आवाज़ पर आज का दिन समर्पित रहा, अजीम फनकार मोहमद रफी साहब के नाम, संजय भाई ने सुबह वसंत देसाई की बात याद दिलाई थी, वे कहते थे " रफ़ी साहब कोई सामान्य इंसान नही थे...वह तो एक शापित गंधर्व था जो किसी मामूली सी ग़लती का पश्चाताप करने इस मृत्युलोक में आ गया." बात रूपक में कही गई है लेकिन रफ़ी साहब की शख़्सियत पर एकदम फ़बती है.( पूरा पढ़ें ...)
मोहम्मद रफी, ऐतिहासिक हिन्दी सिनेमा जगत का एक ऐसा स्तम्भ जो आज भी संगीत प्रेमियों के दिल पर अमिट छाप बनाये है, जिनकी सुरीली अद्वितीय आवाज हर रोज हमें दीवाना करती है और जिन्होंने करीब पैंतीस सालों में अपनी अतुलनीय आवाज में मधुर गीतों का एक बड़ा अम्बार हमारे लिये छोड़ा । रफी जी की आवाज एक ऐसी आवाज, जिसने दुःख भरे नगमों से लेकर धूम-धड़ाके वाले मस्ती भरे गीतों सभी को एक बहतरीन गायकी के साथ निभाया, यूँ तो बहुत से नये गायक कलाकारों द्वारा रफी जी की आवाज को नकल करने की कोशिश की गयी और उनको सराहा भी गया परंतु कोई भी मोहम्मद रफी के उस जादू को नही ला सका; शायद कोई कर भी न सके । पुरजोर कोशिशों के बावजूद कोई भी ऐसा गायक रफी साहब की केवल एक-आध आवाज को नकल करने में सफल हो सकता है परंतु कोई भी रफी साहब की उस आवाज की विविधता को नही ला सकता जैसा वे करते थे.
रफी साहब, गीत-संगीत के आकाश में इस सितारे का उदय अमृतसर के निकट एक गांव कोटला सुल्तान सिंह में 24 दिसम्बर 1924 को हुआ । जब रफी जी अपने बचपन की सीढियां चढ रहे थे तब इनका परिवार लाहौर चला गया । रफी जी का गीत-संगीत के प्रति इतना लगाव था कि ये बचपन के दिनों में उस फकीर का पीछा करते थे जो प्रतिदिन उस जगह आता था और गीत गाता था जहाँ ये रहते थे । इनके बड़े भाई हामिद इनके संगीत के प्रति अटूट लगाव से परिचित थे और हमेशा प्रोत्साहित किया करते थे । लाहौर में ही उस्ताद वाहिद खान जी से रफी जी ने सगीत की शिक्षा प्राप्त करनी शुरू कर दी । रफी साहेब के शुरुवाती दिनों की कहानी आप को युनुस भाई बता ही चुके हैं ( यहाँ पढ़ें...)
रफ़ी साहब के संगीत सफर की बड़ी शुरूआत फिल्म "दुलारी(१९४९)" के सदाबहार गीत "सुहानी रात ढल चुकी" से हुई थी। इस गाने के बाद रफ़ी साहब ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और सत्तर के दशक तक वे पार्श्व-गायन के बेताज बादशाह रहे। इस सफलता के बावजूद, रफी साहब में किसी तरह का गुरूर न था और वे हमेशा हीं एक शांत और सुलझे हुए व्यक्तित्व के रूप में जाने गए। उनके कई सारे प्रशंसक तो आज तक यह समझ नहीं पाए कि इतना शांत और अंतर्मुखी व्यक्ति अपने गानों में निरा जोशीला कैसे नज़र आता है।
उनके पुत्र शाहिद के शब्दों में -
"जब एक बार हमने उनसे पूछा कि क्या वास्तव में आपने हीं 'याहू' गाया है, तो अब्बाजान ने मुस्कुराकर हामीं भर दी। हम उनसे पूछते रहे कि 'आपने यह गाना गाया कैसे?', पर उन्होंने इस बारे में कुछ न कहा। हमारे लिए यह सोचना भी नामुमकिन था कि उनके जैसा सरल इंसान "याहू" जैसी हुड़दंग को अपनी आवाज दे सकता है।"
