महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७६
हर कड़ी में हम ग़ालिब से जुड़ी कुछ नई और अनजानी बातें आपके साथ बाँटते हैं। तो इसी क्रम में आज हाज़िर है ग़ालिब के गरीबखाने यानि कि ग़ालिब के निवास-स्थल की जानकारी। (अनिल कान्त के ब्लाग "मिर्ज़ा ग़ालिब" से साभार):
ग़ालिब का यूँ तो असल वतन आगरा था लेकिन किशोरावस्था में ही वे दिल्ली आ गये थे । कुछ दिन वे ससुराल में रहे फिर अलग रहने लगे । चाहे ससुराल में या अलग, उनकी जिंदगी का ज्यादातर हिस्सा दिल्ली की 'गली क़ासिमजान' में बीता । सच पूंछें तो इस गली के चप्पे-चप्पे से उनका अधिकांश जीवन जुड़ा हुआ था । वे पचास-पचपन वर्ष दिल्ली में रहें, जिसका अधिकांश भाग इसी गली में बीता । यह गली चाँदनी चौक से मुड़कर बल्लीमारान के अन्दर जाने पर शम्शी दवाख़ाना और हकीम शरीफ़खाँ की मस्जिद के बीच पड़ती है । इसी गली में ग़ालिब के चाचा का ब्याह क़ासिमजान (जिनके नाम पर यह गली है ।) के भाई आरिफ़जान की बेटी से हुआ था और बाद में ग़ालिब ख़ुद दूल्हा बने आरिफ़जान की पोती और लोहारू के नवाब की भतीजी, उमराव बेगम को ब्याहने इसी गली में आये । साठ साल बाद जब बूढ़े शायर का जनाज़ा निकला तो इसी गली से गुज़रा ।
जनाब हमीद अहमदखाँ ने ठीक ही लिखा है :
"गली के परले सिरे से चलकर इस सिरे तक आइए तो गोया आपने ग़ालिब के शबाब से लेकर वफ़ात तक की तमाम मंजिलें तय कर लीं ।"
इन बातों से मालूम होता है कि ग़ालिब वास्तव में आगरा के रहने वाले थे। तो क्यों ना हम आगरा की गलियों का मुआयना कर लें, क्या पता उन गलियों में हमें गज़ल कहते हुए ग़ालिब मिल जाएँ। ("मिर्ज़ा ग़ालिब का घर हुआ ग़ायब" पोस्ट से साभार):
शहर के इतिहासकार और वयोवृद्ध बताते हैं कि कालां महल इलाक़े में एक बड़ी हवेली हुआ करती थी, जहाँ सन् १७९७ में ग़ालिब का जन्म हुआ था। लेकिन कालां महल इलाक़े में कोई भी उस जगह के बारे में पक्के तौर पर नहीं कह सकता, जहाँ मियाँ ग़ालिब का जन्म हुआ था। हालाँकि एक इमारत है, जो ग़ालिब की हवेली की ली गई एक बहुत पुरानी तस्वीर से मिलती-जुलती है। बचपन में मुंशी शिव नारायण को ग़ालिब द्वारा लिखे गए एक पत्र से उनकी हवेली के बारे में जानकारी मिलती है, जिसमें उन्होंने अपने घर के बारे में काफ़ी कुछ लिखा है। उन्हीं को लिखे एक अन्य ख़त में उन्होंने आर्थिक तंगी के चलते पैतृक सम्पत्ति छोड़ने की इच्छा का भी उल्लेख किया है। उन्होंने अपनी सम्पत्ति १८५७ के गदर के आस-पास सेठ लक्ष्मीचंद को बेच दी थी।
अब एक स्कूल ट्रस्ट उस सम्पत्ति का मालिक है, लेकिन ट्रस्ट प्रबंधन के मुताबिक़ उस सम्पत्ति का ग़ालिब से कुछ लेना-देना नहीं है। पुराने रिकॉर्ड के मुताबिक़ वहाँ जो ख़ूबसूरत बग़ीचा था, वह कब का ग़ायब हो चुका है और अब वहाँ एक बड़ा सा पानी का टेंक है। इमारत के वर्तमान मालिक के हिसाब से ग़ालिब का उस भवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। हालाँकि तथ्य कुछ और ही बयान करते हैं। १९५७ में ग़ालिब की सालगिरह के मौक़े पर मशहूर उर्दू शायद मैकश अकबराबादी की एक तस्वीर है, जो प्रधानाचार्य के वर्तमान दफ़्तर के ठीक सामने ली गई है।
