महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८४
पाकिस्तान से खबर है कि अस्वस्थ होने के बावजूद मेहदी हसन एक बार फिर अपनी जन्मभूमि पर आना चाहते हैं। राजस्थान के शेखावटी अंचल में झुंझुनूं जिले के लूणा गांव की हवा में आज भी मेहदी हसन की खुशबू तैरती है। देश विभाजन के बाद लगभग २० वर्ष की उम्र में वे लूणा गांव से उखड़ कर पाकिस्तान चले गये थे, लेकिन इस गांव की यादें आज तक उनका पीछा करती हैं। वक्त के साथ उनके ज्यादातर संगी-साथी भी अब इस दुनिया को छोड़कर जा चुके हैं, लेकिन गांव के दरख्तों, कुओं की मुंडेरों और खेतों में उनकी महक आज भी महसूस की जा सकती है।
छूटी हुई जन्मस्थली की मिट्टी से किसी इंसान को कितना प्यार हो सकता है, इसे १९७७ के उन दिनों में झांक कर देखा जा सकता है, जब मेहदी हसन पाकिस्तान जाने के बाद पहली बार लूणा आये और यहां की मिट्टी में लोट-पोट हो कर रोने लगे। उस समय जयपुर में गजलों के एक कार्यक्रम के लिए वे सरकारी मेहमान बन कर जयपुर आये थे और उनकी इच्छा पर उन्हें लूणा गांव ले जाया गया था। कारों का काफिला जब गांव की ओर बढ़ रहा था, तो रास्ते में उन्होंने अपनी गाड़ी रुकवा दी। काफिला थम गया। सड़क किनारे एक टीले पर छोटा-सा मंदिर था, जहां रेत में लोटपोट हो कर वे पलटियां खाने लगे और रोना शुरू कर दिया। कोई सोच नहीं सकता था कि धरती माता से ऐसे मिला जा सकता है। ऐसा लग रहा था, जैसे वे मां की गोद में लिपट कर रो रहे हों।इस दृश्य के गवाह रहे कवि कृष्ण कल्पित बताते हैं, ‘वह भावुक कर देने वाला अदभुत दृश्य था। मेहदी हसन का बेटा भी उस समय उनके साथ था। वह घबरा गया कि वालिद साहब को यह क्या हो गया? हमने उनसे कहा कि धैर्य रखें, कुछ नहीं होगा। धीरे-धीरे वह शांत हो गये। बाद में उन्होंने बताया कि यहां बैठ कर वे भजन गया करते थे।’ मेहदी हसन ने तब यह भी बताया था कि पाकिस्तान में अब भी उनके परिवार में सब लोग शेखावटी में बोलते हैं। शेखावटी की धरती उन्हें अपनी ओर खींचती है।
मेहदी हसन के साथ इस यात्रा में आये उनके बेटे आसिफ मेहदी भी अब पाकिस्तान में गजल गाते हैं और बाप-बेटे का एक साझा अलबम भी है – “दिल जो रोता है’।
उपरोक्त पंक्तियाँ हमने "ईश मधु तलवार" से उधार ली हैं। ऐसा करने के हमारे पास दो कारण थे। पहला यह कि उम्र के जिस पड़ाव पर मेहदी साहब आज खड़े हैं, वहाँ से वापस लौटना या फिर पीछे मुड़कर देखना अब नामुमकिन-सा दिख पड़ता है, इसलिए हमारा कर्त्तव्य बनता है कि किसी भी बहाने मेहदी साहब को याद किया जाए और याद रखा जाए। रही बात दूसरे कारण की तो हमारी आज की महफ़िल जिस गज़ल के सहारे बन-संवरकर तैयार हुई है, उसे अपनी आवाज़ से तरोताज़ा करने वाले और कोई नहीं इन्हीं मेहदी साहब के सुपुत्र आसिफ मेहदी हैं(इनका ज़िक्र ऊपर भी आया है)। मुझे पक्का यकीन है कि आसिफ मेहदी के बारे में