रेडियो प्लेबैक वार्षिक टॉप टेन - क्रिसमस और नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित
प्लेबैक की टीम और श्रोताओं द्वारा चुने गए वर्ष के टॉप १० गीतों को सुनिए एक के बाद एक. इन गीतों के आलावा भी कुछ गीतों का जिक्र जरूरी है, जो इन टॉप १० गीतों को जबरदस्त टक्कर देने में कामियाब रहे. ये हैं - "धिन का चिका (रेड्डी)", "ऊह ला ला (द डर्टी पिक्चर)", "छम्मक छल्लो (आर ए वन)", "हर घर के कोने में (मेमोरीस इन मार्च)", "चढा दे रंग (यमला पगला दीवाना)", "बोझिल से (आई ऍम)", "लाईफ बहुत सिंपल है (स्टैनले का डब्बा)", और "फकीरा (साउंड ट्रेक)". इन सभी गीतों के रचनाकारों को भी प्लेबैक इंडिया की बधाईयां
इस माह की 28 तारीख को हम सब की प्रिय गायिका लता मंगेशकर यानी लता दी, अपना 79वां जन्मदिन मनायेंगी. चूँकि लता दी हिन्दी फ़िल्म संगीत जगत की इतनी बड़ी शख्सियत हैं कि मात्र एक दिन का समय काफ़ी नहीं होगा, उनके अपार गीतों के संग्रह का जिक्र करने के लिए, इसलिए आवाज़ की टीम ने तय किया है कि हम महीने भर का "लता संगीत पर्व" मनाएंगे. जिसमें लता दी के संगीत दीवानों के लिए एक नायाब प्रतियोगिता हम आयोजित करने जा रहे हैं. कोई भी व्यक्ति इस प्रतियोगिता में भाग ले सकता है, करना सिर्फ़ इतना है, कि लता दी का कोई एक गीत आपको चुनना होगा, और उस गीत से सम्बंधित तमाम जानकारियों पर 300 से 400 शब्दों का एक आलेख लिखना होगा. जिसमे उस गीत से जुड़ी हुई कोई अनूठी बात, उस गीत को कोई ख़ास विशेषता जिसके कारण वो गीत आपको इतना अधिक पसंद है, उस गीत से जुड़े अन्य कलाकारों के नाम और गीत के बोल आदि शामिल होंगे. सबसे बढ़िया तरीके से प्रस्तुत पहले 3 आलेखों को क्रमशः 500, 300 और 200 रुपए की पुस्तकें मसि कागद की तरफ़ से और 10 अन्य आलेखों को आवाज़ की तरफ़ से "पहला सुर" एल्बम की एक एक प्रति भेंट की जायेगी.
शर्तें -
1. आलेख हिन्दी में लिखा होना चाहिए, हिन्दी में लिखने के लिए आप इस लिंक का इस्तेमाल कर सकते हैं, किसी भी सहायता के लिए आप hindyugm@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.
2. प्रवाष्ठियाँ podcast.hindyugm@gmail.com पर भेजें.
3. प्रवष्टि भेजनी की अन्तिम तारीख 15 सितम्बर 2008 है.
4. परिणामों की घोषणा 28 तारीख, लता दी के जन्मदिवस पर की जायेगी.
5. एक मेल खाते से एक ही प्रवष्टि भेजी जा सकती है.
6. आप यदि अपनी तस्वीर व अन्य कोई जानकारी अपने बारे में प्रकाशित करना चाहें तो साथ में संलग्न कर भेज सकते हैं.
तो देर किस बात की, लिख डालिए लता दी के अपने पसंदीदा गीत पर एक आलेख और इस लता संगीत पर्व में शामिल होकर उस महान गायिका तक पहुंचाइये अपने दिल की बात जिसके गीतों ने आपके जीवन को कई मधुर और सुरीले लम्हें दिए हैं.
हमारी कोशिश रहेगी की इस माह हम लता दी का एक्सक्लूसिव संदेश (आवाज़ के नाम) आप तक पहुंचायें, इसके आलावा पंकज सुबीर आपके लिए लायेंगे लता दी के कुछ अनमोल नगमें और बातें, और संजय पटेल अपने ख़ास अंदाज़ में बताएँगे लता दी की कुछ अनसुनी बातें.
आप यदि लता का कोई विशेष गीत सुनना चाह रहे हैं, जिसे आप काफ़ी अर्से से सुन नहीं पाये हैं, ऑनलाइन कहीं मिल नहीं पा रहा है तो कृपया कमेंट में आप अपना अनुरोध भेज दें, आवाज़ के पाठक, श्रोता और कर्ता-धर्ता अगले २४ घण्टों के भीतर आवाज़ पर उसे उपलब्ध कराने की कोशिश करेंगे।
लता दी का कोई गीत यदि आप बहुत बढ़िया गाती हैं, और आपको लगता है कि आपके गायकी में है ज़ादू तो उसे भी रिकॉर्ड कर हमें भेजिए, २८ सित्मबर को हम चुने हुए सर्वश्रेष्ठ गीत को प्रसारित करेंगे। इस सब के अलावा और भी बहुत कुछ होगा, जिससे रोशन होगा आवाज़ पर - लता संगीत पर्व.
संगीत और दोस्ती पर आधारित ये नई फ़िल्म, एक बेहतरीन प्रस्तुति है और सभी संगीत कर्मियों और संगीत प्रेमियों के लिए "A must watch" है, कहानी है चार दोस्तों की जो की हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा रॉक बैंड बनाना चाहते थे, पर बहुत कोशिशों के बावजूद वो ऐसा नही कर पाते, सब की जिंदगियां अलग अलग रास्तों की तरफ़ मुड जाती है, लगभग १० साल बाद वो फ़िर मिलते हैं, और फ़िर से शुरू करते हैं एक नया सफर....और इस बार... इस बार उन्हें जीतने से कोई नही रोक सकता. अभिषेक कपूर जो इससे पहले "आर्यन" बना चुके हैं, ने पूरी कहानी को जिस अंदाज़ में प्रस्तुत किया है, वह बेमिसाल है, सभी कलकारों, अर्जुन रामपाल, पूरब कोहली, फरहान अख्तर, लुक केन्नी, और प्राची देसाई (जिन्हें आप अब तक बहु के रूप में देख चुके हैं एकता कपूर के धारावाहिकों में, यहाँ एक बिल्कुल ही अलग अंदाज़ में दिखेंगी) ने बेहतरीन अभिनय किया है, शंकर-एहसान-लोय का संगीत जबरदस्त है.
ज्यादा हम क्या कहें, आप ख़ुद देखें और जानें, फ़िल्म का संदेश बेहद साफ़ है, "अपने सपनों को जियो, तो जिंदगी सपनों की तरह खूबसूरत बन जाती है", यही संदेश आवाज़ का भी है, हमें यकीं है कि हमारी संगीत टीम को यह फ़िल्म विशेष रूप से प्रेरित करेगी, जरूर देखें और अपने विचार हम तक पहुंचायें. तब तक फ़िल्म की एक झलक लीजिये यहाँ -
AWAAZ recommends this new movie from abhishek kapoor "ROCK ON",a must watch for all, who believes in music and friendship
लीजिए हम एक बार पुनः हाज़िर हैं पॉडकास्ट कवि सम्मेलन का नया अंक लेकर। पॉडकास्ट कवि सम्मेलन भौगौलिक दूरियाँ कम करने का माध्यम है। पिछले महीने शुरू हुए इस आयोजन को मिली कामयाबी ने हमें दूसरी बार करने का दमखम दिया। पिछली बार के संचालन से हमारी एक श्रोता मृदुल कीर्ति बिल्कुल संतुष्ट नहीं थीं, उन्होंने हमसे संचालन करने का अवसर माँगा, हमने खुशी-खुशी उन्हें यह कार्य सौंपा और जो उत्पाद निकलकर आया, वो आपके सामने हैं। इस बार के पॉडकास्ट कवि सम्मेलन ने ग़ाज़ियाबाद से कमलप्रीत सिंह, धनवाद से पारूल, फ़रीदाबाद से शोभा महेन्द्रू, पिट्सबर्ग से अनुराग शर्मा, म॰प्र॰ से प्रदीप मानोरिया, पुणे से पीयूष के मिश्रा तथा अमेरिका से ही मृदुल कीर्ति को युग्मित किया है। इनके अतिरिक्त शिवानी सिंह और नीरा राजपाल की भी रिकॉर्डिंग प्राप्त हुई लेकिन एम्पलीफिकेशन के बावज़ूद स्वर बहुत धीमा रहा, इसलिए हम इन्हें शामिल न कर सके, जिसका हमें दुःख है।
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हम सभी कवियों से यह गुज़ारिश करते हैं कि अपनी आवाज़ में अपनी कविता/कविताएँ रिकॉर्ड करके podcast.hindyugm@gmail.com पर भेजें। आपकी ऑनलाइन न रहने की स्थिति में भी हम आपकी आवाज़ का समुचित इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगे।
सुनो कहानीः प्रेमचंद की कहानी 'अनाथ लड़की' का पॉडकास्ट
'सुनो कहानी' के स्तम्भ के तहत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियों का पॉडकास्ट। अभी पिछले सप्ताह आपने सुना था अनुराग शर्मा की आवाज़ में प्रेमचंद की कहानी 'अंधेर' का पॉडकास्ट। आज हम लेकर आये हैं अनुराग की ही आवाज़ में उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की कहानी 'अनाथ लड़की' का पॉडकास्ट। सुनें और बतायें कि कहाँ क्या कमी रह गई? आपको अच्छा लगा तो कितान और बुरा लगा तो कितना?
