्रण किया है| इस गीत को परदे पर अभिनेत्री साधना और नायक शशि कपूर पर फिल्माया गया है| फिल्म के निर्देशक हैं विमल रोंय, गीतकार हैं गुलज़ार तथा झपताल में निबद्ध गीत को स्वर दिया है लता मंगेशकर और तलत महमूद ने| इस गीत में सितार का अत्यन्त मोहक प्रयोग किया गया है| लीजिए आप इस गीत का आनन्द लीजिए और मुझे आज यहीं विराम लेने की अनुमति दीजिए| रविवार की शाम हम और आप यहीं मिलेंगे एक और वर्षाकालीन गीत के साथ|



क्या आप जानते हैं...
कि फिल्म "प्रेमपत्र" का यह गीत गुलज़ार के लिए सलिल चौधरी की पहली रचना थी| बाद में इस जोड़ी ने संगीत प्रेमियों को अनेक मनमोहक गीतों का उपहार दिया था|

आज के अंक से पहली लौट रही है अपने सबसे पुराने रूप में, यानी अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - इस गीत के संगीतकार की पहली फिल्म थी "नवभारत".
सूत्र २ - प्रश्न जिस गीत के बारे में है उस फिल्म की प्रमुख अभिनेत्री थी सुलोचना.
सूत्र ३ - मुखड़े में एक पक्षी को संबोधन है जिसका वर्षा से खास सम्बन्ध है.

अब बताएं -
किस राग पर आधारित है ये गीत - ३ अंक
फिल्म का नाम बताएं - २ अंक
गायक कौन हैं - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
क्षिति जी ने कल एक बार बाज़ी मारी, शरद जी और अमित जी सेफ खेल कर २ अंक कमा गए. प्रतीक जी एक अंक आपको दे देते हैं, क्या याद करेंगे :) हिन्दुस्तानी जी और दादी को भी आभार सहित १ अंक मिलता है. नीरज जी ये रेडियो आवाज़ की ही एक नयी पहल है, प्रोमोशन के इरादे से कुछ दिनों तक इसे लाईव रखा गया है, जल्द ही इसे एच्छिक कर देंगें. वैसे इसे बहुत आसानी से बंद किया जा सकता है.

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, July 20, 2011

उमड़ घुमड़ कर आई रे घटा...उत्साह, उल्लास और उमंग से भरपूर राग वृन्दावनी सारंग का एक अलग रंग



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 704/2011/144

"उमड़ घुमड़ कर आई रे घटा" श्रृंखला की चौथी कड़ी में एक और वर्षागीत लेकर मैं कृष्णमोहन मिश्र आपके बीच उपस्थित हूँ| दोस्तों; श्रृंखला की दूसरी कड़ी में हमने आपके लिए राग "वृन्दावनी सारंग" का परिचय और इसी राग पर आधारित गीत प्रस्तुत किया था| आज के गीत में हम आपको राग "वृन्दावनी सारंग" का एक दूसरा पहलू दिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं| हम यह चर्चा कर चुके हैं कि यह राग गम्भीर प्रकृति का होने के कारण विरह भाव की सृष्टि करता है| ऐसे परिवेश के सृजन के लिए राग "वृन्दावनी सारंग" का गायन-वादन पूर्वांग में किया जाता है| परन्तु जब राग के स्वर-समूहों को हम पूर्वांग से उत्तरांग में ले जाते हैं, तब राग का भाव बदल जाता है और हमें उल्लास, उत्साह और प्रकृति के आनन्द की सार्थक अनुभूति होने लगती है| दोस्तों; आज हम आपको राग "वृन्दावनी सारंग" पर आधारित जो गीत सुनवाने जा रहे हैं, उसमे आपको प्रकृति का नैसर्गिक आनन्द तो मिलेगा ही, साथ ही आलस्य त्याग कर कर्म करने की प्रेरणा देने में भी यह गीत सक्षम है| कविवर सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' ने सम्भवतः ऐसे ही परिवेश के लिए यह पंक्तियाँ लिखी होगी -

आली, घिर आए घन पावस के |
लख ये काले-काले बादल, नील सिन्धु में खिले कमल-दल,
हरित ज्योति चपला अति चंचल, सौरभ के रस के |
द्रुत समीर काँपे थर-थर-थर, धाराएँ झरतीं फर-फर-फर,
जगती के प्राणों में समर भर, बेध गए कस के |


