रेडियो प्लेबैक वार्षिक टॉप टेन - क्रिसमस और नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित


ComScore
प्लेबैक की टीम और श्रोताओं द्वारा चुने गए वर्ष के टॉप १० गीतों को सुनिए एक के बाद एक. इन गीतों के आलावा भी कुछ गीतों का जिक्र जरूरी है, जो इन टॉप १० गीतों को जबरदस्त टक्कर देने में कामियाब रहे. ये हैं - "धिन का चिका (रेड्डी)", "ऊह ला ला (द डर्टी पिक्चर)", "छम्मक छल्लो (आर ए वन)", "हर घर के कोने में (मेमोरीस इन मार्च)", "चढा दे रंग (यमला पगला दीवाना)", "बोझिल से (आई ऍम)", "लाईफ बहुत सिंपल है (स्टैनले का डब्बा)", और "फकीरा (साउंड ट्रेक)". इन सभी गीतों के रचनाकारों को भी प्लेबैक इंडिया की बधाईयां

Tuesday, November 30, 2010

छल्ला कालियां मर्चां, छल्ला होया बैरी.. छल्ला से अपने दिल का दर्द बताती विरहणी को आवाज़ दी शौकत अली ने



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०४

यूँतो हमारी महफ़िल का नाम है "महफ़िल-ए-ग़ज़ल", लेकिन कभी-कभार हम ग़ज़लों के अलावा गैर-फिल्मी नगमों और लोक-गीतों की भी बात कर लिया करते हैं। लीक से हटने की अपनी इसी आदत को ज़ारी रखते हुए आज हम लेकर आए हैं एक पंजाबी गीत.. या यूँ कहिए पंजाबी लोकगीतों का एक खास रूप, एक खास ज़ौनर जिसे "छल्ला" के नाम से जाना जाता है। इस "छल्ला" को कई गुलुकारों ने गाया है और अपने-अपने तरीके से गाया है। तरीकों के बदलाव में कई बार बोल भी बदले हैं, लेकिन इस "छल्ला" का असर नहीं बदला है। असर वही है, दर्द वही है... एक "विरहणी" के दिल की पीर, जो सुनने वालों के दिलों को चीर जाती है। आखिर ये "छल्ला" होता क्या है, इसके बारे में "एक शाम मेरे नाम" के मनीष जी लिखते हैं (साभार):

जैसा कि नाम से स्पष्ट है "छल्ला लोकगीत" के केंद्र में वो अंगूठी होती है, जो प्रेमिका को अपने प्रियतम से मिलती है। पर जब उसका प्रेमी दूर देश चला जाता है तो वो अपने दिल का हाल किससे बताए? और किससे? उसी छल्ले से जो उसके साजन की दी हुई एकमात्र निशानी है। यानि कि छल्ला लोकगीत छल्ले से कही जाने वाली एक विरहणी की आपबीती है। छल्ले को कई पंजाबी गायकों ने समय-समय पर पंजाबी फिल्मों और एलबमों में गाया है। इस तरह के जितने भी गीत हैं उनमें रेशमा, इनायत अली, गुरदास मान, रब्बी शेरगिल और शौकत अली के वर्ज़न काफी मशहूर हुए।

तो आज हम अपनी इस महफ़िल को शौकत अली के गाए "छल्ला" से सराबोर करने वाले हैं। हम शौकत अली को सुनें, उससे पहले चलिए इनके बारे में कुछ जान लेते हैं। (सौजन्य: विकिपीडिया)

शौकत अली खान पाकिस्तान के एक जानेमाने लोकगायक हैं। इनका जन्म "मलकवल" के एक फ़नकरों के परिवार में हुआ था। शौकत ने अपने बड़े भाई इनायत अली खान की मदद से १९६० के दशक में हीं अपने कॉलेज के दिनों में गाना शुरू कर दिया था। १९७० से ये ग़ज़ल और पंजाबी लोकगीत गाने लगे। १९८२ में जब नई दिल्ली में एशियन खेलों का आयोजन किया गया था, तो शौकत अली ने वहाँ अपना लाईव परफ़ारमेंश दिया। इन्हें पाकिस्तान का सर्वोच्च सिविलियन प्रेसिडेंशियल अवार्ड भी प्राप्त है। अभी हाल हीं में आए "लव आज कल" में इनके गाये "कदि ते हंस बोल वे" गाने (जो कि अब एक लोकगीत का रूप ले चुका है) की पहली दो पंक्तियाँ इस्तेमाल की गई थी। शौकत अली साहब के कई गाने मक़बूल हुए हैं। उन गानों में "छल्ला" और "जागा" प्रमुख हैं। इनके सुपुत्र भी गाते हैं, जिनका नाम है "इमरान शौकत"।

"छल्ला" गाना अभी हाल में हीं इमरान हाशमी अभिनीत फिल्म "क्रूक" में शामिल किया गया था। वह छल्ला "लोकगीत वाले सारे छ्ल्लों" से काफ़ी अलग है। अगर कुछ समानता है तो बस यह है कि उसमें भी "एक दर्द" (आस्ट्रेलिया में रह रहे भारतीयों का दर्द) को प्रधानता दी गई है। उस गाने को बब्बु मान ने गाया है और संगीत दिया है प्रीतम ने। प्रीतम ने उस गाने के लिए "किसी लोक-धुन" को क्रेडिट दी है, लेकिन सच्चाई कुछ और है। दो महिने पहले जब मैंने और सुजॉय जी ने "क्रूक" के गानों की समीक्षा की थी, तो उस पोस्ट की टिप्पणी में मैंने सच्चाई को उजागर करने के लिए यह लिखा था: वह गाना बब्बु मान ने नहीं बनाया था, बल्कि "बब्बल राय" ने बनाया था "आस्ट्रेलियन छल्ला" के नाम से... वो भी ऐं वैं हीं, अपने कमरे में बैठे हुए। और उस वीडियो को यू-ट्युब पर पोस्ट कर दिया। यू-ट्युब पर उस वीडियो को इतने हिट्स मिले कि बंदा फेमस हो गया। बाद में उसी बंदे ने यह गाना सही से रीलिज किया .. बस उससे यह गलती हो गई कि उसने रीलिज करने के लिए बब्बु मान के रिकार्ड कंपनी को चुना... और आगे क्या हुआ, यह हम सबके सामने है। कैसेट पर कहीं भी बब्बल राय का नाम नहीं है, जबकि गाना पूरा का पूरा उसी से उठाया हुआ है। यह पूरा का पूरा पैराग्राफ़ आज की महफ़िल के लिए भले हीं गैर-मतलब हो, लेकिन इससे दो तथ्य तो सामने आते हीं है: क) हिन्दी फिल्मों में पंजाबी संगीत और पंजाबी संगीत में छल्ला के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। ख) हिन्दी फिल्म-संगीत में "कॉपी-पेस्ट" वाली गतिविधियाँ जल्द खत्म नहीं होने वाली और ना हीं "चोरी-सीनाजोरी" भी थमने वाली है।

बातें बहुत हो गईं। चलिए तो अब ज्यादा समय न गंवाते हुए, "छल्ला" की ओर अपनी महफ़िल का रूख कर देते हैं और सुनते हैं ये पंजाबी लोकगीत। मैं अपने सारे पंजाबी भाईयों और बहनों से यह दरख्वास्त करूँगा कि जिन्हें भी इस नज़्म का अर्थ पता है, वो हमसे शेयर ज़रूर करें। हम सब अच्छे गानों और ग़ज़लों के शैदाई हैं, इसलिए चाहते हैं कि जो भी गाना, जो भी ग़ज़ल हमें पसंद हो, उसे समझे भी ज़रूर। बिना समझे हम वो आनंद नहीं ले पाते, जिस आनंद के हम हक़दार होते हैं। उम्मीद है कि आप हमारी मदद अवश्य करेंगे। इसी विश्वास के साथ आईये हम और आप सुनते हैं "छल्ला":

जावो नि कोई मोर लियावो,
नि मेरे नाल गया नि लड़ के,
अल्लाह करे आ जावे सोणा,
देवन जान कदमा विच धर के।

हो छल्ला बेरीपुर ए, वे वतन माही दा दूरे,
जाना पहले पूरे, वे गल्ल सुन छल्लया
ओ छोरा,
दिल नु लावे झोरा/छोरा

हो छल्ला कालियां मर्चां, ओए मोरा पी के मरसां,
सिरे तेरे चरसां, वे गल्ल सुन छल्लया,
ओ ढोला,
वे तैनु कागा होला/ओला

हो छल्ला नौ नौ थेवे, पुत्तर मित्थे मेवे,
अल्लाह सब नु देवे, छल्ला छे छे
ओ पाया,
ओए दिया तन/धन ने/दे पराया

हो छल्ला पाया ये गहने, दुख ज़िंदरी ने सहने,
छल्ला मापे ने रहने, गल सुन _____
ढोला,
ओए सार के कित्ते कोला

हो छल्ला होया बैरी, सजन भज गए कचहरी,
रोवां शिकर दोपहरी, ओ गल सुन छलया
पावे,
बुरा वेला ना आवे

हो छल्ला हिक वो कमाई, ओए जो बहना दे भाई,
अल्लाह अबके जुदाई, परदेश....
ओ गल्ल सुन छलया
ओ सारां (?),
वीरा नाल बहावां




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "मेहरबानी" और शेर कुछ यूँ था-

ज़िंदगी की मेहरबानी,
है मोहब्बत की कहानी,
आँसूओं में पल रही है... हो..

इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:

बहुत शुक्रिया बडी मेहरबानी
मेरी जिन्दगी मे हजूर आप आये

ज़िन्दगी से हम भी तर जाते,
जीते जी ही हम मर जाते,
पर उनकी नज़रों की ज़रा सी मेहरबानी न हो सकी (प्रतीक जी)

चीनी से भी ज्यादा मीठी माफ़ी ,
महफिल सजा के की मेहरबानी (मंजु जी)

शमा के नसीब में तो बुझना ही लिखा है
मेहरबानी है उसकी जो जला के बुझाता है. (शन्नो जी)

दिल अभी पूरी तरह टूटा नहीं
दोस्तों की मेहरबानी चाहिए

ऐ मेरे यार ज़रा सी मेहरबानी कर दे
मेरी साँसों को अपनी खुशबु की निशानी कर दे (अवनींद्र जी)

मेहरवानी थी उनका या कोई करम था ,
या खुदा ये उनको कैसा भरम था (नीलम जी)

अवध जी, माफ़ कीजिएगा.. अगर समय पर मैं एक शब्द गायब कर दिया होता तो शायद आप हीं पिछली महफ़िल की शान होते। हाँ, लेकिन आपका शुक्रिया ज़रूर अदा करूँगा क्योंकि आपने समय पर हमें जगा दिया। सुमित भाई, आप "महफ़िल में फिर आऊँगा" लिखकर चल दिए तो हमें लगा कि इस बार भी आप एक-दो दिन के लिए नदारद हो जाएँगे और "शान" की उपाधि से कोई और सज जाएगा। लेकिन आप ६ मिनट में हीं लौट आए और "शान-ए-महफ़िल" बन गए। बधाई स्वीकारें। प्रतीक जी, हमारी मेहनत को परखने और प्रोत्साहित करने के लिए आपका तह-ए-दिल से आभार! मंजु जी, बड़े हीं नायाब तरीके से आपने हमारी प्रशंसा कर दी। धन्यवाद स्वीकारें! शन्नो जी, आपकी डाँट भी प्यारी होती है। आपने कहा कि "कितनी हीं पंजाबी कुड़ियाँ इत-उत मंडराती होगी" तो मैं उन कुड़ियों में से एकाध से अपील करूँगा कि वो हमारी महफ़िल में तशरीफ़ लाएँ और हमें "छल्ला" का अर्थ बता कर कृतार्थ करें :) वैसे, वे अगर महफ़िल में न आना चाहें तो हमसे अकेले में हीं मिल लें। इसी बहाने मेरी पंजाबी थोड़ी सुधर जाएगी। :) अवध जी, शेर तो आपने बहुत हीं जबरदस्त पेश किया, लेकिन शायर का नाम मैं भी नहीं ढूँढ पाया। अवनींद्र जी, मुझे भी आप लोगों से वापस मिलकर बेहद खुशी हुई। कोशिश करूँगा कि अपने ये मिलने-मिलाने का कार्यक्रम यूँ हीं चलता रहें। और हाँ, आपको तो पंजाबी आती है ना? तो ज़रा हमें "छल्ला गाने" का मतलब बता दें। बड़ी कृपा होगी। :) नीलम जी, क्या बात है, दो-दो शेर.. वो भी स्वरचित :) चलिए मैंने अपने पसंद का एक चुन लिया।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

इन्साफ का मंदिर है ये भगवान का घर है.....विश्वास से टूटे हुओं को नयी आस देता ये भजन



