रेडियो प्लेबैक वार्षिक टॉप टेन - क्रिसमस और नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित


ComScore
प्लेबैक की टीम और श्रोताओं द्वारा चुने गए वर्ष के टॉप १० गीतों को सुनिए एक के बाद एक. इन गीतों के आलावा भी कुछ गीतों का जिक्र जरूरी है, जो इन टॉप १० गीतों को जबरदस्त टक्कर देने में कामियाब रहे. ये हैं - "धिन का चिका (रेड्डी)", "ऊह ला ला (द डर्टी पिक्चर)", "छम्मक छल्लो (आर ए वन)", "हर घर के कोने में (मेमोरीस इन मार्च)", "चढा दे रंग (यमला पगला दीवाना)", "बोझिल से (आई ऍम)", "लाईफ बहुत सिंपल है (स्टैनले का डब्बा)", और "फकीरा (साउंड ट्रेक)". इन सभी गीतों के रचनाकारों को भी प्लेबैक इंडिया की बधाईयां

Thursday, March 31, 2011

एक बंगला बने न्यारा...एक और आशावादी गीत के एल सहगल की आवाज़ में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 625/2010/325

१९३५ में पार्श्वगायन की नीव रखने वाली फ़िल्म 'धूप छाँव' के संगीतकार थे राय चंद बोराल और उनके सहायक थे पंकज मल्लिक साहब। इस फ़िल्म में के. सी. डे, पारुल घोष, सुप्रभा सरकार, उमा शशि और पहाड़ी सान्याल के साथ साथ कुंदन लाल सहगल नें भी गाया था "अंधे की लाठी तू ही है"। सन् '३५ में प्रदर्शित 'देवदास' का ज़िक्र तो हम कल ही कर चुके हैं। इसी साल संगीतकार मिहिरकिरण भट्टाचार्य के संगीत में 'कारवाँ-ए-हयात' में सहगल साहब नें कई ग़ज़लें गायीं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है सहगल साहब पर केन्द्रित लघु शृंखला 'मधुकर श्याम हमारे चोर'। १९३६ में एक बार फिर बोराल साहब और पंकज बाबू के संगीत से सजी मशहूर फ़िल्म आई 'करोड़पति', जिसका सहगल साहब का गाया "जगत में प्रेम ही प्रेम भरा है" गीत बहुत लोकप्रिय हुआ। इसी साल तिमिर बरन के संगीत में फ़िल्म 'पुजारिन' का ज़िक्र हम कल की कड़ी में कर चुके हैं। साल १९३७ सहगल साहब के करीयर का एक और महत्वपूर्ण पड़ाव बना, क्योंकि इसी साल आई फ़िल्म 'प्रेसिडेण्ट'। आज इसी फ़िल्म का एक गीत हम सुनेंगे, लेकिन उससे पहले आइए आज पढ़ें राय चंद बोराल साहब के शब्द सहगल साहब के नाम। "ये अभिनय भी ऊँचा करते थे, और उनकी आवाज़ की तो क्या बात थी, गोल्डन वॊयस जिसे हम कहते हैं, सुननेवालों के दिलों में बहुत असर होता था। न्यु थिएटस के कम्पाउण्ड में एक तालाब था, उसके पास बैठे बैठे एक दिन मैं एक गीत गुनगुना रहा था। इतने में सहगल वहाँ आये, तो मैंने उनसे पूछा कि यह गाना पसंद है? वो बोले, "दादा, आप इस गीत को इसी वक़्त बना दीजिये।" और वह गाना था फ़िल्म 'प्रेसिडेण्ट' का "एक बंगला बने न्यारा"।" जी हाँ दोस्तों, आज हम इसी अनमोल गीत को सुनेंगे। इसी गीत को गायिका गीता दत्त नें भी अपनी 'जयमाला' कार्यक्रम के लिए चुना था। गीता जी की शब्दों में - "मैंने जब संगीत की समझ सम्भाली, तब सुगम संगीत में बहुत अच्छे अच्छे गायक थे - शम्शाद बेगम, ज़ोहराबाई, अमीरबाई कर्नाटकी, राजकुमारी, के.सी. डे, पंकज मल्लिक और के.एल. सहगल। सहगल साहब क्योंकि उत्तर भारतीय होने पर भी बंगला गीत बहुत अच्छी तरह से गा लेते थे, इसलिए मैं उनसे बहुत प्रभावित थी। आरज़ू साहब का यह गीत 'प्रेसिडेण्ट' का, "एक बंगला बने न्यारा", सहगल साहब ने ही गाया है।"

नितिन बोस निर्देशित और रायचंद बोराल स्वरबद्ध 'प्रेसिडेण्ट' में सहगल साहब का गाया "एक बंगला बने न्यारा" न केवल इस फ़िल्म का सब से लोकप्रिय गीत है, बल्कि यह उनके करीयर का भी एक माइलस्टोन गीत रहा है। आज सहगल साहब पर आयोजित कोई भी कार्यक्रम इस गीत के बिना पूरी नहीं होती। यह एक आशावादी गीत है जिसकी धुन में बंगाल के लोक-संगीत की झलक मिलती है। इस गीत का ग्रामोफ़ोन वर्ज़न एक लम्बे प्रील्युड से शुरु होता है, जब कि फ़िल्म में गीत शुरु होता है इन शब्दों से - "रहेगी न बदरिया कारी, होंगे एक दिन सूर्य के दर्शन, वो ही घड़ी अब आयी, तनख्वाह बढ़ गई हमारी, ४०० हर एक महीने, काम किया नहीं गये महीने, फिर भी तनख्वाह पायी"। और इसके बाद गीत शुरु होता है "एक बंगला बने न्यारा"। सहगल साहब की आवाज़ में फ़िल्म का एक और बड़ा ही मशहूर गाना है "एक राज्य का बेटा लेकर उड़ने वाला घोड़ा"। किशोर कुमार नें एक बार अमीन सायानी के किसी कार्यक्रम में अपने बचपन की नकल उतारी थी, उसमें उन्होंने इसी गीत को एक बच्चे की आवाज़ में गाया था। सहगल साहब इस गीत में जिस तरह से हँसते हैं, जिस मासूमीयत से गाते हैं, उनकी दिव्य और नर्म आवाज़ दिल को कितना सुकून दे जाती है, इस गीत को सुन कर ही पता चलता है। पहाड़ी सान्याल के साथ सहगल ने इस फ़िल्म में गाया था "प्रेम का है इस जग में पथ निराला"। सहगल साहब की एकल आवाज़ में "न कोई प्रेम का रोग लगाये, पापी अंग अंग रच जाये" न केवल उस दौर में प्रेमी-प्रेमिकाओं के दिलों को छू लिया था, बल्कि यह गीत एक ट्रेण्डसेटर बना इस भाव पर बनने वाले गीतों का। तो आइए अब सुनते हैं आज का गीत, जिसके गीतकार हैं किदार शर्मा।



क्या आप जानते हैं...
कि १९३५ की फ़िल्म 'कारवाँ-ए-हयात' में सहगल नें राजकुमारी और पहाड़ी सान्याल के साथ एक गीत गाया था "कोई प्रीत की रीत बता दो हमें"।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 5/शृंखला 13
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - सहगल साहब का गाया एक और क्लास्सिक गीत.

सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - ३ अंक
सवाल ३ - संगीत कौन हैं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
प्रतीक जी के दर्शन हुए, अमित जी और अंजाना जी भी सही जवाब के साथ उपस्तिथ हुए बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, March 30, 2011

दुख के दिन अब बीतत नाहीं.....सहगल की आवाज़ और दर्द की रिश्ता भी काफी गहरा था



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 624/2010/324

गर हम "पैथोस" शब्द का पर्यायवाची शब्द "सहगल" कहें तो शायद यह जवाब बहुत ग़लत नहीं होगा। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार और बहुत बहुत स्वागत है कुंदन लाल सहगल को समर्पित इस लघु शृंखला 'मधुकर श्याम हमारे चोर' की चौथी कड़ी में। न्यु थिएटर्स के संगीतकारों में एक नाम तिमिर बरन का भी है। १९३३ में 'पूरन भगत' और १९३४ में 'चंडीदास' के कालजयी गीतों के बाद १९३५ में तो सहगल साहब ने जैसे तहलका ही मचा दिया। सहगल साहब की फ़िल्मों की फ़ेहरिस्त में शायद सब से हिट फ़िल्म रही है १९३५ की पी. सी. बरुआ निर्देशित फ़िल्म 'देवदास'। तिमिर बरन को इस फ़िल्म में संगीत देने का ज़िम्मा सौंपा गया और किदार शर्मा नें गीत लिखे। इस गीतकार-संगीतकार जोड़ी के कलम और साज़ों पे सवार होकर सहगल साहब के गाये इस फ़िल्म के नग़में पहूँचे घर घर में। फ़िल्म 'देवदास' के बंगला वर्ज़न में सहगल साहब ने कविगुरु रबीन्द्रनाथ ठाकुर की एक रचना को स्वर दिया था, जिसके बोल थे "गोलाप होये उठुक फूले"। 'देवदास' की अपार कामयाबी ने के.एल. सहगल को सुपरस्टार बना दिया। इसी साल, यानी १९३५ में आशा रानी से सहगल साहब का विवाह सम्पन्न हुआ और वो अपने परिवार के साथ हँसी ख़ुशी दिन बिताने लगे। लेकिन 'देवदास' में उनका निभाया किरदार बिलकुल इसके विपरीत था। दर्द और शराब में डूबा देवदास का किरदार सहगल साहब नें जैसे पर्दे पर जीवंत कर दिया। इस फ़िल्म का "बालम आये बसो मोरे मन में" हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुनवा चुके हैं; इसलिए आज इस फ़िल्म का एक दर्दीला गाना सुनिए, "दुख के दिन अब बीतत नाहीं"। इस गीत को सुनते हुए महसूस कीजिएगा कि किस तरह से वायलिन की धुन सहगल साहब की आवाज़ से आवाज़ मिलाकर साथ साथ चलती है। तिमिर बरन के संगीत में १९३६ में सहगल साहब की एक और फ़िल्म आयी थी 'पुजारिन', जिसमें उनका गाया "जो बीत चुकी सो बीत चुकी" फ़िल्म का सब से लोकप्रिय गीत था।

और कल की तरह आज भी कुछ उद्गार सहगल साहब की शान में फ़िल्म जगत की एक प्रसिद्ध अभिनेता के मुख से। ये हैं के. एन. सिंह जिन्होंने सहगल साहब के बारे में बताया था विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में बरसों पहले- "अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ने की वजह से मुझे वेस्टर्ण म्युज़िक में ज़्यादा दिलचस्पी थी। मगर भारतीय संगीत के जादू ने मुझ पर असर पहली बार तब किया जब सन् १९३० में लखनऊ में मैं कुंदन लाल सहगल से मिला। उस वक़्त न वो फ़िल्मों में आये थे और न ही मैं। कुछ सालों के बाद कलकत्ता में फिर हमारी मुलाक़ात हुई, तब वो फ़िल्मों में थे, और उनके गानें का असर धीरे-धीरे फैल रहा था। कुछ सालों बाद मैं भी फ़िल्मों में आ गया, और फिर सहगल साहब से मेल-जोल बढ़ा, और एक लम्बी, गहरी दोस्ती में बदल गई, जो उनके देहांत तक रही। सहगल न केवल एक बेमिसाल गायक थे, बल्कि एक बेमिसाल दोस्त भी थे। वो अपनी आवाज़ पीछे छोड़ गये हैं। दौर बदलते रहे हैं और बदलते रहेंगे। मगर सहगल का संगीत आज भी पुराना नहीं हुआ है। फ़िल्म संगीत को उन्होंने ही सब से पहले पापुलर बनाया था। तो उन्हीं का एक गाना सुन लें?" दोस्तों, के. एन. सिंह साहब की तरह बहुत से कलाकार अपनी अपनी 'जयमाला' में सहगल साहब के लिए कुछ न कुछ बोला करते और उनका गाया अपनी पसंद का एक गीत सुनवाया करते। तो आइए अब आज का गीत सुना जाये।



क्या आप जानते हैं...
कि 'देवदास' फ़िल्म का "बालम आये बसो मोरे मन में" गीत वह पहला ग्रामोफ़ोन रेकॊर्ड था जो लता मंगेशकर नें ख़रीदा था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 4/शृंखला 13
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - सहगल साहब का गाया एक और क्लास्सिक गीत.

सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - २ अंक
सवाल २ - संगीतकार कौन हैं इस गीत के - ३ अंक
सवाल ३ - फिल्म के निर्देशक बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
बहुत दिनों बाद टाई हुआ है कल...बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, March 29, 2011

साहिब मेरा एक है.. अपने गुरू, अपने साई, अपने साहिब को याद कर रही है कबीर, आबिदा परवीन और गुलज़ार की तिकड़ी



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११२

शे इकहरे ही अच्छे होते हैं। सब कहते हैं दोहरे नशे अच्छे नहीं। एक नशे पर दूसरा नशा न चढाओ, पर क्या है कि एक कबीर उस पर आबिदा परवीन। सुर सरूर हो जाते हैं और सरूर देह की मिट्टी पार करके रूह मे समा जाता है।

सोइ मेरा एक तो, और न दूजा कोये ।
जो साहिब दूजा कहे, दूजा कुल का होये ॥


कबीर तो दो कहने पे नाराज़ हो गये, वो दूजा कुल का होये !

