रेडियो प्लेबैक वार्षिक टॉप टेन - क्रिसमस और नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित


ComScore
प्लेबैक की टीम और श्रोताओं द्वारा चुने गए वर्ष के टॉप १० गीतों को सुनिए एक के बाद एक. इन गीतों के आलावा भी कुछ गीतों का जिक्र जरूरी है, जो इन टॉप १० गीतों को जबरदस्त टक्कर देने में कामियाब रहे. ये हैं - "धिन का चिका (रेड्डी)", "ऊह ला ला (द डर्टी पिक्चर)", "छम्मक छल्लो (आर ए वन)", "हर घर के कोने में (मेमोरीस इन मार्च)", "चढा दे रंग (यमला पगला दीवाना)", "बोझिल से (आई ऍम)", "लाईफ बहुत सिंपल है (स्टैनले का डब्बा)", और "फकीरा (साउंड ट्रेक)". इन सभी गीतों के रचनाकारों को भी प्लेबैक इंडिया की बधाईयां

Saturday, October 9, 2010

एक निवेदन - सहयोग करें "द रिटर्न ऑफ आलम आरा" प्रोजेक्ट को कामियाब बनाने में



हिंद-युग्म' ने हिंदी की पहली फ़िल्मी गीत "दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे" को हाल ही में रिवाइव किया है, जिसे आप सब ने पसंद भी किया। अब तक हम यही सोचते थे कि इस गीत की मूल धुन विलुप्त हो चुकी है। लेकिन हमारे एक साथी श्री दुष्यन्त कुमार चतुर्वेदी ने हमारा ध्यान १९८२ में दूरदर्शन द्वारा प्रसारित हरिहरण के गाये इस गीत के एक संस्करण की ओर आकृष्ट करवाया, और यही धुन इस गीत का मूल धुन है। मुखड़े की दूसरी पंक्ति के बोल, जो हमने 'लिस्नर्स बुलेटिन' से प्राप्त की थी, असल में कुछ और है। पूरा मुखड़ा कुछ इस तरह का है - "दे दे ख़ुदा के नाम से प्यारे ताक़त है कुछ देने की, कुछ चाहिए अगर तो माँग ले उससे हिम्मत है गर लेने की"।

हरिहरण के गाये इस गीत को आईये आज आप भी सुनें-



इसी तरह जुबैदा जी जिन्होंने आलम आरा में गीत गाये थे, उन्होंने भी अपने गाये एक गीत की धुन इसी कार्यक्रम के लिए गाकर सुनाई थी, मगर अफ़सोस कि उन्हें भी सिर्फ मुखड़े की धुन ही याद है, लीजिए इसे भी सुनिए, उन्हीं की आवाज़ में



आलम आरा के गीतों का नष्ट हो जाना एक बड़ा नुक्सान है, दूरदर्शन की इसकी सुध १९८१ में आई जब बोलती फिल्मों ने भारत में अपने ५० वर्ष पूरे किये. चूँकि इसी फिल्म से फिल्म संगीत हमारे जीवन में आया था इस कारण इस फिल्म के गीत संगीत की अहमियत और भी बढ़ जाती है. १९८१ से २०१० तक देश कई बड़े परिवर्तनों से गुजर चुका है, ऐसे में आज की पीढ़ी अगर इस एतिहासिक फिल्म के गीत संगीत को भुला चुकी हो तो कोई आश्चर्य नहीं. हिंद युग्म ने एक बड़ी कोशिश की आज के संगीत्कार्मियों के माध्यम से उस पहले गीत को पुनर्जीवित करने की. याद रहे तब हम मूल धुन से अनजान थे. पर हमें गर्व है २२ वर्षीया कृष्ण राज ने जिस प्रकार इस गीत को नया जामा पहनाया है, उससे एक बार फिर उम्मीदें जगी हैं. बहुत से श्रोताओं ने हमारे इस प्रयास को सराहा है, चलिए एक बार फिर सुनते हैं २०१० का ये संस्करण- दे दे खुदा के नाम पर....



"पहला सुर", "काव्यनाद" और "सुनो कहानी" की सफलता से प्रेरित होकर हिंद युग्म का ये आवाज़ मंच आज एक बार फिर एक ख्वाब देखने की गुस्ताखी कर रहा है. आलम आरे फिल्म के सभी ६ गीत इसी तरह पुनर्जीवित करें, और साथ में इन मूल धुनों को भी (जो ऊपर सुनवाई गयी हैं) विस्तरित कर कुल ८ गीतों की एक एल्बम रची जाए. १४ मार्च २०११ को ये एतिहासिक फिल्म अपने प्रदर्शन के ८० वर्ष पूरे कर लेगी, इस अवसर पर हम इसे रीलिस करें, तो संगीत जगत के लिए एक अनमोल तोहफा होगा, ऐसा हमारा मानना है. पर इस महान कार्य को अंजाम तक पहुँचाने में हमें आप सब सुधि श्रोताओं के रचनात्मक और आर्थिक सहयोग की अवश्यकता रहेगी...