बहुत हीं कम लोगों को जानकारी होगी। तो हम हीं कुछ बताए देते हैं। आसिफ ने अपने अब्बाजान और अपने एक रिश्तेदार ग़ुलाम क़ादिर की देखरेख में महज १३ साल की उम्र में गाने की शुरूआत कर दी थी। इन्होंने अपना पहला कार्यक्रम १९८३ में लास एंजिल्स में दिया था, जहाँ पर इनके साथ मेहदी साहब भी थे। कहते हैं कि मेहदी साहब ने इन्हें बीच में हीं रोककर गाने से मना कर दिया था और कहा था कि इनकी आवाज़ औरतों जैसी जान पड़ रही है, इसलिए जब तक ये मर्दाना आवाज़ में नहीं गाते, तब तक इन्हें सर-ए-महफ़िल गाना नहीं चाहिए। अब्बाजान की डाँट का आसिफ की गायिकी पर क्या असर हुआ, यह कहने की कोई ज़रूरत नहीं। १९९९ में मिला "निगार अवार्ड" उनकी प्रतिभा का जीता-जागता नमूना है। पाकिस्तान की ६० से भी ज्यादा फिल्मों में गा चुके आसिफ अब हिन्दुस्तानी फिल्मों में अपनी किस्मत आजमाना चाहते हैं। साथ हीं साथ आसिफ आजकल के युवाओं के बीच गज़लों की घटती लोकप्रियता से भी खासे चिंतित प्रतीत होते हैं। इन दोनों मुद्दों पर उनके विचार कुछ इस प्रकार हैं:
पाकिस्तानी गजल गायक आसिफ मेहदी कहते हैं कि युवा श्रोताओं के गजलों से दूर होने के लिए मीडिया जिम्मेदार है। प्रख्यात गजल गायक मेहदी हसन के बेटे मेहदी ने एस साक्षात्कार में आईएएनएस से कहा, "मीडिया जोर-शोर से पॉप संगीत को प्रोत्साहित कर रही है और इसे वह कुछ ऐसे रूप में प्रस्तुत कर रही है कि युवा इसे सुनने के अलावा और कुछ महसूस ही न कर सकें।" मेहदी ने कहा, "मैं अपनी ओर से गजलों को उनके शुद्ध रूप में प्रोत्साहित करने की कोशिश कर रहा हूं। मैं गजल समारोहों में युवा श्रोताओं की संख्या बढ़ाने के लिए पाकिस्तान और भारत में विभिन्न मंचों पर बात कर रहा हूं। 'रूट्स 2 रूट्स'(एक प्रकार का गज़ल समारोह) के साथ मेरा सहयोग महत्वपूर्ण है क्योंकि इसने मेरे वालिद (मेहदी हसन) और उनके प्रसिद्ध साथियों गुलाम अली, फरीदा खानम और इकबाल बानो जैसे गजल गायकों के अमर संगीत को प्रोत्साहित करने में मेरी मदद की है।" अपने पिता जैसी ही आवाज के मालिक मेहदी अब बॉलीवुड में अपनी शुरुआत करने को तैयार हैं। मेहदी कहते हैं कि उनके पास बॉलीवुड की कई फिल्मों में गाने के प्रस्ताव हैं। वह कहते हैं कि वह लंबे समय से हिंदी फिल्मों में गाना चाहते थे। उन्हें उम्मीद है कि वह जल्दी ही यह शुरुआत कर सकेंगे।
हम दुआ करते हैं कि हिन्दुस्तानी फिल्में जल्द हीं आसिफ साहब की आवाज़ से नवाजी जाएँ। यह तो हुई गायक की बात, अब बारी है इस गज़ल के गज़लगो की, तो यह गज़ल जिनकी लेखनी की उपज है, उनके बारे में कुछ भी कहना पहाड़ को जर्रा कहने के जैसा होगा। इसलिए खुद कुछ न कहके प्रख्यात लेखक "शैलेश जैदी" को हम यह काम सौंपते हैं।