ग़ालिब से जुड़े विभिन्न कार्यक्रम १९६० तक बाक़ायदा वहीं आयोजित किए जाते रहे हैं। ट्रस्ट द्वारा बड़े पैमाने पर की गई तोड़-फोड़ और निर्माण के चलते अब भवन काफ़ी बदल चुका है। विख्यात शायर फिराक़ गोरखपुरी और अभिनेता फ़ारुक़ शेख़, जिन्होंने ग़ालिब पर एक फ़िल्म का निर्माण किया था, भी इस इमारत को देखने आए थे। ऐतिहासिक तथ्य पुख़्ता तौर पर इशारा करते हैं कि वही भवन मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्मस्थल है, जहाँ आज एक गर्ल्स इंटर कॉलेज चल रहा है। हालाँकि इस बारे में अभी और शोध की ज़रूरत है कि क्या वही इमारत ग़ालिब की पुश्तैनी हवेली है।
हद ये है कि हमारे देश के सबसे बड़े शायर का घर वीरानियों में गुम है... वीरानियाँ क्या. हमें तो यह भी नहीं पता कि ग़ालिब जब आगरा में थे तो कहाँ रहा करते थे। चलिए... इस बात का शुक्र है कि भले हीं ग़ालिब के निशान ज़मीन से मिट गए हों, लेकिन लोगों के दिलों में जो स्थान ग़ालिब ने बनाया है, उसे कोई मिटा नहीं सकता.. वक़्त के साथ वे निशान और भी पुख्ता होते जा रहे हैं। इसी बात पर क्यों न हम ग़ालिब के चंद शेरों पर नज़र दौड़ा लें:
छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
छोड़े न ख़ल्क़ गो मुझे काफ़िर कहे बग़ैर
"ग़ालिब" न कर हुज़ूर में तू बार-बार अर्ज़
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बग़ैर
पिछली महफ़िल में हमने ग़ालिब के जो ख़त पेश किए थे, उनमें ग़म और दु:खों की भरमार थी। माहौल को बदलते हुए आज हम वे दो ख़त पेश कर रहे हैं, जिनसे ग़ालिब का मज़ाकिया लहजा झलकता है। तो ये रहे दो ख़त:
१) ग़ालिब ने अपने एक दोस्त को रमज़ान के महीने में ख़त लिखा। उसमें लिखते हैं "धूप बहुत तेज़ है। रोज़ा रखता हूँ मगर रोज़े को बहलाता रहता हूँ। कभी पानी पी लिया, कभी हुक़्क़ा पी लिया,कभी कोई टुकड़ा रोटी का खा लिया। यहाँ के लोग अजब फ़हम र्खते हैं, मैं तो रोज़ा बहलाता हूँ और ये साहब फ़रमाते हैं के तू रोज़ा नहीं रखता। ये नहीं समझते के रोज़ा न रखना और चीज़ है और रोज़ा बहलाना और बात है"।
२) एक दोस्त को दिसम्बर १८५८ की आखरी तारीखों में ख़त लिखा। उस दोस्त ने उसका जवाब जनवरी १८५९ की पहली या दूसरी तारीख को लिख भेजा। उस खत के जवाब में उस दोस्त को ग़ालिब ख़त लिखते हैं। "देखो साहब ये बातें हमको पसन्द नहीं। १८५८ के ख़त का जवाब १८५९ में भेजते हैं और मज़ा ये के जब तुमसे कहा जाएगा तो ये कहोगे के मैंने दूसरे ही दिन जवाब लिखा है"।
अब हुआ ना माहौल कुछ खुशनुमा। बदले माहौल में निस्संदेह हीं आपमें अब गज़ल सुनने की तलब जाग चुकी होगी। गज़ल तो हम सुना देंगे, लेकिन क्या करें ग़ालिब की लेखनी दु:खों से ज्यादा दूर नहीं रह पाती, इसलिए अगर यह गज़ल सुनकर आप भावुक हो गएँ तो इसमें हमारी कोई गलती न होगी। तो लीजिए पेश है "ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और" एलबम से "मरियम"(इनके बारे में हमें ज़्यादा कुछ पता नहीं चल सका, इसलिए पूरी की पूरी कड़ी हमने ग़ालिब के नाम कर दी, हाँ आवाज़ में वह नशा है वह खनक है, जो यकीनन हीं आपको बाँधकर रखेगी।) की आवाज़ में यह गज़ल:
हर एक बात पे कहते हो तुम कि 'तू क्या है'
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है
रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं ____
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "अहद" और शेर कुछ यूँ था-
ता फिर न इन्तज़ार में नींद आये उम्र भर
आने का अहद कर गये आये जो ख़्वाब में
