महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७८
देखते -देखते हम चचा ग़ालिब को समर्पित आठवीं कड़ी के दर पर आ चुके हैं। हमने पहली कड़ी में आपसे जो वादा किया था कि हम इस पूरी श्रृंखला में उन बातों का ज़िक्र नहीं करेंगे जो अमूमन हर किसी आलेख में दिख जाता है, जैसे कि ग़ालिब कहाँ के रहने वाले थे, उनका पालन-पोषण कैसे हुआ.. वगैरह-वगैरह.. तो हमें इस बात की खुशी है कि पिछली सात कड़ियों में हम उस वादे पर अडिग रहे। यकीन मानिए.. आज की कड़ी में भी आपको उन बातों का नामो-निशान नहीं मिलेगा। ऐसा कतई नहीं है कि हम ग़ालिब की जीवनी नहीं देना चाह्ते... जीवनी देने में हमें बेहद खुशी महसूस होगी, लेकिन आप सब जानते हैं कि हमारी महफ़िल का वसूल रहा है- महफ़िल में आए कद्रदानों को नई जानकारियों से मालामाल करना, ना कि उन बातों को दुहराना जो हर गली-नुक्कड़ पर लोगों की बातचीत का हिस्सा होती है। और यही वज़ह है कि हम ग़ालिब का "बायोडाटा" आपके सामने रखने से कतराते हैं।
चलिए..बहुत हुआ "अपने मुँह मियाँ-मिट्ठु" बनना.. अब थोड़ी काम की बातें कर ली जाएँ!! तो आज की कड़ी में हम ग़ालिब पर निदा फ़ाज़ली साहब के मन्त्वय और ग़ालिब की हीं किताब "दस्तंबू" से १८५७ के दौरान की घटनाओं के बारे में जानेंगे।
ग़ालिब के बारे में निदा साहब कहते हैं:
ग़ालिब अपने युग में आने वाले कई युगों के शायर थे, अपने युग में उन्हें इतना नहीं समझा गया जितना बाद के युगों में पहचाना गया. हर बड़े दिमाग़ की तरह वह भी अपने समकालीनों की आँखों से ओझल रहे.
भारतीय इतिहास में वह पहले शायर थे, जिन्हें सुनी-सुनाई की जगह अपनी देखी-दिखाई को शायरी का मैयार बनाया, देखी-दिखाई से संत कवि कबीर दास का नाम ज़हन में आता है- तू लिखता है कागद लेखी, मैं आँखन की देखी. लेकिन कबीर की आँखन देखी और ग़ालिब की देखी-दिखाई में थोड़ा अंतर भी है. कबीर सर पर आसमान रखकर धरती वालों से लड़ते थे और आखिरी मुगल के दौर के मिर्ज़ा ग़ालिब दोनों से झगड़ते थे, इसी लिए सुनने और पढ़ने वाले उनसे नाराज़ रहते थे. लालकिले के एक मुशायरे में, ख़ुद उनके सामने उनपर व्यंग किया गया.
कलामे मीर समझे या कलामे मीरज़ा समझे
मगर इनका कहा यह आप समझें या ख़ुदा समझे
मीर और मीरज़ा से व्यंगकार की मुशद ग़ालिब से पहले के शायर मीर तकीमीर और मीरज़ा मुहम्मद रफ़ी सौदा थी. ग़ालिब को इस व्यंग्य ने परेशान नहीं किया. उन्होंने इसके जवाब में ऐलान किया:
न सताइश (प्रशंसा) की तमन्ना, न सिले की परवाह
गर नहीं है मेरे अशआर में मानी (अर्थ) न सही (हमारे हिसाब से यह शेर इस महफ़िल में अब तक तीन बार उद्धृत किया जा चुका है.. लेकिन क्या करें, शेर है हीं कुछ ऐसा कि हर कोई इसे याद कर जाता है)
मिर्ज़ा ग़ालिब का यह आत्मविश्वास उनकी महानता की पहचान है.