नौशेरा में जन्मे अहमद फ़राज़ जो पैदाइश से हिन्दुस्तानी और विभाजन की त्रासदी से पाकिस्तानी थे उर्दू के उन कवियों में थे जिन्हें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के बाद सब से अधिक लोकप्रियता मिली।पेशावर विश्वविद्यालय से उर्दू तथा फ़ारसी में एम0ए0 करने के बाद पाकिस्तान रेडियो से लेकर पाकिस्तान नैशनल सेन्टर के डाइरेक्टर,पाकिस्तान नैशनल बुक फ़ाउन्डेशन के चेयरमैन और फ़ोक हेरिटेज आफ़ पाकिस्तान तथा अकादमी आफ़ लेटर्स के भी चेयरमैन रहे।भारतीय जनमानस ने उन्हें अपूर्व सम्मान दिया,पलकों पर बिठाया और उनकी ग़ज़लों के जादुई प्रभाव से झूम-झूम उठा। मेरे स्वर्गीय मित्र मख़मूर सईदी ने, जो स्वयं भी एक प्रख्यात शायर थे,अपने एक लेख में लिखा था -"मेरे एक मित्र सैय्यद मुअज़्ज़म अली का फ़ोन आया कि उदयपूर की पहाड़ियों पर मुरारी बापू अपने आश्रम में एक मुशायरा करना चाहते हैं और उनकी इच्छा है कि उसमें अहमद फ़राज़ शरीक हों।मैं ने अहमद फ़राज़ को पाकिस्तान फ़ोन किया और उन्होंने सहर्ष स्वीकृति दे दी।शान्दार मुशायरा हुआ और सुबह चर बजे तक चला। मुरारी बापू श्रोताओं की प्रथम पक्ति में बैठे उसका आनन्द लेते रहे।"
"फ़िराक़", "फ़ैज़" और "फ़राज़" लोक मानस में भी और साहित्य के पार्खियों के बीच भी अपनी गहरी साख रखते हैं।इश्क़ और इन्क़लाब का शायद एक दूसरे से गहरा रिश्ता है। इसलिए इन शायरों के यहां यह रिश्ता संगम की तरह पवित्र और अक्षयवट की तरह शाख़-दर-शाख़ फैला हुआ है। रघुपति सहाय फ़िराक़ ने अहमद फ़राज़ के लिए कहा था-"अहमद फ़राज़ की शायरी में उनकी आवाज़ एक नयी दिशा की पहचान है जिसमें सौन्दर्यबोध और आह्लाद की दिलकश सरसराहटें महसूस की जा सकती हैं" फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को फ़राज़ की रचनाओं में विचार और भावनाओं की घुलनशीलता से निर्मित सुरों की गूंज का एहसास हुआ और लगा कि फ़राज़ ने इश्क़ और म'आशरे को एक दूसरे के साथ पेवस्त कर दिया है।और मजरूह सुल्तानपूरी ने तो फ़राज़ को एक अलग हि कोण से पहचाना । उनका ख़याल है कि "फ़राज़ अपनी मतृभूमि के पीड़ितों के साथी हैं।उन्ही की तरह तड़पते हैं मगर रोते नहीं।बल्कि उन ज़ंजीरों को तोड़ने में सक्रिय दिखायी देते हैं जो उनके समाज के शरीर को जकड़े हुए हैं।"फ़राज़ ने स्वय भी कहा था -
मेरा क़लम तो अमानत है मेरे लोगों की।
मेरा क़लम तो ज़मानत मेरे ज़मीर की है॥
देशभक्त की भावना से ओत-प्रोत इस शेर को सुनने के बाद लाज़िमी हो जाता है कि हम एक प्यार-भरा शेर देख लें क्योंकि आज की की गज़ल बड़ी हीं रूमानी है और रूमानियत को रौ में लाने के लिए माहौल में मिसरी तो घोलनी हीं पड़ेगी:
जिस सिम्त भी देखूँ नज़र आता है के तुम हो
ऐ जान-ए-जहाँ ये कोई तुम सा है के तुम हो
और अब वह समय आ गया है, जिसका हमें बेसब्री से इंतज़ार था। तो ज़रा भी देर न करते हुए हम सुनते हैं फिल्म "जन्नत की तलाश" से ज़ुल्फ़िकार अली के द्वारा संगीतबद्ध की गई यह गज़ल:
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को ____ ठहर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
सुना है उसके बदन की तराश ऐसी है
के फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "बूटा" और शेर कुछ यूँ था-
इस दुनिया के बाग में
शूली जैसा हर बूटा है।
इस शब्द के साथ महफ़िल में हाज़िर हुए "रोमेंद्र" जी। हुजूर, आपने इस शब्द को पहचाना तो ज़रूर, लेकिन हमें आपसे शेर की भी दरकार थी। खैर कोई बात नहीं.. पहली मर्तबा था, इसलिए हम आपको माफ़ करते हैं ;) अगली बार से इस बात का भी ध्यान रखिएगा।
अवनींद्र जी, कमाल है..... इस बार आप शेर से हटकर नज़्म पर आ गए। वैसे रचना है बड़ी प्यारी:
अपने मंदिर की खातिर
नौचती रही
तुम मेरे
बाग़ का हर बूटा
और मैं
परेशां रहा
कि भूले से
कोई शूल
तेरे हाथो न चुभ जाये
शरद जी, सच कहूँ तो मैंने इसी शेर के कारण बूटा शब्द को गायब किया था। और वाह! आपने मेरे दिल की बात जान ली:
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग तो सारा जाने है। (आपने यहाँ तू लिखा है.. यानि कि सही शब्द को हीं गुल कर दिया :) )
शन्नो जी, मंजु जी और नीलम जी, आपने "बूटा" को साड़ी पर जड़े "बूटे" की तरह लिया है,
स्याह चादर पे चाँद संग आ मुस्कुराते हैं
खामोश आलम में झांक कर टिमटिमाते हैं
आसमा में टंके सितारे लगते हैं जैसे बूटा
रात के अलविदा कहते ही गुम हो जाते हैं. (शन्नो जी)
जब लाल साड़ी पर उकेरा था बूटा,
दिलवर !तब हर साँस ने तेरा नाम जपा . (मंजु जी)
बूटा बूटा जो नोचा उस जालिम ने आसमानों से
लहू लहू वो हुआ उस कातिल के अरमानों से. (नीलम जी)
सीमा जी, आपने बूटा पर कई सारे शेर पेश किए। मुझे उन सारे शेरों में से यह शेर (पंक्तियाँ) सबसे ज्यादा पसंद आया:
मेरी मुहब्बत का ख़्वाब, चमेली का बूटा
जिसके नीचे हकीकत का 'काला नाग' रहता है। (कमल )
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
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26 श्रोताओं का कहना है :
सुना है दिन को उसे तितलियां सतातीं हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
regards
जब तेरी याद के जुगनू चमके
देर तक आँख में आँसू चमके
(अहमद फ़राज़ »)
जुगनू कोई सितारों की महफ़िल में खो गया
इतना न कर मलाल जो होना था हो गया
(: बशीर बद्र )
वक़्ते-रुख़सत कहीं तारे कहीं जुगनू आए
हार पहनाने मुझे फूल से बाजू आए
(: बशीर बद्र )
अहसास की ख़ुश्बू कहाँ आवाज़ के जुगनू कहाँ
ख़ामोश यादों के सिवा घर में रहा कुछ भी नहीं
(: बशीर बद्र )
यही अंदाज़ है मेरा समन्दर फ़तह करने का
मेरी काग़ज़ की कश्ती में कई जुगनू भी होते हैं
(: बशीर बद्र )
बाहर सहन में पेड़ों पर कुछ जलते-बुझते जुगनू थे
हैरत है फिर घर के अन्दर किसने आग लगाई है
(क़तील शिफ़ाई )
regards
देख के मेरे घर का रस्ता "जुग्नू" भी छुप जाता है.