इस शब्द की सबसे पहले पहचान की अवनींद्र जी ने,लेकिन चूँकि उन्होंने तब कोई शेर पेश नहीं किया, इसलिए "शान-ए-महफ़िल" की पदवी से नवाज़ा जाता है अवनींद्र जी के बाद महफ़िल में उपस्थित होने वाले शरद जी को। शरद जी, इस बार आप पूरे रंग में दीखे और उस रंगे में आपने महफ़िल को भी रंग दिया। ये रहे आपके पेश किए हुए शेर:
मैनें एहद किया था न उस से मिलूंगा मैं
वो रेत पे लकीर थी पत्थर पे नहीं थी । (स्वरचित)
ग़म तो ये है कि वो अहदे वफ़ा टूट गया
बेवफ़ा कोई भी हो तुम न सही हम ही सही (राही मासूम रज़ा) शुभान-अल्लाह... इस शेर का तो मैं फ़ैन हो गया :)
सीमा जी, आपने दो किश्तों में ४ शेर पेश किए... माज़रा क्या है? :) मज़ाक कर रहा हूँ बस :) यह रही आपकी पेशकश:
कहा था किसने के अहद-ए-वफ़ा करो उससे
जो यूँ किया है तो फिर क्यूँ गिला करो उससे (अहमद फ़राज़)
अह्द-ए-जवानी रो-रो काटा, पीरी में लीं आँखें मूँद
यानि रात बहोत थे जागे सुबह हुई आराम किया (मीर तक़ी 'मीर') .. इस शेर को पढकर जाने क्यों मुझे गुलज़ार साहब की पंक्तियाँ याद आ रही हैं... सारी जवानी कतरा के काटी, पीरी में टकरा गए हैं (दिल तो बच्चा है जी)
तुम्हारे अह्द-ए-वफ़ा को अहद मैं क्या समझूं
मुझे ख़ुद अपनी मोहब्बत का ऐतबार नहीं (साहिर लुधियानवी)
अवनींद्र जी, आपने रूक-रूक कर जो शेरों की बौछार की, उससे मैं भींगे बिना नहीं रह सका। अब चूँकि सारे हीं शेर यहाँ डाले नहीं जा सकते, इसलिए लकी ड्रा के सहारे मैंने इन दो शेरों को चुना है :)
ऐ ज़िन्दगी एक एहद मांगता हूँ तुझसे
फ़िर येही खेल हो तो मेरे साथ ना हो (स्वरचित )
वो जब से उम्र कि बदरिया सफ़ेद हो गयी
एहदे वफ़ा तो छोड़ो मुस्कुराता नहीं कोई (स्वरचित ) हा हा हा... क्या खूब कहा है आपने
नीलम जी, आपको हमारी महफ़िल और हमारी पेशकश पसंद आई, इसके लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया। आपने कहा कि आपका शेर चोरी का है, कोई बात नही, लेकिन इस शेर के मालिक का नाम तो बता देतीं। वैसे शेर कमाल का है:
और क्या अहदे वफ़ा होते हैं
लोग मिलते हैं,जुदा होते हैं
शन्नो जी, आपने अनजाने में हीं महफ़िल को जो दुआ दी, उससे मेरा दिल बाग-बाग हो गया... वाह क्या कहा है आपने:
हमें किसी की अहदे वफ़ा का इल्म नहीं
हम और हमारी महफ़िल बरक़रार रहे
मनु जी, आपको समझना इतना आसान नहीं। आप महफ़िल में आए, बड़े दिनों बाद आए, इससे हमें बड़ी हीं खुशी हासिल हुई, लेकिन खतों को पढने के बाद गज़ल सुनना ज़रूरी नहीं समझा.. यह मामला मुझे समझ नहीं आया। थोड़ा खुलकर समझाईयेगा।
सुमित जी और पूजा जी आप लोगों की दुआओं के कारण हीं महफ़िल आज अपनी ७६वीं कड़ी तक पहुँच सकी है। अपना प्यार (और/या) आशीर्वाद इसी तरह बनाए रखिएगा :)
मंजु जी, शेर कहने में आपने बड़ी हीं देर कर दी। अच्छी बात यह है कि आपको वह पता ( http://www.ebazm.com/dictionary.htm ) मिल चुका है, जहाँ से शब्दों के अर्थ मालूम पड़ जाएँगे। यह रहा आपका शेर:
निभानी नहीं आती उसे रस्म अहद वफा की ,
टूटती हैं चूडियाँ हर दिन बेवफाई से .
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
26 श्रोताओं का कहना है :
रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं ____
कायल...
शब्द है : कायल
हर एक चेहरे को ज़ख्मों का आईना न कहो
ये ज़िन्दगी तो है रहमत, इसे सज़ा न कहो ...
मैं वाकीयात की ज़ंजीर का नही कायल
मुझे भी अपने गुनाहों का सिलसिला न कहो ...