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 538/2010/238

'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों जारी है लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ'। इसके दूसरे खण्ड में इस हफ़्ते आप पढ़ रहे हैं सुप्रसिद्ध फ़िल्मकार महबूब ख़ान के फ़िल्मी सफ़र के बारे में, और साथ ही साथ सुन रहे हैं उनकी फ़िल्मों के कुछ सदाबहार गानें और उनसे जुड़ी कुछ बातें। आइए आज उनकी फ़िल्मी यात्रा की कहानी को आगे बढ़ाते हैं ४० के दशक से। द्वितीय विश्वयुद्ध से उत्पन्न अस्थिरता के लिए सागर मूवीटोन को भी कुर्बान होना पड़ा। कंपनी बिक गई और नई कंपनी 'नैशनल स्टुडिओज़' की स्थापना हुई। 'सागर' की अंतिम फ़िल्म थी १९४० की 'अलिबाबा' जिसका निर्देशन महबूब ख़ान ने ही किया था। नैशनल स्टुडिओज़ बनने के बाद महबूब साहब इस कंपनी से जुड़ गये और इस बैनर पे उनके निर्देशन में तीन महत्वपूर्ण फ़िल्में आईं - 'औरत' (१९४०), 'बहन' (१९४१) और 'रोटी' (१९४२)। 'सागर' और 'नैशनल स्टुडिओज़' के जितनी भी फ़िल्मों की अब तक हमने चर्चा की, उन सभी में संगीत अनिल बिस्वास के थे। अनिल दा महबूब साहब के अच्छे दोस्त भी थे। 'औरत' फ़िल्म की कहानी एक ग़रीब मज़दूर औरत की थी जिसे अमीर ज़मीनदारों का शोषण सहना पड़ता है। सरदार अख़्तर और सुरेन्द्र अभिनीत इसी फ़िल्म का रीमेक थी 'मदर इण्डिया'। 'औरत' में अनिल दा का गाया "काहे करता देर बाराती" ख़ूब चला था। 'अलिबाबा' मे सुरेन्द्र और वहीदन बाई का गाया "हम और तुम और ये ख़ुशी" भी उस दौर का एक लोकप्रिय गीत था। महबूब साहब ने अपनी फ़िल्मों में ग़रीबों पर हो रहे शोषण को बार बार उजागर किया है। १९४२ की फ़िल्म 'रोटी' में भी ग़रीब जनजाति के लोगों पर हो रहे अमीर उद्योगपतियों द्वारा अत्याचार का मुद्दा उठाया गया था। संगीत के पक्ष से भी 'रोटी' हिंदी सिनेमा का एक उल्लेखनीय फ़िल्म है क्योंकि इस फ़िल्म में महबूब ख़ान और अनिल बिस्वास ने बेग़म अख़्तर को गाने के लिए राज़ी करवा लिया था। उन दिनों बेग़म अख़्तर फ़िल्मों में नहीं गाती थीं, लेकिन इस फ़िल्म के लिए उन्होंने कुछ ग़ज़लें गाईं। १९४३ में महबूब ख़ान ने अपने करीयर का रुख़ मोड़ा और नैशनल स्टुडिओज़ से इस्तीफ़ा देकर अपनी प्रोडक्शन कंपनी 'महबूब प्रोडक्शन्स' की स्थापना की। संगीतकार रफ़ीक़ ग़ज़नवी को लेकर इस साल उन्होंने दो फ़िल्में बनाईं - 'नजमा' और 'तक़दीर'। १९४५ में महबूब ख़ान प्रोडक्शन्स की एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक फ़िल्म आई - 'हुमायूँ'। इस फ़िल्म मे मास्टर ग़ुलाम हैदर को चुना गया संगीतकार। इस फ़िल्म में शम्शाद बेगम के गाये गानें ख़ूब लोकप्रिय हुए थे। और फिर आया साल १९४६ और इस साल महबूब ख़ान ने बनाई अब तक की उनकी सब से सफलतम फ़िल्म 'अनमोल घड़ी', और इसी फ़िल्म से वो जुड़े नौशाद साहब से, और आगे चलकर उनकी हर फ़िल्म में नौशाद साहब ने संगीत दिया। महबूब और नौशाद साहब ने 'अनमोल घड़ी' से जो संगीतमय सफल फ़िल्मों की परम्परा शुरु की, वो अंत तक जारी रहा। नूरजहाँ, सुरेन्द्र और सुरैय्या अभिनीत यह फ़िल्म ब्लॊकबस्टर साबित हुई और फ़िल्म के गानें ऐसे लोकप्रिय हुए कि "जवाँ है मोहब्बत" और "आवाज़ दे कहाँ है" जैसे गीत आज तक लोग सुनते रहते हैं। ४० के दशक की बाक़ी की तीन फ़िल्में हैं - 'ऐलान', 'अनोखी अदा' और 'अंदाज़', जिनकी चर्चा हम परसों की कड़ी में कर चुके हैं।

दोस्तों, युं तो महबूब ख़ान की फ़िल्मों में अनिल बिस्वास, रफ़ीक़ ग़ज़नवी, ग़ुलाम हैदर जैसे दिग्गज संगीतकारों ने संगीत दिया है, लेकिन सब से ज़्यादा जिस संगीतकार के साथ उनकी ट्युनिंग् जमी थी वो थे नौशाद साहब, और शायद इसी ट्युनिंग का नतीजा है कि नौशाद साहब के साथ बनाई हुई फ़िल्मों के गानें ही सब से ज़्यादा लोकप्रिय हुए। इसलिए इस शृंखला में हम बातें भले ही हर दशक के कर रहे हैं, लेकिन गानें नौशाद साहब के ही सुनवा रहे हैं। और आज का जो गीत हमने चुना है वह है १९५४ की फ़िल्म 'अमर' की एक भजन "इंसाफ़ का मंदिर है ये, भगवान का घर है"। रफ़ी साहब की पाक़ आवाज़, शक़ील बदायूनी के दिव्य बोल। आइए आज भी नौशाद साहब की ज़ुबानी महबूब ख़ान से जुड़ी कुछ बातें जानी जाए। "एक दिन रेकॊर्डिस्ट कौशिक मेरे घर में आए महबूब साहब के तीनों बेटों को लेकर। कहने लगे कि आप उस वक़्त मौजूद नहीं थे जब महबूब साहब का इंतकाल हुआ था। महबूब साहब ने अपनी वसीयत में लिखा है कि "नौशाद साहब को उतनी रकम दी जाए जितनी वो माँगते हैं। नौशाद ने मेरी बहुत सी फ़िल्में बिना पैसे लिए किए हैं, इसलिए उन्हें उनका महनताना मिलना ही चाहिए, नहीं तो मैं अल्लाह का कर्ज़दार रहूँगा।" मैंने कहा कि महबूब साहब के साथ मेरा प्रोफ़ेशनल रिलेशन नहीं था, हम लोग एक परिवार के सदस्य थे। मैंने 'मदर इण्डिया', 'अनोखी अदा' वगेरह फ़िल्मों के लिए पैसे नहीं लिए, लेकिन अब जब वो इस दुनिया में नहीं रहे, तो मैं पैसे माँगने की सोच भी नहीं सकता, यह चैप्टर अब कोल्ज़ हो चुका है। उनके इंतेकाल के बाद स्टुडिओ जाना अच्छा नहीं लगता था, उनकी याद आती थी। मैंने महबूब साहब से बहुत कुछ सीखा, यहाँ तक कि नमाज़ पढ़ना भी। मैंने उन्हें लंदन जाते समय फ़्लाइट में नमाज़ पढ़ते देखा है। मैंने उनकी बातों से इन्स्पायर्ड हो जाता था। अपनी फ़िल्मों के लिए वो जिस तरह के विषय चुनते थे, यह कोई महान आदमी ही कर सकता है। ऐसा आदमी बार बार जन्म नहीं लेत। उन्हें यह भी मालूम था कि अपना नाम कैसे लिखते हैं, लेकिन जब लेखकों के साथ बैठते थे तो कभी कभी ऐसे आइडियाज़ कह जाते थे कि जिनके बारे में किसी ने नहीं सोचा। किसी ने कहा कि कलम फेंक दे यार, ये ज़ाहिल आदमी ने जो सोच लिया हम नहीं सोच पाए। ये महबूब ख़ान ही थे जिन्होंने फ़ॊरेन मार्केट खोल दी, फ़ॊरेन डिस्ट्रिब्युटर्स ले आये, अपनी फ़िल्म 'आन' से। और 'मदर इण्डिया' से फ़ॊरेन टेरिटरी खोल दी।" महबूब साहब के बारे में आज बस यहीं तक, आइए अब आज का गीत सुना जाए रफ़ी साहब की आवाज़ में, फ़िल्म 'अमर' से। यह गीत आधारित है राग भैरवी पर।



क्या आप जानते हैं...
कि नौशाद ने एक बार कहा था कि "जिसको मैं कह सकूँ कि यह मेरा पसंदीदा गाना है, अभी तक वह नहीं आया, मैं यह सोच कर काम नहीं करता कि लोगों को पसंद आएगा कि नहीं, जो मुझे अच्छा लगता है मैं वही करता हूँ। कभी कोने में बैठ कर कोई गाना बनाया और ख़ुद ही रोने लगता।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 8 /शृंखला ०४
गीत का प्रील्यूड सुनिए -


अतिरिक्त सूत्र - इस सुपर डुपर हिट फिल्म के क्या कहने.

सवाल १ - किन किन पुरुष गायकों की आवाज़ है इस समूह गीत में - २ अंक
सवाल २ - महिला गायिकाओं के नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
कल तो श्याम कान्त जी और शरद जी के बीच टाई हो गया, परंपरा अनुसार हम दोनों को ही २-२ अंक दे रहे हैं, यानी मुकाबला अभी भी कांटे का ही है, अमित जी और अवध जी १-१ अंक की बधाई....इंदु जी आप तो आ जाया कीजिए, आपको देखकर ही हम तो खुश हो जाते हैं....कितने लोग हैं दुनिया में जो आपकी तरह मुस्कुरा सकते हैं

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, November 29, 2010

मस्ती, धमाल और धूम धडाके में "शीला की जवानी" का पान....यानी तीस मार खान



टी एस टी यानी ताज़ा सुर ताल में आज हम हाज़िर हैं इस वर्ष की अंतिम बड़ी फिल्म “तीस मार खान” के संगीत का जिक्र लेकर. फराह खान ने नृत्य निर्देशिका के रूप में शुरूआत की थी और निर्देशिका बनने के बाद तो उन्होंने जैसे कमियाबी के झंडे ही गाढ़ दिए. “मैं हूँ न” और “ओम शांति ओम” जैसी सुपर डुपर हिट फिल्म देने वाली ये सुपर कामियाब निर्देशिका अब लेकर आयीं हैं – तीस मार खान. जाहिर है उम्मीदे बढ़ चढ़ कर होंगीं इस फिल्म से भी. पहली दो फिल्मों में शाहरुख खान के साथ काम करने वाली फराह ने इस बार चुना है अक्षय कुमार को और साथ में है कटरीना कैफ. संगीत है विशाल शेखर का और अतिथि संगीतकार की भूमिका में हैं शिरीष कुंदर जो फराह के पतिदेव भी हैं और अक्षय –सलमान को लेकर “जानेमन” जैसी फिल्मों का निर्देशन भी कर चुके हैं.

अल्बम की शुरूआत होती है शिशिर के ही गीत से जो कि फिल्म का शीर्षक गीत भी है. इस गीत में यदि आप लचर शब्दों को छोड़ दें तो तीन ऐसी बातें हैं जो इस गीत को तुरंत ही एक हिट बना सकता है. पहला है सोनू की बहुआयामी आवाज़ का जलवा. पता नहीं कितनी तरह की आवाजों में उन्होनें इस गीत गाया है और क्या जबरदस्त अंजाम दिया है ये आप सुनकर ही समझ पायेंगें. दूसरी खासियत है इसका सिग्नेचर गिटार पीस, एक एकदम ही आपका ध्यान अपनी तरफ़ खींच लेता है और तीसरी प्रमुख बात है गीत का अंतिम हिस्सा जो डांस फ्लोर में आग लगा सकता है. कुल मिलकार ये शीर्षक गीत आपका इस अल्बम और फिल्म के प्रति उत्साह जगाने में सफल हुआ है ऐसा कहा जा सकता है.

तीस मार खान


अब बात आइटम गीत “शीला की जवानी” की करें. एक बार फिर सुनिधि चौहान ने यहाँ बता दिया कि जब बात आइटम गीत की हो तो उनसे बेहतर कोई नहीं. अजीब मगर दिलचस्प बोल है विशाल के और अंतरे में हल्की कव्वाली का पुट शानदार है. बीट्स कदम थिरका ही देते है. कोई कितना भी इसे बेस्वदा कहे पर फराह के नृत्य निर्देशन और कटरीना के जलवों की बदौलत ये गीत “मुन्नी बदनाम” की ही तरह श्रोताओं के दिलों-दिमाग पर अपना जादू करने वाला है ये बात पक्की है.

शीला की जवानी


हम आपको बता दें कि फिल्म में सलमान खान एक गीत में अतिथि भूमिका में दिखेंगें. सलमान इन दिनों इंडस्ट्री में सबसे “हॉट” माने जा रहे हैं ऐसे में उनकी उपस्तिथि अगले गीत “वल्लाह रे वल्लाह” को लोगों की जुबान पर चढा दे तो भला आश्चर्य कैसा. परंपरा अनुसार फराह ने इस फिल्म में भी कव्वाली रखी है, यहाँ बोल अच्छे है अन्विता दत्त गुप्तन के विशाल शेखर ने भी रोशन साहब के पसंदीदा जेनर को पूरी शिद्दत से निभाया है.

