रेडियो प्लेबैक वार्षिक टॉप टेन - क्रिसमस और नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित


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प्लेबैक की टीम और श्रोताओं द्वारा चुने गए वर्ष के टॉप १० गीतों को सुनिए एक के बाद एक. इन गीतों के आलावा भी कुछ गीतों का जिक्र जरूरी है, जो इन टॉप १० गीतों को जबरदस्त टक्कर देने में कामियाब रहे. ये हैं - "धिन का चिका (रेड्डी)", "ऊह ला ला (द डर्टी पिक्चर)", "छम्मक छल्लो (आर ए वन)", "हर घर के कोने में (मेमोरीस इन मार्च)", "चढा दे रंग (यमला पगला दीवाना)", "बोझिल से (आई ऍम)", "लाईफ बहुत सिंपल है (स्टैनले का डब्बा)", और "फकीरा (साउंड ट्रेक)". इन सभी गीतों के रचनाकारों को भी प्लेबैक इंडिया की बधाईयां

Sunday, August 10, 2008

लौट चलो पाँव पड़ूँ तोरे श्याम-रफ़ी साहब का एक नायाब ग़ैर फ़िल्मी गीत



विविध भारती द्वारा प्रसारित किया जाने वाला ग़ैर-फ़िल्मी यानी सुगम संगीत रचनाओं का कार्यक्रम रंग-तरंग सुगम संगीत की रचनाओं को प्रचारित करने में मील का पत्थर कहा जाना चाहिये. इस कार्यक्रम के ज़रिये कई ऐसी रचनाएं संगीतप्रेमियों को सुनने को मिलीं हैं जिनके कैसेट अस्सी के दशक में बड़ी मुश्किल से बाज़ार में उपलब्ध हो पाते थे. ख़ासकर फ़िल्म जगत की कुछ नायाब आवाज़ों मो.रफ़ी, लता मंगेशकर, आशा भोसले, गीता दत्त, सुमन कल्याणपुरकर, मन्ना डे, महेन्द्र कपूर, उषा मंगेशकर, मनहर, मुबारक बेगम आदि के स्वर में निबध्द कई रचनाएं रंग-तरंग कार्यक्रम के ज़रिये देश भर में पहुँचीं.

संगीतकार ख़ैयाम साहब ने फ़िल्मों में कम काम किया है लेकिन जितना भी किया है वह बेमिसाल है. उन्होंने हमेशा क्वॉलिटी को तवज्जो दी है. ख़ैयाम साहब ने बेगम अख़्तर, मीना कुमारी और मोहम्मद रफ़ी साहब को लेकर जो बेशक़ीमती रचनाएं संगीत जगत को दीं हैं उनमें ग़ज़लें और गीत दोनो हैं. सुगम संगीत एक बड़ी विलक्षण विधा है और हमारे देश का दुर्भाग्य है कि फ़िल्म संगीत के आलोक में सुगम संगीत की रचनाओं को एक अपेक्षित फ़लक़ नहीं मिल पाया है.

संगीतकार ख़ैयाम
ख़ैयाम साहब की संगीतबध्द और रफ़ी साहब के स्वर में रचा ये गीत (क्षमा करें! मैं इसे भजन नहीं कह सकता) गोपी भाव की पराकाष्ठा को व्यक्त कर रहा है. राजस्थानी जी ने कृष्ण के विरह को जो शब्द दिये हैं वह मन को छू जाते हैं, और कम्पोज़िशन देखिये , सारे स्वर ऐसे चुने हैं ख़ैयाम नें कि अपने आप ही कविता की सार्थकता समृध्द हो गई है. रफ़ी साहब शब्द को अपने कंठ से ख़ुद की आत्मा में उतार लेते हैं...गोया स्वयं गोपी बन गए हों और ब्रज की गलियों में अपने कान्ह कदंब के नीचे बैठ भीगी आँखों से टेर लगा रहे हों....पत्ती-पत्ती,फूल-फूल और कूल-कूल (ठंडा ठंडा नहीं, जमुना का किनारा) में कृष्ण को देखते रफ़ी ब्रज के कण कण से प्रार्थित हैं..... लौट चलो...पाँव पडूँ तोरे श्याम.


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5 श्रोताओं का कहना है :

MEET का कहना है कि -

सर जी ... बच्चे की जान ही ले लोगे क्या ?? आह संजय भाई, ये तो जादू है .. बहुत बहुत बहुत दिनों के बाद फुर्सत से सुना ये गीत. कुछ कहने को नहीं है ....

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

मैं ८ वर्ष की उम्र से २३ साल की उम्र तक विविधभारती का नियमित श्रोता रहा हूँ। सभी कार्यक्रमों को मिस करता हूँ। क्या करूँ दिल्ली में विविधभारती नहीं आता। अब एक ही रास्ता बचा है, वो है DTH का। यह दुर्लभ गीत सुनकर तो मज़ा ही आ गया। बहुत-बहुत धन्यवाद।

सजीव सारथी का कहना है कि -

मधुरतम गीत....रफी साहेब ने भी देखिये जैसे मिसरी घोल दी हो अपनी आवाज़ में, एक गायक गीत के भाव को किस तरह से जीवंत कर देता है उसका उत्कृष्ट उदहारण है ये गीत

Manish Kumar का कहना है कि -

bahut pyara geet sunwaya sanjay bhai, bahut bahut shukriya.

Anonymous का कहना है कि -

wah kya gana hai...

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