(राहत इन्दौरी)
असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का
तुझे कायल भी कराता जा रहा हूँ
शिकवा-ए-शौक करे क्या कोई उस शोख़ से जो
साफ़ कायल भी नहीं, साफ़ मुकरता भी नहीं
(फ़िराक़ गोरखपुरी )
हम तो अब भी हैं उसी तन्हा-रवी[1] के कायल
दोस्त बन जाते हैं कुछ लोग सफ़र में खुद ही
(: नोमान शौक़ )
shabd hai kayal..
dil,jism aur jaan jab se ghayal ho gaye,
sher o shayari k tab se kayal ho gaye
neelam jee aur shanno jee abhi tak nahi aaye..
sholey film ki story aage kaise chalegi........
tanha jee
is gazal ko sunwane k liye dhanyavaad, ye maine kai baar fm par suni hai..par kafi time se fm sunne ka time nahi mil raha tha..
mehfil e ghazal mei bahut he aachi acchi ghazle sunne ko milti hai..fm ki kami mehsoos nahi hoti aaj kal..
सबको हमारा सलाम...आज लगता है खुदा ने हम पर मेहरबानी की और सुमीत जी बिना किसी प्राब्लम के महफ़िल में अपनी तशरीफ़ का टोकरा ले आये...अब उम्मीद करती हूँ की आगे भी मेरी मुसीबतों का ख्याल करते हुये अपने आप इसी तरह से आकर अपनी मौजूदगी के अहसास से चहल-पहल करते रहेंगे...और भी कुछ लोगों ने आकर अपनी मेहरबानी से रौनक बढ़ाई है...केवल तन्हा जी ही एक बार ग़ालिब
साहेब का दुखड़ा रोकर फिर चंपत हो जाते हैं कुछ दिनों के लिए....सुमीत जी, ये हमारी गब्बर साहिबा हमें भी कई दिनों से नहीं दिखीं आप दोनों का ये '' चूहा भाग बिल्ली आई '' वाला खेल हमारी समझ में नहीं आता है...कभी आप यहाँ हैं तो वो नहीं और कभी वो हैं तो आप नहीं...हम पर तो बंदिश है की आप व नीलम जी पहले तशरीफ़ लायें फिर हमें आने की इज़ाज़त होगी..तो बस यही सबब था हमारे पहले न आने का..और भी एक बात....वो ये की आज हमारी तबियत जरा ढीली है...कुछ जुकाम-बुखार है, सरदर्द है, कुछ देर पहले..ख़ुर्र-ख़ुर्र खांसी भी आना शुरू हो गयी है...नाक का टपकना भी बराबर जारी है...बस यूँ समझो की बड़ी लाचारी है....दिमाग के पुर्जे ढीले हो रहे हैं..मतलब ये की..दिमाग भन्ना रहा है..बस हम डट कर सोने ही वाले हैं कुछ देर में.. फिर भी हम आप सबकी खोज खबर लेने आ ही गये..जरा सी देर के लिए ही सही ...सोचा की चलो सबसे दुआ सलाम तो कर आयें...आक..छूं...आक छूं ...देखा छींकों का आना-जाना भी चालू हो गया है...अब अधिक देर रुकी तो आप लोगों को भी कहीं मुझसे जुकाम-खाँसी न हो जाये..और ये ठाकुर कहाँ हैं..दिख नहीं रहे है कहीं ( ठकुराइन ने ठोंक तो नहीं दिया...जैसा की मुझे किसी से उड़ती-उड़ती खबर मिली थी ). देखो अब ये उनका नसीब रहा...देर बहुत हो गयी है..सरदार गब्बर कहीं झक मार रहे होंगे...सनकी टाइप तो हैं ही..आजकल और फ़िल्में देख रहे हैं..मेरी और नाक में दम करने के लिये...फिर यहाँ आते ही सबको धमका देंगे...यह फिलम कभी ख़तम ही नहीं होगी बस शोले का सीरिअल ही बनता रहेगा हर बार की एपीसोड से..मन धुकुर-धुकुर होता रहता है सरदार की धमकियों से...अब अपनी खैरियत के लिये अपना शेर सुनाकर चलती बनूँ तभी ठीक.. ग़ज़ल तो अच्छी है ही..और गायब शब्द भी ग़ज़ल सुनकर मालूम हो गया... ' कायल ' है. तो आप लोगों से इल्तजा है मेरी की इस नाचीज़ के लिखे दो शेरों की ओर भी मुखातिब हों :
१.
माना हम किसी काबिल नहीं हैं
पर बहाने के हम कायल नहीं हैं
दुआ सलाम भी न करूँ किसी को
इतने भी तो हम जाहिल नहीं हैं.
२.
आज तबियत हमारी बिगड़ रही है
तकलीफ भी हमें बहुत हो रही है
कभी थे लोग मेरे हाल के कायल
आज फिकर उन्हें नहीं हो रही है.
-शन्नो
चलती हूँ...खुदा हाफिज़..आह!...ये परवरदिगार...इस नाक का क्या करूँ ?..टपकती जा रही है.
arre, neelam ji kahan ho???...darshan do aakar...sab log yahan intzaar kar rahe hain aapka varna main aapse naaraz ho jaoongi...aur thakur bhi nahin aa rahe hain aapke bina...kya baat hai..kahan atki ho..??? aapke bina meri pitayi ho sakti hai..kuch to mera khayal karo..pyari Gabbar saahiba..grrrrr...