वल्लाह रे वल्लाह


अगले दो गीत साधारण ही हैं “बड़े दिल वाला” में सुखविंदर अपने चिर परिचित अंदाज़ में है तो दिलचस्प से बोलों को श्रेया ने भी बहुत खूब निभाया है. “हैप्पी एंडिंग” गीत खास फराह ने रियलिटी शोस में दिए अपने वादों को निभाने के लिए ही बनाया है ऐसा लगता है. इंडियन आइडल से अभिजीत सावंत, प्राजक्ता शुक्रे, और हर्शित सक्सेना ने मिलकर गाया है इस गीत को जो संभवता फिल्म के अंतिम क्रेडिट में दिखाया जायेगा. वैसे पहले ३ गीत काफी हैं इस अल्बम को एक बड़ा हिट बनाने को. त्योहारों, शादियों के इस रंगीन मौसम में सोच विचार को कुछ समय के लिए दरकिनार कर बस कुछ गीत मस्ती से भरे सुनने का मन करे तो “तीस मार खान” को एक मौका देकर देखिएगा.

बड़े दिल वाला


हैप्पी एंडिंग


आज मेरे मन में सखी बांसुरी बजाये कोई....एक ख़ुशमिज़ाज नग्मा लता की आवाज़ में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 537/2010/237

हबूब ख़ान का फ़िल्मी सफ़रनामा लेकर हमने कल से शुरु की है लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' का दूसरा खण्ड। ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है इस सुरीली महफ़िल में। महबूब साहब की फ़िल्मी यात्रा में कल हम आ पहुँचे थे उनकी पहली निर्देशित फ़िल्म 'दि जजमेण्ट ऒफ़ अल्लाह' तक। अभिनय और निर्देशक बनने के साथ साथ उन्होंने लेखन कार्य में भी हाथ डाला था। 'दि जजमेण्ट ऒफ़ अल्लाह' की कहानी और स्क्रीनप्ले तथा १९३८ की फ़िल्म 'वतन' की कहानी उन्होंने ही लिखी थी। लेकिन महबूब साहब जाने गये एक उत्कृष्ट फ़िल्म निर्देशक के रूप में। तो आइए उनके निर्देशन करीयर को थोड़ा विस्तार से जानने की हम कोशिश करें। ३० के दशक के उस दौर में कुंदन लाल सहगल की वजह से कलकत्ते का न्यु थिएटर्स फ़िल्म जगत पर राज कर रही था। ऐसे में सागर मूवीटोन के महबूब ख़ान ने सुरेन्द्रनाथ को लौंच कर न्यु थिएटर्स के सामने प्रतियोगिता की भावना रख दी। १९३६ में सागर मूवीटोन के बैनर तले महबूब साहब ने दो फ़िल्में निर्देशित कीं - 'डेक्कन क्वीन' और 'मनमोहन'। दोनों में गायक अभिनेता थे सुरेन्द्रनाथ। 'डेक्कन क्वीन' में उनके गाये "याद ना कर दिल-ए-हज़ीन" और "बिरहा की आग लगी" जैसे गीत लोकप्रिय हुए थे, और इन गीतों में सहगल साहब की झलक भी दिख जाती थी। १९३७ में आई फ़िल्म 'जागीरदार' जिसमें मोतीलाल और माया बनर्जी का गाया युगल गीत "नदी किनारे बैठ के आओ सुर में जी बहलाएँ" उस ज़माने में ख़ूब मशहूर हुआ था। १९३९ में महबूब ख़ान ने बनाई 'एक ही रास्ता' और इसी फ़िल्म से उनके सामाजिक और राजनैतिक मुद्दों की तरफ़ रुझान का पता चला। इस फ़िल्म का नायक एक फ़ौज से रिटायर्ड सैनिक है जिसने अपनी ज़िंदगी में काफ़ी मौत और तबाही देखी है, और जो एक अस्थिर मानसिक दौर से गुज़र रहा होता है। एक बलात्कारी के क़त्ल के इल्ज़ाम में उसकी सुनवाई अदालत में शुरु होती है, जहाँ पर वो इस कानून व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है यह कहते हुए कि युद्ध में निर्दोष लोगों का क़त्ल करने के लिए हमें पुरस्कृत किया जाता है जबकि एक दरींदे के क़त्ल के लिए उसे फाँसी की सज़ा होने जा रही है। इस फ़िल्म के बाद से तो जैसे इस तरह के संदेशात्मक फ़िल्मों की लड़ी सी लगा दी महबूब साहब ने, जिनकी चर्चा हम कल की कड़ी में करेंगे।

आइए अब उस गीत की चर्चा करते हैं जिसे आज हम लेकर आये हैं ख़ास आपको सुनवाने के लिए। कल लता जी आवाज़ में एक ग़मगीन गीत आपने सुना था। आज भी लता जी की ही आवाज़ है और नौशाद साहब का संगीत। अगर कुछ बदल गया है तो वो हैं गीतकार और गीत का मूड। यानी गीतकार शक़ील बदायूनी की रचना है और एक बेहद ख़ुशमिज़ाज नग्मा १९५२ की मशहूर फ़िल्म 'आन' का, "आज मेरे मन में सखी बांसुरी बजाये कोई"। फ़िल्म 'आन' के सभी गीतों की मिक्सिंग लंदन में हुई थी जिसके लिए महबूब ख़ान नौशाद को अपने साथ वहाँ ले गये थे। बदक़िस्मती से नौशाद साहब बीमार पड़ गये। विविध भारती के 'नौशाद-नामा' सीरीज़ में इस बारे में उन्होंने कहा था - "मेरी तबीयत ख़राब होती जा रही थी। बहुत तनाव था। मेरी और महबूब साहब की आये दिन झगड़े होने लगे फ़िल्म की एडिटिंग को लेकर। फ़िल्म १५ एम.एम का था और साउण्ड ३५ एम.एम का। इसलिए दोनों को आपस में सिंक्रोनाइज़ करना पड़ता था। लंदन की कंपनी ने कह दिया कि यह आख़िरी बार के लिए वो इस तरह का सिंक्रोनाइज़ेशन करेंगे, और वो हर फ़ूट के लिए ६ पाउण्ड चार्ज करेंगे। उस वक़्त एक पाउण्ड का मतलब था ३०-३५ रुपय। और महबूब साहब ने हज़ारों फ़ीट की फ़िल्म ले रखी थी। मैंने उनसे कहा कि यह तो बड़ा महँगा सौदा है। आख़िर में हम दोनों ने यह तय किया कि सिर्फ़ 'ओ.के.' शॊट्स को ही करवाएँगे। होटल रूम में बैठकर हम दिन भर 'ओ.के. शॊट्स को छाँटा करते थे। इस काम में कई हफ़्ते गुज़र गए। एक दिन किसी शॊट को लेकर मेरे और महबूब साहब के बीच झगड़ा हो गया और हम दोनों की बातचीत बंद हो गई। और महबूब साहब के बेटे इक़बाल हम दोनों के बीच के कम्युनिकेटर का काम करने लगा। हम एक ही फ़्लैट के अलग अलग कमरों में रहते थे। एक रोज़ सुबह सुबह महबूब साहब मेरे कमरे में आये और कहने लगे कि उनके मरहूम वालिद उनके ख़्वाब में आये थे और कहा कि नौशाद जो कह रहा है वही सही है। मैंने उनसे कहा कि आपके वालिद आपसे ज़्यादा होशियार हैं। फिर उसके बाद मेरी तबीयत और ख़राब होने लगी। यह सिर्फ़ मैं जानता हूँ कि मैंने कैसे काम पूरा किया। साउण्ड मिक्सिंग ख़त्म हो जाने के बाद मैंने महबूब साहब से कहा कि मैं भारत वापस जाना चाहता हूँ। ना चाहते हुए भी उन्होंने मुझे रिहा कर दिया।" दोस्तों, नौशाद साहब और महबूब साहब की दोस्ती बहुत गहरी थी, और नौशाद साहब के साथ ही महबूब साहब की सब से बेहतरीन फ़िल्में आईं। तो आइए आज इस जोड़ी को सलाम करते हुए फ़िल्म 'आन' का यह गीत सुनते हैं।



क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्म 'आन' के लिए महबूब साहब को विश्व के महानतम फ़िल्मकारों में से एक सिसिल बी. डी'मेलो से तारीफ़ हासिल हुई थी, जिन्होंने महबूब साहब को एक पत्र में लिखा था - "I found it an important piece of work, not only because I enjoyed it but also because it shows the tremendous potential of Indian motion pictures for securing world markets. I believe it is quite possible to make pictures in your great country, which will be understood and enjoyed by all nations and without sacrificing the culture and customs of India. We look forward to the day when you will be regular contributors to our screen fare with many fine stories bringing the romance and magic of India."

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 8 /शृंखला ०४
गीत का इंटरल्यूड सुनिए -


अतिरिक्त सूत्र - ये है एक भजन

सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल २ - गायक बताएं - १ अंक
सवाल ३ - किस राग पर आधारित है ये गीत - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
कल आखिर शरद जी पहुँच ही गए श्याम जी से पहले....वैसे आप सभी के हिंदी फिल्म संगीत ज्ञान को देखकर बेहद खुशी होती है सच.....खैर अभी भी ३ अंकों से पीछे हैं शरद जी...क्या वो जीत पायेंगें श्याम जी से ये बाज़ी....:) वक्त बताएगा

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, November 28, 2010

उठाये जा उनके सितम और जीये जा.....जब लता को परखा निर्देशक महबूब खान ने



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 536/2010/236

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस स्तंभ में। पिछले हफ़्ते से हमने शुरु की है लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ', जिसके अंतर्गत हम कुल चार महान फ़िल्मकारों के फ़िल्मी सफ़र की चर्चा कर रहे हैं और साथ ही साथ उनकी फ़िल्मों से चुन कर पाँच पाँच मशहूर गीत सुनवा रहे हैं। इस लघु शृंखला के पहले खण्ड में पिछले हफ़्ते आप वी. शांताराम के बारे में जाना और उनकी फ़िल्मों के गीत सुनें। आज आज से शुरु करते हैं खण्ड-२, और इस खण्ड में चर्चा एक ऐसे फ़िल्मकार की जिन्होंने भी हिंदी सिनेमा को कुछ ऐसी फ़िल्में दी हैं कि जो सिने-इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो चुकी हैं। आप हैं महबूब ख़ान। एक बेहद ग़रीब आर्थिक पार्श्व और कम से कम शिक्षा से शुरु कर महबूब ख़ान इस देश के महानतम फ़िल्मकारों में से एक बन गये, उनके जीवन से आज भी हमें सबक लेना चाहिए कि जहाँ चाह है वहाँ राह है। महबूब ख़ान का जन्म १९०७ में हुआ था गुजरात के बिलिमोरिया जगह में। उनका असली नाम था रमज़ान ख़ान। वो अपने घर से भाग कर बम्बई चले आये थे और फ़िल्म स्टुडियोज़ में छोटे मोटे काम करने लगे। उनके फ़िल्मी करीयर की शुरुआत हुई थी 'इम्पेरियल फ़िल्म कंपनी' में बतौर बिट-प्लेयर १९२७ की मूक फ़िल्म 'अलीबाबा और चालीस चोर' फ़िल्म में। उन चालीस चोरों में से एक चोर वो भी थे फ़िल्म में। बोलती फ़िल्मों की शुरुआत होने पर उन्होंने कुछ फ़िल्मों में अभिनय भी किया, जिनमें शामिल हैं 'मेरी जान' (१९३१), 'दिलावर' (१९३१) और 'ज़रीना' (१९३२)। उसके बाद वो जुड़े 'सागर मूवीटोन' के साथ और कई फ़िल्मों में चरित्र किरदारों के रोल अदा किए। बतौर निर्देशक उन्हें पहला ब्रेक इसी कंपनी ने दिया सन १९३५ में, और फ़िल्म थी 'दि जजमेण्ट ऒफ़ अल्लाह'। सिसिल बी. डी'मिले की १९३२ की फ़िल्म 'दि साइन ऒफ़ दि क्रॊस' से प्रेरीत इस फ़िल्म का विषय था रोमन-अरब में मुठभेड़। फ़िल्म काफ़ी चर्चित हुई और इसी फ़िल्म से शुरु हुई एक ऐसी जोड़ी की जो अंत तक कायम रही। यह जोड़ी थी महबूब ख़ान और कैमरामैन फ़रदून ए. ईरानी की। ईरानी ने महबूब साहब के हर फ़िल्म को अपने कैमरे पर उतारा।