ग़ालिब शब्दों और भावों से खेलना बखूबी जानते हैं, तभी तो जहाँ एक ओर यह कहे जाने पर कि उनके शेरों में कोई अर्थ नहीं होता, उन्हें अपने बचाव में जवाब देना पड़ता है वहीं दूसरी ओर वे खुलेआम इस बात को कुबूल करते हैं कि उनके खत (जो उन्होंने अपनी माशूका को लिखे है) बे-मायने होते हैं। यह ग़ालिब की कला नहीं तो और क्या है:
ख़त लिखेंगे, गर्चे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के
ये तो सभी जानते हैं कि १८५७ के गदर ने ग़ालिब पर खासा असर किया था। कुछ लोग इस गलतफ़हमी के शिकार हैं कि ग़ालिब ने उस दौरान अंग्रेजों का पक्ष लिया था। इसी बात को गलत साबित करने के लिए मशहूर शायर मख़मूर सईदी ने ग़ालिब की किताब ‘दस्तंबू’ और उनके खतों के हवाले से १८५७ की कहानी को ब्यान किया है. इस किताब की भूमिका में उन्होंने ‘दस्तंबू’ के हवाले से ग़ालिब पर की जाने वाली आलोचनाओं का जवाब और जवाज़ (औचित्य) पेश किया है। (सौजन्य: मिर्ज़ा बेग़.. अहदनामा ब्लाग से):
दस्तंबू में लिखी कुछ घटनाओं के आधार पर कुछ लोगों ने ग़ालिब पर अंग्रेज़-दोस्ती का इल्ज़ाम लगाया है लेकिन जिस चीज़ को लोगों ने अंग्रेज़-दोस्ती का नाम दिया है वह दरअसल मिरज़ा ग़ालिब की इंसान-दोस्ती थी. बाग़ी भड़के हुए थे इस लिए बहुत से बेगुनाह अंग्रेज़ मर्द औरतें भी उनके ग़ुस्से का निशाना बने. मिर्ज़ा ग़ालिब ने उन बेगुनाहों के मारे जाने पर दुख प्रकट किया लेकिन उन्होंने उस दुख पर भी परदा नहीं डाला जो अंग्रेज़ों की तरफ़ से बेक़सूर हिंदुस्तानी नागरिकों पर ढ़ाए गए.
११ मई १८५७ से ३१ जुलाई १८५८ की घटनाओं पर आधारित "दस्तंबू" में ग़ालिब ने अपने गद्य का झंडा गाड़ने का दावा भी किया है और कहा है कि यह किताब पुरानी फ़ारसी में लिखी गई है और इसमें एक शब्द भी अरबी भाषा का नहीं आने दिया गया है सिवाए लोगों के नामों के क्योंकि उन को बदला नहीं जा सकता था. उन्होंने इसका नाम ‘दस्तंबू’ इस लिए रखा है कि यह लोगों में हाथों हाथ ली जाएगी जैसा कि उस ज़माने में बड़े लोग ताज़गी और ख़ुशबू के लिए दस्तंबू अपने हाथों में रखा करते थे.
ग़ालिब के नज़दीक पीर यानी सोमवार का दिन बड़ा मनहूस है, बाग़ी सोमवार को ही दिल्ली में दाख़िल हुए थे, सोमवार के दिन ही उनकी हार शुरू हुई थी, जब गोरे सिपाही ग़ालिब को पकड़ कर ले गए वह भी सोमवार था और फिर जिस दिन ग़ालिब के भाई का देहांत हुआ वह भी सोमवार था. ग़ालिब ने इस बारे में लिखा है : “१९ अक्तूबर को वही सोमवार का दिन जिसका नाम सपताह के दिनों कि सूचि में से काट देना चाहिए एक सांस में आग उगलने वाले सांप की तरह दुनिया को निगल गया”
ग़ालिब ने अंग्रेज़ अफ़्सरों और फ़ौजियों की रक्तपाति प्रतिक्रिया पर पर्दा नहीं डाला और साफ़ साफ़ लिख गए:
“शाहज़ादों के बारे में इससे अधिक नहीं कहा जा सकता कि कुछ बंदूक़ की गोली का ज़ख़्म खा कर मौत के मुंह में चले गए और कुछ की आत्मा फांसी के फंदे में ठिठुर कर रह गई. कुछ क़ैदख़ानों में हैं और कुछ दर-बदर भटक रहे हैं. बूढ़े कमज़ोर बादशाह पर जो क़िले में नज़र बंद हैं मुक़दमा चल रहा है. झझ्झर और बल्लभगढ़ के ज़मीनदारों और फ़र्रुख़ाबाद के हाकिमों को अलग-अलग विभिन्न दिनों में फांसी पर लटका दिया गया. इस प्रकार हलाक किया गया कि कोई नहीं कह सकता कि ख़ून बहाया गया.... जानना चाहिए कि इस शहर में क़ैदख़ाना शहर से बाहर है और हवालात शहर के अंदर, उन दोनों जगहों में इस क़दर आदमियों को जमा कर दिया गया कि मालूम पड़ता है कि एक दूसरे में समाए हुए हैं. उन दोनों क़ैदख़ानों के उन क़ैदियों की संख्या को जिन्हें विभिन्न समय में फांसी दी गई यमराज ही जानता है...”