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हिन्द-युग्म पर अब तक के रीलिज्ड सभी गीतों को आप यहाँ सुन सकते हैं। हम अलग-अलग प्लेयरों में अलग-अलग तरीके से गीत सुनने का विकल्प दे रहे हैं। नीचे के विकल्पों से अपने पसंद का नेवीगेशन चुनें
इन्टरनेट गठजोड़ का एक और ताज़ा उदाहरण है ये नया गीत, IIT खड़कपुर के छात्र ( आजकल पुणे में कार्यरत ), और हिंद युग्म के बेहद मशहूर कवि विश्व दीपक 'तनहा' ने अपना लिखा गीत भेजा, युग्म के सबसे युवा संगीतकार सुभोजित को, और जब गीत को आवाज़ दी दूर ब्रिस्टल (UK) में बैठे गायक बिस्वजीत ने, तो बना, सत्र का नवां गीत. "आवारा दिल", सुभोजित के ये दूसरा गीत है, वहीँ "जीत के गीत" गाते, बिस्वजीत अब युग्म के चेहेते गायक बन चुके हैं, तनहा का ये पहला गीत है, इस आयोजन में, जिनका कहना है -
"प्रेयसी सब को प्रिय होती है,परंतु जिसकी प्रेयसी हो हीं नहीं,उसके लिए तो प्रेयसी कुछ और हीं हो जाती है। यह गीत मुझ जैसे हीं एक अनजान प्रेमी की कहानी है,जो जानता नहीं कि उसकी प्रेयसी कहाँ है, लेकिन यह जानता है कि अगर उसकी प्रेयसी कहीं है तो वो उसका आग्रह अस्वीकार नहीं कर सकती। "सरकार" अपनी प्रजा का बुरा तो नहीं चाहेगी ना ;),वैसे भी वह दूर कैसे जा सकेगी, जबकि उस प्रेमी का हर कदम अपनी प्रेयसी की हीं ओर है।"
तो दोस्तों, इस दुआ के साथ की कि हमारे मित्र "तन्हा", की तनहायी जल्दी ही दूर हो, सुनते हैं ये ताज़ा तरीन गीत. आप अपने विचार टिप्पणियों के मध्यम से हम तक अवश्य पहुंचायें.
गीत को सुनने के लिए नीचे के प्लेयर पर क्लिक करें -
Biswajith this time sung for the youngest composer of our Awaaz team, Subhojit, while the lyrics, penned for the first time by Vishwa Deepak 'Tanha', a well known poet from Hind Yugm. This is what subhojit said about the song "This song, I composed is my best till date, according to me. Firstly, the lyrics was very good and romantic. Secondly, the music was made many times but ultimately this one was selected. Lastly Biswajit sung this song very well. Hope everyone will like this song". Biswajith too hope the same here "When i heard Mere sarkaar for the first time, I fell in love with it. What really amazed me is the simplicity yet deep feelings the lyrics carries, hats off to Vishwa Deepakji. About the music of Shubhojit, I have only word - "Rocking".While singing this song, I had to really live the character and then it was easy for me to perform. I really enjoyed singing this beautiful song. It's always interesting to feel romantic and sing a song full of love and passion" We hope our audience will also enjoy listening to this one, feel free to convey your thoughts to us through your valuable comments.
Please click on the player to listen to this brand new song -
सुभोजेत
बिस्वजीत
Lyrics - गीत के बोल -
इस बार मेरे सरकार चलो तुम जिधर चलूँ मैं यार। इस बार तेरी झंकार सुनूँ मैं जिधर मुड़ूँ मैं यार।
इस बार नज़रों के वार, आर या पार।
तुम ना जानो , इस शहर में
विश्व दीपक तन्हा
कोई भी तुम-सी नहीं, बोल कर सब, कुछ ना कहे जो, ऐसी कोई गुम-सी नहीं; एक गज़ल है ये बदन तेरा, तेरे रूख से जागे सवेरा।
मैं बेकरार , हूँ बेकरार, इस बार नज़रों के वार, आर या पार।
जो कहे तू, तेरी खातिर, सारी दुनिया छोड़ दूँ, घर करूँ मैं, तेरे दिल में, मेरे घर को तोड़ हीं दूँ; होगा तब हीं ये प्यार जन्म, एक रूह जो बन जाए हम।
मैं बेकरार , हूँ बेकरार, इस बार नज़रों के वार, आर या पार।
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अब के बिछडे तो शायद ख्वाबों में मिले, जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिले.
और वो शायर हमसे हमेशा के लिए बिछड़ गया, और अपने पीछे छोड़ गया एक ऐसा खालीपन जिसे भर पाना शायद कभी भी मुमकिन न हो. इस्मत चुगताई ने एक बार मोस्को में, उनसे मुलाकात के बाद कहा था - "अहमद फ़राज़ आम शायरों की तरह नही दिखता है, वह आधुनिक परिधान में रहता है, और उसे पार्टियों में महिलाओं संग नाचने से भी गुरेज नही है."
अहमद फ़राज़ ऐसे शायर थे, जिनका हर शेर आम आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी को बहुत सरलता से छू जाता था. वह शायर सरहदों से परे था, और मोहब्बत को खुदा का दर्जा देता था. बीते सोमवार को ७७ साल की उम्र में उन्होंने अपने चाहने वालों से हमेशा के लिए अलविदा कह दिया. उनके अन्तिम ३७ दिनों की यह दास्ताँ आवाज़ पर आप के लिए लाये हैं, जगदीप सिंह. सुनते हैं ये विशेष पॉडकास्ट, और उर्दू अदब के उस खुर्शीद को सलाम करें एक बार फ़िर, जिसकी रोशनायी की रोशनी कभी बुझ नही सकती .
अहमद फ़राज़ साहब को आवाज़ के समस्त टीम की भावभीनी श्रदांजली हिन्द-युग्म पर प्रेमचंद ने भी उन्हें याद किया। पढ़ें।
लोक गीतों की बात चल रही है, और हम है आसाम की हरियाली वादियों में, जुबीन की मधुर आवाज़ में हम सुन चुके हैं ये भोरगीत, आसाम के लोकगीतों को मुख्यता दो प्रकारों में बांटा जा सकता है. कमरुपिया और गुवाल्पोरिया, आज हम आपको सुनाते हैं एक कमरुपिया लोक गीत, आवाजें हैं आसाम के बेहद मशहूर लोकगीत गायक दम्पति, रामेश्वर पाठक और धनादा पाठक की,
This perfect couple continued making waves with their magnificent renderings of the folk tunes in never before styles. Dhanada Pathak originally comes from a culturally enlightened family of Barpeta who owned a Jatra party in their home called "The Rowly Opera". Her elder brothers were actively associated with the opera in many ways. They acted, sang, played instruments like the dotora, flute and others and initiated the functioning of the opera. So when she got married to Sri Rameshwar Pathak, their association nourished their individual dreams that had by the time taken an united shape. Today, for the masses, Rameshwar Pathak and Dhanada Pathak are among those few people of the state who are considered as doyens of Assamese folk music. With a number of gramophone records and over a hundred and fifty audio cassettes under their belt, they are the people who presented Assamese lokageet (folk songs) in duet and chorus style for the very first time, and in that way they can be called pioneers in the field.
Awarded with the Sangeet Natak Akademi award in the year 1997, Rameshwar Pathak was selected for the Artist’s pension of the state government the same year.
A couple who have contributed richly towards the development of Assamese folk music, and who has shared the stage with legendary artistes like Manna Dey, Shyamal Mitra, Purna Das, Arati Mukherji and others, Assam and the Assamese people owe a lot to them.
इन लोक गीतों में, दुतारा ( चार तारों का एक क्षेत्रीय गिटार ), डोगोर ( बड़े कटोरे के आकर का वाध्य ), ताल, और कभी कभी एकतारा और अन्य सहायक वाध्य, गीत को सजाने के लिए इस्तेमाल होते हैं. गीत के भाव अक्सर भक्ति रस में डूबे होते हैं ये वो गीत होते हैं जो कई पुरखों से इन क्षेत्रों में ईश्वर की आराधना के लिए गाये जाते रहें हैं.
सुनिए और इस भाव में डूब जाइए, यकीं मानिये ये लोक गीत आपके दिल को छू जाएगा.