गुलज़ार साहब के लिए यह नशा दोहरा होगा, लेकिन हम जानते हैं कि यह नशा उससे भी बढकर है, यह तिहरा से किसी भी मायने में कम नहीं। आबिदा कबीर को गा रही हैं तो उनकी आवाज़ के सहारे कबीर की जीती-जागती मूरत हमारे सामने उभर आती है, इस कमाल के लिए आबिदा की जितनी तारीफ़ की जाए कम है। लेकिन आबिदा गाना शुरू करें उससे पहले सबा के झोंके की तरह गुलज़ार की महकती आवाज़ माहौल को ताज़ातरीन कर जाती है, इधर-उधर की सारी बातें फौरन हीं उड़न-छू हो जाती है और सुनने वाला कान को आले से उतारकर दिल के कागज़ पर पिन कर लेता है और सुनता रहता है दिल से.. फिर किसे खबर कि वह कहाँ है, फिर किसे परवाह कि जग कहाँ है! ऐसा नशा है इस तिकड़ी में कि रूह पूरी की पूरी डूब जाए, मदमाती रहे और जिस्म जम जाए वहीं का वहीं!!

कबीरा खड़ा बजार में, सब की चाहे खैर।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।।


कबीर... कबीर ऐसा नाम है, जिसे सुनते हीं दिल सूफ़ियाना हो जाता है। जैसे सूफ़ियों के हर कलाम में उस ऊपर वाले का ज़िक्र होता है, उसी तरह कबीर अपने गुरू, अपने साईं, अपने साहिब का ज़िक्र किसी न किसी बहाने अपने दोहों में ले हीं आते हैं। गुरू के प्रति कबीर का यह प्रेम अनुपम है। कबीर अपने गुरू की बहुत कदर करते थे। एक शिष्य के लिए गुरू का क्या महत्व होता है, यह बताने के लिए कबीर ने इतना तक कह दिया कि:

कबीरा ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥


गुरू का माहात्म्य जानना हो तो कोई कबीर से पूछे:

सब धरती कागद करूं, लेखन सब बनराय ।
सात समुंद्र कि मस करूं, गुरु गुन लिखा न जाय ॥


कबीर का अपने गुरू के प्रति प्रेम और लगाव का बखान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक "हिन्दी साहित्य का इतिहास" में कुछ यूँ किया है:

कहते हैं, काशी में स्वामी रामानंद का एक भक्त ब्राह्मण था, जिसकी किसी विधवा कन्या को स्वामी जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद भूल से दे दिया। फल यह हुआ कि उसे एक बालक उत्पना हुआ जिसे वह लहरतारा के ताल के पास फेंक आयी। अली या नीरू नाम का जुलाहा उस बालक को अपने घर उठा लाया और पालने लगा। यही बालक आगे चलकर कबीरदास हुआ। कबीर का जन्मकाल जेठ सुदी पूर्णिमा, सोमवार विक्रम संवत १४५६ माना जाता है। कहते हैं कि आरंभ से हीं कबीर में हिंदू भाव से भक्ति करने की प्रवृत्ति लक्षित होती थी जिसे उसे पालने वाल माता-पिता न दबा सके। वे "राम-राम" जपा करते थे और कभी-कभी माथे पर तिलक भी लगा लेते थे। इससे सिद्ध होता है कि उस समय स्वामी रामानंद का प्रभाव खूब बढ रहा था। अत: कबीर पर भी भक्ति का यह संस्कार बाल्यावस्था से ही यदि पड़ने लगा हो तो कोई आश्चर्य नहीं।

रामानंद जी के माहात्म्य को सुनकर कबीर के हृदय में शिष्य होने की लालसा जगी होगी। ऐसा प्रसिद्ध है कि एक दिन वे एक पहर रात रहते हुए उप्त (पंचगंगा) घाट की सीढियों पर जा पड़े जहाँ से रामानंद जी स्नान करने के लिए उतरा करते थे। स्नान को जाते समय अंधेरे में रामानंद जी का पैर कबीर के ऊपर पड़ गया। रामानंद जी बोल उठे, ’राम-राम कह’। कबीर ने इसी को गुरूमंत्र मान लिया और वे अपने को गुरू रामानंद जी का शिष्य कहने लगे।

आरंभ से हीं कबीर हिंदू भाव की उपासना की ओर आकर्षित हो रहे थे। अत: उन दिनों जब कि रामानंद जी की बड़ी धूम थी, अवश्य वे उनके सत्संग में भी सम्मिलित होते रहे होंगे। रामानुज की शिष्य परंपरा में होते हुए भी रामानंद जी भक्ति का एक अलग उदार मार्ग निकाल रहे थे जिसमे जाति-पाँति का भेद और खानपान का आचार दूर कर दिया गया था। अत: इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर को ’राम-राम’ नाम रामानंद जी से हीं प्राप्त हुआ। पर आगे चलकर कबीर के ’राम’ रामानंद के ’राम’ से भिन्न हो गए। अत: कबीर को वैष्णव संप्रदाय के अंतर्गत नहीं ले सकते। कबीर ने दूर-दूर तक देशाटन किया, हठयोगियों तथा सूफ़ी मुसलमान फकीरों का भी सत्संग किया। अत: उनकी प्रवृत्ति निर्गुण उपासना की ओर दृढ हुई। फल यह हुआ कि कबीर के राम धनुर्धर साकार राम नहीं रह गये, वे ब्रह्म के पर्याय हुए -

दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना।
राम नाम का मरम है आना॥


सारांश यह है कि जो ब्रह्म हिंदुओं की विचारपद्धति में ज्ञान मार्ग का एक निरूपण था उसी को कबीर ने सूफ़ियों के ढर्रे पर उपासना का हीं विषय नहीं, प्रेम का भी विषय बनाया और उसकी प्राप्ति के लिए हठयोगियों की साधना का समर्थन किया। इस प्रकार उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफ़ियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मत रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया। उनकी बानी में ये सब अवयव लक्षित होते हैं।

गुरू गोविंद दोऊ खड़े काकै लागूं पाय,
बलिहारी गुरू आपने गोविंद दियो बताय।


गुरू को गोविंद के आगे खड़े करने वाले संत कबीर ने गुरू के बारे में और क्या-क्या कहा है, यह जानने के लिए चलिए आबिदा परवीन की मनमोहक आवाज़ की ओर रूख करते हैं। और हाँ, आईये हम भी साथ-साथ गुनगुनाएँ "साहिब मेरा एक है"..:

साहिब मेरा एक है, दूजा कहा न जाय ।
दूजा साहिब जो कहूं, साहिब खडा रसाय ॥

माली आवत देख के, कलियां करें पुकार ।
फूल फूल चुन लिये, काल हमारी बार ॥

____ गयी चिन्ता मिटी, मनवा बेपरवाह ।
जिनको कछु न चहिये, वो ही शाहनशाह ॥

एक प्रीत सूं जो मिले, ताको मिलिये धाय ।
अन्तर राखे जो मिले, तासे मिले बलाय ॥

सब धरती कागद करूं, लेखन सब बनराय ।
सात समुंद्र कि मस करूं, गुरु गुन लिखा न जाय ॥

अब गुरु दिल मे देखया, गावण को कछु नाहि ।
कबीरा जब हम गांवते, तब जाना गुरु नाहि ॥

मैं लागा उस एक से, एक भया सब माहि ।
सब मेरा मैं सबन का, तेहां दूसरा नाहि ॥

जा मरने से जग डरे, मेरे मन आनन्द ।
तब मरहू कब पाहूं, पूरण परमानन्द ॥

सब बन तो चन्दन नहीं, सूर्य है का दल(?) नाहि ।
सब समुंद्र मोती नहीं, यूं सौ भूं जग माहि ॥

जब हम जग में पग धरयो, सब हसें हम रोये ।
कबीरा अब ऐसी कर चलो, पाछे हंसीं न होये ॥

अवगुण किये तो बहु किये, करत न मानी हार ।
भांवें बन्दा बख्शे, भांवें गर्दन मार ॥

साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहि ।
धन का भूखा जो फिरे, सो तो साधू नाहि ॥

कबीरा ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥

करता था तो क्यों रहा, अब काहे पछताय ।
बोवे पेड बबूल का, आम कहां से खाय ॥

साहिब सूं सब होत है, बन्दे ते कछु नाहि ।
राइ से परबत करे, परबत राइ मांहि ॥

ज्यूं तिल मांही तेल है, ज्यूं चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें बसे, जाग सके तो जाग ॥




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो दोहे हमने पेश किए हैं, उसके एक दोहे की एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उन दोहों को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "पिया" और मिसरे कुछ यूँ थे-

सती बिचारी सत किया, काँटों सेज बिछाय ।
ले सूती पिया आपना, चहुं दिस अगन लगाय ॥

इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:

पिया रे, पिया रे , पिया रे, पिया रे,
तेरे बिन लागे नहीँ मोरा जिया रे ।

मंजु जी, आपने शब्द पहचानने में गलती कर दी, इसलिए हम आपके शेर (दोहे) को यहाँ पेश नहीं कर सकते। अगली बार से ध्यान दीजिएगा।

पिछली महफ़िल की शुरूआत सजीव जी की प्रेरणादायक टिप्पणी से हुई। बंधुवर धन्यवाद आपका! आपके बाद महफ़िल को रंगीन करने आए शरद जी। शरद जी ने न सिर्फ़ सही शब्द की पहचान की बल्कि उस पर एक शेर भी कहा। यह क्या, आपसे हमें स्वरचित शेर की उम्मीद रहती है, आपने तो नुसरत साहब के एक गाने की दो पंक्तियों से हीं काम चला लिया। आगे से ऐसा नहीं चलेगा। समझे ना? :) आपने एक गलती की तरफ़ हमारा ध्यान दिलाया, इसके लिए आपका तह-ए-दिल से आभार। हमने आज की महफ़िल में उस गलती को ठीक कर लिया है। अवध जी, शायद "दोहावली" हीं कहा जाना चाहिए। मैं और भी एक-दो जगह से पता करता हूँ, उसके बाद आगे से इसी शब्द का प्रयोग करूँगा। बहुत-बहुत धन्यवाद। मंजु जी, हाँ पिछली बार मैंने "अहसास" पर सारे शेर जमा तो कर दिये थे, लेकिन जल्दीबाजी में "आँगन" को हटाना भूल गया। दर-असल "आँगन" पिछली से पिछली महफ़िल का गुमशुदा शब्द था। आपको यकीन दिलाता हूँ कि आगे से ऐसा नहीं होगा। कुलदीप जी, महफ़िल को और महफ़िल में पेश की गई रचना को पसंद करने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया। बस लगे हाथों आप "पिया" पर कोई शेर भी कह देते तो खुशी चौगुनी हो जाती। खैर, इस बार से कोशिश कीजिएगा।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

नुक्ताचीं है गमे दिल...सुनिए ग़ालिब का कलाम सहगल साहब की आवाज़ में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 623/2010/323

'मधुकर श्याम हमारे चोर', हिंदी सिनेमा के पहले सिंगिंग् सुपरस्टार कुंदन लाल सहगल पर केन्द्रित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की तीसरी कड़ी में आज भी हम कल ही की तरह बने रहेंगे साल १९३३ में। सहगल साहब को एक से एक लाजवाब गीत गवाने में अगर पहला नाम राय चंद बोराल का है, तो निस्संदेह दूसरा नाम है पंकज मल्लिक का। पंकज बाबू के संगीत निर्देशन में सहगल साहब के बहुत से गीत हैं जो बहुत बहुत मशहूर हुए हैं। दोस्तों, अभी कुछ दिनों पहले जब मेरी संगीतकार तुषार भाटिया जी से बातचीत हो रही थी, तो बातों ही बातों में न्यु थिएटर्स की चर्चा छिड़ गई थी, और तुषार जी ने बताया कि राय चंद बोराल निस्संदेह फ़िल्म संगीतकारों के भीष्म पितामह हैं, लेकिन फ़िल्मी गीत का जो अपना स्वरूप है, और जो स्वरूप आज तक चलता आया है, वह पंकज मल्लिक साहब की ही देन है। पंकज बाबू का बतौर फ़िल्म संगीतकार सफ़र शुरु हुआ था बोलती फ़िल्मों के पहले ही साल, यानी १९३१ में, जिस साल उन्होंने बंगला फ़िल्म 'देना पाओना' में बोराल साहब के साथ संगीत दिया था। हिंदी फ़िल्मों में उनका आगमन हुआ १९३३ की फ़िल्म 'यहूदी की लड़की' में। वैसे यह बात सच है कि इस फ़िल्म में मल्लिक साहब का वह ऒर्केस्ट्रेशन वाला हल्का फुल्का पर शास्त्रीयता से भरपूर अंदाज़ सुनने को नहीं मिला, लेकिन सहगल साहब के गाये गीतों व ग़ज़लों ने ऐसा असर किया कि इस फ़िल्म का नाम सिनेमा के इतिहास में अमर हो गया। दोस्तो, यह सत्य है कि पंकज साहब के संगीत में सहगल साहब नें इसके बाद के वर्षों में इससे भी बहुत ज़्यादा लोकप्रिय गीत गाये (जिनकी चर्चा हम आगे चलकर इसी शृंखला में करेंगे), लेकिन इस फ़िल्म के किसी गीत को सुनवाये बग़ैर आगे बढ़ने का दिल नहीं कर रहा। इसलिए आइए आज सुनें 'यहूदी की लड़की' फ़िल्म में शामिल मिर्ज़ा ग़ालिब की मशहूर ग़ज़ल "नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल जिसको सुनाये न बनें"। सुरैया की आवाज़ में इसी ग़ज़ल का आनंद आप ने कुछ दिनों पहले 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर लिया था, आज इसी का एक अन्य रूप, जिसे पंकज बाबू नें नौटंकी की लोकप्रिय शैली काफ़ी में स्वरबद्ध किया था।