मीर मेहदी के नाम लिखे ख़त में ग़ालिब लिखते हैं. “क़ारी का कुआं बंद हो गया. लाल डुगी के कुएं एक साथ खारे हो गए. ख़ैर खारा पानी ही पीते, गर्म पानी निकलता है. परसों मैं सवार होकर कुएं का हाल मालूम करने गया था. जामा मस्जिद से राज घाट के दरवाज़े तक बे-मुबालग़ा (बिना अतिश्योक्ति) एक ब्याबान रेगिस्तान है... याद करो मिर्ज़ा गौहर के बाग़ीचे के उस तरफ़ को बांस गड़ा था अब वह बाग़ीचे के सेहन के बराबर हो गया है.... पंजाबी कटरा, धोबी कटरा, रामजी गंज, सआदत ख़ां का कटरा, जरनैल की बीबी की हवेली, रामजी दास गोदाम वाले के मकानात, साहब राम का बाग़ और हवेली उनमें से किसी का पता नहीं चलता. संक्षेप में शहर रेगिस्तान हो गया.... ऐ बन्दा-ए-ख़ुदा उर्दू बाज़ार न रहा, उर्दू कहां, दिल्ली कहां? वल्लाह अब शहर नहीं है, कैम्प है, छावनी है. न क़िला, न शहर, न बाज़ार, न नहर.”
एक और ख़त में लिखते हैं. “भाई क्या पूछते हो, क्या लिखूं ? दिल्ली की हस्ती कई जश्नों पर थी. क़िले, चांदनी चौक, हर रोज़ का बाज़ार जामा मस्जिद, हर हफ़्ते सैर जमना के पुल की, हर साल मेला फूल वालों का, ये पांचों बातें अब नहीं. फिर कहो दिल्ली कहां....?”
कुछ खुशियाँ, कुछ मज़ाक, कुछ हँसी-ठिठोली और बहुत सारी ग़म की बातों के बाद अब वक्त है आज की गज़ल से रूबरू होने का। आज हम जो गज़ल आपके सामने लेकर आए हैं, उसमें भी ग़ालिब के ज़ख्मों का ज़िक्र है, इसलिए यह कह नहीं सकता कि लुत्फ़ उठाईये। हाँ इस बात की दरख्वास्त कर सकता हूँ कि "निघत अक़बर" जी ने अपनी आवाज़ के माध्यम से जिस दर्द को जीने की कोशिश की है, उस दर्द का एक छोटा-सा हिस्सा आप भी अपनी नसों में उतार लीजिये। दर्द उतरेगा तो सीसे की तरफ़ चुभेगा ज़रूर लेकिन आपको इस बात का फ़ख्र होगा कि आपने ग़ालिब के ग़मों पे अपनी गलबहियाँ डाली हैं। (कुछ ज्यादा हीं हो गया ना :) क्या कीजियेगा ..मेरी बोलने की आदत नहीं जाती, इसलिए आप अगर मुझसे छुटकारा चाहते हैं तो तुरंत हीं गज़ल सुनने में तल्लीन हो जाएँ) तो आपके सामने पेश-ए-खिदमत है यह गज़ल:
तस्कीं को हम न रोएं, जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले
हूरान-ए-ख़ुल्द में तेरी सूरत मगर मिले
अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल
मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यों तेरा घर मिले
तुमसे तो कुछ कलाम नहीं, लेकिन ऐ ___
मेरा सलाम कहियो, अगर नामाबर मिले
ऐ साकिनान-ए-कुचा-ए-दिलदार देखना
तुमको कहीं जो ग़ालिब-ए-आशुफ़्ता-सर मिले
