सुर संगम - 26 - उस्ताद असद अली खाँ
वे भगवान शिव को रूद्रवीणा का निर्माता मानते थे|
साप्ताहिक स्तम्भ 'सुर संगम' के इस विशेष अंक में आज हम रूद्रवीणा के अनन्य साधक उस्ताद असद अली खाँ को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए उपस्थित हुए हैं, जिनका गत 14 जून को दिल्ली में निधन हो गया| उनके निधन से हमने वैदिककालीन वाद्य रूद्रवीणा को परम्परागत रूप से आधुनिक संगीत जगत में प्रतिष्ठित कराने वाले एक अप्रतिम कलासाधक को खो दिया है| उस्ताद असद अली खाँ जयपुर बीनकार (वीणावादकों) घराने की बारहवीं पीढी के कलासाधक थे | यह घराना जयपुर के सेनिया घराने का ही एक हिस्सा है| असद अली खाँ का जन्म 1937 में अलवर (राजस्थान) रियासत में हुआ था, परन्तु उनकी संगीत-शिक्षा रामपुर में हुई| उनके पिता उस्ताद सादिक अली खाँ रामपुर दरबार में रूद्रवीणा के प्रतिष्ठित वादक थे| उनके प्रपितामह उस्ताद रज़ब अली खाँ जयपुर घराने के दरबारी वीणावादक थे तथा रूद्रवीणा के साथ-साथ सितार और दिलरुबावादन में भी दक्ष थे| असद अली खाँ के पितामह उस्ताद मुशर्रफ अली खाँ को भी जयपुर के दरबारी वीणावादक के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त थी|
आज हम जिसे संगीत का जयपुर घराना के नाम से पहचानते हैं, उसकी स्थापना में असद अली खाँ के प्रपितामह (परदादा) उस्ताद रजब अली खाँ का योगदान रहा है| उस्ताद रजब अली खाँ जयपुर दरबार के केवल संगीतज्ञ ही नहीं; बल्कि महाराजा मानसिंह के गुरु भी थे| महाराजा ने उन्हें जागीर के साथ-साथ एक विशाल हवेली दे रखी थी तथा उन्हें किसी भी समय बेरोक-टोक महाराजा के महल में आने-जाने की स्वतन्त्रता थी| असद अली खाँ के दादा जी उस्ताद मुशर्रफ अली खाँ ने भी जयपुर दरबार में वही प्रतिष्ठा प्राप्त की| वीणावादकों का यह घराना ध्रुवपद संगीत के खण्डहार वाणी में वादन करता रहा है; जिसका पालन उस्ताद असद अली खाँ ने किया और अपने शिष्यों को भी इसी वाणी की शिक्षा दी| ध्रुवपद संगीत में चार वाणियों का वर्गीकरण तानसेन के समय में ही हो चुका था| "संगीत रत्नाकर" ग्रन्थ में यह वर्गीकरण शुद्धगीत, भिन्नगीत, गौड़ीगीत और बेसरागीत नामों से हुआ है; जिसे आज गौड़हार वाणी, डागर वाणी, खण्डहार वाणी और नौहार वाणी के नाम से जाना जाता है| उस्ताद असद अली खाँ और उनके पूर्वजों का वादन खण्डहार वाणी का था| इसके अलावा खाँ साहब दूसरी वाणियों की विशेषताओं को प्रदर्शित करने से हिचकते नहीं थे| ध्रुवपद अंग में वीणावादन का चलन कम होने के बावजूद उन्होंने परम्परागत वादन शैली से कभी समझौता नहीं किया| आइए यहाँ पर थोड़ा रुक कर उनकी वादन शैली की सार्थक अनुभूति करते हैं| इस प्रस्तुति में उस्ताद असद अली खाँ ने ध्रुवपद अंग में राग "आसावरी" का पहले लयबद्ध किन्तु तालरहित झाला और फिर चौताल में एक बन्दिश का वादन किया है| नाथद्वारा परम्परा के पखावज वादक पण्डित डालचंद्र शर्मा ने पखावज-संगति की है|
राग आसावरी : रूद्रवीणा वादन - उस्ताद असद अली खाँ : पखावज संगति - पं. डालचंद्र शर्मा