और आइए अब कुछ उद्गार पढ़ें जिन्हें फ़िल्म जगत की कुछ जानीमानी हस्तियों ने व्यक्त किए हैं सहगल साहब की शान में। सबसे पहले ये हैं गायक मुकेश: "आज हमारे फ़िल्म इंडस्ट्री में कई गायक-कलाकार फ़िल्म संगीत की शोभा बढ़ा रहे हैं। मगर एक वक़्त ऐसा था जब इतने गायक नहीं थे। लेकिन उस वक़्त भी सिर्फ़ यही दीपक जल रहा था, जिसका नाम था कुंदन लाल सहगल। स्वरों के इस राजा नें, जिसनें फ़िल्म संगीत की शुरुआत की, कई फ़िल्मों में अभिनेता के रूप में भी काम किया, और फिर युं नज़रों से ओझल हो गया, मानो कहीं छुप गया हो, और देख रहा हो हमें, सुन रहा हो हमें, और मानो कह रहा हो कि कला की कोई सीमा नहीं है, तुम्हें अभी बहुत दूर जाना है, बहुत आगे बढ़ना है।" मुकेश के बाद ये हैं दादामुनि अशोक कुमार। दादामुनि नें भी उसी दौर में अभिनय शुरु किया था जब सहगल आसमान पर सूरज की तरह चमक रहे थे। "मैं तो मानता हूँ कि फ़िल्म संगीत की धारा बदल रही है, रूप भी बदल रहा है। कभी लगता है कि अपने अच्छे गायक और संगीतकार भी इसी जैज़ और लातिन अमरीकन संगीत की बाढ़ में बह जायेंगे। मेरा ख़याल है कि आज अगर सहगल ज़िंदा होते तो शायद इस बाढ़ को रोक सकते थे।" तो दोस्तों, आइए अब एक बार फिर भावविभोर होकर सुनें सहगल साहब की आवाज़ में ग़ालिब की यह ग़ज़ल फ़िल्म 'यहूदी की लड़की' से।



क्या आप जानते हैं...
कि 'पूरन भगत' और 'चण्डीदास' फ़िल्मों में सहगल के गाये अमर गीतों के पीछे पंकज मल्लिक का बहुत बड़ा योगदान था, लेकिन संगीतकार के रूप में आर.सी. बोराल का ही नाम पर्दे पर आया। पंकज बाबू बोराल साहब के सहायक थे इन फ़िल्मों में।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 3/शृंखला 13
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - सहगल साहब का गाया एक और क्लास्सिक गीत.

सवाल १ - गीतकार बताएं - २ अंक
सवाल २ - संगीतकार कौन हैं इस गीत के - ३ अंक
सवाल ३ - फिल्म के निर्देशक बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी बढ़त पर हैं पर अंजाना जी भी मौके की ताड़ में हैं, अवध जी सही जवाब आपका भी

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, March 28, 2011

राधे रानी दे डारो ना....गीत उन दिनों का जब सहगल साहब केवल अपने गीतों के गायक के रूप में पर्दे पर आते थे



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 622/2010/322

फ़िल्म जगत के प्रथम सिंगिंग् सुपरस्टार कुंदन लाल सहगल को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला 'मधुकर श्याम हमारे चोर' की दूसरी कड़ी में आपका स्वागत है। कल पहली कड़ी में हमने आपको बताया सहगल साहब के शुरुआती दिनों का हाल और सुनवाया उनका गाया पहला ग़ैर फ़िल्मी गीत। आइए आज आपको बताएँ कि उनके करीयर के पहले दो सालों में, यानी १९३२-३३ में उन्होंने किन फ़िल्मों में कौन कौन से यादगार गीत गाये। १९३२ में न्यु थिएटर्स ने सहगल को तीन फ़िल्मों में कास्ट किया; ये फ़िल्में थीं - 'मोहब्बत के आँसू', 'सुबह का तारा' और 'ज़िंदा लाश'। इन तीनों फ़िल्मों में संगीत बोराल साहब का था। 'मोहब्बत के आँसू' में सहगल साहब और अख़्तरी मुरादाबादी के स्वर में कई गीत थे जैसे कि "नवाज़िश चाहिए इतनी ज़मीने कूवे जाना की" और "हम इज़तराबे कल्ब का ख़ुद इंतहा करते"। इन बोलों को पढ़ कर आप अनुमान लगा सकते हैं कि किस तरह की भाषा का इस्तमाल होता होगा उस ज़माने की ग़ज़लों में। ख़ैर, 'सुबह का तारा' फ़िल्म के "न सुरूर हूँ न ख़ुमार हूँ", "खुली है बोतल भरे हैं सागर", "आरज़ू इतनी है अब मेरे दिल-ए-नाशाद की" जैसे गानें ख़ूब चले थे। 'ज़िंदा लाश' फ़िल्म के "सारा आलम धोखा है, यह जीना है", "गुज़रे हाँ यूँ ही कटे दिन रैन", "आँखों में सर रहता है क्यों", "लगी करेजवा में चोट", "जानते हो तुम मुहब्बत किस क़दर इस दिल में है", "सज़ा मिली है मुझे तुमसे दिल लगाने की", "पहले तो शौक में ख़ाक दरे-मैख़ाना बनूँ" गानें भी एक से बढ़ कर एक थे। आज भले इन गीतों को दुनिया भुला चुकी है, लेकिन इनका भी अपना एक ज़माना था।

१९३२ की इन तीनों फ़िल्मों के गीतों ने कुछ ऐसा सर चढ़ के बोला कि अगले साल सहगल और बोराल की जोड़ी ने एक और कीर्तिमान स्थापित किया 'पूरन भगत' फ़िल्म के ज़रिए। न्यु थिएटर्स के मशहूर निर्देशक देबकी बोस निर्देशित यह प्रथम हिंदी फ़िल्म थी। सहगल का जादू कुछ ऐसा चला था कि कोई भूमिका न होते हुए भी सहगल को इस फ़िल्म में सिर्फ़ गीतों के लिए पर्दे पर उतारा गया था। इस फ़िल्म का सब से मशहूर गीत था "राधे रानी दे डारो ना", जो राग यमन कल्याण पर आधारित था, हालाँकि कहीं कहीं पर इसे राग बिहाग पर आधारित भी बताया गया है। आज के अंक को हम इसी गीत से सजा रहे हैं। इसी फ़िल्म का सहगल का गाया अन्य गीत "दिन नीके बीत जात है" भी ख़ूब लोकप्रिय हुआ था। 'पूरन भगत' के मुख्य कलाकारों में थे सी एम् रफ़ीक, अंसारी और के.सी. डे. के सी डे ने भी इस फ़िल्म में कुछ लोकप्रिय गीत गाये। दोस्तों, क्योंकि आज ज़िक्र एक साथ हुआ है सहगल साहब और के.सी. डे साहब का, तो क्यों न के.सी. डे साहब के भतीजे, यानी कि सुप्रसिद्ध पार्श्वगायक मन्ना डे के सहगल साहब से संबंधित कहे हुए शब्द पढें - "सहगल साहब बहुत लोकप्रिय थे। मेरे सारे दोस्त जानते थे कि मेरे चाचा जी, के.सी. डे साहब के साथ उनका रोज़ उठना बैठना है। इसलिए उनकी फ़रमाइश पे मैंने सहगल साहब के कई गानें एक दफ़ा नहीं, बल्कि कई बार गाये होंगे। 'कॊलेज-फ़ंक्शन्स' में उनके गाये गानें गा कर मैंने कई बार इनाम भी जीते।" और अगर आज के भजन की बात करें तो इसके कद्रदानों में संगीतकार रोशन साहब भी शामिल हैं। उनके शब्दों में - "वैसे तो मैं पहले से सुरों के पीछे पागल तो था ही, मगर एक सहगल साहब का भजन था जो मुझे बहुत पसंद था, यह उनका पहला ही गाना था फ़िल्मों के लिए, फ़िल्म थी 'पूरन भगत', मैंने कई बार यह फ़िल्म सिर्फ़ इस भजन के लिए देखी।" तो लीजिए, सुनिए फ़िल्म 'पूरन भगत' से "राधे रानी दे डारो ना"।



क्या आप जानते हैं...
कि अपने १५ वर्षीय करीयर में सहगल साहब ने कुल १८५ गीत गाये, जिनमें १४२ फ़िल्मी और ४३ ग़ैर फ़िल्मी हैं।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 3/शृंखला 13
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - गायक कुंदन लाल सहगल की एक बेहद लोकप्रिय गज़ल.

सवाल १ - किस बेमिसाल शायर की है ये गज़ल - २ अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - इस शायर के नाम पर बनी एक फिल्म में एक और बड़ी गायिका ने यही गज़ल गाई थी, जिसे हम ओल्ड इस गोल्ड में अभी कुछ दिनों पहले सुनाया था, कौन थी वो गायिका - ३ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
सबसे पहले एक स्पष्टीकरण - विकीपीडिया या अन्य वेब साईटों की जानकारियाँ भी हमारे आपके जैसे कद्रदान अपडेट करते हैं, जिनमें गलतियों की संभावना रहती है. हमारे रेफेरेंस अधिकतर लिखी हुई किताबों और विविध भारती के कार्यक्रमों से होते हैं जिन पर हम शायद अधिक विश्वसनीयता रख सकते हैं. जाहिर है पंकज राग और हरमंदिर हमराज़ जैसे दिग्गजों की बातों को हम विकिपीडिया से अधिक तवज्जो देंगें. अब कुछ आप लोगों के संशय भी दूर करें -
१. अंजाना जी, गौर करें कि हरिश्चंद्र बाली का जिक्र हमने भी किया है, पर पहेली जिस गाने के सन्दर्भ में थी उस गीत के संगीतकार पूछे गए थे, जिनका सहगल के करियर में महत्वपूर्ण योगदान था.
२. १९३३ की ये फिल्म शायद ही हम में से किसी ने देखी होगी, जाहिर है उसके कास्ट के बारे में जो जानकारी उपलब्ध है उसी के आधार पर सवाल पूछा गया था, सिद्धार्थ जी की दिए हुए लिंक के अलावा कहीं भी ये नहीं लिखा कि के सी डे ने फिल्म में अतिथि भूमिका की थी, और किसी भी फिल्म में एक दो या इससे भी अधिक प्रमुख किरदार हो सकते हैं, और जब हिंट दिया जा रहा है उनके गायक होने के बारे में भी तो कोई भी व्यक्ति के सी डे तक पहुँच सकता है, और अंजाना जी पहुंचे भी हैं...तो उनके ३ अंक पक्के हैं...हमें इस सवाल में कोई उलझाव नज़र नहीं आता.
देखिये हमारे पास संगीत ज्ञान रखने वाले श्रोताओं की भरमार है जाहिर है पहेलियाँ थोड़ी सी घुमा फिरा कर ही पूछनी पड़ेगी तभी तो हमें कल प्रतीक जी और सिद्धार्थ जी जैसे छुपे हुए धुरंधर दिखे.
अमित जी और हिन्दुस्तानी जी को भी कल के लिए बधाई.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, March 27, 2011

झुलना झुलाए आओ री...महान सहगल को समर्पित इस नयी शृंखला की शुरूआत आर सी बोराल के इस गैर फ़िल्मी गीत से



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 621/2010/321

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को हमारा नमस्कार और स्वागत है इस नए सप्ताह में। हिंदी फ़िल्म-संगीत की नीव रखने वाले कलाकारों में एक नाम ऐसा है जिनकी आवाज़ की चमक ३० के दशक से लेकर आज तक वैसा ही कायम है, जो आज भी सुननेवाले को मंत्रमुग्ध कर देता है। इस बेमिसाल फ़नकार का जन्म आज से १०७ साल पहले हुआ और जिनके गुज़रे आज छह दशक बीत चुके हैं। केवल पंद्रह साल लम्बी अपने सांगीतिक जीवन में इस अज़ीम फ़नकार ने अपनी कला की ऐसी सुगंधी बिखेरी है कि आज भी वह महक बरक़रार है दुनिया की फ़िज़ाओं में। और ये अज़ीम फ़नकार और कोई नहीं, ये हैं फ़िल्म जगत के प्रथम 'सिंगिंग् सुपरस्टार' कुंदन लाल सहगल। आगामी ४ अप्रैल को सहगल साहब की १०८-वीं जयंती है; इसी अवसर को केन्द्र में रखते हुए प्रस्तुत है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'मधुकर श्याम हमारे चोर'। सहगल साहब की आवाज़ और गायन शैली का लोगों पर ऐसा असर हुआ कि पूरा देश उनके दीवाने हो गए, और वो एक प्रेरणा स्तंभ बन गए अन्य उभरते गायकों के लिए। सज्जाद, रोशन और ओ.पी. नय्यर जैसे संगीतकार और तलत महमूद, मुकेश, किशोर कुमार और यहाँ तक कि लता मंगेशकर के एकमात्र प्रेरणास्रोत बन गए सहगल साहब। १९३१ में पहली बोलती फ़िल्म बनी 'आलम आरा', और सहगल साहब का आगमन हुआ उसके दूसरे ही साल १९३२ में, जब उन्होंने न्यु थिएटर्स की फ़िल्म 'मोहब्बत के आँसू' में एक छोटा सा रोल अदा किया।