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "तबाही" और शेर कुछ यूँ था-
तुम से बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला
इसमें कुछ शाइबा-ए-ख़ूबी-ए-तक़दीर भी था
सही शब्द पहचान कर महफ़िल में पहला कदम रखा "सीमा" जी ने। सीमा जी.. ये रहे आपके तुनीर के तीर:
ज़िक्र जब होगा मुहब्बत में तबाही का कहीं
याद हम आयेंगे दुनिया को हवालों की तरह (सुदर्शन फ़ाकिर)
जो हमने दास्तां अपनी सुनाई आप क्यूं रोए
तबाही तो हमारे दिल पे आई आप क्यूं रोए (राजा मेहंदी अली खान)
सजीव जी, मनीष जी का आशीर्वाद मुझ तक पहुचाने के लिए आपका तहे-दिल से आभार। अब आप मेरे भी नामाबर हो जाईये और मेरी तरफ़ से धन्यवाद-ज्ञापन कर आईये... क्या कहते हैं? :)
शरद जी, क्या बात कह दी आपने! दिल में एक टीस-सी उभर आई...
मुझे तो अपनी तबाही की कोई फ़िक्र नहीं
यही ख्वाहिश है ये इल्ज़ाम तुम पे आए नहीं। (स्वरचित)
मंजु जी, इन आतंकियों के सामने हर चेतावनी छोटी पड़ जाती है, फिर भी इन्हें इनकी औकात तो बताई जानी चाहिए। शब्द अच्छे हैं, आपने अगर इन्हें सही से संवारा होता तो हमारे सामने एक मुकम्मल शेर होता। इसलिए शेर के बजाय मैं इसे छंद हीं कहूँगा:
अरे आतंकी !मत दिखा मेरे मुल्क में तबाही का मंजर ,
तेरे को खत्म करने के लिए आएगा कोई राम -कृष्ण -गाँधी बन कर .(स्वरचित )
नीलम जी, एक शेर तो आपने पेश किया. आपसे हमें और भी शेरों की दरकार है। खैर तब तक के लिए यही सही:
जब से हम तबाह हो गए ,
तुम जहाँपनाह हो गए
एक और बात...आपको अगर शायरी सीखनी हो तो "सुबीर संवाद सेवा" पर हमारे गुरू जी "पंकज सुबीर" की कक्षा में दाखिला ले लें। बहुत फ़ायदा होगा।
शन्नो जी, किस बात का दु:ख है आपको... हँसिए, मुस्कुराईये और महफ़िल में माहौल बनाईये। वैसे ये शेर तो बड़ा हीं वज़नदार रहा:
किसी रकीब ने भी कुछ कहा अगर तो उसे वाह-वाही मिली
हमने जो जहमत उठाई कुछ कहने की तो हमें तबाही मिली
सुमित जी, ऐसे नहीं चलेगा। आप कुछ देर के लिए आते हैं और वही शेर कह जाते हैं जो सीमा जी ने कहा है। शेर कहने से पहले बाकी की टिप्पणियों पर भी तो नज़र दौड़ा लिया करें। :)
अवनींद्र जी, हमारी महफ़िल अच्छे शेरों और गुणी शायरों का कद्र करना जानती है। और इस नाते हमारी नज़रों में आपका कद बेहद ऊँचा है। आपको पढकर लगता है कि लिखने से पहले आप दिल को मथ डालते हैं। हैं ना? ये रहे प्रमाण:
एहसास जब सीने मैं तबाह होता हैं
अश्क तेरी चाहत का गवाह होता है
उसने अपनी तबाही मैं मुझे शामिल ना किया
क्या ये सबब कम हे मेरी तबाही के लिए?