शायद यह रफ़ी साहब की नेकदिली और संगीत जानने व सीखने की चाहत हीं थी, जिसने उन्हें इतना महान पार्श्व-गायक बनाया था। उन्होंने किसी भी फनकार की अनदेखी नहीं की। उनकी नज़रों में हर संगीतकार चाहे वह अनुभवी हो या फिर कोई नया, एक समान था। रफ़ी साहब का मानना था कि जो उन्हे नया गीत गाने को दे रहा है, वह उन्हें कुछ नया सीखा रहा है, इसलिए वह उनका "उस्ताद" है। अगर गीत और संगीत बढिया हो तो वे मेहनताने की परवाह भी नहीं करते थे। अगर किसी के पास पैसा न हो, तब भी वे समान भाव से हीं उसके लिए गाते थे।
गौरतलब है कि रफ़ी साहब ने अपने समय के लगभग सभी संगीतकारों के साथ काम किया था, परंतु जिन संगीतकारों ने उनकी प्रतिभा को बखूबी पहचाना और उनकी कला का भरपूर उपयोग किया , उनमें नौशाद साहब का नाम सबसे ऊपर आता है। नौशाद साहब के लिए उन्होंने सबसे पहला गाना फिल्म "पहले आप" के लिए "हिन्दुस्तान के हम हैं , है हिन्दुस्तान हमारा" गाया था। दोनों ने एक साथ बहुत सारे हिट गाने दिए जिन में से "बैजू बावरा" , "मेरे महबूब" प्रमुख हैं। एस०डी० बर्मन साहब के साथ भी रफ़ी साहब की जोड़ी बेहद हिट हुई थी। "कागज़ के फूल", "गाईड", "तेरे घर के सामने", "प्यासा" जैसी फिल्में इस कामयाब जोड़ी के कुछ उदाहरण हैं।
सत्तर के दशक के प्रारंभ में रफ़ी साहब की गायकी कुछ कम हो गई और संगीत के फ़लक पर किशोर दा नाम का एक नया सितारा उभरने लगा। परंतु रफ़ी साहन ने नासिर हुसैन की संगीतमय फिल्म "हम किसी से कम नहीं(१९७७)" से जबर्दस्त वापसी की। उसी साल उन्हें "क्या हुआ तेरा वादा" के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से भी नवाजा गया।
रफ़ी साहब के संगीत सफर का अंत "आस-पास" फिल्म के "तू कहीं आस-पास" गाने से हुआ। ३१ जुलाई, १९८० को उनका देहावसान हो गया। उनके शरीर की मृत्यु हो गई, परंतु उनकी आवाज आज हीं सारी फ़िज़ा में गूँजी हुई है। उनकी अमरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि , उनकी मृत्यु के लगभग तीन दशक बाद भी , उनकी लोकप्रियता आज भी चरम पर है। कितना सच कहा है रफी साहब ने अपने इस गीत में...."तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे, जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे, संग संग तुम भी गुनगुनाओगे...."
जानकारी सोत्र - इन्टरनेट , आवाज़ के लिए संकलन किया - विश्व दीपक 'तनहा' और भूपेंद्र राघव.
( ऊपर चित्र में रफी साहब, साथी लता और मुकेश के साथ )
हमें यकीं है कि आज पूरे दिन आपने रफी साहब के अमर गीतों को सुनकर उन्हें याद किया होगा, हम छोड़ जाते हैं आपको एक अनोखे गीत के साथ, जहाँ रफी साहब ने आवाज़ दी, किशोर कुमार की अदाकारी को, ये है दो महान कलाकारों के हुनर का संगम...देखिये और आनंद लीजिये.
रफी साहब के केवल दो ही साक्षात्कार उपलब्ध हैं, जिनमे से एक आप देख सकते हैं यहाँ.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
2 श्रोताओं का कहना है :
बहुत अच्छा हिंद युग्म को बधाई की उसने रफी साहब के बारे इतनी अनमोल बातो की जानकारी दी
विडियो काफी अच्छा है
सही गाना है:
तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे, जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे, संग संग तुम भी गुनगुनाओगे...
रफी सा’ब को भुलाना नामुमकिन है...
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)