You can download the song from the below link -
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इससे पहले आपने पढ़ा हृदय नाथ मंगेशकर द्वारा लिखित संस्मरण 'ओ जाने वाले हो सके तो॰॰॰' और सुने मुकेश के गाये ९ हिट गीत। संजय पटेल का आलेख 'दर्द को सुरीलेपन की पराकाष्ठा पर ले जाने वाले अमर गायक मुकेश'। अब जानिए मुकेश के बारे में तपन शर्मा से। मुकेश चंद्र माथुर का जन्म दिल्ली के एक मध्यम-वर्गीय परिवार में जुलाई २२, १९२३ को हुआ। उन्हें अभिनय व गायन का बचपन से ही शौक था और वे के.एल. सहगल के प्रशंसक थे। मात्र दसवीं तक पढ़ने के बावजूद उन्हें लोक निर्माण कार्य में सहायक सर्वेक्षक विभाग में नौकरी मिल गई, जहाँ पर उन्होंने सात महीने तक काम किया। पर भाग्य को कुछ और ही मंजूर था। दिल्ली में उन्होंने चुपके से कईं गैर-फिल्मी गानों की रिकार्डिंग करी। उसके बाद तो वे भाग कर मुम्बई में फिल्म-स्टार बनने के लिये जा पहुँचे। वे अपने रिश्तेदार व प्रसिद्ध कलाकार मोतीलाल के यहाँ ठहरने लगे।
मोतीलाल की मदद से वे फिल्मों में काम करने लगे। एक गायक के तौर पर उनका पहला गीत "निर्दोष" में "दिल ही बुझा हुआ..." रहा, उसके बाद उनका पहला युगल गीत फिल्म "उस पार" में गायिका कुसुम के साथ "ज़रा बोली री हो.." था। फिर उन्होंने फिल्म "मूर्ति" में "बदरिया बरस गई उस पार.." खुर्शीद के साथ गाया। उस समय तक उन्होंने सुनने वालों के मन में अपनी एक जगह बना ली थी। तब उनके जीवन में महत्त्व पूर्ण घटना घटी। साल था १९४५, जब अनिल बिस्वास ने उनसे फिल्म 'पहली नज़र' के लिये 'दिल जलता है तो जलने दे....' गाने के लिये कहा। ये वो गीत था जो मुकेश को पूरी तरह से लोगों की नजरों व प्रसिद्धि में ले आया। वे किंवदंति बन चुके थे और आने वाले कईं दशकों तक उनकी जादुई आवाज़ को पूरे देश ने ‘आग’, ‘अनोखी अदा’ और ‘मेला’ के गानों में सुना।
१९४९ में उन्होंने एक और मील का पत्थर पार किया। वो था उनका राज कपूर और शंकर-जयकिशन के साथ मिलन। राजकपूर उनसे और शंकर-जयकिशन से अपने आर.के. फिल्म्स के लिये गानों की फरमाईश करते रहते। उसके बाद तो 'आवारा' और 'श्री ४२०" जैसी फिल्मों में गाये गये 'आवारा हूँ..' व ' मेरा जूता है जापानी..' से उनकी आवाज़ ने देश ही नहीं विदेश में भी शोहरत पाई। रूस में तो "आवारा हूँ..." सड़कों पर सुनाई देने लगा था। राज कपूर जैसे चतुर निर्देशक व संगीत प्रेमी के साथ काम करने का मुकेश को फायदा मिला। राज कपूर फिल्मों में अच्छे गानों के पक्षधर रहे। शंकर जयकिशन की हर एक धुन को वे सुनते थे व उनके पास करने पर ही वो धुन रिकार्डिंग के लिये जाया करती थी। राज कपूर हर गाने की रिकार्डिंग के वक्त स्टूडियो में ही रहते थे व आर्केस्ट्रा की हौंसला अफजाई करते रहते। उनके संगीत के प्रति इसी समर्पण का असर आने वाली हर पीढी पर दिखा जो जब भी राज कपूर के गाने सुनती है तो हर बार नई ताज़गी सी मिलती है। ‘आह’, ‘आवारा’, ‘बरसात’, ‘श्री ४२०’, ‘अनाड़ी’, ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘संगम’, ‘मेरा नाम जोकर’ व अन्य कईं फिल्मों के गाने आज भी तरो-ताज़ा से लगते हैं। राज कपूर की सफलता के साथ मुकेश व शंकर जयकिशन की सफलता भी शामिल रही।
लेकिन उनका जीवन हमेशा आसान नहीं रहा। 'आवारा' की सफलता के बाद मुकेश ने दोबारा अभिनय के क्षेत्र में अपने आपको आजमाने का प्रयास किया और अपने गायन के करियर को हाशिये पर धकेल दिया। सुरैया के साथ ‘माशूका’ (१९५३) व ऊषा किरोन के साथ ‘अनुराग’ (१९५६) बहुत बुरी तरह से पिटी। उन्होंने राज कपूर की फिल्म ‘आह’ (१९५३) में एक तांगे वाले की छोटी सी भूमिका निभाई। उसी फिल्म के एक गाने- ‘छोटी सी ज़िन्दगानी’ को उन्होंने गाया भी। कठिन परिस्थितियों को देखते हुए मुकेश ने पार्श्व गायन में दोबारा हाथ आजमाने का निश्चय किया। परन्तु तब उन्हें न के बराबर ही काम मिल रहा था। स्थिति इतनी गम्भीर हो चुकी थी कि उनके दोनों बच्चे नितिन और रितु को स्कूल छोड़ना पड़ा।
आखिरकार उन्होंने ‘यहूदी’ (१९५८) के गाने 'ये मेरा दीवानापन है..' से जोरदार वापसी करी। उसी साल आई ‘मधुमति’, ‘परवरिश’ और ‘फिर सुबह होगी’ के गाने इतने जबर्दस्त थे कि मुकेश ने फिर कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। एस.डी बर्मन जिन्होंने तब तक मुकेश को अपने गानों में मौका नहीं दिया था, उनसे दो उत्कृष्ट गीत गवाये। वे गीत थे- फिल्म 'बम्बई का बाबू' (१९६०) से 'चल री सजनी...' और बन्दिनि (१९६३) से 'ऒ जाने वाले हो सके तो लौट के आना...'। उसके बाद तो मुकेश ६० और ७० के दशक में चमके रहे और उन्होंने 'हिमालय की गोद में'(१९६५) से 'मैं तो एक ख्वाब हूँ...', मेरा नाम जोकर से 'जीना यहाँ मरना यहाँ..' आनंद(१९७०) से 'मैंने तेरे लिये ही सात रंग के..' 'रोटी कपड़ा और मकान' से ' मैं न भूलूँगा..'जैसे असंख्य मधुर और दिल व आत्मा को छू जाने वाले गीत गाये। और उनके ‘कभी कभी’ (१९७६) के दो गानों 'मैं पल दो पल का शायर...' और 'कभी कभी मेरे दिल में..' को कौन भूल सकता है।
अन्य संगीत निर्देशक जिनके लिये मुकेश ने बेहतरीन गाने गाये, वे थे लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, कल्याणजी-आनंदजी, सलिल चौधरी, ऊषा खन्ना, आर.डी.बर्मन वगैरह। फिल्म 'कभी कभी' में तो खय्याम के संगीत, साहिर लुधियानवी के गीत और मुकेश की आवाज़ ने तो जादू बिखेर दिया था।
१९७४ में मुकेश ने सलिल चौधरी द्वारा संगीतबद्ध, फिल्म रजनीगंधा में 'कईं बार यूँ भी देखा है...' गाया जिसके लिये उन्हें उस साल के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 'सत्यम शिवम सुंदरम'(१९७८) का गीत 'चंचल शीतल, कोमल' उनका आखिरी रिकार्ड किया गया गाना था। २७ अगस्त १९७६ में अमरीका के डेट्रोएट में संगीत समारोह के दौरान आये दिल के दौरे से उनका देहांत हो गया। मुकेश आज हमारे बीच नहीं हैं, पर उनकी अमर आवाज़ हमेशा हमेशा संगीत प्रेमियों को अपना दीवाना बनाती रहेगी, आज उनकी पुण्यतिथि पर हम याद करें उस अमर फनकार को, उनके यादगार गीतों को सुनकर, आईये, चलते चलते सुनें एक बार वही गीत जिसके लिए उन्हें रास्ट्रीय पुरस्कार मिला, फ़िल्म 'रजनीगंधा' के इस गीत को लिखा है योगेश ने, और संगीत है सलील दा का, इन दोनों के बारे में हम आगे बात करेंगे, फिलहाल सुनें मुकेश को, जिन्होंने इस गीत को भावनाओं के चरम शिखर पर बिठा दिया है अपनी आवाज़ के जादू से.
आज सुबह आपने पढ़ा हृदयनाथ मंगेशकर का संस्मरण 'वो जाने वाले हो सके तो॰॰॰॰' आज हम पूरे दिन मुकेश को याद कर रहे हैं, उनके गाये गीत सुनवाकर, उनसी जुड़ी यादें बाँटकर॰॰॰॰आगे पढ़िए तपन शर्मा 'चिंतक' की प्रस्तुति 'मैं तो दीवाना, दीवाना, दीवाना'
वे परिश्रम से कभी गुरेज़ नहीं करते थे. कितनी ही बार री-टेक करो,उन्हें नाराज़ी नहीं होती.कितनी ही बार रिहर्सल के लिये कॉल करो वे तैयार..बस अभी आया.उन्हें अपने परफ़ॉरमेंस से जल्द सेटिसफ़ेक्शन नहीं होता था. बता रहे थे ख्यात संगीतकार जोड़ी कल्याणजी-आनंदजी के स्व.कल्याणजी भाई. नब्बे के दशक में जब वे लता पुरस्कार लेने इन्दौर आए तो दो दिन का डेरा था मेरे शहर. आयोजन का एंकर होने की वजह से हमेशा से कलाकारों का संगसाथ आसानी से मिलता रहा है सो कल्याणजी भाई से लम्बी बात करने का मौक़ा भी मिल ही गया. एक दिन उनके संगीत सफ़र की चर्चा होती रही, दूसरे दिन गायक-गायिकाओं पर. जब मुकेशजी पर बात आई तो कल्याणजी भाई भावुक हो उठे. मुकेशजी के घर में गुजराती परिवेश भी रहा क्योंकि पत्नी सरल गुजराती थीं (अभी इसी साल सरलबेन का देहांत हुआ है) कल्याणजी भाई बोले हम गुजराती में ही बतियाते और ख़ूब ठहाके लगाते . बहुत हँसमुख थे मुकेश भाई लेकिन जब दर्द भरे गीत की पंक्तियाँ गाने लगते तो सारे आलम का दर्द अपने गायन में उड़ेल देते.
फ़िल्म हिमालय की गोद में का गीत था "मैं तो एक ख़्वाब हूँ..." की रिहर्सल लगभग पूर्णता की ओर आ गई थी. कल्याणजी भाई ने बताया हम लगभग संतुष्ट थे, लेकिन ये लगभग मुकेशजी मेरे और आनंदजी के चेहरे पर पढ़ लिया था. बोले कुछ कमी लग रही है क्या . हमने कहा हाँ गीत का स्टार्ट और बेहतर हो सकता था. मुकेशजी ने कहा तो भाई बताओ न क्या चाहते हो. कल्याणजी ने कहा आप ऐसा स्टार्ट लीजिये जैसे आप मोहम्मद रफ़ी हैं.मुकेशजी ने कहा ऐसा बोलो न .. रिकॉर्डिंग शुरू हुई और क्या लाजवाब गीत बना है याद कीजिये आप. बात यहीं ख़त्म नहीं हो जाती. गाना पूरा होने के बाद मुकेशजी ने रफ़ी साहब को फ़ोन किया रफ़ी भाई मैंने आपका कुछ चुरा लिया. रफ़ी साहब हैरान कहने लगे मैंने एक गीत में आपके स्टाइल में आमद ली है. रफ़ी साहब और मुकेशजी देर तब फ़ोन पर बतियाते रहे. बात बड़ी सादी है, लेकिन सादा तबियत और नेक इंसान मुकेशजी की महानता देखिये कि अपने समकालीन गायक का थोड़ा सा अंदाज़ भी फ़ॉलो किया तो उसे जताया,यहाँ आजकल पूरी की पूरी धुन चुराई जा रही है और फ़िर भी शर्म नहीं है किसी को.
शास्त्रीय संगीत के पेचोख़म से दूर रहने वाले गायक थे मुकेश. एक सुर पर लम्बा टिकना उनके लिये मुमकिन नहीं होता था क्योंकि हर वॉइस कल्चर की अपनी लिमिटेशन तो होती ही है लेकिन मुकेश अपनी इस मर्यादा से ख़ूब वाकिफ़ थे. उन्होनें बंधे हुए मीटर में रहते हुए भावप्रणवता और इमोशन्स पर अपना ध्यान रखा . जब नौशाद साहब के साथ मेला और अंदाज़ के गीत गाए तो आप महसूस करेंगे कि मुकेश जी ने अपने ऊपर चढ़ी सहगल अंदाज़ की केंचुली निकाल फ़ेंकी और पूरे फ़ार्म में आ गए.