दोस्तों; आज जो गीत हम आपको सुनवाने जा रहे हैं, वह भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध एक ऐसे संगीतकार की रचना है, जिन्होंने अपनी पहली फिल्म "शोभा" (1942) से लेकर अन्तिम फिल्म "शक" (1976) तक संगीत की शुद्धता को कायम रखा| आप अनुमान तो लगा ही चुके होंगे- मेरा संकेत निश्चित रूप से संगीतकार बसन्त देसाई की ओर ही है| 1957 में राजकमल कला मन्दिर की फिल्म "दो ऑंखें बारह हाथ" प्रदर्शित हुई थी| इस फिल्म के निर्देशक व्ही. शान्ताराम ने अपनी पिछली फिल्मों की तरह इस फिल्म में भी बसन्त देसाई को संगीत निर्देशन का दायित्व दिया| कहने की आवश्यकता नहीं कि फिल्म के साथ-साथ इसके गीत भी बेहद लोकप्रिय हुए| फिल्म "दो आँखें बारह हाथ" का निर्माण बिलकुल नये और अनूठे विषय पर किया गया था| निर्माता-निर्देशक शान्ताराम जी ने आजीवन कारावास का दण्ड भुगत रहे क्रूर और हत्यारे बन्दियों के सुधार और उन्हें समाज की मुख्य धारा में वापस लाने का आग्रह इस फिल्म के माध्यम से किया था|

एक आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि जब इस फिल्म का प्रदर्शन हुआ था उन दिनों विख्यात शिक्षाविद और राजनीतिज्ञ डा. सम्पूर्णानन्द उत्तर प्रदेश के मुखमंत्री थे| इसके बाद 1962 से 1967 तक वे राजस्थान के राज्यपाल पद पर भी रहे| उन्हीं के कार्यकाल में भारत का पहला बन्दी सुधारगृह अर्थात खुली जेल 1963 में राजस्थान के सांगानेर में स्थापित हुआ था| सम्भवतः व्ही. शान्ताराम कि फिल्म से प्रेरित होकर डा. सम्पूर्णानन्द ने अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में यह योजना बनाई थी, जो राज्यपाल बनने की अवधि में कार्यान्वित हुई थी| राजस्थान के बाद उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में भी बन्दी सुधार गृह की स्थापना की गई थी| आजकल इसे सम्पूर्णानन्द आदर्श कारागार के नाम से जाना जाता है| बहरहाल; फिल्म "दो आँखें बारह हाथ" का गाँधीवादी विचारधारा, जैसा अनूठा विषय था; वैसा ही संगीत बसन्त देसाई ने भी दिया था| शास्त्रीय और लोक संगीत में रचे-बसे फिल्म के सभी गीत बेहद लोकप्रिय हुए थे| फिल्म का एक गीत -"ऐ मलिक तेरे बन्दे हम..." तो आज भी अनेक विद्यालयों की प्रातःकालीन प्रार्थना के रूप में गाया जाता है| इस फिल्म का एक अन्य गीत -"उमड़ घुमड़ कर आई रे घटा..." आज हमने आपको सुनवाने के लिए चुना है| फिल्म "दो आँखें बारह हाथ" का यह गीत राग "वृन्दावनी सारंग" पर आधारित है| मन्ना डे और लता मंगेशकर के युगल स्वरों में यह गीत है और इसके गीतकार हैं भरत व्यास| लीजिए आप भी सुनिए उत्साह, उल्लास और उमंग से भरपूर यह गीत-



क्या आप जानते हैं...
कि फिल्म "दो आँखें बारह हाथ" का कथानक ब्रिटिश शासनकाल में एक भारतीय रियासत की सत्य घटना पर आधारित था| फिल्म के आरम्भ में यह घोषणा व्ही. शान्ताराम ने की थी

आज के अंक से पहली लौट रही है अपने सबसे पुराने रूप में, यानी अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - फिल्म की नायिका साधना है.
सूत्र २ - पुरुष स्वर है तलत महमूद का.
सूत्र ३ - मुखड़े में शब्द है - "राही"

अब बताएं -
किस राग पर आधारित है ये गीत - ३ अंक
संगीतकार बताएं - २ अंक
गीतकार कौन हैं - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
क्षिति जी सबसे आगे चल रही हैं, पर बढ़त कब तक रख पाएंगीं ये देखना दिलचस्प होगा, नए नियमों के चलते शृंखला का मज़ा दुगना हो गया है, बाज़ी किसी के भी हाथ आ सकती है