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
17 श्रोताओं का कहना है :
सही शब्द है : नदीम
खंज़र को भी नदीम समझ कर के एक दिन
हाथों से थाम कर उसे दिल से लगा लिया ।
(स्वरचित)
ये जो चार दिन के नदीम हैं इन्हे क्या ’फ़राज़’ कोई कहे
वो मोहब्बतें, वो शिकायतें, मुझे जिससे थी, वो कोई और है.
(अहमद फ़राज़ )
मरूँ तो मैं किसी चेहरे में रंग भर जाऊँ|
नदीम! काश यही एक काम कर जाऊँ|
(अहमद नदीम क़ासमी )
regards
ख़त लिखेंगे, गर्चे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के
..... Sundar prastuti ke liya dhanyavaad.....
शरद जी वाह मज़ा आ गया क्या खूब लिखा है आपने अब तो जब महफ़िल की शुरुआत ही ऐसी है तो अंजाम क्या होगा मज़ा आयेगा अबकी बार
गब्बर साहिबा क्या हाल हैं आपके आजकल काफी व्यस्त हैं आप ! ये बसंती अपने आपको बसंती नहीं मान रहीं हैं ! आप और हम यानी ठाकुर और गब्बर दो लोग तो शूटिंग कैसे कर पाएंगे ,,?
बाकी किरदार का इंतज़ाम कीजिये नहीं तो फिल्म हाथ से गयी समझो ! चलिए टूटे मन और टूटे हाथों से आज का शेर तो लिख दूं
तुझे टूट कर चाहने का ये सिला मिला नदीम
घाहते सिसकती रहीं और... हम टूटते रहे .........!(स्वरचित )
अवे निन्द्र जी, मतलब ठाकुर जी, hello ! it's good to see you...chirping happily :) आपके शेर तो..सुभान अल्लाह ! शरद और सीमा जी तो हैं ही शेरों में माहिर..पर आप भी..वाह ! वाह ! वैसे ये बसंती कौन हैं..? किसकी तरफ इशारा है..हमें तो आपने रामू बनाया था..तो हम तो निभा रहे हैं अपना रोल..है की नहीं ? हम बिना मतलब की ऊट-पटांग बातें करते रहते हैं..तो फिर आप ही डबल रोल कर लीजिये या हमरी गब्बर जी से पूछें की वो अगर दिलचस्पी रखती हों इस रोल में..हा हा हा.. लगता है की नीलम जी ने अपने कानों में रुई लगा ली है..क्योंकि उन्हें अब तक ' आवाज़ ' ही नहीं सुनाई दी किसी की :) अब ऊट-पटांग की बात चली तो हमें अपना ये शेर याद आ गया जो हम साथ में लिख कर लाये हैं..
यहाँ कोई नदीम नहीं किसी का
ये दुनियां तो है बस अदाकारी की
कोई मरता या जीता है बला से
सबको पड़ी है बस कलाकारी की.
-शन्नो
अब यहाँ से खिसकने का टाइम हो गया हमारा...खुदा हाफिज़
सॉरी ! तन्हा जी, नाराज़ न होना प्लीज़..मैं भूल गयी थी बताना की मैंने आपकी पेश की हुई ग़जल भी सुन ली है..बहुत अच्छी लगी...शुक्रिया. :)
अरे...ये क्या इस महफ़िल का आलम तो बड़ा सूना-सूना सा है, भई..क्या हो गया?..लगता है की बस हम ही चले आत हैं जब देखो तब..तमाम और लोगों को क्या हो गया है..कहाँ छिपे हैं सब ? :) खैर, चलो हम आये हैं यहाँ तो फिर कम से कम अपना शेर तो पढ़ ही दें :
दिल की कीमत लगाना इबादत नहीं होती
किसी पे इलज़ाम लगाना शराफत नहीं होती
न वोह नदीम ही क़यामत तक साथ होता है
जिसकी इरादत में कोई मतानत नहीं होती.