मेरा मानना है कि मुकेश सर्वहारा के गायक थे.शर्तिया कह सकता हूँ कि आप-हमसब कम से कम मुकेशजी के गीत तो गुनगुनाते ही हैं. आप नोटिस लीजियेगा कि पारिवारिक अंताक्षरी में जब भी पुराने गीत गुनगुनाए जाते हैं, उसमें मुकेश का रंग गाढ़ा ही नज़र आता है. उनके गीतों की संख्या कम है लेकिन लोकप्रियता के लिहाज़ से मुकेश आज भी सर्वश्रेष्ठ कहे जा सकते हैं.
एक ख़ास बात मुकेश स्मृति-दिवस पर यह बात विशेष रूप से कहना चाहूँगा कि भारतीय रजत-पट के शो-मेन राजकपूर को जन-जन में पहुँचाने में मुकेश का गायन एक महत्वपूर्ण कड़ी है और इसके महत्व को कभी ख़ारिज न किया जा सकेगा.
इस बात का ज़िक्र बहुत कम होता है लेकिन यहाँ ज़रूर करूंगा. फ़िल्म संगीत के लिये जो कुछ मुकेशजी ने किया वह तो अदभुत है ही लेकिन फ़िल्मों से अलहदा श्री रामचरितमानस की पाँच घंटे की ध्वनि-मुद्रिका संचयन मुकेशजी का एक अनोखा कारनामा है भारतीय संस्कृति के लिये.
मुकेश जी की आवाज़ में कसक,दर्द,करूणा,हास्य,आशा-निराशा और श्रंगार रस की अभिव्यक्ति सहजता से उभरती थी लेकिन दर्द में तो वे बेमिसाल थे.वे इंसानियत के तक़ाज़ों की दृष्टि से भी विलक्षण थे.अभी पिछले दिनों उनके पुत्र नितिन से आत्मीय मुलाक़ात हुई तब उन्होने विनम्रता से बताया कि पापा अच्छाइयों का सूर्य थे .उनकी गायकी से मिली छाया से जितना कर पाया कम है लेकिन मैं संतुष्ट हूँ.क्या अगले जन्म में मुकेश बनना चाहेंगे आप, मैने नितिन भाई से पूछा था.तो भावुक होकर बोले मुकेशजी जैसे इंसान दुनिया में दोबारा नहीं आते.मैं अगले जन्म में भी उनका बेटा ही बनना चाहूँगा.
इसमें कोई शक नहीं कि नौशाद,शंकर-जयकिशन, कल्याणजी-आनंदजी,सलिल चौधरी,सचिनदेव बर्मन,रोशन,ह्सरत जयपुरी,शैलेंद्र,साहिर और इंदीवर के गीतों और संगीत को निर्वेवाद रूप से अनमोल कहा जा सकता है लेकिन इन रचनाओं को अमरत्व प्रदान करने काम तो मुकेश ने ही किया यह भी अकाट्य सत्य है.
जीवन का आना-जाना चलता रहेगा. संसार की गति थमने का नाम नहीं लेगी.फूल-पत्तियाँ खिलते रहेंगे,आवाज़े आतीं रहेंगी और संगीत बजता रहेगा लेकिन मुकेश जैसे कोमल स्वर की कमी कभी पूरी न हो सकेगी. संगीतप्रेमी मन हमेशा कहता रहेगा...
ये घाट,तू ये बाट कभी भूल न जाना ओ जाने वाले, हो सके तो लौट के आना
सुनिए लोक-संगीत से रचा-बसा बम्बई का बाबू फिल्म का एक गीत 'चल री सजनी, अब क्या सोचे?'
हजारों गाने गानेवाले मुकेश दा के आखिरी शब्द थे – ‘यह पट्टा खोल दो’
खुशमिज़ाज मुकेश
तीस हजार फुट की ऊँचाई पर हमारा जहाज उड़ा जा रहा है। रूई के गुच्छों जैसे अनगिनत सफेद बादल चारों ओर छाए हुए हुए हैं। ऊपर फीके नीले रंग का आसमान है। इन बादलों और नीले आकाश से बनी गुलाबी क्षितिज रेखा दूर तक चली गई है। कभी-कभी कोई बड़ा सा बादल का टुकड़ा यों सामने आ जाता है, माने कोई मजबूत किला हो। हवाई जहाज की कर्कश आवाज को अपने कानों में झेलते हुए मैं उदास मन से भगवान की इस लीला को देख रहा हूँ।
अभी कल-परसों ही जिस व्यक्ति के साथ ताश खेलते हुए और अपने अगले कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाते हुए हमने विमान में सफर किया था, उसी अपने अतिप्रिय, आदरणीय मुकश दा का निर्जीव, चेतनाहीन, जड़ शरीर विमान के निचले भाग में रखकर हम लौट रहे हैं। उनकी याद में भर-भर आनेवाली ऑंखों को छिपाकर हम उनके पुत्र नितिन मुकेश को धीरज देते हुए भारत की ओर बढ़ रहे हैं।
आज 29 अगस्त है। आज से ठीक एक महीना एक दिन पहले मुकेश दा यात्री बनकर विमान में बैठे थे। आज उसी देश को, जिसमें पिछले 25 वर्षों का एक दिन, एक घण्टा, एक क्षण भी ऐसा नहीं गुजरा था कि जब हवा में मुकश दा का स्वर न गूंज रहा हो; जिसमें एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था, जिसने मुकेश दा का स्वर सुनकर गर्दन न हिला दी हो; जिसमें एक भी ऐसा दुखी जीव नहीं था, जिसने मुकेश दा की दर्द-भरी आवाज में अपने दुखों की छाया न देखी हो। सर्वसाधारण के लिए दुख शाप हो सकता, पर कलाकार के लिए वह वरदान होता है।
अनुभूति के यज्ञ में अपने जीवन की समिधा देकर अग्नि को अधिकाधिक प्रज्वलित करके उसमें जलती हुई अपनी जीवनानुभूतियों और संवेदनाओं को सुरों की माला में पिरोते-पिरोते मुकेश दा दुखों की देन का रहस्य जान गये थे। यह दान उन्हें बहुत पहले मिल चुका था।
उस दिन 1 अगस्त था वेंकुवर के एलिजाबेथ सभागृह में कार्यक्रम की पूरी तैयारियॉं हो चुकी थीं। मुकश दा मटमैले रंग की पैंट, सफेद कमीज, गुलाबी टाई और नीला कोट पहनकर आए थे। समयानुकूल रंगढंग की पोशाकों में सजे-धजे लोगों के बीच मुकेश दा के कपड़े अजीब-से लग रहे थे। पर ईश्वर द्वारा दिए गए सुन्दर रूप और मन के प्रतिबिम्ब में वे कपड़े भी उनपर फब रहे थे। ढाई-तीन हजार श्रोताओं से सभागृह भर गया। ध्वनि-परीक्षण करने के बाद मैं ऊपर के ‘साउंड बूथ’ में ‘मिक्सर चैनल’ हाथ में संभाले हुए कार्यक्रम के प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा कर रहा था। मुकेश दा के ‘माइक’ का ‘स्विच’ मेरे पास था। इतने में मुकेश दा मंच पर आए। तालियों की गड़गड़ाहट से सारा हाल गुंज उठा। मुकश दा ने बोलना प्रारम्भ किया तो ‘भाइयो और बहनो’ कहते ही इतनी सारी तालियाँ पिटीं की मुझे हाल के सारे माइक बंद कर देने पड़े।
मुकश दा अपना नाम पुकारे जाने पर सदैव पिछले विंग से निकलकर धीरे-धीर मंच पर आते थे। वे जरा झुककर चलते थे। माइक के सामने आकर उसे अपनी ऊँचाई के अनुसार ठीक कर तालियों की गड़गड़ाहट रूकने का इंतजार करते थे। फिर एक बार ‘राम-राम, भाई-बहनों’ का उच्चारण करते थे। कोई भी कार्यक्रम क्यों न हो, उनका यह क्रम कभी नहीं बदला।
उस दिन मुकश दा मंच पर आए और बोले, “राम-राम, भाई-बाहनों आज मुझे जो काम सौंपा गया है, वह कोई मुश्किल काम नहीं है। मुझे लता की पहचान आपसे करानी है। लता मुझसे उम्र में छोटी है और कद में भी; पर उसकी कला हिमालय से भी ऊँची है। उसकी पहचान मैं आपसे क्या कराऊँ! आइए, हम सब खूब जोर से तालियॉं बजाकर उसका स्वागत करें! लता मंगेशकर ....’’
तालियों की तेज आवाज के बीच दीदी मंच पर पहुँचीं। मुकेश दा ने उसे पास खींच लिया। सिर पर हाथ रखकर उसे आशीर्वाद दिया और घूमकर वापस अन्दर चले गए। मंच से कोई भय नहीं, कोई संकोच नहीं, बनावट तो बिल्कुल भी नहीं। सबकुछ बिल्कुल स्वाभाविक और शांत।
दीदी के पाँच गाने पूरे होने पर मुकेश दा फिर मंच पर आए। एक बार फिर माइक ऊपर-नीचे किया और हारमोनियम संभाला। जरा-सा खंखार कर, कुछ फुसफुसाकर (शायद ‘राम-राम कहा होगा) कहना शुरू किया, “मैं भी कितना ढीठ आदमी हूँ। इतना बड़ा कलाकार अभी-अभी यहाँ आकर गया है और उसके बाद मैं यहाँ गाने के लिए आ खड़ा हुआ हूँ। भाइयो और बहनो, कुछ गलती हो जाए तो माफ करना।’’
मुकेश दा के शब्दों को सुनकर मेरा जी भर आया। एक कलाकार दूसरे का कितना सम्मान करता है, इसका यह एक उदाहरण है। मुकेश दा के निश्छल और बढ़िया स्वभाव से हम सब मंत्रमुग्ध-से हो गये थे कि माइक पर सुर उठा – “जाने कहॉँ गये वो दिन ....”