उस्ताद असद अली खाँ ने अपने पिता उस्ताद सादिक अली खाँ से रामपुर दरबार में लगभग 15 वर्षों तक रूद्रवीणा-वादन की शिक्षा ग्रहण की, और फिर कई घंटों तक निरन्तर रियाज करके उन्होंने इस वैदिककालीन वाद्य को सिद्ध कर लिया| उन्होंने ध्रुवपद अंग में विकसित अपनी रूद्रवीणा-वादन शैली को "खान दरबारी" शैली नाम दिया था| खाँ साहब 17 वर्षों तक दिल्ली विश्वविद्यालय में संगीत के प्रोफ़ेसर थे| वे आजन्म अविवाहित थे| अपने भतीजे अली जाकी हैदर को उन्होंने दत्तक पुत्र बना लिया था और उन्हें रूद्रवीणा वादन में प्रशिक्षित| अली जाकी के अलावा अन्य कई शिष्यों को भी उन्होंने संगीत शिक्षा दी है; जो इस परम्परा को आगे बढ़ाएँगे| भारतीय शास्त्रीय संगीत का प्रचार-प्रसार करने वाली संस्था "स्पिक मैके" के साथ जुड़ कर खाँ साहब ने स्कूल-कालेज के विद्यार्थियों के बीच रूद्रवीणा से नई पीढी को परिचित कराने का अभियान चलाया था, जो खूब सफल रहा| नई पीढी को रूद्रवीणा वादन से परिचित कराने के साथ-साथ वो यह बताना नहीं भूलते थे कि यह तंत्रवाद्य विश्व का सबसे प्राचीन वाद्य है और ध्वनि के वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आज भी खरा उतरता है| वे भगवान शिव को रूद्रवीणा का निर्माता मानते थे|
उस्ताद असद अली खाँ को अनेक सम्मान और पुरस्कार से नवाज़ा गया था; जिनमें 1977 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 2008 में पद्मभूषण सम्मान, तानसेन सम्मान आदि प्रमुख हैं| उनके निधन से भारतीय संगीत जगत में रिक्तता तो आ ही गई है; किन्तु यह विश्वास भी है कि उनके शिष्यगण रूद्रवीणा-वादन की वैदिककालीन परम्परा को आगे बढ़ाएँगे| इस आलेख को विराम देने से पहले लीजिए सुनिए- उस्ताद असद अली खाँ का रूद्रवीणा पर बजाया राग "शुद्ध सारंग" में एक ध्रुवपद बन्दिश| पखावज संगति वरिष्ठ पखावजी पण्डित गोपाल दास ने की है| इसी रचना के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र अपनी ओर से और "आवाज़" परिवार की ओर से उस्ताद असद अली खाँ की स्मृतियों को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ|
राग शुद्ध सारंग : रूद्रवीणा वादन - उस्ताद असद अली खाँ : पखावज संगति - पं. गोपाल दास
और अब बारी इस कड़ी की पहेली का जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।
पहेली: परदेस में जब घर-परिवार और साजन - सजनी की याद आई तब उपजा यह लोक संगीत|
पिछ्ली पहेली का परिणाम: अमित जी बाल-बाल बचे, आपको और क्षिति जी दोनो को मिलते हैं ५-५ अंक, बधाई!
इसी के साथ 'सुर-संगम' के आज के इस अंक को यहीं पर विराम देते हैं| आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तंभ को और रोचक बना सकते हैं!आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० बजे हमारे प्रिय सुजॉय चटर्जी के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!
खोज व आलेख- कृष्ण मोहन मिश्र
आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.
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5 श्रोताओं का कहना है :
ये तो मेरे लिया थोड़ा कठिन हो गया है. ढूंढ रहा हूँ उत्तर शायद मिल जाए.नहीं तो क्षिती जी आप ही उत्तर दे दीजिए.
भोजपुरी लोक संगीत
Bhojpuri Kajri
mausam ke hisab se to Kajree ho sakta hai.
Sawani ya Virha bhee ho sakta hai. Bhojpuri ke in gaano me bhee virah ka varnan hota hai.
Bhojpuri me virah ke gano me Kajri evam Sawani stree pradhan aur Virha purus pradhan gayan ki shaili hai.
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