के.एल. सहगल का जन्म पिता अमीरचंद और माँ केसर कौर के घर ४ अप्रैल १९०४ को जम्मु में हुआ था। बचपन से ही अपनी भोली सूरत की वजह से राम लीला में वे सीता की भूमिका निभाया करते थे। उनकी प्रतिभा को देख कर उनकी माँ उन्हें प्रोत्साहित करती थीं। उन्होंने सूफ़ी संत सलमान यूसुफ़ से सूफ़ियाना रियाज़ सीखा। १२ वर्ष की आयु में उन्होंने महाराजा प्रताप सिंह के दरबार में एक मीरा भजन गा कर बहुत सारी तारीफ़ें बटोरी और महाराजा ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा था कि वो एक बहुत नामी गायक बनेंगे। पिता की मृत्यु के बाद उन पर घर की ज़िम्मेदारी आ गई और वे जलंधर, मुरादाबाद और लखनऊ होते हुए कलकत्ता आ पहुँचे। इसी दौरान उन्होंने कभी सेल्समैन का काम किया, कभी टाइप-राइटर का, तो कभी रेल्वे में टाइम कीपर का। कलकत्ते में ही उनकी मुलाक़ात हो गई अपने जलंधर परिचित संगीतकार हरीशचंद्र बाली से, जो उन्हें न्यु थिएटर्स ले गए और शुरु हो गई उनके जीवन की अगली पारी। १९३२ में 'मोहब्बत के आँसू' में काम करने के बाद १९३३ में उनका पहला ग़ैर-फ़िल्मी रेकॊर्ड जारी हुआ। तो दोस्तों, क्यों न इस शृंखला की शुरुआत हम उसी ग़ैर फ़िल्मी रचना से करें! संगीतकार हैं आर.सी. बोराल। सहगल साहब को लोकप्रियता की चोटी तक पहुँचाने में यदि किसी संगीतकार का नाम लिया जाएगा, तो बोराल साहब का नाम सब से उपर आयेगा।



क्या आप जानते हैं...
कि हरीशचंद्र बाली के सुझाव पर आर.सी. बोराल ने जब सहगल को न्यु थिएटर्स में रख लिया, तब उनकी पारिश्रमिक २०० रुपय प्रति माह तय हुई थी।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 2/शृंखला 13
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - गायक कुंदन लाल सहगल का एक और लोकप्रिय भजन.

सवाल १ - किस फिल्म का है ये गीत - १ अंक
सवाल २ - कौन थे इस फिल्म के नायक जो खुद भी एक जाने माने गायक थे - ३ अंक
सवाल ३ - ये किस निर्देशक की पहली हिंदी फिल्म थी - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी ने शानदार शुरूआत की है, साथ में प्रतीक जी और शरद जी ने भी अपना खाता खोला है, अमित जी हमने अपने सूत्रों से दुबारा कन्फर्म किया है और पंकज राग के तथ्यों पर विश्वास करना ही सही लग रहा है.इन चारों बहनों ने एक ही गीत में अपना स्वर मिलाया था उस गीत में....

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Saturday, March 26, 2011

सुर संगम में आज - जल तरंग की मधुरता से तरंगित है आज रविवार की सुबह



सुर संगम - 13 - जल तरंग की उमंग

जल तरंग असाधारण इसलिए है कि यह एक तालवाद्‍य भी है और घनवाद्‍य भी। मूलतः इसमें चीनी मिट्टी की बनी कटोरियों में पानी भर उन्हें अवरोही क्रम(descending order) अथवा पंक्ति अथवा किसी भी और सुविधाजनक समाकृति में सजाया जाता है। फिर इन कटोरियों में अलग-अलग परिमाण में जल भर कर इन्हें रागानुसार समस्वरित(tune) किया जाता है। जब इन कटोरियों पर बेंत अथवा लकड़ी के बने छड़ों से मार की जाती है तब इनकी कंपन से एक मधुर झनकार सी ध्वनि उत्पन्न होती है।


मस्कार! सुर-संगम की एक और संगीतमयी कड़ी में सभी श्रोता-पाठकों का हार्दिक अभिनंदन। कैसी रही आप सब की होली? आशा है सब ने खूब धूम मचाई होगी। मैनें भी हमारे 'ओल्ड इज़ गोल्ड" के साथी सुजॉय दा के साथ मिलकर जम के होली मनाई। ख़ैर अब होली के बादल छट गए हैं और अपने साथ बहा ले गए हैं शीत एवं बसंत के दिनों को, साथ ही दस्तक दे चुकी हैं गरमियाँ। ऐसे में हम सब का जल का सहारा लेना अपेक्षित ही है। तो हमनें भी सोचा कि क्यों न आप सबकी संगीत-पिपासा को शाँत करने के लिए आज की कड़ी भी ऐसे ही किसी वाद्‍य पर आधारित हो जिसका संबंध जल से है। आप समझ ही गए होंगे कि मेरा संकेत है हमारे देश के एक असाधारण वाद्‍य - 'जल तरंग' की ओर।

जल तरंग असाधारण इसलिए है कि यह एक तालवाद्‍य भी है और घनवाद्‍य भी। मूलतः इसमें चीनी मिट्टी की बनी कटोरियों में पानी भर उन्हें अवरोही क्रम(descending order) अथवा पंक्ति अथवा किसी भी और सुविधाजनक समाकृति में सजाया जाता है। फिर इन कटोरियों में अलग-अलग परिमाण में जल भर कर इन्हें रागानुसार समस्वरित(tune) किया जाता है। जब इन कटोरियों पर बेंत अथवा लकड़ी के बने छड़ों से मार की जाती है तब इनकी कंपन से एक मधुर झनकार सी ध्वनि उत्पन्न होती है। इसी मधुर तरंग नुमा ध्वनि के कारण इस वाद्‍य का नाम 'जल तरंग' पड़ा। यूँ तो यह कहना कठिन है कि इस वाद्‍य की उत्पत्ति कब और कहाँ हुई थी परंतु इसका सबसे पहला उल्लेख पाया जाता है मध्यकालीन ग्रंथ - 'संगीत पारिजात' में। तानसेन द्वारा रचित ग्रंथ 'संगीत सार' में जल तरंग का उल्लेख है। इस ग्रंथ के अनुसार जल तरंग को तभी पूरा माना गया है जब इसमें २२ कटोरियों क प्रयोग किया जाए। मध्य कालीन जलतरंग में काँसे की बनी कटोरियों का भी प्रयोग किया जाता था। कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि मश्हूर सम्राट सिकंदर भारत आते समय मैसिडोनिया से कुछ जल तरंग वादको को अपने साथ ले आये थे। आज साधरणतः जल तरंग में १६ प्यालों का प्रयोग किया जाता है, इनमें बडे़ आकार के प्यालों से निचले सप्तक यानि मंद्र स्वर तथा छोटे आकार के प्यालों से ऊँचे सप्तक यानि तार स्वर उत्पन्न किये जाते हैं। आइये आनंद लेते हैं प्रख्यात जल तरंग वादिका डॉ० रागिनी त्रिवेदी की इस मनमोहक प्रस्तुति का। डॉ० त्रिवेदी भारत की प्रमुख महिला जल तरंग शिल्पियों में से एक हैं तथा इस लुप्त होती वाद्‍य कला को बचाए रखने में इनका योगदान उल्लेखनीय रहा है।



भारत में कई प्रख्यात जल तरंग वादक हुए हैं जिनमें रामराव परसत्वर, डॉ० रागिनी त्रिवेदी, श्रीमति रंजना प्रधान, शंकर राव कनहेरे, अनयमपट्टि एस. धन्द्पानि, मिलिन्द तुलंकर, नेमानी सौमयाजुलु, सेजल चोकसी और बलराम दूबे प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त पाकिस्तान के लियाक़त अलि भी खासे प्रसिद्ध जल तरंग शिल्पी हैं। आज के दौर में मिलिन्द तुलंकर एक ऐसा नाम है जिसे भारत के सर्वश्रेष्ठ जल तरंग वादकों में लिया जाता है। मिलिन्द का जन्म तथा लालन-पालन एक "संगीतमय" परिवार में हुआ तथा उन्होंने बहुत ही कम आयु से ही जल-तरंग की विद्या अपने नाना स्वर्गीय पं० शंकरराव कनहेरे से प्राप्त करनी शुरू कर दी थी। पं० शंकरराव कनहेरे स्वयं एक विख्यात जल तरंग वादक थे तथा ऑल इण्डिया रेडियो के 'ए-ग्रेड' यानि प्रथम श्रेणि के कलाकारों में एक थे। उन्होंने देश-विदेश में कई समारोह प्रस्तुत कर जल तरंग को लोकप्रिय बनाया और इस वाद्‍य पर एक पुस्तक भी लिखी जिसे संगीत कार्यालय(हाथरस) ने प्रकाशित किया था। तो लीजिए पेश है उनकी छत्रछाया में पले-बढ़े मिलिन्द तुलंकर की इस प्रस्तुति का एक विडियो, आनंद लीजिए!



और अब बारी इस कड़ी की पहेली का जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से ज़्यादा अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

सुनिए इस टुकड़े को और पहचानिए कि यह कौन सी लोक-शैली है जो चैत्र के महीनें में गायी जाती है। गायिका आज के दौर के एक सुप्रसिद्ध अभिनेता कि माँ थीं, उन्हें पहचानने पर ५ बोनस अंक!




पिछ्ली पहेली का परिणाम: अमित जी ने राग को बिलकुल सही पहचाना और ५ अंक अर्जित कर लिए हैं। बधाई!

लीजिए, हम आ पहुँचे हैं 'सुर-संगम' की आज की कड़ी की समाप्ति पर। आशा है आपको यह कड़ी पसन्द आई। आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। आगामि रविवार की सुबह हम पुनः उपस्थित होंगे एक नई रोचक कड़ी लेकर, तब तक के लिए अपने मित्र सुमित चक्रवर्ती को आज्ञा दीजिए, और शाम ६:३० बजे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में पधारना न भूलिएगा, आपके प्रिय सुजॉय चटर्जी प्रस्तुत करेंगे एक नई लघु शृंखला, नमस्कार!

प्रस्तुति- सुमित चक्रवर्ती



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

ई मेल के बहाने यादों के खजाने लेकर हम लौटे हैं इंदु जी के साथ जो है एक प्यारी माँ हम सब की



'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, स्वागत है शनिवार के इस साप्ताहिक विशेषांक में। आज बारी 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' की। आज बहुत दिनों के बाद हमारी प्रिय इंदु जी का ईमेल इसमें शामिल हो रहा है। आप में से बहुत से पाठकों को शायद याद होगा कि इंदु जी के एक पहले के ईमेल में उन्होंने एक बच्चे के बारे में बताया था। हम आप से यही गुज़ारिश करेंगे कि अगर आप ने उस समय उस ईमेल को नहीं पढ़ा था तो पहले यहाँ क्लिक कर उसे पढ़ के दुबारा यहीं पे वापस आइए। तो आज के ईमेल में भी इंदु जी ने उसी बच्चे के बारे में कुछ और बातें हमें बता रही हैं। जिस तरह से पिछले ईमेल ने हमारी आँखों को नम कर दिया था, आज के ईमेल को पढ़ कर भी शायद आलम कुछ वैसा ही होगा। आइए इंदु जी का ईमेल पढ़ा जाये!
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प्रिय सजीव और सुजॊय,

प्यार!
तुमने (आपने नही लिखूंगी सोरी न) कहा मैं अपनी पसंद का गाना बताऊँ तुम सुनोगे, सुनाओगे। हंसी तो नही उडाओगे न कि ये हरदम ........?????? मैंने एक बार बताया था न एक बच्चे के बारे में? नन्नू बुलाती थी मैं उसे; नन्हू से नन्नू बन गया था वो हम सबका। अपने से दूर करने के बारे में कभी सोचा भी नही था। किन्तु पिछले अठारह उन्नीस साल से डायबिटिक हूँ और उम्र के इस पडाव पर... उसे बड़ा करने और पैरों पर खड़ा होने तक कम से कम पच्चीस साल चाहिए.....इतना समय मेरे पास है? जिसे जीवन और खुशियाँ देना चाहती थी हो सकता है कल मेरे ना रहने पर उसका जीवन नर्क बन जाता.......... और इसीलिए हमे एक सख्त कदम उठाना पड़ा उसे अपने से दूर करने का। इससे पहले भी कई बच्चे मेरे जीवन में आये और अच्छे परिवारों में चले गये। घर नही आया था कोई। नन्नू चार महीने हमारे पास रहा। वो अब पलटी मारने लगा था। 'इन्हें' देखते ही पलटी मारना शुरू कर देता। 'ये' खूब हंसते -'ओ मेरा बेटा पलती माल लहा है गुड...गुड..वेरी गुड।' और वो जैसे समझने लगा था। इन्हें देखते ही इतराना चालू कर देता..............मगर उसे जाना था.....वो चला गया।