आप में से जो भी इस महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट से जुड़ने में रूचि रखें हमसे oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं. आपके निवेश से आपको पर्याप्त आर्थिक और सामाजिक लाभ मिले इसकी भी पूरी कोशिश रहेगी. पूरे प्रकरण में हर तरह की पारदर्शिता रखी जायेगी इस बात का भी हम विश्वास देते हैं. आपके सुझाओं, मार्गदर्शन और सहयोग की हमें प्रतीक्षा रहेगी.

फेसबुक-श्रोता यहाँ टिप्पणी करें
अन्य पाठक नीचे के लिंक से टिप्पणी करें-

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

4 श्रोताओं का कहना है :

अश्विनी रॉय 'प्रखर' का कहना है कि -

“दि रिटरन ऑफ आलम आरा” एक महत्वपूर्ण परियोजना है. इसमें हिन्दयुग्म के सभी पाठक क्या एक शेयर धारक के रूप में भी जुड सकते हैं? यदि हाँ तो प्रत्येक को कितने रुपये की न्यूनतम राशि का सहयोग देना होगा? जो लोग अधिक देना चाहें वे अधिक संख्या में निवेश कर सकते हैं. यह कंपनी कि तरह तो नहीं होगा परन्तु एक सामाजिक कार्य की तरह की सहभागिता संभव हो सकती है. क्या आपने इस कार्य हेतु कोई रूप रेखा बनाई है? अश्विनी कुमार रॉय

शरद तैलंग का कहना है कि -

दूरदर्शन पर जब ये कार्यक्रम ’गीतों का सफ़र’ प्रसारित हुआ था जिसे शबाना आज़मी ने कम्पेयर किया था को मैनें भी पूरा टेप किया था । आलमआरा के गीत दे दे खुदा.. प्रोजेक्ट के समय मैनें भी उस कैसेट को खोजने की कोशिश की थी किन्तु कहीं रखने में आ गया उसमें बहुत से ऐसे गीत है । दुष्यन्त जी ने मुश्किल आसान कर दी । एक और मेरा विचार ’द रिटर्न ऒफ़ आलमआरा’ में ’दे दे खुदा के नाम से प्यारे’ की इस गीत की जो संगीत रचना की गई है वह काबिले तारीफ़ तो है किन्तु मुझे उसमे फ़कीराना अन्दाज़ कम तथा आधुनिक संगीत का पुट अधिक दिखाई देता है । पहले फ़कीर मात्र एक इकतारे पर ही अपना मन्तव्य प्रकट कर देते थे । यह सिर्फ़ मेरा विचार है आवश्यक नहीं कि इससे सभी सहमत हों ।

सजीव सारथी का कहना है कि -

@ अश्वनी जी, योजना ये है कि हर गीत को हम एक प्रतियोगिता की तरह चलायेंगें. जिसमें एक पुरस्कार राशि होगी जो ५००० से ७००० के बीच होगी. इससे हमें एक श्रेष्ठ प्रविष्ठी प्राप्त हो पायेगी. जब सभी गीत बन जायेंगें तो फिर उन्हें सम्पादित कर एल्बम की शक्ल दी जायेगी जिसमें १५ से २० हज़ार का खर्चा आएगा. हमें सहयोग चाहिए इन गीतों को स्पोंसर करने के लिए, यानी कोई एक व्यक्ति या समूह एक गीत की पुरस्कार राशि का जिम्मा उठा सके. यदि ये सब संभव हो पाया तो हर ५००० के निवेश के बदले हम उन्हें १०० सी डी देंगें (५० र प्रति), जबकि सी डी की वास्तविक कीमत होगी १०० रुपयें. अब अमुख व्यक्ति उस सी डी या तो स्वयं बेच कर दुगना (निवेश का) अर्जित कर सकता है, या फिर हमारे माध्यम से (पुस्तक मेले आदि) में उन्हें बेच कर ये राशि प्राप्त कर सकता है

सजीव सारथी का कहना है कि -

शरद जी, मैं भी सहमत हूँ आपसे, कि कहीं वो फकीरी वाला तत्व मिस्सिंग है, पर फिर भी ये गीत हमें प्राप्त प्रविष्टियों से श्रेष्ठ लगा क्योंकि ये आज कल के सूफी अंदाज़ गीतों जैसा था. वैसे जैसा कि हमने लिखा है कि एक मूल संस्करण को भी नयी आवाज़ में पेश करेंगें तो कंट्रास्ट अच्छा रहेगा....आने वाले प्रतियोगिताओं में निवेश कर्ताओं को भी चुनाव का मौका मिलेगा, क्योंकि मेरे ख्याल से जो व्यक्ति स्पोंसर कर रहा है उसके मत का भी मान रखा जाना चाहिए....

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

संग्रहालय

25 नई सुरांगिनियाँ