जब से तुम मेरे दिल में उतरे हो ,
मेरा शहर दीवानगी का कायल हो गया .
जवाब -कायल
मैं तो सोच कर आई थी की यहाँ खूब लोग-बाग़ जमा हो गये होंगे अब तक...और फिर शेरो-शायरी जम कर हो रही होगी..लेकिन यहाँ तो कुछ मनहूसियत का माहौल लग रहा है...अरे भाई, कहीं किसी को मेरे सर्दी-जुकाम से शिकायत तो नहीं है यहाँ पर..मैं तो अपने सरदार गब्बर की तलाश में आई थी यहाँ...क्योंकि...मैं सोच रहीं थी की आप लोगों को कहीं मेरे सर्दी-जुकाम से कोई इन्फेक्शन ना हो जाये....तो..कहीं किसी को मेरी बीमारी की वजह से यहाँ आने में एतराज़ तो नहीं हो रहा?....या कहीं कोई मेरी तकलीफ से सिम्पैथी सिमटम का शिकार तो नहीं हो गया ? हा हा हहह्ह...सरदार की तरफ से भी हमें यही शक है इसीलिए शायद अब तक उन्हें देरी हो रही है..या फिर ये मेरा अँधेरे में फेंका तीर सही न हो. चूंकि उन्होंने अब तक यहाँ झाँकने तक की भी तकलीफ नहीं की इसीलिये दिमाग में खुराफाती बातें भी आने लगती हैं...आप सबसे मुआफी चाहती हूँ इस बकवास के लिये...लेकिन उनका तो यहाँ आना बहुत ही जरूरी है...फिर भी उनके भेजे में कोई बात नहीं आती...लेकिन...फिर भी दिल के इतने साफ़ हैं हमारे सरदार की हर समय लोगों को शूट करके सफाई करने के लिये तैयार रहते हैं...ताकि उलटे-सीधे लोगों से कोई प्रदूषण न होने पाये दुनिया में...लेकिन यहाँ आने के लिये हर बार उनको इस तरफ का रास्ता याद दिलाना पड़ता है...और हमको बहुत झिंका देते हैं...नाकों चने रगड़ो तब उनकी समझ में आता है...अब आप लोग देखिये की उनके ना आने से मेरी तकलीफ और बढ़ गयी है..पर उनके कानों पर जूँ क्यों रेंगने लगी, भाई. अब आप सब ही बताओ की ये हमारे संग हमारा सरदार नाइंसाफी क्यों कर रहा है...इधर-उधर भी टटोल के आ रही हूँ...पर कहीं सरदार की आहट तक नहीं आई...तो अब फिर क्या हो ?? ...सुमित जी, टिप..टिप....टिप......टिप्प... अरे, आप जरा अपना रुमाल तो दीजिये...क्या कहा...घर पर भूल आये..ओह !..तन्हा जी, तो फिर आप ही जरा अपना रुमाल इधर बढ़ाना...आच्छूं...आच्छूं....हाँ, तो मैं कह रही थी की अब हम गब्बर जी को कैसे समझायें...ठाकुर भी नदारद यहाँ से...उनकी ही निगाह में कोई तरकीब हो तो फिर वही सुझायें...मेरा मतलब है की बतायें..अगर उन्हें मुनासिब लगे तो..वर्ना हम यहाँ फिर से चिल्लाने आ जायेंगे...खैर उसके पहले..हमें अपना एक शेर अर्ज़ करने की इज़ाज़त दीजिये. आप लोगों को भी शायद बेसब्री होगी की कब हम यहाँ से झींकते...सॉरी..मेरा मतलब है की...छींकते हुये जायें...तो फिर लीजिये अर्ज़ है:
किसी की बातों के इतने कायल हुये
उनकी बातों से भी बड़े घायल हुये
जब सोचा बताना अपने ख्यालों को
इन उंगलियों से नंबर डायल न हुये.
-शन्नो
अब आप सबसे इजाज़त लेती हूँ....आ आआआक..छूं ...अगली बार तक के लिये खुदा हाफ़िज़...
शन्नो जी,
अब आपकी तबीयत कैसी है, कोई दवाई लाए हो, मेरा रूमाल तो मै घर पर भूल आया, तन्हा जी, ने रूमाल तो भेज दिया होगा अगर नही भेजा तो मै कल भेज दूँगा
चलो अब चलता हूँ
bbye take care
have a nice day..