आसमान का हर तारा घर झांक के तेरे आता है.
जुगनू शब्द है
मन की मत सुनियो रे मन तो पगला गया है
छोटे छोटे गमो से ये घबरा गया है
मेरा चाँद आज सुबह होने से पहले
कुछ जुगनुओं की राख मुझे सम्हला गया है (स्वरचित )
आभार सहित
तन्हा जी, ये गलत बात है की आपने तीन लोगों को फेल कर दिया...हालांकि हमने किसी भी साड़ी पे बूटा नहीं टांका था...लेकिन नाइंसाफी को इंसाफी दिलाने के लिये गुस्ताखी माफ़ करना...की जो साड़ी पे बूटा टांका जाता है उस बूटे का मतलब भी फूल होता है...( शायद आपने कभी कढ़ाई नहीं की होगी साड़ी पर या किसी और कपड़े पर इसलिये आप को नहीं पता )...तो समझने में आपने जल्दबाजी कर दी..खैर अब मैं अपना केस पेश करती हूँ की हमने भी अपने शेर में कोई भूल नहीं की थी..फिर भी हमारे नंबर साफ़ कर दिये..और फेल कर दिया..एक फूल से कन्फ्यूज़ होके हमें fool बना दिया... समझने की भूल कौन करता है और fool कोई और बन जाता है....या खुदा ! तेरे दरबार में हमारे संग ये क्या हो रहा है..? हमें इस बात का बड़ा मलाल है और सोचकर तिलमिलाहट हो रही है..नहीं रहा जा रहा है हमसे बिना अपनी सफाई दिये हुये ..इसीलिये बताना पड़ रहा है की..हमने जिन सितारों की बात की थी...वो भी फूल ही थे...रात की स्याह चादर पर टके सितारे यानी बूटे जो फूलों की तरह लगते हैं...( फिर से पढिये..और समझिये ) '' आसमां में टंके सितारे लगते हैं जैसे बूटा ''..अब देखिये की बूटा से तुलना की है हमने उनकी...हाँ, देखिये ढंग से. :) जैसे की फूल...अब ये महफ़िल आपकी है, फैसला आपके हाथ में पास-फेल करने का...हमने तो बस अपने केस पर फिर से निगाहे-इनायत करने को कहा है...बस इतनी ही इल्तजा है. :) अब हम तो चले ये बताते हुये की आज की पेश की हुई ग़ज़ल हमें बहुत पसंद आई.....खुदा हाफिज़...
शन्नो जी,
नाराज़ मत होईये। हो सकता है कि मेरी समझ हीं मार खा गई हो। लेकिन जिस समय मैंने टिप्पणी डाली थी, उस समय मुझे यह समझ हीं नहीं आया था कि आपके शेर में फूल कैसे फिट हो रहा है। मंजु जी और नीलम जी के शेरों के साथ भी यही हुआ। इसलिए मैंने सोचा कि अपना स्पष्टीकरण देकर इन शेरों को शामिल न करूँ। फिर भी अगर ऐसा है कि इन शेरों में बूटा का अर्थ फूल हीं है, तो मैंने अपनी टिप्पणी में आवश्यक बदलाव किए देता हूँ। अब लोग हीं यह निर्णय लेंगे कि शेर सही है या नहीं।
धन्यवाद,
विश्व दीपक
तन्हा जी,
मैं नाराज़ नहीं हूँ किसी से खास तौर से आपसे...ना मेरी कोई औकात है नाराज होने की और ना ही मैं इतना इल्म रखती हूँ शेर और ग़ज़ल की दुनिया से जितना आप धुरंधर लोग...लेकिन जो मेरा मतलब था मेरे अपने शेर में...उसपर आपका ध्यान दिलाने की कोशिश की थी..और अगर आपको उसका भी बुरा लगा हो तो मैं आपसे माफ़ी मांगती हूँ...एक चीज़ और मुझे जाननी है की क्या तुलना नहीं की जाती है किसी शब्द की दूसरे शब्द से शेर में..जैसे की सितारों की तुलना मैंने '' बूटों '' से करी...अगर ऐसा है तो मैं अनजान थी इस बात से...और मुझसे ही अनजाने में भूल हो गयी है....