दोस्तों, महबूब ख़ान के फ़िल्मी सफ़र की कहानी को हम कल फिर आगे बढ़ाएँगे, आइए अब आज के गीत का ज़िक्र किया जाए। आपको सुनवा रहे हैं १९४९ की फ़िल्म 'अंदाज़' का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत और मशहूर गीत "उठाये जा उनके सितम और जीये जा"। लता मंगेशकर की कमसिन आवाज़ में यह है नौशाद साहब की संगीत रचना। गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी। हुआ युं था कि महबूब साहब की १९४८ की फ़िल्म 'अनोखी अदा' बॊक्स ऒफ़िस पर असफल रही थी। और उससे पहले साल १९४७ में भी 'ऐलान' और 'एक्स्ट्रा गर्ल' फ़िल्मों के सितारे भी गर्दिश में ही रहे थे। ऐसे में महबूब साहब ने अपनी पूरी टीम को ही बदल डालने की सोची सिवाय संगीतकार नौशाद के। जहाँ तक गीत संगीत पक्ष का सवाल है, मुकेश और लता आ गये सुरेन्द्र और उमा देवी की जगह, और गीतकार शक़ील बदायूनी की जगह मजरूह साहब को चुना गया। फ़िल्म की कहानी प्रेम त्रिकोण पर आधारित थी और इस फ़िल्म ने इस जौनर का ट्रेण्ड सेट कर दिया। राज कपूर, दिलीप कुमार और नरगिस का प्रेम त्रिकोण इस फ़िल्म में लोगों को ख़ूब रास आया और फ़िल्म ब्लॊकबस्टर साबित हुई। फ़िल्म के साथ साथ इसके गानें भी ऐसे लोकप्रिय हुए कि आज भी ये सुनाई पड़ जाते हैं। नौशाद साहब जब विविध भारती के 'जयमाला' में तशरीफ़ लाये थे, तब इसी गीत को बजाते हुए उन्होंने कहा था - "महबूब ख़ान की फ़िल्म 'अंदाज़' के लिए उन्होंने मुझे म्युज़िक डिरेक्टर चुना और उन्होंने प्लेबैक सिंगर्स चुनने का ज़िम्मा भी मुझे ही सौंपा। मैंने हीरोइन नरगिस के लिए पहली बार लता मंगेशकर की आवाज़ चुनी। महबूब साहब कहने लगे कि मराठी ज़ुबान की लड़की है, क्या ये उर्दू ज़बान के शब्द ठीक से बोल पाएगी? मैंने उनसे कहा कि यह ज़िम्मेदारी मेरी है, आपकी नहीं। उसके बाद वे बिल्कुल चुप हो गए। मैंने लता को ख़ूब रटाया, अच्छी तरह से सिखाया बिना धुन के। मैंने उससे कहा कि पहला टेक ही ओ.के होना चाहिए, मैंने सब लोगों को चैलेंज दिया है कि फ़र्स्ट टेक ही ओ.के. होगा। लता मेरे विश्वास पर खरी उतरी और नतीजा आपके सामने है। तो सुनिए यही गीत फ़िल्म 'अंदाज़ से।"



क्या आप जानते हैं...
कि शक़ील बदायूनी के अपने १८ वर्ष के करीयर में नौशाद साहब के संगीत में 'अंदाज़' ही एक ऐसी फ़िल्म थी जिसमें उन्होंने गीत नहीं लिखे। नौशाद की बाक़ी सभी फ़िल्मों में शक़ील ने ही गीत लिखे थे जब तक शक़ील ज़िंदा थे।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ७ /शृंखला ०४
गीत का प्रील्यूड सुनिए -


अतिरिक्त सूत्र - आवाज़ है लता की

सवाल १ - गीत के मुखड़े में किस संगीत वाध्य का जिक्र है - २ अंक
सवाल २ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
मुकाबला दिलचस्प है और बाज़ी किसी की भी हो सकती है, पर इस पल तो श्याम जी आगे हैं...बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Saturday, November 27, 2010

ई मेल के बहाने यादों के खजाने (१८).....जब अश्विनी कुमार रॉय ने याद किया नौशाद साहब को



नमस्कार! 'ओल इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों, सभी चाहनेवालों का हम फिर एक बार इस साप्ताहिक विशेषांक में हार्दिक स्वागत करते हैं। हफ़्ते दर हफ़्ते हम इस साप्ताहिक स्तंभ में आपके ईमेलों को शामिल करते चले आ रहे हैं। और हम आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया अदा करते हैं कि आपने हमारे इस नए प्रयास को हाथों हाथ ग्रहण किया और अपने प्यार से नवाज़ा, और इसे सफल बनाया। हमारे वो साथी जो अब तक इस साप्ताहिक स्तम्भ से थोड़े दूर दूर ही रहे हैं, उनसे भी हमारी ग़ुज़ारिश है कि कम से कम एक ईमेल तो हमें करें अपनी यादें हमारे साथ बांटें। और कुछ ना सही तो किसी गीत की ही फ़रमाइश हमें लिख भेजें बस इतना लिखते हुए कि यह गीत आपको क्यों इतना पसंद है। oig@hindyugm.com के पते पर हम आपके ईमेलों का इंतज़ार किया करते हैं। और आइए अब पढ़ें कि आज किन्होंने हमें ईमेल किया है....
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महोदय,

नमस्कार!

वास्तव में पहले से ही मालूम था कि हमारी सभ्यता और संस्कृति सब से महान थी और आज भी है, आने वाले समय में भी इसकी बराबरी शायद ही कोई कर पाए। जो संगीत मैंने बचपन में सुना था वह आज इंटरनेट के माध्यम से हिन्दयुग्म पर देख और सुन सकता हूँ। इसके लिए आपको बहुत बहुत बधाई। हमारा शास्त्रीय संगीत सचमुच एक अमूल्य धरोहर है तथा आज भी एक ध्रुव तारे की तरह हमारा मार्ग-दर्शन कर रहा है। यदि पुराने संगीतकारों की तुलना आजकल वालों से करें तो पता चलता है कि पश्चिम की अनाप शनाप नक़ल करके हम अपने शुद्ध भारतीय संगीत से विमुख होते जा रहे है। इसमें दिनों दिन सुरीलापन भी कम होने लगा है जो चिंता की बात है। आप 'हिन्दयुग्म' के माध्यम से आजकल की पीढी को पुराने गीतों से जोड़ने का सार्थक प्रयास कर रहे हैं जो प्रशंसनीय है। पुराने गीत आज भी उसी आकर्षण के साथ सुने जाते हैं जैसे पहले सुने जाते थे। आधुनिक संगीतकारों को सुन कर मुझे फैज़ अहमद फैज़ कि लिखी वह शायरी याद आने लगती है जिसमें उन्होंने कहा था, "कैसे कैसे लोग देखो ऐसे वैसे हो गए .....ऐसे वैसे लोग देखो कैसे कैसे हो गए"। एक दिन शायद ऐसा भी हो जब इतने अमूल्य संगीत को सुनने वाला कोई भी न हो। भगवान न करे कभी ऐसा दिन देखने को मिले। आपके प्रयास सार्थक हों, यही मेरी शुभकामना है।

सादर,

अश्विनी कुमार रॉय


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अश्विनी जी, बहुत बहुत शुक्रिया आपका इस ईमेल के लिए, और आपका बहुत बहुत स्वागत है 'आवाज़' के इस 'ओल्ड इज़ गोल्ड' स्तंभ पर। यकीन मानिए, नये नये दोस्तों से जुड़कर हमें बेहद आनंद आता है, आगे भी युंही हमारे साथ सम्पर्क बनाये रखिएगा। इसमें कोई शक़ नहीं कि भारतीय शास्त्रीय संगीत सबसे ज़्यादा कर्णप्रिय है और इसके वैज्ञानिक पक्ष और औषधिक गुणवत्ता को तो अब पश्चिम ने भी स्वीकारा है। जहाँ तक नये संगीतकारों के बारे में आपके विचार हैं, अब क्या किया जा सकता है, समय समय की बात है। अब देखिए ना, हम भी तो कागज़ पर ख़त लिखना छोड़ कर ईमेल के माध्यम से अपने विचार प्रकट कर रहे हैं। ईमेल में वह बात कहाँ, वह जज़्बात कहाँ जो कागज़ पर लिखे ख़त में होते हैं। ठीक कहा ना? लेकिन क्या किया जाये, समय के साथ भी तो चलना है। अगर समय के साथ ना चलें तो समय ख़ुद ही हमें पीछे छोड़ देता है। हमें ऐसा लगता है कि दौर का संगीत अपने अपने जगह पर हैं। पुराने गानें बेहद सुरीले और अर्थपूर्ण हैं, इसमें कोई शक़ नहीं। ऐसा कभी नहीं होगा कि भविष्य में इन्हें सुनने वाले ना हों। अच्छे चीज़ की क़दर हर युग में बनी रहेगी, यही हमारा विश्वास है। और फिर साहिर साहब ने भी कहा है कि "कल और आयेंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले, मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले"।

अश्विनी जी, आपने आगे अपने ईमेल में फ़िल्म 'सोहनी महिवाल' का गीत सुनना चाहा है महेन्द्र कपूर की आवाज़ में। आपने इस गीत के बारे में लिखा है कि यह महेन्द्र कपूर के करीयर का पहला महत्वपूर्ण गीत रहा है। इस गीत के अवधि करीब करीब ८ मिनट की है, जो उस समय के लिहाज़ से काफ़ी लम्बी है। पूरे गीत में बदलते दृश्यों के हिसाब से संगीत संयोजन में भी काफ़ी विविधता है, जिसके लिए श्रेय जाता है संगीतकार नौशाद साहब को। नौशाद साहब ने इस गीत के लिए ११०-पीस ऒर्केस्ट्रा का इस्तेमाल किया था। तो आइए आपके अनुरोध पर सुनते हैं शक़ील बदयूनी की यह रचना।

गीत - रात ग़ज़ब की आई (सोहनी महिवाल)


तो बस आज इतना ही, अगले हफ़्ते का अंक बेहद बेहद बेहद ख़ास होगा। कैसे होगा, यह तो उसी दिन आपको पता चलेगा। तो उत्सुक्ता के जस्बे को बनाये रखिए और आज के लिये मुझे इजाज़त दीजिए। कल फिर मुलाक़ात होगी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित कड़ी में, नमस्कार!

सुजॉय चट्टर्जी

Friday, November 26, 2010

नसीब अपना अपना



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की मार्मिक सामयिक कहानी "बांधों को तोड़ दो" का पॉडकास्ट उन्हीं की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक कहानी "नसीब अपना अपना", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "नसीब अपना अपना" का कुल प्रसारण समय 3 मिनट 31 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।।
~ अनुराग शर्मा

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी
"दफ्तर के साथी शाम को हाइवे पर एक चाय भजिया के ठेले पर बैठ कर अड्डेबाजी करते थे।"
(अनुराग शर्मा की "नसीब अपना अपना" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)

यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#113rd Story, Naseeb Apna Apna: Anurag Sharma/Hindi Audio Book/2010/45. Voice: Anurag Sharma

Thursday, November 25, 2010

आधा है चंद्रमा रात आधी.....पर हम वी शांताराम जैसे हिंदी फिल्म के लौह स्तंभ पर अपनी बात आधी नहीं छोडेंगें



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 535/2010/235

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' - इस लघु शृंखला के पहले खण्ड के अंतिम चरण मे आज हम पहुँच चुके हैं। इस खण्ड में हम बात कर रहे हैं फ़िल्मकार वी. शांताराम की। उनकी फ़िल्मी यात्रा में हम पहुँच चुके थे १९५७ की फ़िल्म 'दो आँखें बारह हाथ' तक। आज बातें उनकी एक और संगीत व नृत्य प्रधान फ़िल्म 'नवरंग' की, जो आई थी ५० के दशक के आख़िर में, साल था १९५९। इससे पहले की हम इस फ़िल्म की विस्तृत चर्चा करें, आइए आपको बता दें कि ६०, ७० और ८० के दशकों में शांताराम जी ने किन किन फ़िल्मों का निर्देशन किया था। १९६१ में फिर एक बार शास्त्रीय संगीत पर आधारित म्युज़िकल फ़िल्म आई 'स्त्री'। 'नवरंग' और 'स्त्री', इन दोनों फ़िल्मों में वसत देसाई का नहीं, बल्कि सी. रामचन्द्र का संगीत था। १९६३ में वादक व संगीत सहायक रामलाल को उन्होंने स्वतंत्र संगीतकार के रूप में संगीत देने का मौका दिया फ़िल्म 'सेहरा' में। इस फ़िल्म के गानें भी ख़ूब चले। १९६४ की में वी. शांताराम ने अपनी सुपुत्री राजश्री शांताराम को बतौर नायिका लॉन्च किया फ़िल्म 'गीत गाया पत्थरों ने' में। जीतेन्द्र की भी यह पहली फ़िल्म थी और इस फ़िल्म के संगीत ने भी ख़ूब नाम कमाया। संगीतकार एक बार फिर रामलाल। १९६६ में 'लड़की सह्याद्री की' और १९६७ में 'बूंद जो बन गए मोती' इस दशक की दो और उल्लेखनीय फ़िल्में थीं। इन दो फ़िल्मों के संगीतकार थे क्रम से वसंत देसाई और सतीश भाटिया। मुकेश की आवाज़ में "ये कौन चित्रकार है" गीत प्रकृति की सुषमा का वर्णन करने वाले गीतों में सर्वोपरी लगता है। ऐसे में १९७१ में 'जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली', १९७२ में 'पिंजरा', १९७५ में 'चंदनाची चोली अंग अंग जली', और १९७७ में 'चानी' नाम की कमचर्चित फ़िल्में आईं जो व्यावसायिक दृष्टि से असफल रही। बहुत कम लोगों ने सुना होगा, पर फ़िल्म 'चानी' में लता का गाया 'मैं तो जाऊँगी जाऊँगी जाऊँगी उस पार" गीत में कुछ और ही बात है। इस गीत को हम खोज पाए तो आपको ज़रूर सुनवाएँगे कभी। १९८६ में शांताराम ने 'फ़ायर' नामक फ़िल्म का निर्देशन किया था जो उनकी फ़िल्मी सफ़र की अंतिम फ़िल्म थी। एक अभिनेता, निर्माता और निर्देशक होने के अलावा वी. शांताराम फ़िल्म सोसायटी' के अध्यक्ष भी रहे ७० के दशक के आख़िर के सालों में। १९८६ में सिनेमा में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए शांताराम जी को दादा साहब फालके पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। ३० अक्तुबर १९९० को वी. शांताराम का बम्बई में निधन हो गया।