आपके लिखे तीनो शे'र अच्छे लगे
सुमीत जी, आप आये हमारे हाल-चाल पूछने के लिये यहाँ...तो इससे कुछ तबियत और हलकी हो गयी...आपका बहुत शुक्रिया...और रुमाल की आप अब फिकर न करें...वो फिर तन्हा जी का रुमाल ही इस्तेमाल कर लिया था...नाक अच्छी तरह से पूंछने के बाद वापस उनको दे भी दिया था..और उन्होंने अपनी पाकेट में भी रख लिया था :) हम रुमाल जैसी चीज़ नाक साफ़ करने के बाद वापस कर देना ही अच्छा समझते हैं. किसी की चीज़ इस्तेमाल करके उसी को वापस दे देना चाहिये, आपका क्या ख्याल है सुमीत जी ? :) सही कहा ना, मैंने ? और हम जबरदस्ती कोई चीज़ किसी से लेते भी नहीं हैं...आदत कुछ ऐसी ही है अपनी..वो तो इमरजेंसी में नाक टपकने का सीरीअस मामला हो गया था..बस इसीलिए रुमाल पास न होने से माँगना पड़ा...चलिये कोई बात नहीं...हमारे शेरों को भी आपने सही कह दिया है तो और तसल्ली हुई हमें...बस गब्बर नीलम जी क्यों नहीं आ रही हैं इस बात से हमारा दिल टूटा जा रहा है. अरे भाई, हमने या आप में से किसी ने कोई खता की हो तब भी कोई बात हो...उनको हुआ क्या है आखिर?..चाहें तो हमको फटकार लें आकर..अगर हमसे कोई खता हुई हो..तो हम माफ़ी मांगने को भी तैयार हैं...वर्ना इस तरह से चुप्पी...ना..ना..हमसे तो सही नहीं जाती..अगले हफ्ते से फिर हम भी नहीं आ पायेंगे...अगर वो नहीं तो हम नहीं..और आपका भी पढ़ाई के मारे यहाँ आने का कोई भरोसा नहीं...तो फिर हम यहाँ अकेले क्या झक मारने आयेंगे? चलते-चलते अपने एक शेर से तो आप सबकी पहचान कराती चलूँ :
आसमां की ऊंचाइयों के कायल हुये हैं
जमीं पर कदम जिनके पड़ते नहीं हैं.
-शन्नो
अलविदा..
मेरे महबूब मैं तेरा कायल तो बहुत था
पर अफ़सोस.., मैं तेरे काबिल ना हो सका
gabbar ................bahut naainsaafi hai,
hum kuch roj ke liye apne gaaon aaye hue hain .
shabba khair
afsos, afsos,afsos ,hume bhi bahut afsos hai thakur saahab
नीलमजी
आपके अफ़सोस पे बड़ी ख़ुशी हुई और अफ़सोस करने रामगढ़ \तक आगई ठाकुर गब्बर से भी ज्यादा खुश हुआ मगर अफ़सोस रामगढ़ मैं ठाकुर ज्यादा खुश नहीं रह सकता शन्नो जी ये गब्बर नज़र नहीं आ रहा लगता है कोई और फिल्म कि शूटिंग मैं व्यस्त हैं !
अब ज्यादा शेर लिखूंगा तो सिप्पी साहेब (तनहा जी )नाराज़ हो जायेंगे ! मगर एक छोटा सा तो लिख ही देता हूँ ----
कौन कहता है कायल हूँ मैं मैखाने का
सूरत -ऐ -साकी ने दीवाना बना रखा है
ताकता रहता हूँ हर वक़्त मैं उसकी आँखें
जहाँ हर वक़्त एक पैमाना बना रखा है !!!
घूमता रहता है वो शमा के इर्द गिर्द बेबस
या खुदा किस मिटटी से परवाना बना रखा है
कुछ ज्यादा ही हो गया ! या ज्यादा ही हो गयी !
ही.....ही.....ही....हा
ठाकुर अवीन्द्र जी...हे हे हे ही ही...आप लगता है कुछ अधिक ही चढ़ा के आये हैं..तभी डगमगा रहे हैं...लेकिन आप डरते हुए क्यों आते हैं जनाब...आराम से कुछ कहिये जो कहना हो. भई, महफ़िल का क्या कसूर है..अगर गब्बर जी का कसूर है तो उनको समझाइये या धमका भी सकते हैं..लेकिन ये सब आपको अपनी रिस्क पर ही करना होगा..हम कही जोखिम में ना पड़ जायें..जी हाँ, और आपको सिप्पी साहेब..आपका इशारा तन्हा जी तरफ है की वोह क्या कहेंगे...तो इसकी फिकर क्यों करते हैं जी, ..मस्त इंसान हैं हमारे उस्ताद....हफ्ते की हाजिरी लगा के...बस ये गये वो गये फिर ईद के चाँद हो जाते हैं पूरे एक हफ्ते बाद ही उनकी इनायत होती है सब की खैरियत पूछने की यहाँ आकर..अगर कोई इमरजेंसी हो तो अलग बात है..जी हाँ, आप इत्मीनान करिये हमारी बातों का :)...तो आप जितने शेर यहाँ आकर सबको सुनना चाहें सुनाइये या जितनी बार भी यहाँ आना चाहें आइये...और गब्बर जी तो मनमौजी हैं...कब किधर निकल गये कोई ठिकाना नहीं...अगली मुलाकात कब होती है उनसे...बस ऊपर वाला ही जाने :) उम्मीद है की आप अच्छी तरह से हमारी बातों को अपने भेजे में बिठा चुके होंगें...अब और अधिक तो कुछ कहना है नहीं तो बस चलते हैं..जितनी हमने अपनी बकबास सुनानी थी हम सुना चुके...आप संभल के घर वापस जाइयेगा...और अपना ख्याल रखियेगा...
