ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 408/2010/108
आज 'पसंद अपनी अपनी' में हम जिन शख़्स के पसंद का गीत सुनने जा रहे हैं, वह इसी हिंद युग्म से जुड़े हुए हैं। आप सभी के अतिपरिचित विश्व दीपक 'तन्हा' जी। 'महफ़िल-ए-ग़ज़ल' शृंखला के लिए वो जो मेहनत करते हैं, वो मेहनत साफ़ झलकती है उनके आलेखों में, ग़ज़लों के चुनाव में। क्योंकि वो ख़ुद भी एक कवि हैं, शायद यही वजह है कि इन्हे यह गीत बहुत पसंद है - "मैं कहीं कवि ना बन जाऊँ तेरे प्यार में ऐ कविता"। रफ़ी साहब की आवाज़ में यह है फ़िल्म 'प्यार ही प्यार' का गीत, हसरत जयपुरी के बोल और शंकर जयकिशन का संगीत। दोस्तों, यह वह दौर था जब शैलेन्द्र जी हमसे बिछड़ चुके थे और केवल हसरत साहब ही शंकर जयकिशन के लिए गानें लिख रहे थे। १९६८-६९ से १९७१-७२ के बीच हसरत साहब, शंकर जयकिशन और रफ़ी साहब ने एक साथ कई फ़िल्मों में काम किया जैसे कि 'यकीन', 'पगला कहीं का', 'प्यार ही प्यार', 'दुनिया', 'तुमसे अच्छा कौन है', 'सच्चाई', 'शिकार', 'धरती', आदि। पहले शैलेन्द्र चले गए, फिर १९७२ में जयकिशन ने भी साथ छोड़ दिया। फ़िल्मी गीतों का मूड भी बदलने लगा। हर दौर का एक अंत होता है। सुनहरे दौर की इस टीम की भी अंत हो गई। भले ही हसरत और शंकर साहब काम करते रहे, लेकिन वो गुज़रा हुआ सुनहरा ज़माना फिर वापस नहीं आया कभी। 'प्यार ही प्यार' १९६९ की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन किया था भप्पी सोनी ने। धर्मेन्द्र और वैजयंतीमाला अभिनीत इस फ़िल्म के निर्माण किया था सतीश वागले ने और इसमें जयकिशन ने भी अपना धन लगाया था।
पंकज राग की किताब 'धुनों की यात्रा' में उन्होने लिखा है कि फ़िल्म निर्माता सतीश वागले ने अपने आलेख 'Jaikishan was Divinely Blessed' में जयकिशन के व्यक्तित्व की उदारता पर प्रकाश डाला है। वागले के अनुसार उनकी शादी का ४०-५० हज़ार का खर्च जयकिशन ने अपने सर सर पर ही लिया। उन्हे निर्माता बनने का श्रेय भी जयकिशन को जाता है। 'प्यार ही प्यार' के निर्माण के लिए जयकिशन ने भी धन लगाया, और इसी फ़िल्म के निर्माण के दौरान शंकर जयकिशन को पद्मश्री मिलने की घोषणा हुई। पुरस्कार लेने दिल्ली गए जयकिशन ओबेरॊय होटल में ठहरे थे, और वहीं उन्होने "मैं कहीं कवि ना बन जाऊँ" का मुखडा स्वयं लिखा था और उसकी धुन बनाई थी। उस समय के फ़िल्म वितरक (और राजश्री के जन्मदाता ताराचन्द बड़जात्या) को यह गीत पसंद नहीं आया था, पर जयकिशन इस गीत की सफलता के बारे में आश्वस्त थे। बड़जात्या को वर्षों पहले 'दाग' का "ऐ मेरे दिल कहीं और चल" भी पसंद नहीं आया था, और उस गीत ने लोकप्रियता के कई कीर्तिमान बनाए थे। "मैं कहीं कवि न बन जाऊँ" हालाँकि उतना स्तरीय नहीं था (पंकज राग के अनुसार), पर जयकिशन के दावे को सही करता हुआ यह गीत ख़ूब चला है। तो आइए विश्व दीपक 'तन्हा' जी के पसंद पर सुनते हैं रफ़ी साहब की रुमानीयत भरी अंदाज़ो आवाज़ में फ़िल्म 'प्यार ही प्यार' का यह गीत।
क्या आप जानते हैं...
कि जयकिशन को प्रारंभिक संगीत की शिक्षा बाड़ीलाल और प्रेमशंकर नायक से मिली, वलसाड़ ज़िले के बासंदा गाँव की प्रताप सिल्वर जुबिली गायनशाला में (जिसे आज जयकिशन के नाम पर कर दिया गया है)।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-
1. साहिर के लिखे इस गीत के संगीतकार बताएं -३ अंक.
2. इस गीत के दो संस्करण है, ये एक आशावादी वर्ज़न है, पहचानें - २ अंक.
3. यहाँ भी फिल्म के नाम में एक शब्द दो बार है, इस मल्टी स्टारर रोमांटिक फिल्म का नाम बताएं-२ अंक.
4. अमिताभ पर फिल्माए इस गीत के गायक कौन है -२ अंक.
विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।
पिछली पहेली का परिणाम-
जी शरद जी दरअसल इस फिल्म के शीर्षक गीत का हमें ख़याल ही नहीं रहा, बहरहाल दोनों जवाबों को सही मान लेते हैं, आप लोगों ने बहुत कम सूत्रों से भी गीत पहचान ही लिया, इंदु जी तो भाग गयी मैदान छोडकर हा हा हा
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
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5 श्रोताओं का कहना है :
संगीतकार है : खैयाम
कभी कभी
गायक: मुकेश
अवध लाल
इस गीत का पहला वर्ज़न :-
मैं पल दो पल का शायर हूँ ....
और दूसरा वर्ज़न है :-
मैं हर इक पल का शायर हूँ ..... !
इंदु जी,
मुझे आपके इतनी फ़िल्मों और फिल्मी गानों की जानकारी नहीं ,लेकिन मुझे इतना पता है कि यह गाना (मैं कहीं कवि न बन जाऊँ) किसी भी मामले में गोल्ड से कम नहीं है। यह आपकी व्यक्तिगत राय हो सकती है कि धर्मेन्द्र पर फिल्माए गए गाने ओल्ड न माने जाएँ, लेकिन कोई महफ़िल एक व्यक्ति के राय से तो नहीं चलती ना।
मुझे इसलिए जवाब देना पर रहा है क्योंकि यह गाना मेरी पसंद है, नहीं तो मैं ओल्ड इज गोल्ड पर टिप्पणियों से दूर हीं रहता हूँ।
वैसे गानों को खारिज करने से पहले कारण भी बता दिया करें। (क्योंकि आपने जो कारण बताया है.... प्यार में दिल पे मार के गोली ले ले मेरी जां.... यह पंक्ति इस गाने का हिस्सा नहीं)
मेरी बात बुरी लगे तो माफ़ कर दीजिएगा... लेकिन हाँ जवाब जरूर दीजिएगा क्योंकि मुझे जवाब जानने का हक़ है।
धन्यवाद,
विश्व दीपक
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