दोस्तों, वी. शांताराम के फ़िल्म के जिस गीत से उन पर केन्द्रित इस शृंखला को हम समाप्त कर रहे हैं, वह है फ़िल्म नवरंग का कालजयी युगल गीत "आधा है चन्द्रमा रात आधी, रह ना जाए तेरी मेरी बात अधी, मुलाक़ात आधी"। 'झनक झनक पायल बाजे' की अपार सफलता के बाद सन् १९५९ में शांताराम जी ने कुछ इसी तरह की एक और नृत्य और संगीत-प्रधान फ़िल्म बनाने की सोची और इस तरह से 'नवरंग' की कल्पना की गई। अभिनेत्री के रूप में संध्या को ही फ़िल्म में बरकरार रखा गया, लेकिन नायक के रूप में आ गये महिपाल। संगीत पक्ष के लिए वसंत देसाई की जगह पर आ गई अन्ना साहब यानी कि सी. रामचन्द्र। भरत व्यास ने फ़िल्म के सभी गीत लिखे। आशा भोसले और महेन्द्र कपूर के गाये इस गीत के साथ महेन्द्र कपूर का एक दिलचस्प वक्या जुड़ा हुआ है, जिसे महेन्द्र कपूर ने विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम में कहे थे। उनके अनुसार इस गीत के निर्माण के दौरान उनका करीयर दाव पर लग गया था। हुआ युं था कि यह गीत किसी रिकॉर्डिंग स्टुडिओ में नहीं बल्कि 'राजकमल कलामंदिर' में रेकॊर्ड किया जा रहा था, जो एक फ़िल्म स्टुडिओ था। एक तरफ़ वो इस बात से नर्वस थे कि पहली बार अशा भोसले के साथ गा रहे हैं, और दूसरी तरफ़ देखा कि रेकॊर्डिस्ट मंगेश देसाई और दूसरे नकनीकी सहायक एक एक कर के कन्ट्रोल रूम से बाहर निकल के आ रहे हैं और उनकी तरफ़ अजीब निगाहों से देख रहे हैं। सी. रामच्न्द्र मंगेश से पूछते हैं कि 'काय बख्तोस तू?' (तुम क्या देख रहे हो?)। मंगेश देसाई कहते हैं कि रेकॊर्डिंग् कैन्सल करनी पड़ेगी क्योंकि महेन्द्र कपूर की आवाज़ स्थिर नहीं है, और वो नर्वस हैं। तब अन्ना ने कहा कि ये तो फ़र्स्ट क्लास गा रहा है, तुम अपना वायरिंग् चेक करो। और तभी इस बात पर से पर्दा उठा कि महेन्द्र कपूर के माइक्रोफ़ोन का प्लग ढीला हो गया था, जिस वजह से ये कंपन आ रहा था। महेन्द्र कपूर यह मानते हैं कि अगर उस प्लग के ढीले होने की बात पता ना चलती तो शायद उसी दिन उनका करीयर ख़त्म हो जाता। तो दोस्तों, आइए अब इस गीत को सुनते हैं, और इसी के साथ समाप्त करते हैं 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' शृंखला का पहला खण्ड जो समर्पित था महान फ़िल्मकार वी. शांताराम को। अगले हफ़्ते इस शृंखला के दूसरे खण्ड में हम एक और महान फ़िल्मकार के फ़िल्मी सफ़र के साथ हाज़िर होंगे, तब तक के लिए अनुमति दीजिए, शनिवार को 'ईमेल के बहाने, यादों के ख़ज़ाने' में पधारना ना भूलिएगा, नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि बतौर लेखक वी. शांताराम को उनकी तीन फ़िल्मों के साथ जोड़ा जा सकता है - 'अमृत मंथन' (संवाद), 'नवरंग' (स्क्रीनप्ले), 'सेहरा' (स्क्रीनप्ले)

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ६ /शृंखला ०४
गीत का प्रील्यूड सुनिए -


अतिरिक्त सूत्र - नौशाद साहब हैं संगीतकार

सवाल १ - किस निर्देशक की चर्चा में होगा ये गीत - २ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - १ अंक
सवाल ३ - गायिका बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
श्याम कान्त जी एक बार फिर सही निकले. रोमेंद्र समय पर पहुंचे कल तो अमित भाई का भी जवाब उनके लिए एक अंक का बोनस दे गया. शरद जी आज देखते हैं...:)

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, November 24, 2010

ए मलिक तेरे बंदे हम....एक कालजयी प्रार्थना जो आज तक एक अद्भुत प्रेरणा स्रोत है



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 534/2010/234

फ़िल्मकार वी. शांताराम द्वारा निर्मित और/ या निर्देशित फ़िल्मों के गीतों से सजी लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' का पहला खण्ड इन दिनों जारी है। गीतों के साथ साथ हम शांताराम जी के फ़िल्मी सफ़र की भी थोड़ी बहुत संक्षिप्त में चर्चा भी हम कर रहे हैं। पिछली कड़ी में हमने ४० के दशक के उनकी फ़िल्मों के बारे में जाना। आज हम ज़िक्र करते हैं ५० के दशक की। पिछले दो दशकों की तरह यह दशक भी शांताराम जी के फ़िल्मी सफ़र का एक अविस्मरणीय दशक सिद्ध हुआ। १९५० में शांताराम ने समाज की ज्वलंत समस्या दहेज पर वार किया था फ़िल्म 'दहेज' के ज़रिए। ६० वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन आज भी उनकी यह फ़िल्म उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस ज़माने में थी। इस फ़िल्म में करण दीवान और वी. शांताराम की पत्नी जयश्री शांताराम ने अभिनय किया था। वसंत देसाई का ही संगीत था और जयश्री शांताराम का गाया "अम्बुआ की डाली पे बोले रे कोयलिया" गीत बेहद मकबूल हुआ था। १९५२ में 'परछाइयाँ', १९५३ में 'तीन बत्ती चार रास्ता', १९५४ में 'सुबह का तारा', १९५४ में 'महात्मा कबीर' शांताराम निर्देशित कुछ प्रमुख फ़िल्में थीं ५० के दशक के पहले भाग की। फिर आई १९५५ की फ़िल्म 'झनक झनक पायल बाजे', जिसका एक गीत कल आपने सुना था। यही फ़िल्म वसंत देसाई की ज़िंदगी और शायद हिंदी सिने-संगीत के इतिहास का भी मीलस्तंभ बना। शांताराम की इस महत्वकांक्षी फ़िल्म लिए उन्होंने पूरे देश भर में घूम घूम कर एक से एक बेहतरीन संगीतज्ञों का चयन किया। संगीत नृत्य प्रधान इस फ़िल्म के लिए उन्होंने कलकत्ता से बुलाया सुविख्यात तबला नवाज़ सामता प्रसाद को, संतूर के लिए पंडित शिव कुमार शर्मा को, और सारंगी के लिए पंडित राम नारायण को। यही नहीं फ़िल्म का शीर्षक गीत गवाया गया था शुद्ध शास्त्रीय गायक अमीर ख़ाँ साहब से. अभिनेत्री संध्या और विख्यात नृत्यशिल्पि गोपी कृष्ण जे जानदार अभिनय और नृत्यों से, शांताराम के प्रतिभा से, और वसंत देसाई के धुनों से इस फ़िल्म ने एक इतिहास की रचना की। इस फ़िल्म के सभी गीत शास्त्रीय संगीत पर आधारित हैं। आगे चलकर इस फ़िल्म के गानें जैसे जैसे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शामिल होते जाएँगे, हर गीत के विशेषताओं की हम तफ़सील से चर्चा करते जाएँगे। इस फ़िल्म के बाद १९५६ में आई थी 'तूफ़ान और दीया' जिसे निर्देशित किया था शांताराम जी के सुपुत्र प्रभात कुमार ने और जिसके बारे में हम चर्चा भी कर चुके हैं और फ़िल्म का शीर्षक गीत भी सुन चुके हैं।

सन् १९५७ में वी. शांताराम ने 'दो आँखें बारह हाथ' फ़िल्म का निर्माण व निर्देशन किया, और स्वयं अभिनय भी किया। यह भी एक कालजयी फ़िल्म साबित हुई। कहानी, अभिनय, छायांकन, कैमरा, निर्देशन, सब कुछ मिलाकार एक बेहतरीन फ़िल्म। १९५८ में इस फ़िल्म को सैन फ़्रांसिस्को फ़िल्म महोत्सव में दिखाया गया था। फ़िल्म की कहानी कुछ ऐसी थी कि एक पुलिसवाला (शांताराम) एक फ़ार्म खोलता है जिसके सदस्य हैं ६ ख़ूनी। पंकज राग अपनी किताब 'धुनों की यात्रा' में इस फ़िल्म के बारे में लिखते हैं - "१९५७ में वी. शाताराम डाकुओं की समस्या का गांधीवादी हल लेकर 'दो आँखें बारह हाथ' में आए। इस फ़िल्म को राष्ट्रपति का स्वर्णपदक तथा बर्लिन के फ़िल्म फ़ेस्टिवल में 'सिल्वर लोटस' से पुरस्कृत किया गया था। और साथ में आये वसंत देसाई "ऐ मालिक तेरे बंदे हम" लेकर। नैतिकता से परिपूर्ण प्रार्थना गीतों को भी कितनी सुंदर धुन दी जा सकती है, यह उसी वसंत देसाई ने दिखाया जो पिछले दशक में ऐसे गीतों के सामने अपने संगीत को कई बार बंधा और दबा पाते थे। नतीजा था एक ऐसा गीत जो देश के हर विद्यालय का प्रार्थना गीत बना और आज तक बना हुआ है। देसाई के भैरवी पर कम्पोज़ किए इस गीत से आनेवाली कई पीड़ियाँ प्रेरणा लेती रहेंगे - ऐसी विरासत विरलों को ही नसीब होती है।" दोस्तों, यहाँ पर आकर अगर इस कालजयी प्रार्थना को सुनें बग़ैर ही हम आगे बढ़ जाएँगे तो शायद इस शृंखला के साथ अन्याय होगा। लता मंगेशकर और साथियों की आवाज़ों में इस गीत को अमर बोल दिए थे गीतकार भरत व्यास ने। तो आइए सुनते हैं यह अमर प्रार्थना "ऐ मालिक तेरे बंदे हम, हो ऐसे हमारे करम, नेकी पर चलें, और बदी से टलें, ताकि हँसते हुए निकले दम"। चलते चलते आपको यह भी बता दें कि इसी गीत का एक अन्य वर्ज़न भी है जिसे केवल समूह स्वरों में गाया गया है।



क्या आप जानते हैं...
कि 'दो आँखें बारह हाथ' फ़िल्म को हॊलीवूड प्रेस ऐसोसिएशन ने १९५८ का सर्वश्रेष्ठ विदेशी फ़िल्म होने का गौरव दिलवाया था। यह भारत के लिए जितनी गौरव की बात थी, उतना ही परिचय था शांताराम के प्रतिभा का।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ५ /शृंखला ०४
गीत का इंटरल्यूड सुनिए -


अतिरिक्त सूत्र - कोई और सूत्र चाहिए क्या ?

सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल २ - संगीतकार बताएं - २ अंक
सवाल ३ - गायक बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
बिट्टू जी ने कल खाता खोला. श्याम जी अमित जी सभी को बधाई.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Tuesday, November 23, 2010

मोहब्बत की कहानी आँसूओं में पल रही है.. सज्जाद अली ने शहद-घुली आवाज़ में थोड़ा-सा दर्द भी घोल दिया है



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०३

माफ़ी, माफ़ी और माफ़ी... भला कितनी माफ़ियाँ माँगूंगा मैं आप लोगों से। हर बार यही कोशिश करता हूँ कि महफ़िल-ए-ग़ज़ल की गाड़ी रूके नहीं, लेकिन कोई न कोई मजबूरी आ हीं जाती है। इस बार घर जाने से पहले यह मन बना लिया था कि आगे की दो-तीन महफ़िलें लिख कर जाऊँगा, लेकिन वक़्त ने हीं साथ नहीं दिया। घर पर अंतर्जाल की कोई व्यवस्था नहीं है, इसलिए वहाँ से महफ़िलों की मेजबानी करने का कोई प्रश्न हीं नहीं उठता था। अंत में मैं हार कर मन मसोस कर रह गया। तो इस तरह से पूरे तीन हफ़्ते बिना किसी महफ़िल के गुजरे। अब क्या करूँ!! फिर से माफ़ी माँगूं? मैं सोच रहा हूँ कि हर बार क्षमा-याचना करने से अच्छा है कि पहले हीं एक "सूचना-पत्र" महफ़िल-ए-ग़ज़ल के दरवाजे पर चिपका दूँ कि "मैं महफ़िल को नियमित रखने की यथा-संभव कोशिश करूँगा, लेकिन कभी-कभार अपरिहार्य कारणों से महफ़िल अनियमित हो सकती है। इसलिए किसी बुधवार को १०:३० तक आपको महफ़िल खाली दिखे या कोई रौनक न दिखे, तो मान लीजिएगा कि इसके मेजबान को ऐन मौके पर कोई बहुत हीं जरूरी काम निकल आया है। फिर उस बुधवार के लिए मुझे क्षमा करके अगले बुधवार को महफ़िल की राह जरूर ताकिएगा, क्योंकि महफ़िल आएगी तो बुधवार को हीं और ९:३० से १०:३० के बीच किसी भी वक़्त। अगर आप ऐसा करते हैं तो मैं आप सभी का आभारी रहूँगा। धन्यवाद!"

चलिए तो आज की महफ़िल में शमा जलाते हैं। आज की महफ़िल जिस नज़्म से सजने वाली है, जिस नज़्म के नाम है... उस नज़्म को अपनी आवाज़ से मक़बूल किया है पाकिस्तान के बहुत हीं जाने-माने सेमि-क्लासिकल एवं पॉप गायक, अभिनेता , निर्माता और निर्देशक सज्जाद अली ने। आपको शायद याद हो कि पिछले साल ९ दिसम्बर को हमने "शामिख फ़राज़" जी के आग्रह पर "अहमद फ़राज़" की ग़ज़ल "अब के बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिले" सुनवाई थी, जिसे इन्हीं सज्जाद साहब ने गाया था। उस वक़्त हमने इनका छोटा-सा परिचय दिया था। तो पहले उसी परिचय से शुरूआत करते हैं:

सज्जाद अली के अब्बाजान साजन(वास्तविक नाम: शफ़क़त हुसैन) नाम से मलयालम फिल्में निर्देशित किया करते हैं। ७० के दशक से अबतक उन्होंने लगभग ३० फिल्में निर्देशित की हैं। मज़े की बात यह है कि खुद तो वे हिन्दुस्तान में रह गए लेकिन उनके दोनों बेटों ने पाकिस्तान में खासा नाम कमाया। जैसे कि आज की गज़ल के गायक सज्जाद अली पाकिस्तान के जानेमाने पॉप गायक हैं, वहीं वक़ार अली एक जानेमाने संगीतकार। सज्जाद अली का जन्म १९६६ में कराची के एक शिया मुस्लिम परिवार में हुआ था। बचपन से हीं इन्हें संगीत की शिक्षा दी गई। शास्त्रीय संगीत में इन्हें खासी रूचि थी। उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, उस्ताद बरकत अली खान, उस्ताद मुबारक अली खान, मेहदी हसन खान, गुलाम अली, अमानत अली खान जैसे धुरंधरों के संगीत और गायिकी को सुनकर हीं इन्होंने खुद को तैयार किया। इनका पहला एलबम १९७९ में रीलिज हुआ था, जिसमें इन्होंने बड़े-बड़े फ़नकारों की गायिकी को दुहराया। उस एलबम के ज्यादातर गाने "हसरत मोहानी" और "मोमिन खां मोमिन" के लिखे हुए थे। यूँ तो इस एलबम ने इन्हें नाम दिया लेकिन इन्हें असली पहचान मिली पीटीवी की २५वीं सालगिरह पर आयोजित किए गए कार्यक्रम "सिलवर जुब्ली" में। दिन था २६ नवंबर १९८३. "लगी रे लगी लगन" और "बावरी चकोरी" ने रातों-रात इन्हें फर्श से अर्श पर पहुँचा दिया। एक वो दिन था और एक आज का दिन है...सज्जाद अली ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। अप्रेल २००८ में "चहार बलिश" नाम से इन्होंने अपना एलबम रीलिज किया, जिसमें "चल रैन दे"(यह गाना वास्तव में जुलाई २००६ में मार्केट में आया था और इस गाने ने उस समय खासा धूम मचाया था) भी शामिल है। इनके बारे में इससे ज्यादा क्या कहा जाए कि खुद ए०आर०रहमान इन्हें "ओरिजिनल क्रोसओवर" मानते हैं।

रहमान इन्हें "ओरिजिनल क्रोसओवर" मानते हैं और कहते हैं कि: "From the realm of the classical, he metamorphosed into one of the brightest lights of Pakistani pop.Always striking the right note, and never missing a beat, even the most hardened purist has to give Sajjad his due. This man can breathe life in a Ghazal even as he puts the V back into verve. He is one of the very few singers in Pakistan who seems a complete singer. As far as skill is concerned I feel nobody compares to Sajjad Ali. He is simply too good at everything he chooses to create." यानि कि "शास्त्रीय संगीत के साम्राज्य से चलकर सज्जाद ने पाकिस्तानी पॉप की चमकती-धमकती दुनिया में भी अपनी पकड़ बना ली है। ये हमेशा सही नोट लगाते हैं और एक भी बीट इधर-उधर नहीं करते, इसलिए जो "प्युरिस्ट" हैं उन्हें भी सज्जाद का महत्व जानना चाहिए। ये ग़ज़लों में जान फूँक देते हैं और गानों में जोश का संचार करते हैं। ये पाकिस्तान के उन चुनिंदे गायकों में से हैं जिन्हें एक सम्पूर्ण गायक कहा जा सकता है। जहाँ तक योग्यता की बात है तो मेरे हिसाब से सज्जाद अली की कोई बराबरी नहीं कर सकता। ये जो भी करते हैं, उसमें शिखर तक पहुँच जाते हैं।"

सज्जाद अली के बारे में हंस राज हंस कहते हैं कि "अगर मेरा पुनर्जन्म हो तो मैं सज्जाद अली के रूप में जन्म लेना चाहूँगा।" तो इतनी काबिलियत है इस एक अदने से इंसान में।

"विकिपीडिया" पर अगर देखा जाए तो इनके एलबमों की फेहरिश्त इतनी लंबी है कि किसे चुनकर यहाँ पेश करूँ और किसे नहीं, यह समझ नहीं आता। फिर भी मैं कुछ हिट सिंगल्स की लिस्ट दिए देता हूँ:

बाबिया, चल उड़ जा, कुछ लड़कियाँ मुझे, चीफ़ साब, माहिवाल, तस्वीरें, जादू, झूले लाल, चल झूठी, दुआ करो, प्यार है, पानियों में, सोहनी लग दी, सिन्ड्रेला, तेरी याद, ऐसा लगा, कोई नहीं, ना बोलूँगी (रंगीन), चल रैन दे (जिसका ज़िक्र हमने पहले भी किया है), पेकर (२००८)

कुछ सालों से सज्जाद गायकी की दुनिया में नज़र नहीं आ रहे थे, लेकिन अच्छी खबर ये है कि अभी हाल में हीं इन्होंने "शोएब मंसूर" की आने वाली फिल्म "बोल" के लिए एक गाना रिकार्ड किया है। इसी अच्छी खबर के साथ चलिए हम अब आज की नज़्म की ओर रूख करते हैं।

हम अभी जो नज़्म सुनवाने जा रहे हैं उसे हमने "सिन्ड्रेला" एल्बम से लिया है, जो २००३ में रीलिज हुई थी। इस नज़्म में सज्जाद अली की आवाज़ की मिठास आपको बाँधे रखेगी, इसका मुझे पूरा यकीन है। नज़्म का उनवान है "पानियों में"..

पानियो में चल रही हैं,
कश्तियाँ भी जल रही हैं,
हम किनारे पे नहीं हैं.. हो..

ज़िंदगी की _______,
है मोहब्बत की कहानी,
आँसूओं में पल रही है... हो..

जो कभी मिलते नहीं हैं,
मिल भी जाते हैं कहीं पर,
ना मिलें तो ग़म नहीं है.. हो..

दूर होते जा रहे हैं,
ये किनारे, वो किनारे,
ना तुम्हारे, ना हमारे... हो..




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "बिछड़" और शेर कुछ यूँ था-

ईंज मैं रोई, जी मैं बिछड़ के खोई,
कूंज (गूंज) तड़प दीदार बिना

इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:

मुझसे बिछड़ के ख़ुश रहते हो
मेरी तरह तुम भी झूठे हो (बशीर बद्र)

बिछड़ कर हम से कहाँ जाओगे
तासीर हमारी वापिस ले आएगी (मंजु जी)

शायद कोई रोयेगा अपनी कब्र पर भी
बिछड़ जाने की रस्म निभानी ही होगी (शन्नो जी)

बिछड़ के भी वो मुझसे दूर रह न सका
आंख से बिछड़ा और दामन मैं रह गया (अवनींद्र जी)

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों मैं मिले
जैसे सूखे हुए कुछ फूल किताबों मैं मिले (अहमद फ़राज़)

हर बार की तरह पिछली महफ़िल में भी मैं शब्द गायब करना भूल गया। सजीव जी ने इस बात की जानकारी दी। सजीव जी, आपका धन्यवाद! वैसे उस महफ़िल की शोभा बनीं पूजा जी (शायद पहली बार :) ).. पूजा जी, इस उपलब्धि के लिए आपको ढेरों बधाईयाँ। मंजु जी, जन्मदिवस की बधाईयों को स्वीकार करते हुए मैं आपको तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। आपने मेरे लिए जो पंक्तियाँ लिखीं, जो दुआएँ दीं (जीवेत शरद: शतम) उसकी प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। ताज मैंने नहीं पहनाया, ताज आपने मुझे पहनाया है। शन्नो जी, आप सबसे थोड़ा-बहुत मजाक कर लूँ, इतना हक़ तो मुझे है हीं। है ना? :) पंजाबी तो मुझे भी नहीं आती (आ जाती, अगर कोई पंजाबन मिल जाती मुझे.. लेकिन मिली हीं नहीं :) ) , इसलिए तो आप सबसे कहा था कि रिक्त स्थानों की पूर्ति कर दें। लेकिन यह नज़्म भी "तन्हा" हीं रह गई, किसी ने भी इसे पूरा करके इसका साथ नहीं दिया। खैर, लगता है कि अब किसी पंजाबन को हीं ढूँढ कर कहना होगा कि बताओ हमारे "राहत" भाईसाब क्या कह रहे हैं और उन पंक्तियों का अर्थ क्या निकलता है। हा हा.. अवनींद्र जी, आप देर आए, लेकिन आए तो सही.. आपके बिना महफ़िल में कमी-सी रह जाती। ये क्या, आपको अहमद फ़राज़ साहब का नाम नहीं याद आ रहा था। कोई बात नहीं, आप हीं के लिए हमने आज के पोस्ट में अहमद साहब की उसी ग़ज़ल का लिंक दिया है, वहाँ जाकर ग़ज़ल पढ लें, सुन लें और उनके बारे में जान भी लें। यह आपके लिए गृह-कार्य है। करेंगे ना? :)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

नैन सो नैन नाहीं मिलाओ....देखिये किस तरह एक देहाती शब्द "गुईयाँ" का सुन्दर प्रयोग किया हसरत ने