पन्द्रह दिन बाद हम उसे सँभालने उसके नए मम्मी पापा के घर गये। 'इनकी' गोदी में जाते ही नन्नू गोदी से लुढक गया और...पलटिया मारने लगा। हर पलटी के बाद इनके चेहरे की ओर देखता, इस बार वो मुस्करा नही रहा था और ना ही गोस्वामीजी बोले-'ओ मेरा बेटा पलती.....' ये बुरी तरह रोने लगे.......हम सब फूट फूट कर रोये जा रहे थे। हमने सोचा वो बहुत छोटा है, हमे क्या याद करता होगा, पर...क्या हमारे पहली बार छोड़ कर आने के बाद उसकी आँखों ने चारों ओर हमे नही ढूँढा होगा? हमे नही पा कर अंदर नही रोया होगा? क्या वो अपने दुःख को किसी को बता पाया होगा? या...कोई समझ पाया होगा? बाबू! ऐसे कई प्रश्न आज भी हमे घेरे रहते हैं....उस दिन को ले के... कृष्ण यशोदा को छोड़ कर एक बार गये। और कभी वापस नही आये। मेरे कृष्ण तो हर बार मेरी गोदी चुनते हैं और चले जाते हैं और फिर नये रूप में आ जाते हैं .... यही कारण है ये गीत मेरे दिल के इतना करीब हो गया है। इसमें मुझे मेरे नन्नू की आवाज आती है। जानती हूँ वो मुझे भूल चूका है। अब माँ नही नानी बोलता है। फोन करता है, 'नानी आओ.एपल,भुट्टा लाना'। किन्तु उस दिन को नही भूल पाती जब हम कार से गये तीन व्यक्ति थे और लौटे....दो।

इस गीत की पंक्तियाँ... 'प्यासा था बचपन, जवानी भी मेरी प्यासी, पीछे गमों की गली

आगे उदासी, मैं तन्हाई का राही, कोई अपना ना बेगाना अफ़साना, मुझे अब ना बुलाना ............. खुल कर ना रोया किसी काँधे पर झुक के'।

जितना चाहो पोस्ट कर देना बाकि को एडिट कर निकाल देना,जैसे सबने नन्नू को मेरे जीवन से निकाल दिया जबरन...पर मेरे दिल से.???? मेरे जीते जी....???...धुंधला सा भी कहीं क्यों हो उजाला! अब उन यादों से कह दो मेरी दुनिया में ना आना 'सुनो इसके एक एक शब्द। कहीं नन्नू, कहीं तुम्हारी दोस्त इंदु है इसमें।

प्यार

इंदु

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अब इसके बाद बिना कुछ कहे, आइए सुनते हैं फ़िल्म 'दादी माँ' का इंदु जी का चुना हुआ यह गीत "जाता हूँ मैं मुझे अब ना बुलाना"। आवाज़ मोहम्मद रफ़ी साहब की, गीत मजरूह सुल्तानपुरी साहब का, और संगीतकार रोशन साहब। यह १९६६ की फ़िल्म थी। आइए गीत सुना जाये!

गीत - जाता हूँ मैं मुझे अब ना बुलाना (दादी माँ)



और इंदु जी, अभी कुछ दिन पहले आपनें अफ़सोस जताया कि दुर्गा खोटे पर फ़िल्माया 'बिदाई' के जिस भजन को हमनें चुना था, उससे बेहतर भजन उसी फ़िल्म में मौजूद थी। आप ही के शब्दों में - "आपने शायद इस फिल्म का एक बेहद मधुर, मर्मस्पर्शी भजन नही सुना, अन्यथा उसे ही सुनाते, 'मैं जा रही थी मन लेके तृष्णा, अच्छे समय पे तुम आये, तुम आये, तुम आये कृष्णा'। एक एक शब्द भीतर तक एक हलचल सी मचा देता है। आँखें स्वयम मूँद जाती है और.... जैसे वो पास आके बैठ जाता और कहता है- 'तुम्हे छोड़ कर कहाँ जाता मैं इंदु? मुझे तो आना ही था। काश उस भजन को सुनाया होता। कहीं नही अड़ता, टिकता ये भजन उसके सामने। कहना नही चाहिए था। इतने दिनों बाद आई और उलाहने देने लगी। हा हा हा, क्या करूं ? ऐसिच हूँ मैं -झगडालू।" इंदु जी, आप बिल्कुल झगड़ालू नहीं हैं, बल्कि यकीन मानिये हमें कितनी ख़ुशी होती है यह देख कर कि कितने अपनेपन से आप सब 'ओल्ड इज़ गोल्ड' को सुनते हैं, पढ़ते हैं, और शिकवे शिकायतें भी तो अपनों से ही की जाती है न? तो लीजिए आज हम आपकी इस प्यारी सी शिकायत को दूर किए देते हैं, फ़िल्म 'बिदाई' के इस भजन को यहाँ पर बजाकर। वाक़ई बेहद सुंदर रचना है आशा भोसले का गाया हुआ। गीतकार आनंद बक्शी और संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल। आइए सुनें।

गीत - अच्छे समय पे तुम आये कृष्णा (बिदाई)



तो ये था आज का 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने'। इंदु जी की तरह आप भी अपने जीवन की एक ऐसी ही अविस्मरणीय घटना हमें इस स्तंभ के लिए लिख भेजिए oig@hindyugm.com के पते पर। अगले हफ़्ते एक ख़ास साक्षात्कार के साथ हम फिर उपस्थित होंगे 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में। अब मेरी और आपकी अगली मुलाक़ात होगी कल सुबह 'सुर-संगम' में। तब तक के लिए अनुमति दीजिए, नमस्कार!

Friday, March 25, 2011

सुनो कहानी: मनोहर कहानी - मुंशी नवल किशोर



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में असग़र वजाहत की लघुकथा "हँसी" का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं मुंशी नवल किशोर द्वारा सन् 1882 में प्रकाशित कथा संग्रह मनोहर कहानी में से "एक शिक्षाप्रद कहानी", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

इस शिक्षाप्रद कहानी का कुल प्रसारण समय 1 मिनट 27 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

असग़र वजाहत के सौजन्य से इस कथा का टेक्स्ट बीबीसी पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।




मुंशी नवल किशोर (1836-1895)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

,‘‘महाराज ! मैं तो अपने ठाकुर को रिझाता हूँ और कोई रीझा तो क्या, न रीझा तो क्या?’’
(मनोहर कहानी की "शिक्षाप्रद कहानी" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#123nd Story, Manohar Kahani: Munshi Nawal Kishore/Hindi Audio Book/2011/6. Voice: Anurag Sharma

Thursday, March 24, 2011

पा लागूं कर जोरी जोरी....सुर सम्राज्ञी लता मंगेशकर के गले से निकला पहला प्ले बैक गीत समर्पित है दुनिया की आधी जनसख्या को जिनके दम पर कायम है जीवन का खेला



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 620/2010/320

ह बात है साल २८ सितंबर १९२९ की। इंदौर के सिखमोहल्ला नामक जगह पर जन्म हुआ था एक बच्ची का। अपने भाई बहनों के साथ खेलते कूदते बचपन बीत ही रहा था कि एक दिन अचानक इस लड़की पर बिजली टूट पड़ी जब केवल १३ वर्ष की आयु में उसके पिता चल बसे। उस वक़्त परिवार में और कोई दूसरा कमाने वाला न था। ऐसे में इस १३ साल की लड़की ने अपने परिवार की बागडोर अपने हाथ में ली और उतर गई सिनेजगत में। इस कच्ची उम्र में सुबह की लोकल ट्रेन से निकल पड़तीं और शाम को घर वापस लौटतीं। चार सालों तक बतौर बालकलाकार फ़िल्मों में छोटे मोटे किरदार निभाने के बाद उन्हें लगने लगा कि यह वह काम नहीं है जो उन्हें करना चाहिए। उनका रुझान तो गायन में था। शुरु शुरु में उन्हें कोरस में गाने के मौके मिले, लेकिन इस स्वाभिमानी लड़की ने कोरस में गाने से साफ़ इंकार कर दिया। यहाँ तक कि एक बार किसी गायक ने उनके साथ रेकॊर्डिंग् पर छेड़-छाड़ करने की कोशिश की थी, उस दिन वह लड़की रेकॊर्डिंग् वहीं छोड़ घर वापस चली गई थी। दोस्तों, इस जगह से यह लड़की फिर एक दिन बन गईं हिंदुस्तान की सर्वश्रेष्ठ व सर्वोपरि पार्श्वगायिका। इस सदी की आवाज़, इस देश की सुरीली धड़कन, स्वरसाम्राज्ञी, भारत रत्न लता मंगेशकर हैं 'कोमल है कमज़ोर नहीं' शृंखला के अंतिम कड़ी की मध्यमणि। लता मंगेशकर के बारे में नया कुछ बताने की न कोई ज़रूरत है और न ही हमारे पास कुछ है। बस इतना याद दिलाना चाहेंगे कि लता जी को १९६९ में पद्मभूषण, १९८९ में दादा साहब फाल्के पुरस्कार, १९९७ में महाराष्ट्र भूषण पुरस्कार, १९९९ में पद्मविभूषण, और २००१ में भारतरत्न से सम्मानित किया गया है। इनके अलावा सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायिका के लिए तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।

दोस्तों, जब भी लता जी पर कोई ख़ास अंक या ख़ास शृंखला आयोजित होती है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर, तो हम सोच में पड़ जाते हैं कि उनको सलाम करते हुए उनका गाया कौन सा गीत सुनवाया जाए! तो आज जिस ख़ास गीत को हम ढूंढ लाये हैं, वह बहुत बहुत ज़्यादा ख़ास है, क्योंकि यह लता जी का गाया पहला प्लेबैक्ड गीत है। दोस्तों, आपको याद होगा हमनें ट्विटर के माध्यम से लता जी का एक इंटरव्यु लिया था जिसमें मैंने उनसे यह पूछा था कि जब १९४६ की फ़िल्म 'सुभद्रा' में उन्होंने शांता आप्टे के साथ मिलकर "मैं खिली खिली फुलवारी" गीत गाया था, तो फिर १९४७ की फ़िल्म 'आपकी सेवा में' का गीत "पा लागूँ कर जोरी रे" को उनका पहला गीत क्यों कहा जाता है, तो इसके जवाब में लता जी नें कहा था कि दरअसल १९४२ से १९४६ तक उन्होंने उन फ़िल्मों में गानें गाये जिनमें उन्होंने बतौर बालकलाकार अभिनय किया था और वो गानें उन्हीं पर फ़िल्माये गये थे। किसी अभिनेत्री के लिए उन्होंने पहली बार 'आपकी सेवा में' के इसी गीत में प्लेबैक किया था। तो लीजिए, दोस्तों, आज इसी गीत की बारी। है न बेहद ख़ास! दत्ता डावजेकर की बनाई धुन पर इ़स गीत में लता जी और साथियों की आवाज़ें हैं। दत्ता डावजेकर मास्टर विनायक की फ़िल्म कंपनी में काम कर चुके थे। इसलिए वो लता के नाम से वाक़ीफ़ थे। १९४३ की मराठी फ़िल्म 'माझे बाल' में भी उन्होंने लता को गवाया था। 'आपकी सेवा में' फ़िल्म को अगर आज लोगों ने याद रखा है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ इस बात के लिए कि यह लता जी की पहली फ़िल्म थी बतौर पार्श्वगायिका। तो आइए इस ठुमरी का आनंद लें, और इसी के साथ इस ख़ास लघु शृंखला को समाप्त करने की हमें इजाज़त दें। आप अपने सुझाव और विचार टिप्पणी के अलावा हमारे ईमेल आइडी oig@hindyugm.com के पते पर भी लिख भेज सकते हैं। अब विदा लेते हैं, फिर मुलाक़ात होगी शनिवार के विशेषांक में। हाँ, चलने से पहले वो ही चंद शब्द दोहराता हूँ कि... कोमल है कमज़ोर नहीं तू, शक्ति का नाम ही नारी है, जग को जीवन देनेवाली, मौत भी तुझसे हारी है। नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि दता डावजेकर ने १९४३ की मराठी फ़िल्म 'माझे बाल' में एक गीत कम्पोज़ किया था "चल चल नव बाला", जिसे उन्होंने चारों मंगेशकर बहनों, यानी कि लता, आशा, उषा और मीना से गवाया था। और यह एकमात्र ऐसा गीत है जिसे इन चारों बहनों ने साथ में गाया है।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 1/शृंखला 13
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - एक बार ये के गैर फ़िल्मी रचना है.