गीत की इस पहली पंक्ति पर ही बहुत देर तक तालियाँ बजती रहीं। और फिर सुरों में से शब्द और शब्दों में से सुरों की धारा बह निकली। लग रहा था कि मुकश दा गा नहीं रहे हैं, वे श्रोताओं से बातें कर रहे हैं। सारा हॉल शांत था गाना पूरा हुआ। पर तालियाँ नहीं बजीं। मुकेश दा ने सीधा हाथ उठाया (यह उनकी आदत थी) और अचानक तालियों की गड़गड़ाहट बज उठी। तालियों के उसी शोर में मुकेश दा ने अगला गाना शुरू कर दिया – ‘डम-डम डिगा-डिगा’ और इस बार तालियों के साथ श्रोताओं के पैरों ने ताल देना शुरू कर दिया था।
यह गाना पूरा हुआ तो मुकेश दा अपनी डायरी के पन्ने उलटने लगे। एक मिनट, दो मिनट, पर मुकेश दा को कोई गाना भाया ही नहीं। लोगों में फुसफुसाहट होने लगी। अन्त में मुकेश दा ने डायरी का पीछा छोड़ दिया और मन से ही गाना शुरू कर दिया-‘दिल जलता है तो जलने दे’ यह मुकेश दा का तीस वर्ष पुराना सबसे पहला गना था। मैं सोचने लगा कि क्या इतना पुराना गाना लोगों को पसन्द आएगा! मन-ही-मन मैं मुकेश दा पर नाराज होने लगा। ऐसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम के लिए उन्होंने पहले से गानों का चुनाव क्यों नहीं कर लिया था।
मैंने ‘बूथ’ से ही बैकस्टेज के लिए फोन मिलाया और मुकेश दा के पुत्र नितिन को बुलाकर कहा, “अगले कार्यक्रम के लिए गाना चुनकर तैयार रखो।’’
नितिन ने जवाब दिया, “यह नहीं हो सकता। यह पापा की आदत है।’’
गाना खत्म होते ही हॉल में ‘वंस मोर’ की आवाजें आने लगीं। मेरा अंदाज बिल्कुल गलत साबित हुआ था। मैंने झट से नितिन को दुबारा फोन मिलाया और कहा, “मैंने जो कुछ कहा था, मुकेश दा को पता न चले।’’ तभी दीदी मंच पर पहुँच गई और दो गीतों की शुरूआत हो गई। ‘सावन का महीना’, ‘कभी-कभी मेरे दिल में’, ‘दिल तड़प-तड़प के’ आदि एक के बाद एक गानों का तांता लगा रहा। फिर आखिरी दो गानों का प्रारम्भ हुआ – ‘आ जा रे, अब मेरा दिल पुकारा’।
इस गाने का पहला स्वर उठते ही मैं 1950 में जा पहुंचा। दिल्ली के लालकिले के मैदान में एक लाख लोग मौजूद थे ठण्ड का मौसम था। तरूण, सुन्दर मुकेश दा बाल संवारे हुए स्वेटर पर सूट डाले, मफलर बाँधे बाएँ हाथ से हारमोनियम बजा रहे थे और मैं दीदी के साथ गा रहा था, ‘आजा रे ...’ मेरे जीवन का वह दूसरा या तीसरा गाना था। मुकेश दा ने जबरदस्ती मुझे गाने को बिठा दिया था और खुद हारमोनियम बजाने लगे थे। मैं घबराना गया और कुछ भी गलत-सलत गाने लगता था। मुकेश दा मुझे सांत्वना देते जाते और मेरा साथ देने लग जाते। मुझे उनका यह तरूण सुन्दर रूप याद आने लगा, जिसे 26 वर्षों के कटु अनुभवों के बाद भी उनहोंने कायम रखा था। पर उनकी आवाज में एक नया जादू चढ़ गया था।
मिलवाकी से हम वाशिंगटन की ओर चले। हम सबों के हाथ सामानों से भरे थे। हवाई अड्डा दूर, और दूर होता जा रहा था। मैं थक गया था और रूक-रूककर चल रहा था। तभी किसी ने पीछे से मेरे हाथ से बैग ले लिया। मैंने दचककर पीछे देखा तो मुकेश दा। मैंने उन्हें बहुत समझाया, पर उन्होंने एक न सुनी। विमान में हम पास-पास बैठे। वे बोले, ‘अब खाना निकालो’। (हम दोनों ही शाकाहारी थे)। मैंने उन्हें चिवड़ा और लड्डू दिए और वे खाने लगे। तभी मैंने कहा, ‘मुकेश दा, कल के कार्यक्रम में आपकी आवाज अच्छी नहीं थी। लगता है, आपको जुकाम हो गया है!’
उन्होंने सिर हिलाया। बोले, ‘मैं दवा ले रहा हूँ। पर सर्दी कम होती ही नहीं है, इसलिए आवाज में जरा-सी खराश आ गई है’। फिर विषय बदलकर उन्होंने मुझसे ताश निकालने को कहा। करीब-करीब एक घंटे तक हम दोनों ताश खेलते रहे। खेल के बीच में उन्होंने मुझसे कहा ‘गाते समय जब मेरी आवाज ऊँची उठती है तब तू ‘फेडर’ को नीचे कर दिया कर, क्योंकि सर्दी के कारण ऊपर के स्वरों को संभालना जरा कठिन पड़ता है। फिर रमी के ‘प्वाइन्ट’ लिखने के लिए उन्होंने जेब से पेन निकाला। उसे मेरे सामने रखते हुए बोले, ‘बाल, यह क्रास पेन है। जब से मैंने क्रास पेन से लिखना शुरू किया है, दूसरा कोई पेना भाता ही नहीं है। तुम भी क्रास पेन खरीद लो’। और वाशिंगटन में उन्होंने आग्रह करके मुझे एक क्रास पेन खरीदवा ही दिया।
अनहोनी, जो होनी बन गई!
उसी शाम भारतीय राजदूत के यहाँ हमारी पार्टी थी। देश-विदेश के लोग आए हुए थे। मुकेश दा अपनी रोज की पोशाक में इधर-उधर घूम रहे थे। तभी किसी ने सुझाया कि गाना होना चाहिए। उस जगह तबला, हारमोनियम कुछ भी नहीं था, पर सबों के आग्रह पर मुकेश दा खड़े हो गए और जरा-सा स्वर संभालकर गाने लगे – ‘आँसू भरी है ये जीवन की राहें...’ वाद्यों की संगत न होने के कारण उनकी आवाज के बारीक-बारीक रेशे भी स्पष्ट सुनाई दे रहे थे। सहगल से काफी मिलती हुई उनकी वह सरल आवाज भावनाओं से ऐसी भरी हुई थी कि मैं उसे कभी भुला न पाऊँगा।
रात को मैंने टोका, ‘आपको पार्टी के लिए बुलाया था, गाने के लिए नहीं। किसी ने कहा और आप गाने लगे!’ वे हंसकर बाले, ‘यहाँ कौन बार-बार आता है! अब पता नहीं यहाँ फिर कभी आ पाऊँगा या नहीं!’
मुकेश दा ! आपका कहना सच ही था। वाशिंगटन से ये लोग आपके अंतिम दर्शनों के लिए न्यूयार्क आए थे और उस पार्टी की याद कर करके आँसू बहा रहे थे।
बोस्टन में मुकेश दा की आवाज बहुत खराब हो गई थी। एक गाना पूरा होते ही मैंने ऊपर से फोन किया और दीदी से कहा, ‘मुकेश दा को मत गाने देना। उनकी आवाज बहुत खराब हो रही है’। दीदी बोलीं, ‘फिर इतना बड़ा कार्यक्रम पूरा कैसे होगा?’ मैंने सुझाया, ‘नितिन को गाने के लिए कहो’।
दीदी मान गईं। मंच पर आईं और श्राताओं से बोलीं, ‘आज मैं आपके सामने एक नया मुकेश पेश कर रही हूँ। यह नया मुकेश मेरे साथ आपका मनपसंन्द गाना ‘कभी-कभी मेरे दिल में...’ गाएगा।‘
लोग अनमने से हो फुसफुस करने लगे थे। तभी नितिन मंच पर पहुँचा। देखने में बिल्कुल मुकेश दा जैसा। उसने दीदी के पाँव छुए और गाना शुरू किया – कभी-कभी मेरे दिल में... ‘ नितिन की आवाज में कच्चापन था। पर सुरों की फेंक, शब्दोच्चार बिल्कुल पिता जैसे थे। गाना खतम होते ही ‘वंस मोर’ की आवाजें उठने लगीं। लोग नितिन को छोड़ने को तैयार ही नहीं थे। ‘विंग’ में बैठे मुकेश दा का चेहरा आनन्द से चमक उठा।
‘ऐंबुलेंस’ में उन्होंने केवल एक वाक्य बोला –यह पट्टा खोल दो’ (वह ह्वील चेयर का पट्टा था) फिर वे कुछ नहीं बोले। हजारों गाने गानेवाले मुकेश दा के वे आखिरी शब्द थे – ‘यह पट्टा खोल दो’।
कौन-सा पट्टा? कौन-सा बंधन? ह्वील चेयर का पट्टा या जीवन का बंधन? मुकेश दा को बाँधे हुए चमड़े का पट्टा या चैतन्य को बाँधे हुए जड़त्व का पट्टा? कहीं उनके कहने का आशय यही तो नहीं था!
फिर वे मंच पर आए और हारमोनियम पर हाथ रख दिया। बाप-बेटे ने मिलकर ‘जाने कहाँ गए वे दिन’ गाया। उसके बाद के सारे गाने नितिन ने ही गाए। मुकेश दा ने हारमोनियम पर साथ दिया।
अगले दिन वे मुझेसे बोले,'अब मेरे सर पर से एक और बोझ उतर गया। नितिन की चिन्ता मुझे नहीं रही। अब मैं मरने के लिए तैयार हूँ’।
मैने कहा, ‘अपना गाना गाए बिना आपको मरने कैसे दूँगा। पन्द्रह वर्ष पूर्व आपने मेरे गाने की रिहर्सल तो की थी, पर गाया नहीं था। गाना मुझे ही पड़ा था’। (वह गाना था – ‘त्या फुलांच्या गंध कोषी’)
वे हंसकर बोले, ‘मेरे कोई नया गाना तैयार कराओ। मैं जरूर गाऊँगा। अगले दिन हम टोरन्टो से डेट्रायट जाने के लिए रेलगाड़ी पर सवार हुए। हमारा एनाउंसर हमें छोड़ने आया था। मुकेश दा ने उससे पूछा, ‘क्यों मियॉँ साहेब, आप नहीं आ रहे हमारे साथ!”