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, July 19, 2011

गरजत बरसत भीजत आई लो...राग गौड़ मल्हार और लता जी के स्वरों में मिलन की आतुरता



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 703/2011/143

र्षा ऋतु के गीतों पर आधारित श्रृंखला "उमड़ घुमड़ कर आई रे घटा" की तीसरी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब पाठकों-श्रोताओं का हार्दिक स्वागत करता हूँ| आज का राग है- "गौड़ मल्हार"| पावस ऋतु का यह एक ऐसा राग है जिसके गायन-वादन से सावन मास की प्रकृति का यथार्थ चित्रण किया जा सकता है| आकाश पर कभी मेघ छा जाते हैं तो कभी आकाश मेघ रहित हो जाता है| इस राग के स्वर-समूह उल्लास, प्रसन्नता, शान्त और मिलन की लालसा का भाव जागृत करते हैं| मिलन की आतुरता को उत्प्रेरित करने में यह राग समर्थ होता है| आज के अंक में हम आपको ऐसे ही भावों से भरा फिल्म "मल्हार" का मनमोहक गीत सुनवाएँगे; किन्तु उससे पहले राग "गौड़ मल्हार" के स्वर-संरचना की एक संक्षिप्त जानकारी आपसे बाँटना आवश्यक है|

राग "गौड़ मल्हार" की रचना राग "गौड़ सारंग" और "मल्हार" के मेल से हुई है| यह सम्पूर्ण जाति का राग है, अर्थात इसमें सात स्वरों का प्रयोग होता है| शुद्ध और कोमल, दोनों निषाद का प्रयोग राग के सौन्दर्य बढ़ा देते हैं| शेष सभी स्वर शुद्ध प्रयोग किये जाते हैं| गन्धार स्वर का बड़ा विशिष्ठ प्रयोग होता है| इस राग की तीनताल की एक बन्दिश -"कारी बदरिया घिर घिर आई..." का सुमधुर गायन पण्डित ओमकारनाथ ठाकुर के स्वरों में बेहद लोकप्रिय हुआ था| राग "गौड़ मल्हार" के परिवेश का यथार्थ चित्रण महाकवि कालिदास की कृति "ऋतुसंहार" के एक श्लोक में किया गया है| "ऋतुसंहार" के द्वितीय सर्ग के दसवें श्लोक में महाकवि ने वर्षाऋतु के ऐसे ही परिवेश का वर्णन किया है, जिसका भावार्थ है -"बार-बार गरजने वाले मेघों से आच्छन्न आकाश और घनी अँधेरी रात में चमकने वाली बिजली के प्रकाश में रास्ता देखती हुई, प्रेम से वशीभूत नायिका तेजी से अपने प्रियतम से मिलने के लिए आतुर हो जाती है| सच तो यही है कि राग "गौड़ मल्हार" वर्षाऋतु के रागों में श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति के लिए सर्वश्रेष्ठ है| आज के अंक में प्रस्तुत किये जाने वाले गीत में श्रृंगार के संयोग पक्ष का भावपूर्ण चित्रण किया गया है| इस राग का दूसरा पहलू है श्रृंगार का विरह पक्ष, जिसकी चर्चा हम इसी श्रृंखला की आगामी एक कड़ी में करेंगे|

आज हमने आपके लिए 1951 में प्रदर्शित फिल्म "मल्हार" का गीत -"गरजत बरसत भीजत आई लो, तुम्हरे मिलन को अपने प्रेम पियरवा..." का चयन किया है| वास्तव में यह गीत राग "गौड़ मल्हार" पर आधारित गीत नहीं बल्कि इसी राग में निबद्ध तीनताल की एक पारम्परिक बन्दिश है| संगीतकार रोशन ने फिल्म के शीर्षक गीत के रूप में इस बन्दिश का प्रयोग किया था| गीत को लता मंगेशकर ने अपने मनमोहक स्वरों से सँवारा है| फिल्म "मल्हार" का निर्माण पार्श्वगायक मुकेश ने किया था| मुकेश और रोशन अभिन्न मित्र थे और कहने की आवश्यकता नहीं कि जब फिल्म के निर्माता मुकेश होंगे तो संगीत निर्देशक निश्चित रूप से रोशन ही होंगे| फिल्म "मल्हार"के गीत बड़े मधुर थे किन्तु दुर्भाग्य से फिल्म चली नहीं और गीत भी चर्चित नहीं हो पाए| राग "गौड़ मल्हार" के स्वरों से सजी यही संगीत रचना रोशन ने एक दशक बाद थोड़े शाब्दिक परिवर्तन के साथ फिल्म "बरसात की रात" में दुहराया और इस बार फिल्म के साथ-साथ गीत भी हिट हो गया| आइए सुना जाए फिल्म "मल्हार" का शीर्षक गीत, राग "गौड़ मल्हार" की तीनताल में निबद्ध बन्दिश के रूप में|