सवाल १ - ये इस कलाकार का पहला गैर फ़िल्मी रिकॉर्ड था जिसमें संगीत दिया था ______ - ३ अंक
सवाल २ - इस कलाकार की पहली फिल्म आई थी १९३२ में जिसका नाम था_________ - २ अंक
सवाल ३ - कौन हैं ये अमर फनकार जिन पर आधारित है हमारी नयी शृंखला - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अरे वाह इस बार तो मुकाबला आखिरी बोंल तक चला. अंजाना जी समझदारी से चले उन्हें शायद ४ अंक के सवाल का जवाब नहीं आता था तो उन्होंने ३ अंक ले लिए, अमित जी इस बार आप चूक गए, जवाब कुछ गलत है, सही जवाब आपको पता लग चुका होगा (उपर देखें :क्या आप जानते हैं), हमारा स्रोत है पंकज राग की पुस्तक "धुनों की यात्रा". तो इस तरह से एक अंक पीछे चल रहे अंजाना जी २ अंक आगे बढ़ गए और पहली बार विजयी बने. मुबारकबाद, और शुभकामनाएँ अगली शृंखला के लिए.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, March 23, 2011

कोमल है कमज़ोर नहीं तू.....जब खुद एक सशक्त महिला के गले से निकला हो ऐसा गीत तो निश्चित ही एक प्रेरणा स्रोत बन जाता है



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 619/2010/319

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! 'कोमल है कमज़ोर नहीं' शृंखला की कल की कड़ी में हमनें यह कहा था कि पार्श्वगायन को छोड़ कर हिंदी फ़िल्म निर्माण के अन्य सभी क्षेत्रों में पुरुषों का ही शुरु से दबदबा रहा है। दोस्तों, भले ही पार्श्वगायन की तरफ़ महिलाओं ने बहुत पहले से ही क़दम बढ़ा लिया था, लेकिन इस राह पर चलने और सफलता प्राप्त करने के लिए भी गायिकाओं को कड़ी मेहनत करनी पड़ी है। १९३३ में एक बच्ची का जन्म हुआ था जिसने ९ वर्ष की आयु में ही अपने पिता को खो दिया। जब वो १६ वर्ष की हुईं तो एक ३१ वर्षीय आदमी से अपने परिवार के ख़िलाफ़ जाकर प्रेम-विवाह कर लिया। और इस वजह से उनके परिवार ने उनसे रिश्ता तोड़ लिया। और अफ़सोस की बात यह कि ससुराल वालों ने भी उनके साथ दुर्व्यवहार किया। अपने बच्चों को पालने के लिए वो पार्श्वगायन के मैदान में उतरीं। गर्भवती अवस्था में भी उन्हें कड़ी मेहनत करनी पड़ी। आगे चलकर उन्होंने अपने बच्चों को लेकर हमेशा के लिए अपने पति का घर छोड़ दिया। पार्श्वगायन में शुरु शुरु में उन्हें कमचर्चित संगीतकारों के लिए ही गाने के मौके मिलते थे, जिस वजह से सफलता उनसे दूर दूर ही रहती, लेकिन १० वर्षों तक लगातार संघर्ष करने के बाद सफलता आख़िर उनके क़दमों पे आकर गिर ही पड़ीं, और आज 'आशा भोसले' का नाम बच्चे बच्चे की ज़ुबान पर फिरता है। 'कोमल है कमज़ोर नहीं' की नौवीं कड़ी है आशा जी के नाम। आशा जी के बारे में और नया क्या बताऊँ, चलिए आज उनको मिले पुरस्कारों पर एक नज़र डालते हैं। उन्हें फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से १९६७, १९६८, १९७१, १९७२, १९७३, १९७४, १९७७ और २००० में सम्मानित किया गया है। राष्ट्रीय पुरस्कार उन्हें मिले १९८१ और १९८६ में। अन्य पुरस्कारों में शामिल हैं नाइटिंगेल ऒफ़ एशिया अवार्ड (१९८७), मध्य प्रदेश शासन पदत्त लता मंगेशकर अवार्ड (१९८९), स्क्रीन विडिओकोन अवार्ड (१९९७, २००२), एम.टी.वी अवार्ड (१९९७, २००१), चैनल वी अवार्ड (१९९७), दयावती मोदी अवार्ड (१९९८), महाराष्ट्र शासन प्रदत्त लता मंगेशकर अवार्ड (१९९९), सिंगर ऒफ़ दि मिलेनियम अवार्ड (२०००), ज़ी गोल्ड बॊलीवूड अवार्ड (२०००), बी.बी.सी. लाइफ़टाइम अचीवमेण्ट अवार्ड (२००२), ज़ी सिने अवार्ड (२००२), सैन्सुइ मूवी अवार्ड (२००२), स्वरालय येसुदास अवार्ड (२००२), इण्डियन चेम्बर ऒफ़ कॊमर्स प्रदत्त लिविंग् लिजेण्ड अवार्ड (२००४) आदि। लेकिन इन सब से भी बड़ा पुरस्कार है उनके असंख्य चाहनेवालों का प्यार जो उन्हें बराबर मिलता आया है और आगे भी मिलता रहेगा।

आशा भोसले को सलाम करने के लिए हमने जो गीत चुना है, वह वही गीत है जिसके मुखड़े की पंक्ति से प्रेरीत होकर हमनें इस शृंखला का शीर्षक रखा है "कोमल है कमज़ोर नहीं"। जी हाँ, यह फ़िल्म 'आख़िर क्यों?' का गीत है जो फ़िल्माया गया है स्मिता पाटिल पर। इस फ़िल्म की कहानी कुछ ऐसी थी कि निशा (स्मिता पाटिल) अपने पति कबीर (राकेश रोशन) के साथ ख़ुशी ख़ुशी जीवन बिता रही होती हैं। लेकिन जल्द ही निशा के जीवन में प्रलय आ जाती है जब उन्हें पता चलता है कि कबीर का उसकी की बहन इंदु (टिना मुनीम) के साथ संबंध है। निशा अपनी बेटी को लेकर घर छोड़ देती है और फिर शुरु होता है उसका संघर्ष। वो अपने पैरों पर खड़ी होती है, लड़कियों के एक स्कूल में म्युज़िक टीचर की नौकरी करती है और अपनी बेटी को पालती है। और इस सफ़र में उसका हमसफ़र बनने के लिए उसके जीवन में आता है लेखक आलोक (राजेश खन्ना)। जे. ओम प्रकाश निर्देशित १९८५ की फ़िल्म 'आख़िर क्यों?' की पटकथा व संवाद लिखीं डॊ. अचला नागर नें। राजेश रोशन का संगीत था तथा इंदीवर के लिखे इस फ़िल्म के गीतों को ख़ूब लोकप्रियता मिली थी। "दुश्मन न करे दोस्त ने वो काम किया है", "एक अंधेरा लाख सितारे", "सात रंग में खेल रही है दिलवालों की टोली रे" और "शाम हुई चढ़ आयी रे बदरिया" जैसे कामयाब गीतों के साथ साथ आज का प्रस्तुत गीत भी काफ़ी सुना गया। आज का यह गीत इस शृंखला के लिए बहुत ही सटीक है, इसके एक एक शब्द से नारी-शक्ति की ख़ुशबू आती है। कविता की शैली में लिखा यह गीत सुनने से पहले पढ़िए इसके बोल...

कोमल है कमज़ोर नहीं तू,
शक्ति का नाम ही नारी है,
जग को जीवन देनेवाली,
मौत भी तुझसे हारी है।

सतियों के नाम पे तुझे जलाया,
मीरा के नाम पे ज़हर पिलाया,
सीता जैसी अग्नि-परीक्षा
जग में अब तक जारी है।

इल्म हुनर में दिल दिमाग में
किसी बात में कम तू नहीं,
पुरुषों वाले सारे ही
अधिकारों की अधिकारी है।

बहुत हो चुका अब मत सहना,
तुझे इतिहास बदलना है,
नारी को कोई कह ना पाये
अबला है बेचारी है।

'कोमल है कमज़ोर नहीं' का यह अंक समर्पित है आशा भोसले स्मिता पाटिल और डॊ. अचला नागर के नाम!



क्या आप जानते हैं...
कि आशा भोसले नें भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेज़ी, रूसी और मलय भाषाओं में भी गीत गाये हैं।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 10/शृंखला 12
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - महान लता को समर्पित है ये अंक, तो चंद सवाल उन्हीं के बारे में आज.

सवाल १ - लता ने अपना पहला पार्श्वगायन किस संगीतकार के लिए किया था - २ अंक
सवाल २ - उनके सबसे पहले गाये गीत "मैं खिली खिली" में किसने उनका साथ दिया था यानी आवाज़ मिलाई थी - ३ अंक
सवाल ३ - प्रस्तुत गीत के संगीतकार ने एक मराठी फिल्म में चारों मंगेशकर बहनों को एक साथ गवाया था, क्या है उस मराठी फिल्म का नाम - ४ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अंजाना जी आज आखिरी मौका है, कुछ कर गुजरिये....

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, March 22, 2011

कहाँ से आये बदरा....एक से बढ़कर एक खूबसूरत फ़िल्में दी सशक्त निर्देशिका साईं परांजपे ने



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 618/2010/318

पार्श्वगायन को छोड़ कर हिंदी फ़िल्म निर्माण के अन्य सभी क्षेत्रों में पुरुषों का ही शुरु से दबदबा रहा है। लेकिन कुछ साहसी और सशक्त महिलाओं नें फ़िल्म निर्माण के सभी क्षेत्रों में क़दम रखा और दूसरों के लिए राह आसान बनायी. ऐसी ही कुछ महत्वपूर्ण महिला कलाकारों को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला 'कोमल है कमज़ोर नहीं' में आप सब का हम फिर एक बार स्वागत करते हैं। कल की कड़ी में हमने बातें की मशहूर लेखिका इस्मत चुगताई की, और आज बातें फिर एक बार एक लेखि्का व निर्देशिका की। इन्होंने अपनी कलम को अपना 'साज़' बनाकर ऐसी 'कथा' लिखीं कि वह न केवल सब के मन को 'स्पर्श' कर गईं बल्कि फ़िल्म निर्माण को भी एक नई 'दिशा' दी। उनकी लाजवाब फ़िल्मों को देख कर केवल पढ़े लिखे लोग ही नहीं, बल्कि 'अंगूठा-छाप' लोगों ने भी एक स्वर कहा 'चश्म-ए-बद्दूर'!!! जी हाँ, हम आज बात कर रहे हैं साईं परांजपे की। १९ मार्च १९३८ को लखनऊ मे जन्मीं साईं के पिता थे रशियन वाटरकलर आर्टिस्ट यूरा स्लेप्ट्ज़ोफ़, और उनकी माँ थीं शकुंतला परांजपे, जो ३० और ४० के दशक की हिंदी और मराठी सिनेमा की जानीमानी अभिनेत्री थीं। वी. शांताराम की मशहूर फ़िल्म 'दुनिया न माने' में भी शकुंतला जी ने अभिनय किया था। बाद में शकुंतला जी एक लेखिका व समाज सेविका बनीं और राज्य सभा के लिए भी मनोनीत हुईं। वो १९९१ में पद्मभूषण से सम्मानित की गई। दुर्भाग्यवश सई के जन्म के कुछ दिनों में ही उनके माता-पिता अलग हो गए और सई को उनकी माँ ने बड़ा किया अपने पिता श्री आर. पी. परांजपे के घर में, जो एक प्रसिद्ध गणितज्ञ और शिक्षाविद थे। इस तरह से साईं को बहुत अच्छी शिक्षा मिली और कई शहरों में रहने का मौका भी मिला, जिनमें पुणे का नाम उल्लेखनीय है। बचपन में सई अपने चाचा अच्युत राणाडे के पास जाया करतीं, जो ४० और ५० के दशकों के जानेमाने फ़िल्मकार थे। उन्हीं से साईं को पटकथा लेखन की पहली शिक्षा मिली। साईं ने भी लिखना शुरु किया और केवल आठ वर्ष की आयु में उनकी पहली पुस्तक 'मूलांचा मेवा' (मराठी) प्रकाशित हुई। १९६३ में साईं ने 'नैशनल स्कूल ऒफ़ ड्रामा' से स्नातक की डिग्री प्राप्त की।

साईं परांजपे का करीयर आकाशवाणी पुणे से आरंभ हुआ बतौर उद्घोषिका, और जल्दी ही वहाँ के बाल-कार्यक्रम के माध्यम से लोकप्रियता हासिल कर लीं। साईं ने अपने करीयर में मराठी, हिंदी और अंग्रेज़ी में बहुत से नाटक लिखे और निर्देशित कीं। सई नें न केवल फ़ीचर फ़िल्मों का निर्माण किया बल्कि बच्चों की फ़िल्में और वृत्तचित्रों का भी निर्माण व निर्देशन किया। उनकी लिखी किताबों में ६ किताबों को राष्ट्रीय या राज्य स्तर के पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। दूरदर्शन के लिए साईं ने महत्वपूर्ण योगदान दिया और कई वर्षों तक बतौर प्रोड्युसर व डिरेक्टर जुड़ी रहीं। टीवी के लिए उनकी पहली फ़िल्म 'दि लिट्ल टी शॊप' को तेहरान में 'एशियन ब्रॊडकास्टिंग् युनियन अवार्ड' से सम्मानित किया गया था। बम्बई दूरदर्शन के सर्वप्रथम कार्यक्रम को प्रोड्युस करने का दायित्व उन्हें ही दिया गया था, जो उनके लिए बड़ा सम्मान था। ७० के दशक में साईं को दो बार 'चिल्ड्रेन फ़िल्म सोसायटी ऒफ़ इण्डिया' के सचिव के लिए चुना गया, और उस दौरान उन्होंने चार बाल-फ़िल्में बनाईं, जिनमें 'जादू का शंख' और 'सिकंदर' को पुरस्कृत किया गया था। उनकी पहली फ़ीचर फ़िल्म 'स्पर्श' (१९८०) को उस साल राष्ट्रीय पुरस्कार के साथ साथ अन्य पाँच पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया था। 'स्पर्श' के बाद दो हस्य फ़िल्में उन्होंने बनाईं - 'चश्म-ए-बद्दूर' (१९८१) और 'कथा' (१९८२)। उन्होंने १९८४ में 'अड़ोस-पड़ोस' और १९८५ में 'छोटे-बड़े' जैसी टीवी सीरियल्स बनाये। उनकी अन्य फ़िल्मों में शामिल हैं - 'अंगूठा छाप' (राष्ट्रीय साक्षरता मिशन पर केन्द्रित), 'दिशा' (स्थानांतरित मज़दूरों पर केन्द्रित), 'पपीहा' (जंगल पर केन्द्रित), 'साज़' (दो गायिका बहनों के जीवन की कहानी पर केन्द्रित), और 'चकाचक' (वातावरण-दूषण पर केन्द्रित)। इस तरह से साईं परांजपे एक ऐसी फ़िल्मकार हैं जिन्होंने हमेशा ही अर्थपूर्ण फ़िल्में बनाईं हैं। सन् २००६ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। आइए आज उनको सलाम करते हुए सुनते हैं फ़िल्म 'चश्म-ए-बद्दूर' से एक बड़ा ही मशहूर गीत "कहाँ से आये बदरा, घुलता जाये कजरा"। हमनें इस गीत को इसलिए भी चुना क्योंकि इस गीत को लिखा है एक महिला गीतकार नें। इंदु जैन ने इस गीत को लिखा है और संगीत दिया है राजकमल साहब नें। युगल आवाज़ें हैं हेमंती शुक्ला और येसुदास के। महिला गीतकारों की अगर बात करें तो एक और नाम जो याद आता है, वह है माया गोविंद जी का। तो दोस्तों, 'कोमल है कमज़ोर नहीं' की आज की कड़ी में हमनें जिन महिला कलाकारों का नाम लिया, वो हैं साईं परांजपे, शकुंतला परांजपे , इंदु जैन, माया गोविंद और हेमंती शुक्ला। सुनते हैं राग वृंदावनी सारंग पर आधारित इस सुमधुर गीत को।