-शन्नो
अब हम भी चलते बनें...खुदा हाफिज़..
यहाँ तो अब कोई भी नज़र नहीं आ रहा शन्नो जी बस एक आप ही हैं जो इस ठाकुर की स्टोरी मैं कुछ एक्ट कर रही हैं अब आप और हम बस दो जने तो फिल्म शूट नहीं कर पाएंगे सो इस फिल्म को डब्बे मैं डाल देते हैं !!महफ़िल ऐ ग़ज़ल दो आदमी से तो नहीं चल पायेगी .क्या कहना है आपका ? अरे भाई किसी को तो बुलाओ कोई तो सुन लो भाई हमारे शेर बड़ा ज़ालिम वक़्त आ गया है लगता है हमारे शेरोन मैं जान नहीं ! चलिए हम तो फ़िर भी अपना फ़र्ज़ पूरा कर के ही दम लेंगे इन सबको आपकी और मेरी तरफ से एक शेर अर्ज़ है की
कभी तो आओगे मेरी कब्र पे फातिहा पढने ऐ नदीम
कफ़न बिछा के तुम्हे शायरी सुना देंगे ,पका देंगे रुला देंगे
ख़ुदा सब देखता है नीलम जी यूँ पहाड़ों मैं छुपने से कोई गब्बर नहीं बनता रामगढ आओ तो जाने रामगढ वालों के हाथों मैं अभी बहुत जान है
गाँव वालों गब्बर आ गया है ,गब्बर ससुरा नदीम को ढूंढ रहा था ,पर मिला ही नहीं कोई बात नहीं कब तक छुपेगा मिलही जाएगा ,पर आप लोग तो नदीम पर सायरी लिख रहे हो लिखो लिखो खूब लिखो ,गब्बर खुश हो जाएगा पर शन्नो जी गब्बर बहत नाराज है आपसे ,बाल -उद्यान काहे छोड़ दिया ,जरा घूम के आईये बीरबल बुला रहे हैं ....................और कहानी भी सुन ही लीजिये एक बार फिर से आजकल गब्बर कहानी सुनाता है भाई ,सायरी नहीं तो कहानी ही सही ,रामगढ़ वालों सब लोग कमेन्ट लिखो की कैसन लगी कहानी(काबुलीवाला ) और बीरबल की मसखरी .......................
नदीम श्रवण कहीं मिले तो भेज देना कहना की गब्बर बुला रहा है ,ठाकुर बहुत बोलने लगा है शोले को डिब्बे में बंद .................अरे ओ साम्भा ठाकुर को जरा संभालो तो
ठाकुर के हाथ में बहुत जान है ..........................................क्या चुटकुला सुनाया है गब्बर बहत खुश हुआ हा हा हा हा हा ह ह ह ह ह ह हा हा इसी क्रम से हसना है सबको
जवाब -नदीम
शेर अर्ज है -
गले लगाकर नदीम का रिश्ता आपने जो दिया ,
पूरा शहर इस रस्म का दीवाना हो गया .
(स्वरचित )
हेलो ! गब्बर नीलम जी...कभी-कभी आप बहुत जब्बर हो जाते..और कभी एक चूहे के माफिक वर्ताव करते...और आजकल ये क्या लफड़ा कर रहे हैं आप...ये नदीम को ढूंढते फिर रहे हैं..लेकिन नदीम के साथ में ये श्रवण भाई कौन हैं ? इनकी क्या तारीफ ? बहुत दिनों से आपके असिस्टेंट जग्गू..मेरा मतलब है की अपने सुमित जी...और यहाँ महफ़िल में आपको नदीम नाम का इस्तेमाल करना था किसी शेर में..चाहें तो तन्हा जी से पूछ लो...अगर लिखा हुआ समझ में नहीं आता :)...लेकिन इन दिनों अकबर और बीरबल की वजह से आपके दिमाग का पुर्जा लूज़ हो गया लगता है..एक तो रामगढ़ वापस आने में इतना टाइम फिर आकर अपने पागलपन की स्टोरी बताना..' हम तो नदीम भाई को ढूंढ रहे थे '... आपकी अदाकारी भी कमाल की है ! ठाकुर अवनींद्र भी आपके न आने पर दुखी हो जाते हैं...और हमें अच्छा लगा जानकर की आपके बाल-उद्यान में जहाँपनाह बीरबल हमें बुला रहे हैं :)..चलो फिर चलते हैं आपके साथ..लेकिन पहले हमारा ये शेर सुनना पड़ेगा आप सबको :
नदीम को इधर-उधर ढूँढने से फायदा न कोई
जो दिल को चुरा कर भाग जाये ये कायदा न कोई.