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 533/2010/233

'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ', इस शृंखला के पहले खण्ड में इन दिनों आप सुन और पढ़ रहे हैं महान फ़िल्मकार वी. शांताराम पर केन्द्रित हमारी यह प्रस्तुति 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अंतर्गत। आज इसकी तीसरी कड़ी में बातें शांताराम जी के ४० के दशक के सफ़र की। १९४१ में एक फ़िल्म आई थी 'पड़ोसी', जिसकी पृष्ठभूमि थी हिंदू मुसलमान धर्मों के बीच का तनाव। कहानी दो युवा दोस्तों की थी जो इन दो धर्मों के अनुयायी थी, और जो एक साम्प्रदायिक हमले में एक साथ मर जाते हैं। फ़िल्म के क्लाइमैक्स में एक बांध का बम से उड़ा देने का पिक्चराइज़ेशन उस ज़माने के लिहाज़ से काफ़ी सरहानीय था। 'पड़ोसी' के बाद वी. शान्ताराम 'प्रभात' से अलग हो गए और अपनी निजी कंपनी 'राजकमल कलामंदिर' की स्थापना की और अपने आप को पुणे से मुंबई में स्थानांतरित कर लिया। कालीदास की मशहूर कृति 'शकुंतला' पर आधारित १९४३ की फ़िल्म 'शकुंतला' इस बैनर की पहली पेशकश थी, जो बेहद कामयाब सिद्ध हुई। यह भारतीय पहली फ़िल्म थी जिसे व्यावसायिक तौर पर विदेश में प्रदर्शित किया गया था। बम्बई में 'शकुंतला' दो साल तक चली थी। ४० के दशक का समय युद्ध का समय था समूचे विश्व में। एक तरफ़ द्वितीय विश्व युद्ध और दूसरी तरफ़ भारत का स्वाधीनता संग्राम। और इसी दौरान वी. शांताराम ने बनाई फ़िल्म 'डॊ. कोटनिस की अमर कहानी'। साल था १९४६। इस फ़िल्म को बनाने की प्रेरणा उन्हें एक नवोदित पत्रकार ख़्वाजा अहमद अब्बास से मिली थी। हमारे राष्ट्रीय कांग्रेस ने चीन के साथ सहानुभूति का व्यवहार करते हुए चीन - जापान युद्ध के दौरान चीन में एक मेडिकल मिशन भेजा था। उस टीम में एक डोक्टर थे द्वारकानाथ कोटनिस, जिन्होंने वहाँ जाकर एक चीनी नर्स से शादी की, लेकिन ड्युटि के दौरान उनकी मौत हो गई। इस घटना और जीवन चक्र को लेकर अब्बास साहब ने एक किताब लिखी थी, जिस पर यह फ़िल्म बनीं। इस फ़िल्म की सराहना केवल कांग्रेस ही नहीं, बल्कि अंग्रेज़ सरकार ने भी की थी। १९४६ में ही एक और फ़िल्म 'राजकमल' के बैनर तले प्रदर्शित हुई थी 'जीवन यात्रा'। मास्टर विनायक निर्देशित इस फ़िल्म में युं तो नयनतारा, प्रतिमा देवी और याकूब मुख्य कलाकार थे, लेकिन लता मंगेशकर ने भी एक भूमिका निभाई थीं। हालाँकि उन्हें इस फ़िल्म में गाने का मौका नहीं दिया गया था। ४० के दशक में शांताराम की कुछ अन्य फ़िल्में हैं 'शेजारी' (१९४१), 'माली' (१९४४), 'अमर कहानी' (१९४६), 'मतवाला शायर राम जोशी' (१९४७), और 'अपना देश' (१९४९)।

'राजकमल कलामंदिर' की स्थापना के समय वी. शांताराम ने वसंत देसाई को, जो उस समय 'प्रभात' में उनके साथ कई विभागों में काम किया करते थे, उन्हें अपने साथ बम्बई ले आये और बतौर संगीतकार उन्हें मौका दे दिया 'शकुंतला' में। उसके बाद शांताराम और वसंत देसाई की जोड़ी ने एक से एक कामयाब म्युज़िकल फ़िल्में हमें दीं। ५० के दशक की एक ऐसी ही संगीत और नृत्य प्रधान फ़िल्म थी 'झनक झनक पायल बाजे'। आज इसी फ़िल्म का एक गीत लेकर हम उपस्थित हुए हैं लता मंगेशकर और हेमन्त कुमार की आवाज़ों में। राग मालगुंजी पर आधारित इस गीत को लिखा था हसरत जयपुरी ने। इस फ़िल्म की और इस फ़िल्म के संगीत की विस्तृत चर्चा हम कल की कड़ी में करेंगे, आज आइए वसंत देसाई साहब की बातें जान लेते हैं जो उन्होंने अमीन सायानी साहब के एक इंटरव्यु में कहे थे शांताराम जी के बारे में।

प्र: दादा, बात तो पुरानी है लेकिन यह बताइए कि आप शांताराम जी से मिले कैसे?
उ: अजी, बस एक दिन युंही सामने जाके खड़ा हो गया कि मुझे ऐक्टर बनना है।
प्र: ऐक्टर? यानी म्युज़िक डिरेक्टर नहीं?
उ: अरे, म्युज़िक तब कहाँ आता था! और वैसे भी फ़िल्मों में हर कोई पहले ऐक्टर बनने ही आता है। फिर बन जाता है टेक्निशियन, तो मैं भी बाल बढ़ाकर पहुँच गया ऐक्टर बनने।
प्र: बाल बढ़ाकर, यानी लम्बे बाल उस वक़्त भी ज़रूरी थे ऐक्टर बनने के लिए दादा?
उ: जी हाँ, लम्बे लम्बे बाल, जिन्हें डायलॊग बोलते वक़्त झटके से आँखों तक लाया जा सके। मगर एक कमी थी मुझमें अमीन साहब, मैं दुबला पतला और छोटे कद का था, जब कि वो स्टण्ट का ज़माना था। सब ऊँचे कद के पहलवान जैसे हुआ करते थे, छोटे आदमी का काम नहीं था।
प्र: अच्छा अच्छा, तो बताइए कि जब आप वी. शांताराम जी के सामने जा खड़े हुए तो वो क्या बोले?
उ: उन्होंने पूछा 'क्या करना चाहते हो?' मैंने गरदन हिलाकर बाल दिखाए और कहा कि ऐक्टर बनना चाहता हूँ। उन्होंने मुझे सर से पाँव तक देखा और सोचा लड़का पागल है, इसमे ऐक्टर बनने के लिए है ही क्या! ना फ़िगर, ना हाइट, फिर उन्हें मुझपर तरस आ गया और बोले 'मैं तुम्हे रख तो लेता हूँ, मगर सब काम करना पड़ेगा, कल से आ जाओ स्टुडिओ में'।
प्र: आप शायद प्रभात स्टुडिओ कोल्हापुर का ज़िक्र कर रहे हैं!
उ: जी हाँ, कोल्हापुर की। प्रभात के पाँच मालिक थे, जो प्रभात के पाँच पाण्डव कहलाते थे। तो साहब, दूसरे दिन से हम प्रभात में ऒफ़िस बॊय बन गए।
प्र: यानी आपका पहला फ़िल्मी रोल 'ऒफ़िस बॊय' का था?
उ: अरे नहीं नहीं, रोल नहीं, सचमुच का ऒफ़िस बॊय।
प्र: सचमुच का ऒफ़िस बॊय यानी, दादा, आपको पगार क्या मिलती थी आपको उन दिनों?
उ: नो पगार, मुफ़्त, १८ - १८ घंटे का काम, जवानी थी, काम करने में मज़ा आता था। आराम करना पाप लगता था। अरे, मालिक ख़ुद काम करते थे हमारे साथ। ऋषी आश्रम के जैसा था प्रभात!


तो दोस्तों, ये थी वसंत देसाई की वी. शांताराम से पहले पहले मुलाक़ात और उस प्रभात के पहले पहले दिनों का हाल। आइए, अब आज का गीत सुना जाए फ़िल्म 'झनक झनक पायल बाजे' फ़िल्म से। जैसा कि हमने कहा है, इस फ़िल्म के बारे में हम कल की कड़ी में चर्चा करेंगे।



क्या आप जानते हैं...
कि 'झनक झनक पायल बाजे' टेक्निकलर में बनने वाली भारत की पहली फ़िल्म थी।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ४ /शृंखला ०४
गीत का प्रिल्यूड सुनिए -


अतिरिक्त सूत्र - कोई और सूत्र चाहिए क्या ?

सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल २ - इस फिल्म को देश में राष्ट्रपति पुरस्कार के अलावा कौन सा अन्तराष्ट्रीय सम्मान मिला था - २ अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
पहले तो श्यामकांत जी गलत जवाब दे बैठे थे, पर समय रहते उसका सुधार कर दिया, और दो अंक कमा लिए. अमित जी और अवध जी को भी सही जवाबों की बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, November 22, 2010

सुजॉय जी को शादी का तोहफ़ा देने आ गए हैं सलीम-सुलेमान और अमिताभ भट्टाचार्य "बैंड बाजा बारात" के साथ



अभी वक़्त है अपने नियमित ताज़ा सुर ताल का.. ताज़ा सुर ताल यानि कि टी एस टी, जिसके मेजबान मुख्य रूप से सुजॉय जी हुआ करते हैं। मुख्य रूप से इसलिए कहा क्योंकि हर मंगलवार के दिन समीक्षा के दौरान उनसे बातचीत होती है, अब ये बातचीत मैं करूँ या फिर सजीव जी करें... पिछली मर्तबा ये बागडोर सजीव जी ने संभाली थी और उसके पहले कई हफ़्तों तक बातचीत का वो सिरा मेरे हाथ में था.. लेकिन दूसरा सिरा हमेशा हीं सुजॉय जी थामे रहते हैं। आज के दिन और आज के बाद दो-तीन और हफ़्तों तक स्थिति अलग-सी रहने वाली है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सुजॉय जी घर गए हुए हैं.. अपनी ज़िंदगी के उस सिरे को संभालने जिसका दूसरा सिरा उनकी अर्धांगिनी के हाथों में है। जी हाँ, कल हीं सुजॉय जी की शादी थी। शादी बड़ी धूमधाम से हुई और होती भी क्यों नहीं, जब हम सब दोस्तों और शुभचिंतकों की दुआएँ उनके साथ थीं। हम सब तक की तरफ़ से सुजॉय जी को शादी की शुभकामनाएँ, बधाईयाँ एवं बहुत-बहुत प्यार .. (बड़ों की तरफ़ से आशीर्वाद भी).. हम नहीं चाहते थे कि इन मंगल घड़ियों में उन्हें थोड़ा भी तंग किया जाए, इसलिए कुछ हफ़्तों तक ताज़ा सुर ताल मैं अकेले हीं (या फिर कभी-कभार सजीव जी के साथ) हीं संभालने वाला हूँ। आपसे उसी प्रोत्साहन की उम्मीद रहेगी, जो सुजॉय जी को हासिल होती है। धन्यवाद! चलिए तो इन्हीं बातों के साथ आज की समीक्षा का शुभारंभ करते हैं।

इसे इत्तेफ़ाक़ हीं कहेंगे कि शादी की बातें करते-करते हम जिस फिल्म की समीक्षा करने जा रहे हैं, वह फिल्म भी शादियों को हीं ध्यान में रख कर बनी है। यशराज बैनर्स के तहत आने वाली इस फिल्म का निर्देशन किया है मनीष शर्मा ने, कहानी भी उन्हीं की है, जबकि पटकथा लिखी है हबीब फैजल ने। फिल्म के मुख्य कलाकार हैं अनुष्का शर्मा और रणवीर सिंह। फिल्म १० दिसम्बर २०१० को रीलिज होने वाली है। इस फिल्म में संगीत है पार्श्व-संगीत के दम पर हिन्दी-फिल्मों में अपनी पहचान बनाने वाले "सलीम-सुलेमान" बंधुओं का और गीत लिखे हैं "अमित त्रिवेदी" के खासम-खास "अमिताभ भट्टाचार्य" ने (देव-डी, उड़ान)।

फिल्म का पहला गाना है "ऐं वैं.. ऐं वैं".. आवाज़ें हैं सलीम मर्चैंट और सुनिधि चौहान की। गाने की धुन ऐसी है कि पहली बार में हीं आपके मन पर छा जाए और संयोजन भी कमाल का है। गीत सुनकर डान्स-फ्लोर पर उतरने को जी करने लगता है। चूंकि गाने के माध्य्म से पंजाबी माहौल तैयार किया गया है, इसलिए पार्श्व में बैंजो और बांसुरी को आराम से महसूस किया जा सकता है। अमिताभ के बोल बाकी नियमित पंजाबी गानों (भांगड़ा) से काफी अलग हैं। "चाय में डुबोया बिस्किट हो गया" या फिर "गुड़ देखा, मक्खी वहीं फिट हो गया".. जैसी पंक्तियाँ विरले हीं सुनने को मिलती है। मुझे यह गाना बेहद भाया। इस गाने का एक "दिल्ली क्लब मिक्स" भी है, जिसमें मास्टर सलीम ने सलीम मर्चैंट का स्थान लिया है। मास्टर सलीम के आने से "माँ दा लाडला" वाली फिलिंग आ जाती है। थोड़ी कोशिश करने पर आप आवाज़ में इस परिवर्तन को महसूस कर सकते हैं। दोनों हीं गाने अच्छे हैं।

गीत - ऐं वैं


गीत - ऐं वैं (दिल्ली क्लब मिक्स)


अब बढते हैं अगले गाने की ओर। यह गाना है "तरकीबें", जिसे गाया है बेन्नी दयाल ने और उनका बेहतरीन तरीके साथ दिया है सलीम मर्चैंट ने। सलीम-सुलेमान और बेन्नी दयाल की जोड़ी "पॉकेट में रॉकेट" के बाद एक बार फिर साथ आई है। कहीं कहीं यह गाना उसी गाने का एक्सटेंशन लगता है। बेन्नी दयाल एक बार फिर सफल हुए हैं, अपनी आवाज़ का जादू चलाने में। लेकिन मेरे हिसाब से इस गाने की सबसे खूबसूरत बात है, इसके बोल। "अनकन्वेशनल राईटिंग" की अगर बात आएगी, तो इस गाने को उसमें जरूर शुमार किया जाएगा। "कंघी हैं तरकीबें" या फिर "हौसलें सेंक ले" जैसे विचार आपको सोचने पर और सोचकर खुश होने पर मजबूर करते हैं।

गीत - तरकीबें


अगला गाना है "श्रेया घोषाल" की आवाज़ में "आधा इश्क़"। आजकल यह कहावत चल पड़ी है कि श्रेया कभी गलत नहीं हो सकती और श्रेया का गाया गाना कभी बुरा नहीं हो सकता। तो फिर "आधा इश्क़" को खूबसूरत होना हीं है। कुछ लोग इसलिए परेशान हैं कि "आधा इश्क़" भी कुछ होता है क्या?.. उन लोगों को शायद यह पता नहीं कि एकतरफ़ा इश्क़ तो आधा हीं हुआ ना.. यह मेरा ख्याल है, लेकिन ख्याल कोई भी हो.. जब ज़िंदगी "दस ग्राम" की हो सकती है तो इश्क़ "आधा" क्यों नहीं हो सकता। क्या कहते हैं आप लोग?