दोस्तों
गब्बर आ गया है ,.............................. शन्नो जी को इतना गुस्सा काहे को आता है कालिया या या या .......
शन्नो जी ये ये दीपक हमारेवाले दीपक की ही तरह आपका बच्चा ही है .......................... उसे जो लगा उसने लिख दिया स्पष्टीकरण के तौर पर हम भी यही कहेंगे जनाब हमे भी पता है कि फूल की ही बात हो रही है . कोई बात नहीं यह सब तो चलता रहता है ,आशा है कि सब शक और सुबहे दूर हो गए होंगे .....................
गब्बर खुस हुआ ..............................अबकी जुगनू पर तो हम चोरी करके लायेंगे एक बहुत अच्छा शेर इन्तजार कीजिये
चोरी में भी वक़्त लगता है "janaab"
शन्नो जी,
बुरा लगने की तो कोई बात हीं नहीं है। आपको (और सब को) अपनी बात रखने का पूरा हक़ बनता है। और हाँ ,ये भी नहीं है कि आप दो शब्दों की तुलना नहीं कर सकते.. कर सकते हैं.. इसी को तो "उपमा" अलंकार कहते हैं.. :)
दर-असल मुझे लगा था कि आप तारों को "बूटा" और आसमान को "साड़ी" के तौर पर दिखा रहीं है, जिनपे ये बूटे जड़े हैं.. जबकि उस नज़्म में "गुलशन" के "बूटे" की बात हुई थी.. इसलिए मैं कन्फ़्य़ूजिया गया। खैर कोई बात नहीं... अब मैंने तीनों के तीनों शेर अपनी टिप्पणी में डाल दिए हैं।
और हाँ, इतना ज्यादा सेंटिमेंटल मत हो जाया कीजिए.. :) क्योंकि सेंटिमेंटल लोग शुरू शुरू में सेंटी होते हैं.. लेकिन बाद में मेंटल हो जाते हैं :P इसलिए मैं भी सेंटिमेंटल नहीं होता..कभी भी।
धन्यवाद,
विश्व दीपक
ओह..तो ये बात है....हमें मेंटल होने की भी दुआ दी जा रही है यहाँ ..अभी तक तो हम ऊपर वाले की रहमत से मेंटल नहीं हुये हैं...आगे की पता नहीं...और अगर हमें किसी दिन गुस्सा आ गया तो आप लोग खैर मनायें की फिर कोई कहीं मेंटल ना हो जाये यहाँ ( ही ही )...तब तक कन्फयूजिया कर ही काम चलायें. :) लगता है की डर के मारे अभी भी कन्फ्यूजन नहीं दूर हुआ..हमने तो आसमान की तुलना चादर से की थी साड़ी से नहीं...खैर हमारी बातें आसमान की चादर जैसी लम्बी होती जा रही हैं...तो ये किस्सा ख़त्म करें बूटे का...दीमक की तरह दिमाग चाट गया...लेकिन फिर भी मन को बात कचोटती है की बदकिस्मती से गब्बर के शेर के साथ हमारा एक अपने अलग नमूने का शेर भी लपेट में आ गया था...उसे बचाने के चक्कर में गब्बर का शेर भी बच गया...हम इतनी देर कुकिहाये सबके लिये और गब्बर ने नोटिस भी ना किया... की उनका शेर भी साँसें लेने लगा दोबारा...नीलम जी आयीं और अपनी हंसी की आवाज़ '' आवाज़ '' में मिलाके भाग गयीं...वाह रे वाह...वह भी कहीं से शेर चुराने की बात करके...पुरानी आदत जो ठहरी...चोरी-डकैती की...लेकिन हम अपनी ही उँगलियों और अपनी कलम का इस्तेमाल करके एक नज्म और एक शेर लिख कर लाये हैं...इस पर भी आप लोग जरा नज़र फेंकने की तकलीफ कीजिये :
इंसानों की दुनिया में जुगनू भी आते हैं
जगमगा के कुछ देर दम तोड़ जाते हैं
सबको पता है ये धोखा है उजाले का
मरने के बाद वही अँधेरे छोड़ जाते हैं.