-शन्नो
चलिये नीलम जी..अब बीरबल जी की भी खबर लेते हैं..
shanno ji aapki koi galti nahi hai ,
aap bhaarat me jo nahi rahti hai.
"nadeem -shravan "sangeetkaar ki jodi hai hm unka hi jikr kar rahe the............par aapne to pataa nahi kya kya kha (bak)dala koi baat nahi gabbar ab bhi khush ha ,
bahut khush hua ...............
hahahahahahaahahahahahahahah
Neelam ji,...aapko to pata hai ki hamari bakne ki aadat hai yhan ' awaaz ' par...heeeheehe...ham majboor hain..aapse to ham informal hokar hi baat kar sakte hain, hai naa ? hame gabbar ki tareef mein batein karna bahut achcha lagta hai..ha ha ha...shravan ji ke baare mein mystery door karne ka shukria..
BYE..BYE..
गब्बर जी रामगढ आकर अपनी लाज बचने के लिए आप बधाई के पत्र हैं ! अब आप ही देखो यर बसंती को क्या हो गया है इसको अपरहण करोगे तो कोई वीरू फिरू नहीं आने वाला वो दो आदमी आपको कभी नहीं मिलेंगे क्यूंकि बसंती खुद आपकी फेन ही गयी है और ये क्या आप ने अबकी बार एक भी शेर नहीं लिखा गलत बात है ये इस महफ़िल के दस्तूर के खिलाफ हे तनहा जी को बुरा लगेगा
वो जा रहा है नदीम पीठ मैं खंज़र उतार कर
मेरा तड़पना उसको अच्छा ना लगा होगा ....!(स्वरचित )
वो नदीम था न खुदा था
पर वो मेरा क्या था???(टाय -टाय फिस्स)
नदीम नहीं न सही ,रकीब ही सही ,
बंदगी नहीं न सही ..... ही सही ,
mahfil ka dastor poora kiya v.d tmhaare liye kaam hai khaali jagah
me sahi shabd bharna hai .
गब्बर से सायरी लिख्वाओगे तो ये ही अंजाम भुगतना पड़ेगा रामगढ वालों
नीलम जी,
आप मुझे बहुत हँसाती हो...इतना की सीने में दर्द हो जाता है हँसते हुये..अब आपका लिखा ये वाला शेर जब देख ही लिया है तो बिना कुछ कहे हमें भी चैन नहीं पड़ रहा है...इसमें खाली जगह तो तन्हा जी को ही भरनी होगी..क्योंकि आपने उन्हें ही ये सजा दी है..मेरा मतलब है की ये परीक्षा उनको ही देनी है...लेकिन मैं अपनी तरफ से भी कुछ भर कर देखूं...इफ यू डोंट माइंड, प्लीज़...लेकिन पढ़ने के बाद हमारे लिखे हुये को इग्नोर कर देना...और तन्हा जी वाला उत्तर ही सही रखना...समझीं, आप ? बोलिये....ये खुदा..हा हा हा हा...मेरा हँसी के मारे बुरा हाल हो रहा है.
तो ये पहले वाला खाली है :
नदीम नहीं न सही ,रकीब ही सही ,
बंदगी नहीं न सही ..... ही सही ,
अब इसमें मैंने कुछ भर दिया है:
नदीम नहीं न सही ,रकीब ही सही ,
बंदगी नहीं न सही ''छूट'' ही सही ,
कैसा लगा ? मेहरबानी करके कुछ तो बतायें जरूर..हा हा ह्ह्ह्ह...
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)