क्या आप जानते हैं...
कि संगीतकार रोशन ने अपने प्रारम्भिक दौर की असफल फिल्मों के कुछ सुरीले धुनों को लगभग एक दशक बाद दोबारा सफल प्रयोग किया| फिल्म 'आरती (१९६२)' के गीत -'कभी तो मिलेगी...' की धुन प्रारम्भिक दौर की फिल्म 'घर घर में दीवाली' के गीत -'कहाँ खो गई...' की धुन का दूसरा संस्करण है| इसी प्रकार 1957 की फिल्म 'दो रोटी' के गीत -'तुम्हारे कारण...' और 1959 की फिल्म 'मधु' के गीत -'काहे बनो जी अनजान...' की धुनों को रोशन ने 1966 की फिल्म 'देवर' में क्रमशः -'रूठे सैंया हमारे...' और -'दुनियाँ में ऐसा कहाँ...' की धुनों में सफलतापूर्वक दुहराया था|

आज के अंक से पहली लौट रही है अपने सबसे पुराने रूप में, यानी अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - सावन के इस युगल गीत में एक स्वर लता का है.
सूत्र २ - इस फिल्म के निर्देशक "हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ" शृंखला में फीचर्ड ४ निर्देशकों में से एक थे.
सूत्र ३ - लता के स्वरों में जो पहला बंद है उसमें शब्द है - "दुल्हनिया"

अब बताएं -
किस राग पर आधारित है ये गीत - ३ अंक
साथी गायक कौन हैं - २ अंक
गीतकार कौन हैं - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
हालंकि अमित जी और प्रतीक जी ने के ही समय पर जवाब दिया, पर प्रतीक जी का जवाब ही पूर्ण माना जायेगा. पर अमित जी आपने जो विस्तृत जानकारी दी राग के बारे में उसके लिए धन्येवाद, आपको हम १ अंक अवश्य देंगें. अविनाश जी, शरद जी बधाई. हिन्दुस्तानी जी, क्षिति जी, और और अवध जी को भी बधाई १-१ अंकों के लिए

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, July 18, 2011

सावन के बादलों उनसे जा कहो...रिमझिम फुहारों के बीच विरह के दर्द में भींगे जोहरा बाई और करण दीवान के स्वर



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 702/2011/142

"ओश्रृंखला "उमड़ घुमड़ कर आई रे घटा" की दूसरी कड़ी में आपका पुनः स्वागत है| कल की कड़ी में आपने वर्षा ऋतु के आगमन की सार्थक अनुभूति कराने वाले राग "मेघ मल्हार" पर आधारित गीत का रसास्वादन किया था| आज हम जिस वर्षाकालीन राग और उस पर आधारित फ़िल्मी गीत सुनने जा रहे हैं, वह "मल्हार" के किसी प्रकार के अन्तर्गत नहीं आता; बल्कि "सारंग" के अन्तर्गत आता है| परन्तु इसका स्वर संयोजन ऐसा है कि इसके गायन-वादन से वर्षाकालीन परिवेश सहज रूप में उपस्थित हो जाता है| दोस्तों, आज का राग है- "वृन्दावनी सारंग"| कल के अंक में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि मल्हार अंग के रागों के अलावा "वृन्दावनी सारंग", "देस" और "जयजयवन्ती" भी ऐसे राग हैं; जो स्वतंत्र रूप से और "मल्हार" के मेल से भी वर्षा ऋतु के परिवेश की सृष्टि करने में सक्षम हैं| मल्हार के मिश्र रागों पर आधारित गीत हम आपको श्रृंखला की अगली कड़ियों में सुनवाएँगे; परन्तु आज हम आपको राग "वृन्दावनी सारंग" का संक्षिप्त परिचय और उस पर आधारित एक विरह गीत सुनवाने जा रहे हैं|