उसने जवाब दिया, मैं तो आपको छोड़ने आया हूँ।’
मुकेश दा हँसे, अरे, आप क्या हमें छोड़ेंगे! हम आपको ऐसा छोड़ेंगे कि फिर कभी नहीं मिलेंगे’। मियाँ का दिल भर आया। बोला, ‘नहीं-नहीं। ऐसी अशुभ बात मुंह से मत निकालिए’।
मुकेश दा हंसे। ‘राम-राम’ कहते हुए गाड़ी में चढ़कर मेरे पास आ बैठे। ताश निकालकर हम ‘रमी’ खेलने लगे। वे तीन डॉलर हार गए। मुझे पैसे देते हुए बोले, आज रात को फिर खेलेंगे। मैं तुमसे ये तीनों डॉलर वापस जीत लूँगा’।
और सचमुच ही डेट्रायट (अमरीका) में उन्होंने मुझे अपने कमरे में बुला लिया और मैं, अरूण, रवि उनके साथ रात साढ़े ग्यारह बजे तक ‘रमी’ खेलते रहे। इस बार मुकेश दा छह डॉलर हार गए। हमने उनकी खूब मजाक उड़ाई। मुझसे बोले, ‘आज कुल मिलाकर मैं नौ डॉलर हार गया हूँ। मगर कल रात को तुमसे सब वसूल कर लूँगा।
पर ‘कल की रात’ उनकी आयु में नहीं लिखी थी। मुझे कल्पना भी नहीं थी कि ‘कल की रात’ मुझे मुकेश दा के निर्जीव शरीर के पास बैठकर काटनी पड़ेगी।
झूठे बंधन तोड़ के सारे .....
अपने पुत्र नितिन मुकेश के साथ
वह दिन ही अशुभ था। एक मित्र को जल्दी भारत लौटना था, इसलिए उसके टिकट की भागदौड़ में ही दोपहर के तीन बज गए। टिकट नहीं मिला सो अलग। साढ़े चार बजे हम होटल लौटे। मैं, दीदी और अनिल मोहिले शाम के कार्यक्रम की रूपरेखा बनाने लगे। हम सब भूखे थे, इसलिए चाय और सैण्डविच मंगा ली गई थी। तभी मुकेश दा का फोन आया कि हारमोनियम ऊपर भिजवा दो। (उनका कमरा बीसवीं मंजिल पर था और हमारा सोलहवीं पर)। मैंने हारमोनियम भेज दिया। कार्यक्रम की चर्चा पूरी करने के बाद मैंने अनिल मोहिले से कहा, ‘चाय पीने के बाद म्यूजीसियंश को तैयार करके ठीक छह बजे मंच पर पहुंच जाना’। तभी चाय आ गई। मैं चाय तैयार कर ही रहा था कि ऊपर आओ। उसकी आवाज सुनते ही मैं भागा। अपने कमरे में मुकेश दा लुंगी और बनियान पहने हुए पलंग के पीछे हाथ टिकाए बैठे थे। मैंने नितिन से पूछा, “क्या हुआ?”
उसने बताया, ‘पापा ने कुछ देर गाया। फिर उन्होंने चाय मंगाई। पीकर वे बाथरूम गए। बाथरूम से आने के बाद उन्हें गर्मी लगने लगी और पसीना आने लगा। इसलिए मैंने आपको बुला लिया। मुझे कुछ डर लग रहा है’।
मैं सोचने लगा-पसीना आ जाने भर से ही यह लड़का डर गया है। कमाल है। फिर मैंने मुकेश दा से कहा, ‘आप लेट जाइए’।
वे एकदम बोल पड़े, ‘अरे तुम अभी तक एक नहीं? मैं लेटूँगा नहीं। लेटने से मुझे तकलीफ होती है। तुम स्टेज पर जाओ। मैं इंजेक्शन लेकर पीछे-पीछे आता हूँ। लता को कुछ मत बताना। वह घबरा जाएगी।
‘अच्छा,’ कहकर मैंने उनकी पीठ पर हाथ रख और झटके से हटा लिया। मेरा हाथ पसीने से भीग गया था। इतना पसीना, माने नहाकर उठे हों। तभी डॉक्टर आ गया। ऑक्सीजन की व्यवस्था की गई। मैंने मुकेश से पूछा, ‘आपको दर्द हो रहा है’?
उन्होंने सिर हिलाकर ‘न’ कहा। फिर उन्हें ‘ह्वील चेयर’ पर बिठाकर नीचे लाया गया। ऑक्सीजन लगा हुआ था, फिर भी लिफ्ट में उन्हें तकलीफ ज्यादा होने लगी, ‘ह्वील चेयर’ को ही ‘ऐंबुलेंस’ पर चढ़ा दिया गया। यह सब बीस मिनट में हो गया।
‘ऐंबुलेंस’ में उन्होंने केवल एक वाक्य बोला –यह पट्टा खोल दो’ (वह ह्वील चेयर का पट्टा था) फिर वे कुछ नहीं बोले। हजारों गाने गानेवाले मुकेश दा के वे आखिरी शब्द थे – ‘यह पट्टा खोल दो’।
कौन-सा पट्टा? कौन-सा बंधन? ह्वील चेयर का पट्टा या जीवन का बंधन? मुकेश दा को बाँधे हुए चमड़े का पट्टा या चैतन्य को बाँधे हुए जड़त्व का पट्टा? कहीं उनके कहने का आशय यही तो नहीं था!
‘एमरजेन्सी वार्ड’ में पहुंचने से पूर्व उन्होंने केवल एक बार आँखे खोलीं, हंसे और बेटे की तरफ हाथ उठाया। डॉक्टर ने वार्ड का दरवाजा बंद कर लिया। आधे घंटे बाद दरवाजा खुला। डॉक्टर बाहर आया ओर उसने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया। उसके स्पर्श ने मुझसे सबकुछ कह दिया था।
विशाल सभागृह खचाखच भरा हुआ है। मंच सजा हुआ है। सभी वादक कलाकार साज मिलाकर तैयार बैठे हुए हैं। इंतजार है कि कब मैं आऊँ, माइक ‘टेस्ट’ करूँ और कार्यक्रम शुरू हो। मैं मंच पर गया। सदैव की भाँति रंगभूमि को नमस्कार किया। माइक हाथ में लिया और बोला "भाइयो और बहनो, कार्यक्रम प्रारंभ होने में देर हो रही है, पर उसके लिए आज मैं आपसे क्षमा नहीं माँगूँगा। आज मैं किसी से कुछ नहीं माँगूँगा। केवल उससे बारम्बार एक ही माँग है – ‘ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना ...’
धर्मयुग से साभार रूपांतर- भारती मंगेशकर प्रस्तुति-शैलेश भारतवासी प्रस्तुति सहयोग- सतेन्द्र झा चित्र साभार-हमाराफोटोजडॉटकॉम(यह संस्मरण विश्व हिन्दी न्यास की त्रैमासिक पत्रिका 'हिन्दी-जगत' में भी प्रकाशित किया गया है) इस अवसर पर हमने इस संस्मरण में उल्लेखित सभी गीतों को सुनवाने का प्रबंध किया है।
ओ जाने वाले हो सके तो॰॰ Oh Jaane Waale Ho Sake To
आ जा रे, अब मेरा दिल पुकारा॰॰ Aa Ja Re, Ab Mera Dil Pukara
आँसू भरी है ये जीवन की राहें॰॰ Aanso Bhari Hai, Ye Jeevan Ki Rahen
दिल जलता है तो जलने दे॰॰ Dil Jalta Hai To Jalane De
दिल तड़प-तड़प के दे रहा है ये सदा॰॰ Dil Tadap-Tadap Ke De Raha Hai Ye Sada
आवाज़ पर हमारे इस हफ्ते के सितारे हैं, शायरा शिवानी सिंह और संगीतकार / गायक रुपेश ऋषि. हिंद युग्म के पहला सुर एल्बम में इस जोड़ी ने मशहूर ग़ज़ल "ये जरूरी नही" का योगदान दिया था, नए सत्र में एक बार फ़िर इनकी ताज़ी ग़ज़ल "चले जाना" को श्रोताओं का भरपूर प्यार मिला... शिवानी जी दिल्ली में रह कर सक्रिय लेखन करती है, साथ ही एक NGO, जो कैंसर पीडितों के लिए काम करती है, के लिए अपना समय निकाल कर योगदान देती है, युग्म से इनका रिश्ता बहुत पुराना है, चलिए पहले जानते हैं शिवानी जी से, कि कैसा रहा हिंद युग्म में उनका अब तक का सफर -
शिवानी सिंह - नमस्कार, मेरा प्रसिद्द नाम शिखा शौकीन है, परन्तु काव्य जगत में, मैं शिवानी सिंह के नाम से जानी जाती हूँ ! अब तक मैं करीब ३७० कविताएं लिख चुकी हूँ ! मेरा ९० कविताओं का एक संग्रह `यादों के बगीचे से' नाम से छप चुका है और दूसरा `कुछ सपनो की खातिर' प्रकार्शनार्थ तैयार है ! मैंने बी.ए, एस.सी मिरांडा हाउस , दिल्ली विश्वविद्यालय से की है और बी.एड, हिन्दू कालेज सोनीपत से !
मेरी ग़ज़लों के संग्रह में से "चले जाना" मेरी पसंदीदा ग़ज़ल है ! ये ग़ज़ल मैंने १९८२ में लिखी थी, और इतने सालों बाद जब इसकी रिकार्डिंग हो रही थी तो अचानक हमारे गायक और संगीतकार रुपेश जी ने मुझसे अंतिम दो नयी लाइन लिखने को कहा ! मैं असमंजस में पड़ गयी ! मुझे लगा जैसे मैं संगीत की परीक्षा दे रही हूँ ! करीब ५ मिनट में ही मैंने इस ग़ज़ल की अंतिम लाइने लिख कर दे दी ! अपनी इस संगीत की परीक्षा का परीक्षाफल जब ग़ज़ल के रूप में मिला तो मुझे बहुत ख़ुशी हुई की शायद मैंने ये परीक्षा पास कर ली है !
