रेडियो प्लेबैक वार्षिक टॉप टेन - क्रिसमस और नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित


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प्लेबैक की टीम और श्रोताओं द्वारा चुने गए वर्ष के टॉप १० गीतों को सुनिए एक के बाद एक. इन गीतों के आलावा भी कुछ गीतों का जिक्र जरूरी है, जो इन टॉप १० गीतों को जबरदस्त टक्कर देने में कामियाब रहे. ये हैं - "धिन का चिका (रेड्डी)", "ऊह ला ला (द डर्टी पिक्चर)", "छम्मक छल्लो (आर ए वन)", "हर घर के कोने में (मेमोरीस इन मार्च)", "चढा दे रंग (यमला पगला दीवाना)", "बोझिल से (आई ऍम)", "लाईफ बहुत सिंपल है (स्टैनले का डब्बा)", और "फकीरा (साउंड ट्रेक)". इन सभी गीतों के रचनाकारों को भी प्लेबैक इंडिया की बधाईयां

Sunday, December 9, 2007

तरबूज का भूत



पिछले महीने हिन्द-युग्म ने उद्‌घोषणा की थी कि जल्द ही प्रो॰ राजीव शर्मा की आवाज में उन्हीं की व्यंग्य कविताएँ पॉडकास्ट की जायेंगी। आज हम पहली व्यंग्य कविता लेकर हाज़िर हैं।

विपुल शुक्ला के सहयोग से प्रो॰ राजीव शर्मा की व्यंग्य रचना 'तरबूज का भूत' हम तक पहुँच सका है।

नीचे ले प्लेयर से सुनें और ज़रूर बतायें कि कैसा लगा?

(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)



यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल तीन अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)

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64Kbps MP3
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7 श्रोताओं का कहना है :

रंजना [रंजू भाटिया] का कहना है कि -

बहुत सही और सुंदर लगा यह व्यंग ,.सुनने में इसको बहुत ही मज़ा आया
आगे भी आपकी आवाज़ में और सुनने को मिलेगा राजीव जी ...
इसी शुभकामना के साथ
रंजू

अल्पना वर्मा का कहना है कि -

kaafi koshish karne ke baad bhi link active nahin ho raha hai-kya karaan ho sakta hai??

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

अल्पना जी,

आपके सिस्टम पर फ्लैश प्लेयर का कौन का संस्करण (Version) है? मैंने कई जगह चेक कराया, हर जगह ठीक चल रहा है। यदि आपके पास IE के अलावा Mozilla हो तो उसमें भी ट्राई कीजिए

सजीव सारथी का कहना है कि -

वाह बढ़िया व्यंग और गहरा भी sataire सा .... आपका अंदाज़ भी अच्छा लगा, पर आवाज़ बहुत धीमी आई है, कुछ background में संगीत आदि भी होता तो और एफ्फेक्ट आ जाता

श्रीकान्त मिश्र ’कान्त’ का कहना है कि -

बहुत अच्छा व्यंग्य सुनकर आनंद आ गया ....

अल्पना वर्मा का कहना है कि -

* शुरू में आवाज़ धीमी है.
*बहुत ही संवेदनशील कविता ---
'बेरोजगारी के कारण एक ईमानदार युवा का ऐसा अंत जानकर दुःख होता है.
**और आज के समाज पर सही कटाक्ष किया गया है.
जहाँ कितनी ही प्रतिभाएं सिफारिशी लोगों की भेंट चढ़ गयी हैं.

अल्पना वर्मा का कहना है कि -

एक सुझाव है--इस कहानी का शीर्षक तरबूज का भूत नहीं होना चाहिये था-क्योंकि एक बहुत ही गंभीर विषय को लेकर इस कहानी की रचना हुई है.तरबूज का भूत मुझे किसी बाल कथा का शीर्षक लगता रहा जब तक मैंने पूरी कहानी नहीं सुन ली.

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