फूलों और पातों में आकर छिप जाते हैं
ये जुगनू रोशनी देकर खुद जल जाते हैं.
-शन्नो
सेंटी और मेंटल की बात अवनींद्र जी पर पूरी तरह फिट बैठती है अब पतंगों की जगह जुगनू की राख निकाल रहे हैं लाहौल विला कूबत ..........................
नहीं चलेगी नहीं चलेगी जुगनू की राख नहीं चलेगी पतंगे को ही जलाओ नहीं तो गब्ब्बर नाराज हो जाएगा और किसी को भी शाबासी भी नहीं देगा ,शन्नो जी ने हमे चुनौती दी है तो अब हम भी कुछ अपने आप ही लिखेंगे .
hahahahahahaahahahahahahahahahahah
अंधेरा जब भी गहराता है जुगनू याद आते है
चमक दिखला के वो हमको पता अपना बताते हैं ।
जुगनू पर तो बहुत सारे शेर आ गए.
मैं ध्यान दिलाना चाहता हूँ एक उस बात पर जो वैसे तो हमारे सुधी श्रोताओं को पता होगी फिर भी दोहराने में कोई हर्ज नहीं.
आसिफ मेहदी के पहले उस्ताद के बारे में जिन गुलाम कादिर साहेब का ज़िक्र है वोह कोई और नहीं बल्कि खुद जनाब मेहदी हसन के बड़े भाई और गुरु/उस्ताद पंडित गुलाम कादिर थे जिन्होंने ज़्यादातर मेहदी हसन की ग़ज़लों को संगीतबद्ध भी किया है.
अवध लाल
अरे भाई यहाँ तो घमासान मचा हुआ है लगता है अपनी फिल्म का कलायिमक्स आ गवा है
अब हमें भी अपनी कीलों वाली जूती निकालनी पड़ेगी यानी एक पूरी की पूरी ग़ज़ल लो झेलो अब कसम है पूरी unit
को पूरी पढना नहीं टी हम गब्बर से दोस्ती करके रामगढ की खबर लेंगे
मन की वीरानियों मैं तेरा ख्याल है या
कोई सूखे पत्तों पे चल रहा है !
ये मेरी आँख छलक आई है या
चाँद मेरे गम से पिघल रहा है !
ये चांदनी पत्तों पे ढल रही है या
तेरी याद का जुगनू चमक रहा है !
ऐ बादल आज जम के बरस जा
किसी के साथ रोने को दिल मचल रहा है 1
मोंत मेरी जिंदगी से अच्छी निकली
वो साथ जनाज़े के मेरे चल रहा है !
with regards
avenindra
स्वरचित थी
jugnu shabd se sher
main na jugnu hoon, diya hoon na koi taara hoon,
roshni wale mere naam se jalte kyun hai...
neelam jee,
aap ke rehte hue mehfil mein itna hungama kaise ho gya?
chalo abhi chalta hoon
agli mehfil mei milenge...
tab tak k liye bye bye...