मेरे सपनो को रंग और पंख हिंद युग्म से मिले ! मैं हिंद युग्म की बहुत बहुत शुक्रगुजार हूँ, क्योंकि हिन्दयुग्म के माध्यम से मुझे अपनी बात और जज़्बात दुनिया भर के श्रोताओं तक पहुंचाने का अवसर मिला है ! ये मेरा सौभाग्य है कि मेरी एक ग़ज़ल `ये ज़रूरी नहीं' हिन्दयुग्म ने अपनी पहली एल्बम `पहला सुर' में शामिल कर मुझे कृतार्थ किया है ! हिंद युग्म के अन्य क्षेत्रों में भी मैंने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है जैसे यूनिकवि प्रतियोगिता, ऑनलाइन कवि सम्मलेन तथा कहानियों के पॉडकास्ट में भाग ले कर !
कहते हैं कोई भी काम अकेले संभव नहीं होता ! मेरे शब्दों को अपनी पूरी मेहनत ,लगन ,निष्ठा, अपनी गंभीर, मधुर आवाज़ और कर्णप्रिय संगीत दे कर रुपेश जी ने ग़ज़ल को सुन्दर रूप दिया है ! रुपेश जी अपने काम के प्रति बहुत ही समर्पित हैं ,यही वजह है कि मैं अपनी समस्त गज़लें इन्हीं की आवाज़ और संगीत में स्वरबद्ध कराना पसंद करती हूँ ! मैं उनके उज्व्वल भविष्य के लिए इश्वर से प्रार्थना करती हूँ ! मैं जगजीत सिंह जी की फैन हूँ ,और तलत अज़ीज़ जी की गज़लें सुनना भी बहुत पसंद करती हूँ ! हिंद युग्म में मुझे यहाँ तक पहुंचाने में सजीव जी, निखिल जी, शैलेश जी व रंजना जी का हाथ है। अपने इन मित्रों के सहयोग देने के लिए मैं इनकी तहे दिल से शुक्र गुजार हूँ।
शुक्रिया शिवानी जी, पूछते हैं रुपेश जी से भी, कि अपनी इस ताज़ी ग़ज़ल को मिली आपर सफलता के बाद उन्हें कैसा लग रहा है, रुपेश जी दिल्ली में "सुकंठ" नाम से एक स्टूडियो चलाते हैं, और अपनी एक टीम के साथ व्यावसायिक रूप से संगीत के क्षेत्र में कार्यरत हैं. -
रुपेश ऋषि - हिंद युग्म के बारे में मुझे शिवानी जी से पता चला था, जब इन्होंने बताया कि उनकी ग़ज़ल `पहला सुर' में सम्मिलित होने जा रही है। इसी दौरान मेरी मुलाक़ात सजीव जी व शैलेश जी से हुई। उनकी बातों ने मुझे बहुत प्रभावित किया और जब उन्होंने मुझ से अपने अल्बम कि समस्त कविताओं को मेरी आवाज़ देने का निवेदन किया तो मैंने उनका ये निवेदन सहर्ष स्वीकार कर लिया !
शिवानी जी जब पहली बार मेरे पास अपने गीत व ग़ज़ल लेकर आई तो मैंने देखा कि उनकी लिखी गज़लें बहुत ही सरल और दिल से लिखी हुई थी। इनके लेखन में मुझे विविधता भी देखने को मिली। इनकी हर ग़ज़ल अपने अलग अंदाज़ में है। इनके लेखन की इसी विशेषता से मुझे इनकी ग़ज़ल तैयार करने में अलग ही आनंद आया। मैं शुक्रगुजार हूँ अपने उन सभी श्रोताओं का जिन्होंने मेरी गज़लें “ये ज़रूरी नहीं” और "चले जाना" सुनी और सराही।
अंत में ,मैं यही उम्मीद करता हूँ कि हिंद युग्म परिवार यूँ ही स्नेह बनाये रखे और नए कलाकारों की कला को इस मंच पर ला कर पूरी दुनिया को दिखाए और उनका मनोबल बढाए.
जरूर रुपेश जी, यही हिंद युग्म, आवाज़ का मकसद भी है, हम कोशिशें जारी रखेंगे, आप यूँ ही स्नेह और सहयोग बनाये रखें. दोस्तो, आइए एक बार फ़िर सुनें और आनंद लें रुपेश जी की गाई और शिवानी जी की लिखी इस ताज़ा ग़ज़ल का -
संतूर को हम, बनारस घराने के पंडित बड़े रामदास जी की खोज कह सकते हैं, जिनके शिष्य रहे जम्मू कश्मीर के शास्त्रीय गायक पंडित उमा दत्त शर्मा को इस वाध्य में आपर संभावनाएं नज़र आयी. इससे पहले संतूर शत तंत्री वीणा यानी सौ तारों वाली वीणा के नाम से जाना जाता था, जिसके इस्तेमाल सूफियाना संगीत में अधिक होता था. उमा दत्त जी ने इस वाध्य पर बहुत काम किया, और अपने बाद अपने इकलौते बेटे को सौंप गए, संतूर को नयी उंचाईयों पर पहुँचने का मुश्किल काम. अब आप के लिए ये अंदाजा लगना बिल्कुल भी कठिन नही होगा की वो होनहार बेटा कौन है, जिसने न सिर्फ़ अपने पिता के सपने को साकार रूप दिया , बल्कि आज ख़ुद उनका नाम ही संतूर का पर्यावाची बन गया. जी हाँ हम बात कर रहे हैं, संतूर सम्राट पंडित शिव कुमार शर्मा जी की. पंडित जी ने १०० तारों में १६ तार और जोड़े, संतूर को शास्त्रीय संगीत की ताल पर लाने के लिए.अनेकों नए प्रयोग किया, अन्य बड़े नामी उस्तादों के साथ मंत्रमुग्ध कर देने वाली जुगलबंदियां की, और इस तरह कश्मीर की वादियों से निकलकर संतूर देश विदेश में बसे संगीत प्रेमियों के मन में बस गया.
पंडित जी ने बांसुरी वादक हरि प्रसाद चौरसिया के साथ मिलकर जोड़ी बनाई और हिन्दी फिल्मों को भी अपने संगीत से संवारकर एक नयी मिसाल कायम की, यशराज फिल्म्स की कुछ बेहतरीन फिल्में जैसे, सिलसिला (१९८१), चांदनी (१९८९), लम्हें (१९९१) और डर (१९९३) का संगीत आज भी हर संगीत प्रेमी के जेहन में ताज़ा है.
पेश है दोस्तों, पदम् विभूषण ( २००१ ) पंडित शिव कुमार शर्मा, संतूर पर बरसते बादलों का जादू बिखेरते हुए, आनंद लें इस विडियो का. १४ अगस्त २००८, को बंगलोर में हुए बरखा ऋतू संगीत समारोह से लिया गया है ये विडियो, जो हमें प्राप्त हुआ है अभिक मजुमदार की बदौलत जिन्हें इस समारोह को प्रत्यक्ष देखने का सौभाग्य मिला. यहाँ पंडित जी राग मेघ बजा रहे हैं, तबले पर संगत कर रहे हैं योगेश सामसी. विडियो ७ हिस्सों में हैं ( ३-३ मिनट की क्लिप ), कृपया एक के बाद एक देखें.
भाग-1
भाग-2
भाग-3
भाग-4
भाग-5
भाग-6
भाग-7
विडियो साभार- अभिक मजूमदार सोत्र - इन्टरनेट लेख संकलन - सजीव सारथी.
आज से लगभग १५ दिन पहले हमने श्रोताओं को विमल चंद्र पाण्डेय की कहानी 'स्वेटर' में ऑनलाइन अभिनय करने का मौका दिया था। हमें ४ लोगों (नीलम मिश्रा, अभिनव वाजपेयी, शिवानी सिंह और शोभा महेन्द्रू) से रिकर्डिंग प्राप्त हुई। हमारी टीम ने सभी की रिकॉर्डिंग की समीक्षा की और निर्णय लिया कि शोभा महेन्द्रू और शिवानी सिंह की आवाज़ों को मिक्स करके 'स्वेटर' का पॉडकास्ट बनाना उचित होगा। तो उसी पॉडकास्ट के साथ आपके समक्ष उपस्थित हैं। गौरतलब है कि विमल की यह कहानी इस बार के नवलेखन पुरस्कार द्वारा पुरस्कृत कथा-संग्रह 'डर' का हिस्सा है। सभी प्रतिभागियों का बहुत-बहुत शुक्रिया।
अब हम इस ऑनलाइन प्रयास में कितने सफल हुए हैं, ये तो आप ही बतायेंगे।
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सुनिए 'सुनो कहानी' अभियान की पहली कड़ी- प्रेमचंद की कहानी 'अंधेर' का पॉडकास्ट
अभी २ दिन पहले ही हमने वादा किया था कि हम हिन्दी साहित्य के ऑडियो बुक पर काम करेंगे। लीजिए हम हाज़िर है एक कहानी लेकर। इससे पहले हम ५ कहानियों का पॉडकास्ट प्रासरित भी कर चुके हैं। नियमित कहानी प्रासरण की शृंखला की पहली कड़ी के तहत हम उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की कहानी 'अंधेर' लेकर उपस्थित हैं।
इस कहानी को वाचा है अनुराग शर्मा उर्फ़ स्मार्ट इंडियन ने।
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आठवीं पेशकश के रूप में हाज़िर है सत्र की दूसरी ग़ज़ल, "पहला सुर" में "ये ज़रूरी नही" ग़ज़ल गाकर और कविताओं का अपना स्वर देकर, रुपेश ऋषि, पहले ही एक जाना माना नाम बन चुके हैं युग्म के श्रोताओं के लिए. शायरा हैं एक बार फ़िर युग्म में बेहद सक्रिय शिवानी सिंह.
शिवानी मानती हैं, कि उनकी अपनी ग़ज़लों में ये ग़ज़ल उन्हें विशेषकर बहुत पसंद हैं, वहीँ रुपेश का भी कहना है -"शिवानी जी की ये ग़ज़ल मेरे लिए भी बहुत मायने रखती थी ,क्योंकि ये उनकी पसंदीदा ग़ज़ल थी और वो चाहती थी कि ये ग़ज़ल बहुत इत्मीनान के साथ गायी जाए, मुझे लगता है कि कुछ हद तक मैं, उनकी उम्मीद पर खरा उतर पाया हूँ, बाकी तो सुनने वाले ही बेहतर बता पाएंगे".