गीत - आधा इश्क़


चलिए तो बात को आगे बढागे हुए एलबम के चौथे गाने की ओर आते हैं। यह गाना है बेन्नी दयाल और हिमानी कपूर की आवाज़ो में "दम-दम"। इस गाने को सुनने के बाद मुझे यही लगा कि सलीम-सुलेमान ने "दम" भरे गाने के लिए बेन्नी को चुनकर गलती कर दी। गाने में जब तक अंतरा नहीं आता, तब तक दम जैसी कोई बात हीं नज़र नहीं आती। अब जबकि इस गाने को एक आईटम सॉंग जैसा होना है तो आवाज़ से भी वो जोश झलकना चाहिए ना। अंतरे के पहले (यानि कि मुखरे में) धुन भी थोड़ी सुस्त है। अंतरे में यह गाना जोर पकड़ता है, लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है। "दम-दम" में दम नहीं है मेरे भाई!! "दम-दम" का एक सूफ़ी-मिक्स है जिसे सुखविंदर ने गाया है.. सभी जानते हैं कि "जोश" का दूसरा नाम है "सुखविंदर" और ऊपर से मिक्स यानि कि "पेसी ट्युन" तो सूफ़ी-मिक्स हर मामले में बढिया है "दम-दम" से। मेरी यही चाहत है कि फिल्म में "सूफ़ी-मिक्स" हो, तभी मज़ा आएगा।

गीत - दम दम


गीत - दम दम (सूफ़ी मिक्स)


अगले गाने "मितरा" में गायकी की कमान संभाली है खुद अमिताभ भट्टाचार्य ने और उनका साथ दिया है सलीम मर्चैंट ने। यह गाना हर मामले में बेहतरीन है। इस गाने में "अमित त्रिवेदी" की झलक मिलती है, शायद इसीलिए अमिताभ भी माईक के पीछे आने को राजी हुए हैं। सलीम की आवाज़ हर तरह के गाने में काम करती है, इसलिए वे यहाँ भी अपना असर छोड़ जाते हैं। मितरा के बाद बारी है एक नियमित भांगड़े की, जो हर पंजाबी शादी के लिए एक रस्म-सा माना जाता है। लेकिन यह भांगड़ा दूसरे पंजाबी भांगड़ों से थोड़ा अलग है। इस भांगड़े का नाम यूँ तो "बारी बरसी" हीं है, लेकिन इसमें "खट के" कोई हीर या रांझा नहीं लाते, बल्कि "पिज़्ज़ा" , "गोंद" और "खजूर" लाते हैं। इस गाने को सुनकर आप अपने पेट और मुँह पर हाथ रखकर "हँसी" रोकने की कोशिश करेंगे तो वहीं अपनी कदमों को काबू में रखकर यह कोशिश करेंगे कि कहीं "नाच न निकल जाए"। चूँकि यह गाना मस्ती के लिए बना है और एक नियमित पैटर्न पर बना है, इसलिए इसे अच्छा या खराब निर्धारित करने का कोई तुक नहीं बनता। चलिए तो अब सुनते हैं "मितरा" और "बारी बरसी"।

गीत - मितरा


गीत - बारी बरसी


कुल मिलाकर मुझे "सलीम-सुलेमान" की यह पेशकश अच्छी लगी। आप इस समीक्षा से कितना इत्तेफ़ाक़ रखते हैं, यह ज़रूर बताईयेगा। अगली बार मिलने के वादे के साथ आपका यह दोस्त आपसे विदा लेता है। चलते-चलते इस फिल्म का "थीम सॉंग" सुन लेते हैं, जिसे गाया है सलीम मर्चैंट और श्रद्धा पंडित ने। छोटा-सा गाना है, लेकिन चूँकि यह थीम है तो मेरे हिसाब से फिल्म में एक से ज्यादा बार बजेगा जरूर।



आवाज़ की राय में

चुस्त-दुरुस्त गीत: तरकीबें और मितरा

लुंज-पुंज गीत: दम-दम

निर्बल से लड़ाई बलवान की, ये कहानी है दीये की और तूफ़ान की....प्रेरणा का स्रोत है ये गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 532/2010/232

मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर पहली बार बीस कड़ियों की एक लघु शृंखला कल से हमने शुरु की है - 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ'। इस शृंखला के पहले खण्ड में आप सुन रहे हैं फ़िल्मकार वी. शांताराम की फ़िल्मों के गीत और पढ़ रहे हैं उनके फ़िल्मी सफ़र का लेखा जोखा। मूक फ़िल्मों से शुर कर कल के अंक के अंत में हम आ पहुँचे थे साल १९३२ में। आज १९३३ से बात को आगे बढ़ाते हैं। इस साल शांताराम ने अपनी फ़िल्म 'सैरंध्री' को जर्मनी लेकर गए आगफ़ा लैब में कलर प्रोसेसिंग् के लिए। लेकिन जैसी उन्हें उम्मीद थी, वैसा रंग नहीं जमा सके। तस्वीरें बड़ी फीकी फीकी थी, वरना यही फ़िल्म भारत की पहली रंगीन फ़िल्म होने का गौरव प्राप्त कर लेती. यह गौरव आर्दशिर ईरानी के 'किसान कन्या' को प्राप्त हुआ आगे चलकर। कुछ समय के लिए शांताराम जर्मनी में रहे क्योंकि उन्हें वहाँ काम करने के तौर तरीक़े बहुत पसंद आये थे। १९३३ में ही 'प्रभात स्टुडियोज़' को कोल्हापुर से पुणे स्थानांतरित कर लिया गया, क्योंकि पुणे फ़िल्म निर्माण का एक मुख्य केन्द्र बनने लगा था। १९३४ में इस स्टुडियो ने प्रदर्शित की फ़िल्म 'अमृत मंथन', जिसका विषय था बौद्ध और दूसरे धर्मों के बीच का तनाव। यह फ़िल्म हिट हुई थी। शांता आप्टे के गाये इस फ़िल्म के गानें भी बहुत लोकप्रिय हुए थे। उसके बाद १९३५ में मराठी संत एकनाथ पर उन्होंने फ़िल्म बनायी 'धर्मात्मा', जिसमें संत एकनाथ का चरित्र निभाया था बाल गंधर्व ने। इस फ़िल्म की एक दिलचस्प बात पढ़िएगा "क्या आप जानते हैं" में। १९३६ में इसी तरह की एक और फ़िल्म आयी 'संत तुकाराम', जिसे १९३७ में वेनिस फ़िल्म फ़ेस्टिवल में पुरस्कृत किया गया था, जो ऐसी पहली भारतीय फ़िल्म थी। विष्णुपति पगनिस ने संत तुकाराम की भूमिका अदी की। वी. शांताराम के हर फ़िल्म में समाज के लिए कोई ना कोई संदेश हुआ करता था। १९३६ में बनी 'अमर ज्योति' एक औरत की कहानी थी जो एक डाकू बनकर अपने पे हुई अन्याय का बदला लेती है। यह एक बिलकुल ही अलग तरह की फ़िल्म थी 'प्रभात' के लिए, जिसमें स्टण्ट और ऐक्शन का बोलबाला था। आगे चलकर इस विषय पर बेशुमार फ़िल्में बनीं। १९३७ में एक और फ़िल्म आई 'दुनिया ना माने', जिसमें भी नारी समस्या केन्द्रबिंदु में थी। ३० के दशक का आख़िरी साल, १९३९ में शांताराम की एक बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्म आई 'आदमी' और इस बार विषयवस्तु थी वेश्या। केसर नाम की एक वेश्या के संघर्ष की कहानी थी यह फ़िल्म। हालाँकि पी. सी. बरुआ ने 'देवदास' में चंद्रमुखी को एक बड़े ही भावुक किरदार में प्रस्तुत किया था, शांताराम ने केसर का ऐसा चित्रण क्या जो असली ज़िंदगी के बहुत करीब था। तो ये था ३० के दशक में शांताराम के फ़िल्मी सफ़र का एक संक्षिप्त विवरण। ये सभी फ़िल्में उस ज़माने में बेहद चर्चित हुई थी और शांताराम के इन प्रयासों से 'प्रभात स्टुडियोज़' कामयाबी के शिखर पर पहुँच चुका था।

दोस्तों, कल की कड़ी में हम आपको शांताराम के ४० के दशक की फ़िल्मों के बारे में बताएँगे, लेकिन फ़िल्हाल आइए एक बड़ा ही आशावादी गीत सुनते हैं। कौन सा गीत है, इस गीत से शांताराम जी की कैसी यादें जुड़ी हुई हैं, लीजिए पढ़िए शांताराम जी की ही ज़ुबानी, जो उन्होंने कहे थे विविध भारती के 'विशेष जयमाला' कार्यक्रम में। "मैं अपनी ज़िंदगी में उपदेशपूर्ण फ़िल्में बनाता आया हूँ। और उनमें सामाजिक, राजनैतिक और मानविक समस्याएँ प्रस्तुत करता रहा हूँ। साथ ही साथ इन समस्याओं को अपने ढंग से सुलझाने की कोशिश भी करता रहा हूँ। मेरी बनाई हुई फ़िल्में देखने के बाद देश के कोने कोने से लोग मुझे अपनी प्रशंसा और आलोचना लिख कर भेजते हैं। अधिकतर लोग मुझे ऐसी फ़िल्में बनाने की उपदेश भी देते हैं। ऐसे पत्रों को पढ़कर ऐसी समस्यापूर्ण और उपदेशपूर्ण फ़िल्में बनाने का मेरा उत्साह और भी बढ़ जाता है। इस संबंध में कई प्रत्यक्ष घटनाएँ भी हुईं हैं। उनमें से एक मैं आपको बताए बिना नहीं रह सकता। मेरी पहचान का एक आदमी किसी गाँव गया था। स्टेशन पर उसका सामान एक छोटे से लड़के ने उठाकर कहा 'बाहर पहूँचा दूँ साहब?' उस आदमी ने कहा 'अभी तू बहुत छोटा है, इतनी कष्ट का काम क्यों करता है?' लड़के ने जवाब दिया, 'मेहनत करके कुछ पैसे कमाऊँगा और अपनी माँ की मदद करूँगा।' उस आदमी ने फिर पूछा 'क्या तुम्हारी माँ ने तुम्हे काम करने को कहा है?' तब उस बालक ने कहा, 'माँ को तो इसका पता भी नहीं है, मैंने 'तूफ़ान और दीया' नाम की एक फ़िल्म देखी थी, उसमें मुझसे भी छोटा एक लड़का अपनी अंधी बहन के लिए इससे भी ज़्यादा कष्ट उठाता है, तो क्या मैं अपनी माँ के लिए इतना काम भी नहीं क सकता!' उस आदमी से यह घटना सुन कर मेरी आँखें भर आईं। आज तक मुझे मिलने वाले पुरस्कारों में यही एक पुरस्कार मेरे लिए बड़ा था। जी हाँ, 'तूफ़ान और दीया' फ़िल्म का निर्माण मैंने ही किया था, और दिग्दर्शन मेरा पुत्र प्रभात कुमार ने किया था। इस फ़िल्म का शीर्षक गीत आज भी निर्बल को बलवान बनाने का संदेश देता है।" तो लीजिए दोस्तों, मन्ना डे और साथियों की आवाज़ों में १९५६ की फ़िल्म 'तूफ़ान और दीया' का यह शीर्षक गीत सुनिए, गीत लिखा है भरत व्यास ने और संगीत दिया है वसंत देसाई ने।



क्या आप जानते हैं...
कि १९३५ की फ़िल्म 'धर्मात्मा', जो मराठी संत एकनाथ की जीवनी पर बनी फ़िल्म थी, इस फ़िल्म का शीर्षक पहले 'महात्मा' रखा गया था, लेकिन गांधीजी के नाम और काम के साथ समानता को देखते हुए सेन्सर बोर्ड ने फ़िल्म के कुछ सीन्स काटने का निर्देश दिया। शांताराम ने यह गवारा नहीं किया और फ़िल्म की शीर्षक ही बदल दिया।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली ३ /शृंखला ०४
गीत का इंटरल्यूड सुनिए -


अतिरिक्त सूत्र - यह एक बेहद कामयाब संगीतमयी फिल्म थी.

सवाल १ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक
सवाल २ - पुरुष गायक कौन हैं इस युगल गीत में - १ अंक
सवाल ३ - गीतकार बताएं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी आगे निकल आये हैं, उन्हें श्याम कान्त जी और अमित जी को बधाई....अवध जी जरा चूक गए पहले....रोमेंद्र जी आप फिर गायब हो गए

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

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