घूमता रहता है वो शमा के इर्द गिर्द बेबस
या खुदा किस मिटटी से परवाना बना रखा है
reallly nice sufiana touch .............gabbar khush hua .
tanha bhaai ,ab gabbar ka role kisi
aur ko de do ..........
pooja aa jao (gabbar banogi )
shanno ji ,
vicks ki goli lo khich -khich door karo
sheron ki kar do neend haraam shanno jiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiiii
'' बड़ी मेहरबानी बहुत शुक्रिया....जो तशरीफ़ आप यहाँ आज लाये '' :):) ये वाली लाइन अभी-अभी गब्बर जी के अचानक आने पर अचानक ही अपुन के दिमाग में आई जिसे मैंने बदल कर अपना टच दिया है. :) बख्त की मांग के मुताबिक ये भी एक गाने की लाइन है..कैसी लगी सबको? हाँ..तो सरदार आपके...क्या मिजाज़ हैं?..और क्यों ऐसी दिल तोड़ने वाली बात कर रहे हैं की आप गब्बर के रोल से इस्तीफा देना चाहते हैं ?...लो हिचकी भी आ गयी...अरे, आप सब इधर-उधर क्यों देखने लगे भाई, अजी, ये हिचकी हमारे किसी साथी का नाम नहीं हैं जी, जो आपकी आँखें उसे यहाँ-वहाँ ढूँढने लगीं..अरे भाई, देखिये मैं अपनी हिचकी की बात कर रही हूँ... मुझे अब हिचकी आना शुरू हो गयीं हैं. हाँ,...अब भी आ रही हैं..हिच्च..हिच्च....हिच......हिच...ऐसा लगता है की कोई याद कर रहा है हमको कहीं..पता नहीं क्यों..? नहीं क्यों...? सरदार इस बार आपकी धमकियाँ कम रहीं और इसीलिए..इस बार महफ़िल में साथिओं की मौजूदगी कम रही...हाँ, तो हम कह रहे थे की अपने रोल से इस्तीफा देकर हम पे जुल्म मत करिये..वो पूजा जी बसंती का रोल तो कर सकती हैं :):)...किन्तु गब्बर के रोल के लिये कोई भी फिट ना बैठेगा...वैसे आपका ऐसा इरादा क्यों हुआ जी..? आपकी इस्तीफे वाली बात से ही हमारी आँखें नम हो गयी...पहले हम यहाँ अपनी नाक टपकाते हुये आये थे अब इस बार लगता है हम आँसू टपकाते हुये जायेंगे...एक बात पूछूँ...वो ये की आपको कहीं हमारे जुकाम से तो शिकायत नहीं....वो तो अब चला गया...हमारी नाक तो झरने की तरह बहते-बहते नल की पतली धार..फिर नल के पानी ना आने पर टिपिर-टिपिर बूंदों की तरह टपक-टपक कर बंद हो गयी..तो उसकी तो चिंता ना करें....दवाईयां कितनी भी लो हालत तो सुधरने में बख्त लग ही जाता है ना..? और देखिये, आपका गब्बर वाला रोल तो मुकम्मल हो गया है..अब आप इसके बारे में कोई लफड़ाबाजी ना करें जी...वर्ना फिर हम भी इस्तीफा दे देंगे जी...अब देखिये तन्हा जी, इसी बात पर अगर आप कुछ बोलें तो अच्छा होगा...और फिर ये मामला निपटे...और सरदार आपने तशरीफ़ ले जाते हुये अब शेरों का जिक्र छेड़कर हमारी कमजोर नस पर हाथ रख ही दिया है तो..आपकी कसम सरदार... एक शेर अभी ही कुछ मिनटों में हमने लिख डाला..अरे सुनते तो जाइये मेहरबानी करके..
कोई हमारे आंसुओं का कायल क्यों होगा
जब दिल ही नहीं तो अहसास क्यों कर
( अब हमें कुछ डाउट सा हो रहा है की ये शेर की तरह लग भी रहा है की नहीं..काश ! सुमीत जी कहीं से आकर इसे देखें और बिना सोचे समझे इस पर रहम खाकर पास कर दें ...हा..हा..हा )
अलविदा..अलविदा..अलविदा साथिओं...हम महफ़िल से अब जा रहे साथिओं....अलविदा......अलविदाआआआ....