यह राग वर्षा ऋतु में नायक-नायिका के विरह भाव को उत्प्रेरित करता है| राग "मेघ मल्हार" की तरह "वृन्दावनी सारंग" भी गान्धार और धैवत रहित औडव-औडव जाति का राग है तथा शुद्ध और कोमल- दोनों निषाद का प्रयोग किया जाता है| शेष सभी स्वर शुद्ध होते हैं| राग "वृन्दावनी सारंग" में ऋषभ पर आन्दोलन ना करने से यह "मेघ मल्हार" से अलग हो जाता है| गम्भीर प्रकृति का राग होने के कारण यह श्रृंगार रस के विरह पक्ष को उभारता है| राग की प्रकृति के एकदम अनुकूल रीतिकालीन सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी की यह पंक्तियाँ हैं, जिसमें रानी नागमती का विरह वर्णन है-

चढ़ा असाढ़ गगन घन गाजा, साजा बिरह दुन्द दल बाजा |
सावन बरस मेंह अतवानी, मरन परी हौं बिरह झुरानी |

आज का गीत भी नायक-नायिका के बीच की दूरी और विरह भाव को व्यक्त करता है| 1944 में प्रदर्शित फिल्म "रतन" के लिए संगीतकार नौशाद ने दीनानाथ मधोक के गीत को राग "वृन्दावनी सारंग" पर आधारित संगीतबद्ध किया था| इस गीत को अपने समय की चर्चित गायिका जोहरा बाई और गायक-अभिनेता करण दीवान ने युगल गीत के रूप में गाया है| फिल्मांकन में नायक-नायिका के बीच परस्पर दूरी है और वे आकाश में छाए बादलों को लक्ष्य करके अपनी-अपनी विरह व्यथा को व्यक्त करते हैं| उस समय तक नौशाद द्वारा संगीतबद्ध किये गए फिल्मों में "रतन" सर्वाधिक सफल फिल्म थी| इस फिल्म के संगीत की सफलता आकलन इस तथ्य से ही किया जा सकता है कि फिल्म की निगेटिव का मूल्य पचहत्तर हजार रुपए था; जबकि गीतों की रायल्टी साढ़े तीन लाख रुपए आई थी| रायल्टी की इस राशि ने उस समय तक के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए थे| यही नहीं फिल्म "रतन" के गीतों के कारण ही गायिका जोहरा बाई चोटी की गायिका बन गईं थीं| आप सुनिए राग "वृन्दावनी सारंग" पर आधारित यह गीत और मुझे आज यहीं विराम लेने की अनुमति दीजिये, कल के नए अंक में, एक नए राग और एक नए गीत के साथ आपसे फिर मिलूँगा|



क्या आप जानते हैं...
कि फिल्म "रतन" की संगीत रचना के लिए संगीतकार नौशाद को 50 रुपए प्रति गीत के हिसाब से कुल 800 रुपए मानदेय प्राप्त हुआ था|

आज के अंक से पहली लौट रही है अपने सबसे पुराने रूप में, यानी अगले गीत को पहचानने के लिए हम आपको देंगें ३ सूत्र जिनके आधार पर आपको सही जवाब देना है-

सूत्र १ - संगीतकार के अभिन्न मित्र थे फिल्म के निर्माता गायक.
सूत्र २ - स्वर है लता जी का.
सूत्र ३ - मुखड़े में शब्द है - "गरवा"

अब बताएं -
किस वर्षा के राग की ताल पर स्वरबद्ध रचना है ये - ३ अंक
फिल्म के निर्माता का नाम बताएं - २ अंक
संगीतकार कौन हैं - २ अंक

सभी जवाब आ जाने की स्तिथि में भी जो श्रोता प्रस्तुत गीत पर अपने इनपुट्स रखेंगें उन्हें १ अंक दिया जायेगा, ताकि आने वाली कड़ियों के लिए उनके पास मौके सुरक्षित रहें. आप चाहें तो प्रस्तुत गीत से जुड़ा अपना कोई संस्मरण भी पेश कर सकते हैं.

पिछली पहेली का परिणाम -
क्षिति जी ने एक बार फिर शानदार शुरुआत की है. अमित जी और अविनाश जी ने २ -२ अंक बटोरे. कल के सभी टिप्पणीकारों को हम १-१ अंक दे रहे हैं, पर याद रहे आज से ये १ अंक किसी रचनात्मक टिपण्णी के ही मिलेंगें, गलत जवाब देने पर नहीं.

खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र



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25 नई सुरांगिनियाँ