क्या आप जानते हैं...
१९९३ में साईं परांजपे की फ़िल्म 'चूड़ियाँ' को 'National Film Award for Best Film on Social Issues' से सम्मानित किया गया था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 09/शृंखला 12
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - नारी शक्ति की आवाज़ भी है ये गीत.

सवाल १ - हालाँकि एक मशहूर गायिका पे केंद्रित है ये कड़ी, पर इस फिल्म की नायिका का भी इसमें सम्मान है, कौन है ये जबरदस्त लाजवाब अभिनेत्री - ३ अंक
सवाल २ - गीतकार कौन हैं - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म के निर्देशक कौन हैं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अवध जी २ अंको की बधाई के साथ जानकारी देने का आभार, अमित जी और अंजाना जी तो हैं ही सदाबहार

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, March 21, 2011

संगीत समीक्षा - सतरंगी पैराशूट - बच्चों की इस फिल्म के संगीत के लिए एकजुट हुए चार दौर के फनकार, देने एक सुरीला सरप्रायिस



Taaza Sur Taal (TST) - 06/2011 - SATRANGEE PARACHUTE

'आवाज़' के दोस्तों नमस्कार! मैं, सुजॊय चटर्जी, साप्ताहिक स्तंभ 'ताज़ा सुर ताल' के साथ हाज़िर हूँ। साल २०११ के फ़िल्मों की अगर हम बात करें तो 'ताज़ा सुर ताल' में इस साल हमनें जिन फ़िल्मों की चर्चा की है, वो हैं 'नो वन किल्ड जेसिका', 'यमला पगला दीवाना', 'धोबी घाट', 'दिल तो बच्चा है जी', 'ये साली ज़िंदगी', 'सात ख़ून माफ़' और 'तनु वेड्स मनु'। एक और महत्वपूर्ण फ़िल्म प्रदर्शित हुई थी वर्ल्ड कप क्रिकेट शुरु होने से ठीक पहले, पटियाला हाउस, जिसका केन्द्रबिंदु भी क्रिकेट ही था। अक्षय कुमार, ऋषी कपूर, डिम्पल कपाडिया अभिनीत यह फ़िल्म अच्छी बनी, लेकिन इसके संगीत नें कोई छाप नहीं छोड़ी। और २०११ की अब तक की कुछ और प्रदर्शित फ़िल्में जो कब आईं और कब गईं पता भी नहीं चला, और न ही पता चला उनके संगीत का, ऐसी फ़िल्मों में कुछ नाम हैं - 'विकल्प', 'मुंबई मस्त कलंदर', 'होस्टल', 'यूनाइटेड सिक्स', 'ऐंजेल', 'तुम ही तो हो' वगेरह। क्रिकेट विश्वकप भी एक वजह है कि इन दिनों बड़े बैनर की फ़िल्में प्रदर्शित नहीं हो रही हैं। २०११ के कलेण्डर में अगर नज़र डालें तो मार्च के महीने के लिए केवल दो फ़िल्मों के रिलीज़ डेट्स दिये गये हैं - ४ मार्च को 'ये फ़ासले' और २५ मार्च को 'हैप्पी हस्बैण्ड्स'।

आज 'ताज़ा सुर ताल' में हम जिस फ़िल्म की चर्चा करने जा रहे हैं वह एक बच्चों की फ़िल्म है। एक ज़माना था जब बच्चों के लिए फ़िल्में बनती थीं जिनका बच्चे और बड़े, सभी आनंद लिया करते थे और वो फ़िल्में सफल भी होती थीं। लेकिन आज बच्चों के लिए फ़िल्मों का निर्माण लगभग बंद हो चुका है। और जो गिनी-चुनी फ़िल्में बनती हैं, उनका न तो कोई प्रचार होता है, और न ही किसी का इनकी तरफ़ ध्यान जाता है। आप ही बताइए 'सतरंगी पैराशूट' नाम से जो फ़िल्म आई है, इसके बारे में आप में से कितनों को पता है? फ़िल्म के शीर्षक से भी ज़्यादा कुछ अनुमान लगाना मुश्किल है और फ़िल्म में नये संगीतकार कौशिक दत्ता और गीतकार राजीव बरनवाल के होने से इस ऐल्बम से किस तरह की उम्मीद की जाये, ये भी विचारणीय है। इसलिए हमनें सोचा कि क्यों न हम ही इसके गीतों को सुन कर आपको इसकी समीक्षा दें! 'सतरंगी पैराशूट' विनीत खेत्रपाल निर्मित व निर्देशित फ़िल्म है, जिसमें मुख्य किरदारों में तो कुछ दिलचस्प बच्चे ही हैं, और साथ में हैं जैकी श्रॊफ़, के. के. मेनन, संजय मिश्रा और ज़ाकिर हुसैन। पप्पु की भूमिका में जिस बच्चे ने अभिनय किया है, उनका नाम है सिद्धार्थ संघानी। कहानी कुछ इस तरह की है कि पप्पु अपने अंधी दोस्त कुहू के लिए एक पैराशूट ढूंढने निकल पड़ता है। वो अपने दोस्तों के साथ इस तलाश में निकल पड़ता है और नैनिताल से पहुँच जाता है मायानगरी मुंबई। लेकिन उन्हें क्या पता मुंबई के असली रूप का! पप्पु और उसके दोस्त उग्रपंथियों के साथ जाने अंजाने में भिड़ जाता है, जो मुंबई में आतंक फैलाने के लिए पैराशूटों का इस्तेमाल करने वाले हैं।

'सतरंगी पैराशूट' ऐल्बम का पहला ट्रैक है "ज़िंदगी की राह में मुस्कुराता चल", जिसे कैलाश खेर नें गाया है। कैलाश खेर वैसे भी दार्शनिक गीत गाने के लिए जाने जाते हैं, और यह गीत भी उसी जौनर का है। गीत के शब्दों में कोई नई बात तो नहीं, लेकिन गीत का रिदम हमें गीत में बनाये रखता है, और सुनने में अच्छा लगता है। ऒर्केस्ट्रेशन भी "सुरीला" है और इस गीत को सुनते हुए दिल में एक चाह सी जगती है ऐल्बम के दूसरे गीत को सुनने की। ये सोचकर कि जिस तरह से इस गीत का संगीत कुछ अलग सा सुनाई दे रहा है, क्या दूसरे गीत में भी कोई ख़ास बात होगी?

ऐल्बम का दूसरा गीत है एक लोरी। दोस्तों, एक समय था जब किसी फ़िल्म के अलग अलग गीत अलग अलग सिचुएशन्स पर हुआ करते थे, और लोरी, भजन, क़व्वाली, देश भक्ति गीत, ग़ज़ल, तथा हर तरह के गीत बारी बारी से फ़िल्मों में आते रहते थे। लेकिन पिछले कुछ सालों से तो फ़िल्मों में बस तीन ही तरह के गीत रह गये हैं - हप्पी सॊंग्, सैड सॊंग् और डान्स नंबर्स। ऐसे में 'सतरंगी पैरशूट' में श्रेया घोषाल की गाई लोरी की सराहना करनी ही पड़ेगी। "मेरे बच्चे तेरी माँ ये रोज़ कहानी सुनाये, चंदा मामा परियों वाली चैन से तू सो जाये, सपनें में फिर आये वह गिलहरी, बगिया में जो है कूदती रहती, तुम उसके पीछे भागते रहते, और मैं तुमको बस देखती रहती"। राजीव बरनवाल द्वारे बुनें इन प्यारे प्यारे बोलों पर श्रेया की सुरीली आवाज़ और नर्म अंदाज़ नें लोरी के मूड को बरक़रार रखा है, और लोरी जौनर के गीतों में बहुत दिनों के बाद एक इजाफ़ा हो गया है। कौशिक दत्ता नें इस गीत के ऒर्केस्ट्रेशन के साथ भी पूरा पूरा न्याय किया है। हमारी तरफ़ से तो इस गीत को भी "थम्प्स-अप"!!!

'सतरंगी पैराशूट' ऐल्बम का तीसरा गीत है शान की आवाज़ में। इस यात्रा-गीत के बोल हैं "चल पड़े हम क्या ठिकाना सोचा नहीं, मंज़िल पता है रस्ता कहाँ पता नहीं, बस चल दिये..."। जी हाँ, मुझे भी इस गीत को सुनते हुए शान का ही गाया प्रसिद्ध ग़ैर फ़िल्मी गीत "आँखों में सपने लिये घर से हम चल तो दिये" की याद आ गई थी। श्रेया की गाई लोरी की ही तरह इस गीत में भी गीतकार नें जो कहना चाहा है, संगीतकार नें धुन और ऒर्केस्ट्रेशन से उनका पूरा पूरा साथ निभाया है, जिस वजह से ऐल्बम में दिलचस्पी बनी रहती है, ठीक वैसे ही जैसे कि इस गीत में ज़िंदगी में बने रहने की सबक दी गई है।

और अब एक महत्वपूर्ण गीत। महत्वपूर्ण इसलिए कि इसे गाया है लता मंगेशकर नें। यह चमत्कार ही है कि ८३ वर्षीय लता जी नें २४ वर्षीय फ़िल्मकार की इस फ़िल्म के इस गीत में एक ८ वर्षीय बच्चे का पार्श्वगायन किया है। "तेरे हँसने से मुझको आती है हँसी, तेरी सारी बातें चुपचाप मैं सुनती" में लता जी की गायन के साथ साथ उनकी वह ख़ास हँसी भी सुनने को मिलती है जो हँसी उनके गाये बहुत से गीतों में हमनें समय समय पर सुना है। कुछ की याद दिलायें? 'प्रेम रोग' में "भँवरे ने खिलाया है फूल", 'सन्यासी' में "सुन बाल ब्रह्मचारी मैं हूँ कन्याकुमारी", 'एक दूजे के लिए' में "हम बने तुम बने", 'सितारा' में "थोड़ी सी ज़मीन थोड़ा आसमान" वगेरह। आपको बता दूँ कि 'सतरंगी पैराशूट' के इस गीत को स्वरबद्ध कौशिक दत्ता ने नहीं बल्कि शमीर टंडन नें किया है। वही शमीर टंडन जिन्होंने लता जी को 'पेज-३' और 'जेल' में गवाया है। शमीर आज के दौर के उन गिनेचुने संगीतकारों में से हैं जिनके साथ लता जी काम करती हैं। हमनें शमीर जी से सम्पर्क किया कि लता जी के साथ उनके ऐसोसिएशन के बारे में हमें कुछ विस्तार से बतायें, तो शमीर जी नें हमसे वादा किया है कि जल्द ही हमें इंटरव्यु देंगे, लेकिन व्यस्तता की वजह से यह संभव नहीं हो सका है। हमारी कोशिशें जारी हैं कि जल्द से जल्द हम उनसे बातचीत कर आप तक पहँचायें। ख़ैर, "तेरे हँसने से" गीत इस ऐल्बम रूपी अंगूठी का नगीना है, और यही सिर्फ़ काफ़ी है कि इसे लता जी नें गाया है। १९४२ में उन्होंने अपना पहला गीत रेकॊर्ड किया था और यह है साल २०११, यानी कि इस गीत के साथ लता जी के करीयर के ७० साल पूरे हो रहे हैं। आश्चर्य, आश्चर्य, आश्चर्य!!!

