ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 303/2010/03
शास्त्रीय और पाश्चात्य रंगों के बाद 'पंचम के दस रंग' शृंखला की तीसरी कड़ी में आज बारी है रुमानीयत की। यानी कि रोमांटिक गाने की। युं तो आर. डी. बर्मन के संगीत में एक से एक रोमांटिक गानें बने हैं समय समय पर, लेकिन जिस गीत को हमने चुना है वह एक अलग ही मुकाम रखती है इस जौनर में। और वह गीत है १९७२ की फ़िल्म 'मेरे जीवन साथी' का, "ओ मेरे दिल के चैन, चैन आए मेरे दिल को दुआ कीजिए"। ७० का दशक वह दशक था जब पंचम ज़्यादातर तेज़ रफ़्तार वाले और जोशिले गानें लेकर आ रहे थे। लेकिन जब भी सिचुयशन ने डिमाण्ड की किसी सॊफ़्ट एण्ड सेन्सिटिव गाने की, उसमें भी पंचम अपना जादू दिखा गए। फ़िल्म 'मेरे जीवन साथी' में राजेश खन्ना के लिए एक से एक सुपर डुपर हिट गानें बनें जो किशोर दा की आवाज़ पा कर अमर हो गए। वैसे भी राजेश खन्ना की फ़िल्मों की यही खासियत हुआ करती थी कि फ़िल्म चाहे चले ना चले, उनके गानें ज़रूर कामयाब हो जाते थे। इसी फ़िल्म को अगर लें तो प्रस्तुत गीत के अलावा किशोर दा ने जो गानें इसमें गाए वो हैं "दीवाना लेके आया दिल का तराना", "कितने सपने कितने अरमाँ लाया हूँ मैं", "आओ कन्हाई मेरे धाम के दिन से हो गई शाम", "चला जाता हूँ किसी की धुन में", और लता जी के साथ डुएट "दीवाना करके छोड़ोगे लगता है युं हमको"। राजेश खन्ना, किशोर कुमार और आर. डी. बर्मन की तिकड़ी ने जैसे हंगामा कर दिया चारों तरफ़। वैसे दोस्तों, अगर "ओ मेरे दिल के चैन" के बोलों पर ग़ौर किया जाए तो मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे इस गीत में ना तो कोई बहुत ज़्यादा शेर-ओ-शायरी है और ना ही यह कोई कविता है। बिल्कुल मामूली और आम बोलचाल की भाषा में लिखा हुआ गीत भी इतना ज़्यादा लोकप्रिय हो सकता है, बल्कि युं कहें कि एक 'कल्ट सॊंग्' बन सकता है, इस गीत ने यह साबित कर दिखाया है।
हरीश शाह और विनोद शाह निर्मित तथा रवि नगैच निर्देशित इस फ़िल्म में राजेश खन्ना के अलावा तनुजा और सुजीत कुमार मुख्य भूमिकाओं में थे। दोस्तों, गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ने सचिन देव बर्मन के साथ जितना काम किया है, सचिन दा के बेटे पंचम के साथ भी उतनी ही महत्वपूर्ण पारी खेली है। मुझे विकिपीडिया पर मजरूह साहब के जीवनी पर नज़र दौड़ाते हुए यह बात पता चली (वैसे मैं इसकी पुष्टि नहीं कर सकता) कि 'तीसरी मंज़िल' के लिए राहुल देव बर्मन को बतौर संगीतकार नियुक्त करने के निर्णय में मजरूह साहब का बड़ा हाथ था। मजरूह और नासिर हुसैन की गहरी दोस्ती थी। मजरूह साहब के कुछ यादगार गीतों वाली फ़िल्में नासिर साहब ने ही बनाई थी, जैसे कि 'पेयिंग् गेस्ट', 'फिर वही दिल लाया हूँ', 'तीसरी मंज़िल', 'बहारों के सपने', 'प्यार का मौसम', 'कारवाँ', 'यादों की बारात', 'हम किसी से कम नहीं', 'ज़माने को दिखाना है', 'क़यामत से क़यामत तक', 'जो जीता वही सिकंदर', और 'अकेले हम अकेले तुम'। इन फ़िल्मों में से ७ फ़िल्मों में पंचम का संगीत था। और पिछले साल की फ़िल्म 'बचना ऐ हसीनों' के ज़रिए पंचम, मजरूह और किशोर दा की तिकड़ी एक बार फिर से छा गई जब इस फ़िल्म मे 'हम किसी से कम नहीं' के गीत "बचना ऐ हसीनों लो मैं आ गया" से किशोर दा की ओरिजिनल आवाज़ को ही मुखड़े में सुपरिम्पोज़ कर दी गई और किशोर दा के बेटे सुमीत कुमार ने गीत को पूरा किया। आज इस तिकड़ी का कोई भी सदस्य इस दुनिया में मौजूद नहीं है, लेकिन उनका बनाया यह रुमानीयत से भरा हुआ नग़मा आज भी जवाँ दिलो की धड़कन बना हुआ है। तो आइए, इस तिकड़ी को सलाम करते हुए सुनते हैं यह सदाजवान गीत।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
गलियों गलियों भटकता सूरज,
आँख में लेकर धूल का छाला,
टोह में किसकी है सब किरणें,
किसका सुराग है ढूंढें उजाला
पिछली पहेली का परिणाम-
वाह वाह शरद जी, नयी शुरूआत का श्रीगणेश भी आपसे ही हुआ...२ अंक मिलते हैं आपको, बहुत बढ़िया....बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
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3 श्रोताओं का कहना है :
चुनरी संभाल गोरी, उडी चली जाए रे, मार न दे डंक कहीं, नज़र कोई हाय ..
किरनें नहीं अपनी,तो है बाहों की माला
दीपक नहीं जिनमें उन गलियों में है हम से उजाला
अरे धूप ही पे चाँदनी खिल जाए ...
भाई शरद जी,
वाह आपका लोहा तो वैसे भी सभी मान ही चुके हैं.क्या बात है!
अवध लाल
हमारे आते आते तो पहेली का जवाब ही मिल जाता है..बढ़िया प्रस्तुति के लिए धन्यवाद जी!!!
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