शंनोजो आपके शेर को थोडा सा छेड़ रहा हूँ बुरा नत मानियेगा ओर तनहा जी इस शेर को गुस्ताखी ना समझना बस थोड़ी सी विनोद भरी बात है
कोई हमारे आंसुओं का कायल क्यूँ होगा
बसंती ने गब्बर से ये ही तो कहा होगा !!
एक सवाल और मेरे दिल मैं है कि रामगढ मैं जब पानी कि टंकी थी जिसपे वीरू का ड्रामा था .....,
तो बिजली भी होगी तो फ़िर जया जी रात को लालटेन लेकर क्यूँ घूमती थी ?????
शन्नो जी कसम है आपको गब्बर की....इसका राज बताइयेगा ....... !तो जाने
ओऊ अलविदा नहीं कहते ना जाने कब दोबारा मुलाकात या मुक्कालात हो जाये सो कभी अलविदा ना कहना ! ये मैं नही अपना शाहरुख़ कहता है बड़ा ही बूढा बच्चा है
अवेनिन्द्र जी, मेरा मतलब है...ठाकुर साहेब राम-राम...आप यूँ ही यहाँ आने की कोशिश/तकलीफ करते रहें मनोरंजन के वास्ते..तो आप सब लोगों की वजह से ये महफ़िल भी बरक़रार रहेगी.. अब आज आप हमरी जनरल नालिज की परीक्षा ले रहे हैं जिससे हमें अपना सर खुजाना पड़ रहा है खासतौर से ये कसम वाली बात की समस्या हो गयी...अब ये तो भई, जया जी ही बता सकती हैं..की वह लालटेन लेकर क्यों परेशान होती थीं... लेकिन फिर भी सोचने की कोशिश करती हूँ की ऐसा क्यों किया होगा उन्होंने...तो...१. या तो उनकी मति मारी गयी होगी..२. या फिर बिजली फेल हो जाती होगी उस समय..३.या फिर वो जिन जगहों पर टटोलती होंगी वहाँ बिजली की रोशनी नहीं पहुँचती होगी..४.या बिजली का खर्चा बचाने के लिये उन्हें लालटेन दे दी जाती होगी..५. या जया जी को लालटेन ही अच्छी लगती होगी...अब देखिये लालटेन लेकर जया जी घूमतीं थीं और उनके मारे सर हम अपना खुजा रहे हैं.....ठाकुर साहेब आप ये पहेलियाँ क्यों बुझा रहे हैं...आपका दिमाग तो सही है ना ? जो बीत गया सो बीत गया ..अब काहे को आप सर दर्द दे और ले रहे हैं..( ही ही..ही ). ये सवाल तो बिजली मोहकमे वालों से करना चाहिये की उस दिन बिजली थी की नहीं..खैर..
अब आगे आपने कहा की आपने हमरे शेर को छेड़ा..तो इस बारे में हम चुप ही रहेंगे....क्यों कि आफत मचाने से हमारे गब्बर साहेब आपको बहुत धमकायेंगे...सो आप खैरियत मनाइये अपनी...और हम भी चूँ नहीं करेंगे उनसे...और एक बात...वो ये की ये आप '' कभी अलविदा न कहना ''..वाला गाना गा रहे हैं या हमसे गुजारिश कर रहे हैं..साथ में इन सल्लू मियां को भी इस मामले में घसीट रहे हैं...हा हा हाहा..( गब्बर वाली हंसी ) अच्छा अगली बार तक के लिये ..खुदा हाफ़िज़..
thakur saahab ki dhilaai ka nateeja thi ,wo lalten ,jaise hi door se aate dikhti jai apna mouth organ bajaane lagte .
to wo un donon ki baat thi ............
thakur saahab ki hi galti thi.
kaayal the hum us kaaynaat ke
khilte the jab(jisme) phool hayaat ke .
sijde bhi me jo naam pukaarte
mera the
kaayal kyon n hum ho unke deewanepan ke .
v.d
gabaar ko sabaashi mlegi to khush hoga ,nahi to ...........
bahut naainsaafi hai shanno ji basanti ka role to aap kar hi rahi hain ,to pooja ko kaaliya bana denge .
नीलम जी,
आपके इस शेर का ज़िक्र अगले पोस्ट में नहीं हो सकता...क्योंकि आपने समय-सीमा पार कर ली है..
हाँ, यहाँ पर शाबाशी दिए देता हूँ :)
आगे से यह ध्यान रखियेगा कि किसी भी पोस्ट पर शेर उस आलेख के पोस्ट होने के ६ दिन के अंदर हीं डालें नहीं तो वह शेर अगली कड़ी में उल्लेखित नहीं हो पाएगा।
धन्यवाद,
विश्व दीपक
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