तो आनंद लें इस ग़ज़ल का और अपने विचारों से हमें अवगत करायें.
इस ताज़ी ग़ज़ल को सुनने के लिए नीचे के प्लेयर पर क्लिक करें-
The team of "ye zaroori nahi" from "pahla sur" is back again with a bang. Rupesh Rishi is once again excellent here with his rendering as well as composition, While Shivani Singh's lyrical expressions give it a romantic feel, so friends, just enjoy this beautiful ghazal here and let us know what you feel about it, feel free to give your valuable suggestions as your comments.
To listen to this brand new ghazal, click on the player below-
ग़ज़ल के बोल -
चले जाना कि रात अभी बाकी है, ठहर जाना हर बात अभी बाकी है.
जिंदगी मेरी जो बीती तो युहीं बीत गयी,
जिंदगी मेरी जो बीती तो युहीं बीत गयी, मगर पल दो पल का, साथ अभी बाकी है. ठहर जाना....
कैसे भुलाऊं मैं उन चंद बातों को, बेताब दिन वो मेरे बैचैन रातों को....उन चंद बातों को...
बीते दिनों की, याद बहुत आती है. ठहर जाना...
मेरे ख्यालों में तुम रोज आते हो, पलकों से मेरी क्यों नींदें चुराते हो,
तुम्हे भी मेरी याद कभी आती है... ठहर जाना....
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कहा जाता है कि सूफ़ीवाद ईराक़ के बसरा नगर में क़रीब एक हज़ार साल पहले जन्मा. भारत में इसके पहुंचने की सही सही समयावधि के बारे में आधिकारिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में ग़रीबनवाज़ ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती बाक़ायदा सूफ़ीवाद के प्रचार-प्रसार में रत थे.
चिश्तिया समुदाय के संस्थापक ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती अजमेर शरीफ़ में क़याम करते थे. उनकी मज़ार अब भारत में सूफ़ीवाद और सूफ़ी संगीत का सबसे बड़ा आस्ताना बन चुकी है.
महान सूफ़ी गायक मरहूम बाबा नुसरत फ़तेह अली ख़ान ने अपने वालिद के इन्तकाल के बाद हुए परामानवीय अनुभवों को अपने एक साक्षात्कार में याद करते हुए कहा था कि उन्हें बार-बार किसी जगह का ख़्वाब आया करता था. उन दिनों उनके वालिद फ़तेह अली ख़ान साहब का चालीसवां भी नहीं हुआ था. इस बाबत उन्होंने अपने चाचा से बात की. उनके चाचा ने उन्हें बताया कि असल में उन्हें ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह दिखाई पड़ती है. पिता के चालीसवें के तुरन्त बाद वे अजमेर आए और ग़रीबनवाज़ के दर पर मत्था टेका. यह नुसरत के नुसरत बन चुकने से बहुत पहले की बात है. उसके बाद नुसरत ने सूफ़ी संगीत को जो ऊंचाइयां बख़्शीं उन के बारे में कुछ भी कहना सूरज को चिराग दिखाने जैसा होगा.
ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती के अलावा जो तीन बड़े सूफ़ी भारत में हुए उनके नाम थे ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बाबा बुल्ले शाह. ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया भी चिश्तिया सम्प्रदाय से ताल्लुक रखते थे. फ़रीदुद्दीन गंज-ए-शकर से दीक्षा लेने वाले ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया को हजरत अमीर ख़ुसरो का गुरु बताया जाता है. उनकी मज़ार दिल्ली में मौजूद है.
अमीर ख़ुसरो को क़व्वाली का जनक माना जाता है. एक संगीतकार के रूप में ख़्याल और तराना भी उन्हीं की देन बताए जाते हैं. तबले का आविष्कार भी उन्होंने ही किया था. इसके अलावा भारत में ग़ज़ल को लोकप्रिय बनाने का काम भी उन्होंने किया.
"रामदास किते फ़ते मोहम्मद, एहो कदीमी शोर मिट ग्या दोहां दा झगड़ा, निकल गया कोई होर"
जैसी रचनाएं करने वाले बाबा बुल्ले शाह का असली नाम अब्दुल्ला शाह था. उन्होंने पंजाब के इलाके में उन दिनों सूफ़ीवाद का प्रसार किया जब सिखों और मुस्लिमों के बीच वैमनस्य गहरा रहा था. पंजाबी और सिन्धी में लिखी उनकी रचनाएं बहुत आसान भाषा में लिखी होती थीं और जन-जन के बीच वे आज भी बहुत लोकप्रिय हैं.
आज सुनिये नुसरत फ़तेह अली ख़ान साहब की आवाज़ में बुल्ले शाह की एक क़व्वाली और गुरबानी का एक टुकड़ा:
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१ जनवरी - आज के कलाकार - नाना पाटेकर, सोनाली बेन्द्रे और कविता कृष्णमूर्ति - जन्मदिन मुबारक
नए साल के जश्न के साथ साथ आज तीन हिंदी फिल्म जगत के सितारे अपना जन्मदिन मन रहे हैं.ये नाना पाटेकर,सोनाली बेंद्रे और गायिक कविता कृष्णमूर्ति.
नाना पाटेकर उर्फ विश्वनाथ पाटेकर का जन्म १९५१ में हुआ था.नाना पाटेकर का नाम उन अभिनेताओं की सूची में दर्ज है जिन्होंने अभिनय की अपनी विधा स्वयं बनायी.गंभीर और संवेदनशील अभिनेता नाना पाटेकर ने यूं तो अपने फिल्मी कैरियर की शुरूआत १९७८ में गमन से की थी,पर अंकुश में व्यवस्था से जूझते युवक की भूमिका ने उन्हें दर्शकों के बीच व्यापक पहचान दिलायी.समानांतर फिल्मों में दर्शकों को अपने बेहतरीन अभिनय से प्रभावित करने वाले नाना पाटेकर ने धीरे-धीरे मुख्य धारा की फिल्मों की ओर रूख किया.क्रांतिवीर और तिरंगा जैसी फिल्मों में केंद्रीय भूमिका निभाकर उन्होंने समकालीन अभिनेताओं को चुनौती दी.फिल्म क्रांतिवीर के लिए उन्हें १९९५ में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरष्कार मिला था.इस पुरष्कार को उन्होंने तीन बार प्राप्त करा.पहली बार फिल्म परिंदा के लिए १९९० में सपोर्टिंग एक्टर का और फिर १९९७ में अग्निसाक्षी फिल्म के लिए १९९७ में सपोर्टिंग एक्टर का.४ बार उन्हें फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला.एक एक बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और सपोर्टिंग एक्टर का और दो बार सर्वश्रेष्ठ खलनायक का.
सोनाली बेंद्रे का जन्म १९७५ में हुआ.सोनाली बेंद्रे ने अपने करियर की शुरूआत १९९४ से की.दुबली-पतली और सुंदर चेहरे वाली सोनाली ज्यादातर फिल्मों में ग्लैमर गर्ल के रूप में नजर आई. प्रतिभाशाली होने के बावजूद सोनाली को बॉलीवुड में ज्यादा अवसर नहीं मिल पाए.सोनाली आमिर और शाहरूख खान जैसे सितारों की नायिका भी बनीं.उन्हें ११९४ में श्रेष्ठ नये कलाकार का फिल्मफेअर अवॉर्ड मिला.
सन १९५८ में जन्मी कविता कृष्णमूर्ति ने शुरुआत करी लता मंगेशकर के गानों को डब करके.हिंदी गानों को अपनी आवाज से उन्होंने एक नयी पहचान दी. उन्हें ४ बार सर्वश्रेष्ठ हिंदी गायिका का फिल्मफेयर पुरष्कार मिल चूका है. २००५ में उन्हें भारत सरकार से पद्मश्री सम्मान मिला.
इन तीनो को इन पर फिल्माए और गाये दस गानों के माध्यम से रेडियो प्लेबैक इंडिया के ओर से जन्मदिन की शुभकामनायें.
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बोलती कहानियाँ
बोलती कहानियाँ - टार्च बेचने वाले - हरिशंकर परसाई--आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार हरिशंकर परसाई की कहानी "टॉर्च बेचने वाले", जिसको स्वर दिया है अमित तिवारी ने।
जहाँ अंधकार है, वहीं प्रकाश है.प्रकाश बाहर नहीं है, उसे अंतर में खोजो.अंतर में बुझी उस ज्योति को जगाओ.
(हरिशंकर परसाई की "टार्च बेचने वाले" से एक अंश)
भारतीय शास्त्रीय संगीत - मोहन वीणा
पं. विश्वमोहन भट्ट ने गिटार इस स्वरुप में परिवर्तन कर इसे भारतीय संगीत वादन के अनुकूल बनाया.उन्होंने एक सामान्य गिटार में 6 तारों के स्थान पर 19 तारों का प्रयोग किया.यह अतिरिक्त तार 'तरब' और 'चिकारी' के हैं जिनका उपयोग स्वरों में अनुगूँज के लिए किया जाता है.आप सुनिए अमेरिकी गिटार वादक रे कूडर और पं. विश्वमोहन भट्ट की गिटार और मोहन वीणा पर जुगलबंदी और फिल्म दुनिया न माने के गाने में इस्तेमाल हुआ हवाइयन गिटार, पियानो तथा वायलिन के प्रयोग वाला गाना.
Radio Playback Artist of the month
रेडियो प्लेबैक की टीम के साथ के निरन ने अपने गायन और संगीत निर्देशन का सफर शुरू किया था. हाल ही में प्रदर्शित डेम 999 उनकी आवाज़ महकी है. सुनते हैं उनका बॉलीवुड डेब्यू गीत
महफ़िल-ए-ग़ज़ल
ये महीना है अजीम शायर असद अली खां उर्फ मिर्ज़ा ग़ालिब को याद करने का. १० मुक्तलिफ़ फनकारों ने अपने अपने अंदाज़ में ढाला गालिब को अपनी मौसिकी में, आईये करें अदब के इस शहंशाह को सलाम इन नायाब ग़ज़लों को सुनकर.
भजन सम्राट अनूप जलोटा - दस भजन
हिन्दी भजनों का जिक्र हो और अनूप जलोटा का नाम न आये ऐसा संभव ही नहीं है. हम आपके लिए लाये हैं भजन सम्राट अनूप जलोटा के गाये १० बेहतरीन भजन.