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
सुना है उसके बदन की तराश ऐसी है
के फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं
नायाब फनकार जिन्होंने हमें अनमोल खज़ाना दिया है उन्हें हमारा मुहब्बत भरा सलाम ..पता नहीं कोन सी दुनियां में जा बसे वो ईमानदार अपने काम के प्रति समर्पित फनकार
"महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक बेहतरीन कोशिश.. आपका तहे दिल से स्वागत है ...मक्
http://www.youtube.com/mastkalandr
kai mod aaye magar kat gaye
irade jawan the safar kat gaye
hamein shouk jugnoo pakadane ka tha
andheron ke yoon hee safar kat gaye.
idhar kat gaye ya udhar kat gaye
ana mein hazaron ke sar kat gaye.
(shakoor anwar)
मोंत मेरी जिंदगी से अच्छी निकली
वो साथ जनाज़े के मेरे चल रहा है !
gabbar baht khus hua .....................
bahut achcha likha hai ............
gabbar ke marne ki taiyaari me ho sab log ?????????????????????? par ho nahi paayega
@ सुमित, मैंने कोई हंगामा नहीं किया था....बस जो मेरा मतलब था शेर के बारे में वही सफाई दी थी..और कुछ नहीं...
@ तन्हा जी, अगर आपको मेरी किसी भी बात से कभी कोई तकलीफ पहुंची हो अनजाने में तो मैं आपसे माफ़ी मांगती हूँ... प्लीज़, मुझे माफ़ कर दीजिये...आगे से ध्यान रखूंगी की कभी कोई शिकायत ना करूं.
shanno jee
aap kaise ho?
pichli baar jab main mehfil mei aaya tha to bahut jaldi mei tha..isliye ek do comments padhne k baad mujhe ye samaz mei he nahi aaya yahan kis sher ki baat ho rahi hai....aur is se pichli mehfil ka link check kiya to vahan koi sher nahi mila...ho sakta hai maine galat link check kiya ho, isliye mujhe ye sab hungama laga...
aaj free tha to fir se comments padhe aur samajh aa gaya yahan kya baat ho rahi thi..........
chalo abhi chalta hoon
agli mehfil mei milenge..
tab tak k liye bbye...
:-)
जुगनू का पेड़ जब हवा से इतराया
वल्लाह! सारा जहाँ जमीं पर नजर आया
मेरी झोली में जुगनुओं कि वो सौगात लाता
यूँ ही नहीं उसकी किस्मत में अहबाब आता
अहबाब -मित्र
दोस्तों गब्बर भी कुछ लिख के लाया है पसंद करोगे तो गबार खुस हो जाएगा नहीं पसंद करने पर तुम सबका सर गोली से उड़ा देगा तो मर्जी है तुम्हारी क्यूंकि खोपडिया भी है तुम्हारी
( शन्नो जी जरा सम्हाल के हँसना )
एक शेर और अर्ज़ है ये गब्बर के गुस्से को समर्पित है
रात को रामगढ न जाने की सलाह है गब्बर को क्यूंकि रात मैं रामगढ मैं जुगनू बहुत घूमते हैं अरे वो वीरू है न सबसे बड़ा जुगनू अपने देखि है उसकी DOKUMENTARY जुगनू
अजब है जात जुगनू की वो क्यूँ बागों मैं आता है
कलियों को दिखाने रौशनी खुद को जलाता है
ABHAAR SAHIT
jvaab - jugnu
sher -swrachit
Tere yaadon ke jugnu ne rulaa diyaa ,
Bin saavn ke brsaat ko bulaa liyaa.
एक और शेर लिखा है पता नहीं शामिल हो पायेगा या नहीं
आँखों में दौड़ती रहती हैं ख्वाहिशें हरदम
दम भर को सही इन्हें अपनी परस्ती दे दे
ऐ खुदा मेरे हौसलों को चांदनी न सही
एक रात जुगनुओं की चमकती दे दे !!(स्वरचित )
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)