साधारणत: लोरियों पर माँ दादी नानी का एकतरफ़ा हक़ रहा है और फ़िल्मों की कहानियों में भी लोरी गीत इन्हीं किरदारों पर फ़िल्माये जाते रहे हैं। लेकिन कभी कभार गायकों नें भी लोरियाँ गाये हैं, जैसे कि सहगल साहब नें फ़िल्म 'ज़िंदगी' में "सो जा राजकुमारी सो जा", 'प्रेसिडेण्ट' फ़िल्म में "एक राज्य का बेटा लेकर उड़ने वाला घोड़ा", चितलकर नें 'आज़ाद' में "धीरे से आजा री अखियन में निंदिया", मुकेश नें फ़िल्म 'मिलन' में "राम करे ऐसा हो जाये", रफ़ी साहब नें 'ब्रह्मचारी' में "मैं गाऊँ तुम सो जाओ", और किशोर कुमार नें महमूद की फ़िल्म 'कुंवारा बाप' में "आ री आजा निंदिया तू ले चल कहीं" जैसी लोरियाँ न केवल गाये बल्कि ये लोरियाँ बहुत बहुत मशहूर भी हुईं। लेकिन उस गीत को आप क्या नाम देंगे जो वैसे तो लोरी नहीं है, पर बच्चा बड़ा होनें के बाद अपने बचपन में अपनी माँ से सुनी हुई लोरी को याद करते हुए गाता है? 'सतरंगी पैराशूट' में भी इसी तरह का एक गीत है राहत फ़तेह अली ख़ान का गाया हुआ। "तेरी लोरी याद है आती, तेरे बिना मैं सो न पाऊँ, कैसा है न जाने अंधेरा, देखो मैं डर डर जाऊँ"। मेरे ख़याल से यही गीत इस ऐल्बम का अब तक का सब से अच्छा गीत है, जो दिल को छू जाता है। राहत साहब की आवाज़ वह माध्यम है जो शब्दों को दिल की गहराइयों तक पहुँचाने का काम करती है। जैसा कि हमनें कहा लोरी को याद करते हुए गाया जा रहा है यह गीत, लेकिन इसकी शक्ल भी लोरी जैसी ही है। एक और 'थम्प्स-अप'!

जिस तरह से शमीर टंडन इस फ़िल्म एक अतिथि संगीतकार है वैसे ही पिंकी पूनावाला अतिथि गीतकार के रूप में इस फ़िल्म का एक गीत लिखा है - "कभी लगी हाथों को छू कर ख़ुशी उड गई, कभी लगी कभी न आयेगी हाथ ये मनचली, कभी छू लूँ कभी पा लूँ, कभी आँखें मूंद कोई सपना देख लूँ, कभी चलूँ कभी दौड़ूँ, कभी उड़ने की ख़्वाहिशें दिल में रख लूँ, उड़ जा उड़ जा ऊँचे आसमाँ को छू जा, जी जा जी जा अपने सपनों को जी जा"। और इसे आवाज़ें दी हैं 'ज़ी सा रे गा मा' प्रतियोगिता के प्रतिभागी अभिलाषा, अली शेर और ख़ुर्रम नें। गायकी अच्छी है इन सब की, और इन नई आवाज़ों में इस गीत का भाव भी सटीक बैठता है कि अपनें सपनों को जी जा, ऊँचे आसमाँ पे उड़ जा। एक और आशावादी गीत!
एक और सरप्राइज़ 'सतरंगी पैराशूट' ऐल्बम में आप पा सकते हैं उषा उथुप की आवाज़ में एक गीत, बल्कि एक रीमिक्स गीत। 'मिस्टर नटवरलाल' फ़िल्म का वह मशहूर गीत "मेरे पास आओ मेरे दोस्तों एक क़िस्सा सुनो" अमिताभ बच्चन का गाया हुआ, उसे उषा जी नें अपनी ख़ास शैली में गाया है। इन दोनों की हम तुलना नहीं करना चाहेंगे। उसमें बिग-बी का स्टाइल था, इसमें उषा उथुप की ख़ास अंदाज़-ए-बयाँ है जिसके लिए वो जानी जाती हैं। हम तो बस विनीत खेत्रपाल जी का शुक्रिया ही अदा करेंगे जिन्होंने चार अलग अलग दौर के गायकों को एक साथ इस फ़िल्म में लेकर आये हैं, यानी कि पहले दौर से लता मंगेशकर, उसके बाद उषा उथुप, आज की दौर से श्रेया, शान, राहत, और आनेवाले कल से अभिलाषा, अली शेर और ख़ुर्रम को। 'सतरंगी पैराशूट' ऐल्बम का समापन 'सतरंगी थीम' से होता है जो एक कर्णप्रिय पीस है, जिसका बेस पाश्चात्य है और एक अंतर्राष्ट्रीय अपील है।

हमारी तरफ़ से 'सतरंगी पैराशूट' ऐल्बम को १० में ७.५ की रेटिंग् दी जाती है। और आपके लिए यही सुझाव है कि इस फ़िल्म का संगीत अच्छा है, लेकिन कामयाब होगा कि नहीं यह फ़िल्म पर निर्भर करती है। अगर सही तरीक़े से प्रोमोट किया जाये तो यह संगीत भी कमाल कर सकता है। इस ऐल्बम से हमारा पिक है राहत फ़तेह अली ख़ान क गाया "तेरी लोरी याद है आती"। अब 'ताज़ा सुर ताल' स्तंभ से मुझे इजाज़त दीजिये, शाम को 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर दुबारा मुलाक़ात होगी, नमस्कार!



अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।

चंदा रे जा रे जा रे....मुस्लिम समाज में महिलाओं की निर्भीक आवाज़ बनकर उभरी इस्मत चुगताई को आज आवाज़ सलाम



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 617/2010/317

हिंदी सिनेमा के कुछ सशक्त महिला कलाकारों को सलाम करती 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'कोमल है कमज़ोर नहीं' की सातवीं कड़ी में आप सभी का फिर एक बार स्वागत है। आज हम जिस प्रतिभा से आपका परिचय करवा रहे हैं, वो एक उर्दू की जानीमानी लेखिका तो हैं ही, साथ ही फ़िल्म जगत को एक कहानीकार, पटकथा व संवाद लेखिका, निर्मात्री व निर्देशिका के रूप में अपना परिचय देनेवाली इस फनकारा का नाम है इस्मत चुगताई। १५ अगस्त १९१५ को उत्तर प्रदेश के बदायूं में जन्मीं और जोधपुर राजस्थान में पलीं इस्मत जी के पिता एक सिविल सर्वैण्ट थे। ६ भाई और ४ बहनों के विशाल परिवार में इस्मत नौवीं संतान थीं। इस्मत की बड़ी बहनों का उनकी बचपन में ही शादी हो जाने की वजह से इस्मत का बचपन अपने भाइयों के साथ गुज़रा। और शायद यही वजह थी इस्मत के अंदर पनपने वाले खुलेपन की और इसी ने उनके लेखन में बहुत ज़्यादा प्रभाव डाला। इस्मत के युवावस्था में ही उनका भाई मिर्ज़ा अज़ीम बेग चुगताई एक स्थापित लेखक बन चुके थे, और वो ही उनके पहले गुरु बनें। १९३६ में स्नातक की पढ़ाई करते हुए इस्मत चुगताई लखनऊ में आयोजित 'प्रोग्रेसिव राइटर्स ऐसोसिएशन' की पहली सभा मे शरीक हुईं। बी.ए. करने के बाद इस्मत ने बी.टी की पढ़ाई की, और बी.ए और बी.टी, दोनों डिग्रियाँ अर्जित करने वाली भारत की पहली मुस्लिम महिला बन गईं। और इसी दौरान वो छुपा छुपा कर लिखने लगीं, क्योंकि उनके इस लेखन का उनकी रूढ़ीवादी मुस्लिम परिवार ने घोर विरोध किया। तमाम मुसीबतों और कठिनाइयों का सामना करते हुए इस्मत चुगताई नें अपना लेखन कार्य जारी रखा और इस देश की आनेवाली लेखिकाओं के लिए राह आसान बनाई। और इसीलिए 'कोमल है कमज़ोर नहीं' शृंखला सलाम करती है इस्मत चुगताई जैसी सशक्त लेखिका को।

जैसा कि हमनें कहा कि इस्मत चुगताई को बड़ी मुसीबतों का सामना करना पड़ा है, आइए इस ओर थोड़ा नज़र डालें। उनकी बहुत सारी लेखों का दक्षिण एशिया में घोर विरोध किया क्योंकि उन सब में मुस्लिम समाज में लाये जाने वाली ज़रूरी बदलावों की बात की गई थी, यहाँ तक कि इस्लामिक उग्रवाद पर भी वार किया था उन्होंने। मुस्लिम महिलाओं की नक़ाबपोशी (परदा) के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाकर उन्होंने मुस्लिम समाज में तूफ़ान उठा दिया था। वर्तमान में मुस्लिम देशों में इस्मत चुगताई की बहुत सी किताबों पर प्रतिबंध है। इस्मत चुगताई के हिंदी सिनेमा में योगदान की अगर बात करें तो उन्होंने इस राह में पदार्पण किया था १९४८ की फ़िल्म 'ज़िद्दी' में, जिसकी उन्होंने कहानी लिखी थी। उसके बाद १९५० में 'फ़रेब' का उन्होंने निर्देशन किया। १९५८ की फ़िल्म 'सोने की चिड़िया' का न केवल उन्होंने निर्माण किया, बल्कि पटकथा भी ख़ुद लिखीं। १९६८ की फ़िल्म 'जवाब आयेगा' को निर्देशित कर १९७३ की मशहूर कलात्मक फ़िल्म 'गरम हवा' की कहानी लिखीं। १९७५ की वृत्तचित्र 'माइ ड्रीम्स' का उन्होंने निर्देशन किया और १९७८ की फ़िल्म 'जुनून' में संवाद लिखे और अभिनय भी किया। २४ अक्तुबर १९९१ को इस्मत चुगताई का बम्बई में निधन हो गया। मुस्लिम होते हुए भी उन्हें कब्र में समाधि नहीं दी गई, बल्कि उनके ख़्वाहिशानुसार उनका अंतिम संस्कार चंदनवाड़ी क्रिमेटोरियम में किया गया। इस छोटे से लेख में इस्मत चुगताई जैसी विशाल प्रतिभा को पूरी तरह से हम समेट नहीं सकते, फिर कभी मौका मिला तो उनके शख्सियत की कुछ और बातें आपको बताएँगे। फ़िल्हाल आइए सुनते हैं फ़िल्म 'ज़िद्दी' से लता मंगेशकर का गाया "चंदा रे, जा रे जा रे"। खेमचंद प्रकाश का संगीत था इस फ़िल्म में और गीतकार थे प्रेम धवन, जिनकी यह पहली पहली फ़िल्म थी। दरअसल निर्देशक शाहीद लतीफ़ और इस्मत चुगताई ही प्रेम धवन साहब को ले गये थे अशोक कुमार और देविका रानी के पास और गीतकार के लिए उनका नाम सुझाया। प्रेम धवन साहब के लिए आज का प्रस्तुत गीत बहुत मायने रखता था, तभी तो विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में कुछ इस तरह से उन्होंने इसके बारे में कहा था - "मैं अपनी ग्रैजुएशन पूरी कर इप्टा से जुड़ गया, कम्युनिस्ट के ख़यालात थे मुझमें। पंजाब में मैं इसका फ़ाउण्डर मेम्बर था। मैंने एक ट्रूप बनाया पंडित रविशंकर और सचिन शंकर के साथ मिल कर और हम पंजाबी में कार्यक्रम पेश करने लगे पूरे देश में घूम घूम कर, और अपनी संस्था इप्टा के लिए चंदा इकट्ठा करते ज़रूरतमंद लोगों की सेवा के लिए। पर १९४७ में दंगे शुरु हो गए और हमारे टूर भी बंद हो गए। चंदा कलेक्ट करना भी बंद हो गया। हमनें फ़ैसला किया कि थिएटर को बंद कर दिया जाए। थिएटर बंद होने के बाद फ़िल्मवालों ने बुलाया। मेरी पहली फ़िल्म थी 'बॊम्बे टाकीज़' की 'ज़िद्दी'। उसमें एक गीत था "चंदा रे, जा रे जा रे", जिसे लता ने गाया था। उस समय लता भी नई नई थी। यह 'महल' के पहले की बात है। यह गीत मेरे करीयर का एक लैण्डमार्क गीत था और लता का भी। इस कॊण्ट्रैक्ट के ख़त्म होने के बाद मैंने अनिल बिस्वास के लिए कई फ़िल्मों में गानें लिखे जैसे 'लाजवाब', 'तरना' वगेरह।" तो आइए दोस्तों, इस्मत चुगताई को सलाम करते हुए सुनें उनकी लिखी कहानी पर बनी फ़िल्म 'ज़िद्दी' का यह गीत।



क्या आप जानते हैं...
कि इस्मत चुगताई के जीवन पर लिखे किताबों में उल्लेखनीय दो किताबें हैं सुक्रीता पाल कुमार लिखित 'Ismat: Her Life, Her Times' तथा मंजुला नेगी लिखित 'Ismat Chughtai, A Fearless Voice'

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 08/शृंखला 12
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - एक आवाज़ है येसुदास की.

सवाल १ - हम चर्चा करेंगें इस गीत की फिल्म की निर्देशिका की, कौन हैं ये - २ अंक
सवाल २ - गीतकार भी एक जानी मानी लेखिका हैं, नाम बताएं - ३ अंक
सवाल ३ - कौन हैं सहगायिका - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर अंजाना जी बाज़ी मार गए....कमाल हैं आप दोनों...वाकई :)

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

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