रेडियो प्लेबैक वार्षिक टॉप टेन - क्रिसमस और नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित


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प्लेबैक की टीम और श्रोताओं द्वारा चुने गए वर्ष के टॉप १० गीतों को सुनिए एक के बाद एक. इन गीतों के आलावा भी कुछ गीतों का जिक्र जरूरी है, जो इन टॉप १० गीतों को जबरदस्त टक्कर देने में कामियाब रहे. ये हैं - "धिन का चिका (रेड्डी)", "ऊह ला ला (द डर्टी पिक्चर)", "छम्मक छल्लो (आर ए वन)", "हर घर के कोने में (मेमोरीस इन मार्च)", "चढा दे रंग (यमला पगला दीवाना)", "बोझिल से (आई ऍम)", "लाईफ बहुत सिंपल है (स्टैनले का डब्बा)", और "फकीरा (साउंड ट्रेक)". इन सभी गीतों के रचनाकारों को भी प्लेबैक इंडिया की बधाईयां

Thursday, October 23, 2008

लिटिल टेररिस्ट



हिन्दी ब्लॉग पर पहली बार ऑस्कर नामांकित फ़िल्म

आवाज़ पर हमने समसामयिक विषयों पर आधारित संगीत विडीयो और लघु फिल्मों को प्रर्दशित करने की नई शुरुआत की है. इस शृंखला में अब तक आप देख चुके हैं डी लैब द्वारा निर्मित आतंकवाद पर बना एक संगीत विडीयो और छायाकार कवि मनुज मेहता की दिल्ली के रेड लाइट इलाके पर बनी संवेदनशील लघु फ़िल्म. जल्दी ही हम नये फिल्मकारों की नई प्रस्तुतियां आपके समक्ष समीक्षा हेतु लेकर हाज़िर होंगे.

आज हम जिस लघु फ़िल्म को यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं वह लगभग ३ साल पहले आई थी और कह सकते हैं कि हिंदुस्तान में लघु फिल्मों की एक नई परम्परा की शुरआत इसी फ़िल्म से हुई थी. मात्र १५-१६ मिनट में यह फ़िल्म इतना कुछ कह जाती है जितना कभी-कभी हमारी ३-३.५ घंटे की व्यवसायिक फिल्में नही कह पाती. अगर टीम का हर सदस्य अपने काम में दक्ष हो तो सीमित संसाधनों से भी वो सब हासिल किया जा सकता है जिसे पाने की चाह हर फिल्मकार करता है. इस फ़िल्म का हर पक्ष बेहतरीन है, फ़िर चाहे वो छायांकन हो, या संपादन, पार्श्व संगीत हो या निर्देशन, अदाकारी हो संवाद लेखन, इतने सुंदर अंदाज़ में विषय को परोसा गया है कि देखने वाला हतप्रभ रह जाता है. फ़िल्म के निर्माता, निर्देशक, लेखक और संपादक अश्विन कुमार ने जो करिश्मा किया उसने दुनिया भर के फ़िल्म समीक्षकों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा. फ़िल्म ऑस्कर एकेडमी अवार्ड के लिए नामांकित हुई २००५ में और फ़िर यूरोपियन एकेडमी सम्मान के लिए भी नामांकित हुई. तेहरान अन्तरराष्ट्रीय लघु फ़िल्म समारोह में ग्रैंड प्राइज़ पाया तो फ्लान्डेर्स में बहतरीन फ़िल्म का सम्मान. मोंटेरियल विश्व फ़िल्म प्रतियोगिता में प्रथम रही तो मेनहेटन में बेस्ट फ़िल्म चुनीं गयी. इसके आलावा भी बहुत से पुरस्कार इस फ़िल्म की झोली में आए. सबसे अच्छी बात ये हुई कि इस फ़िल्म ने नये फिल्मकारों के लिए रास्ते खोल दिए. उनमें यह विश्वास जगा दिया कि अपनी कला को दुनिया तक पहुँचाने के लिए अब वह बड़े निर्मातों के रहमो करम पर निर्भर नही हैं. यह काम अब वह अपने सीमित संसाधनों का इस्तेमाल कर भी कर सकते हैं. पर उत्कृष्टता पाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ेगी, यह बात भी इस फ़िल्म के माध्यम से हम समझ सकते हैं. दरअसल ये फ़िल्म फिल्मकारी से जुड़े हर तकनीकी व्यक्ति के लिए जो कि इस माध्यम में अपना विस्तार देखता हो, एक वर्कशॉप के सामान है. शायद इसी उद्देश्य से इसे अपलोड किया गया है ब्लॉगर पर जसप्रीत द्वारा. हम चाहेंगे कि फ़िल्म कला से जुडा हमारा हर अतिथि यदि अब तक इस फ़िल्म को देखने से वंचित रहा हो तो इसे यहाँ अवश्य देखें और सीखें. इस फ़िल्म का एक एक फ्रेम आपको बहुत कुछ सिखा सकता है. साथ ही अश्विन कुमार तक हमारे माध्यम से अपनी शुभकामनायें अवश्य पहुंचायें.

लिटिल टेररिस्ट - कहानी सार

फ़िल्म की कहानी सीमा पर बसे दो गाँवों के जीवन पर आधारित है जिनके बीच संबंध सिर्फ़ तनाव के हैं.

ये उन दो मुल्कों की सीमा है जो कभी एक हुआ करते थे. एक ओर राजस्थान का एक गाँव है और दूसरी ओर, ज़ाहिर है, पाकिस्तान का एक गाँव.

दोनों देशों के बीच कँटीले तारों की बाड़ लगा दी गई है. बाड़ के उस पार बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं लेकिन गेंद बाड़ को कहाँ जानती समझती है. उछली और इस पार चली आई. गेंद को यह भी नहीं मालूम कि वहाँ बारुदी सुरंगें बिछी हुई हैं.

एक बच्चा है. बमुश्किल दस साल का. उसने बाड़ के नीचे से थोड़ी सी रेत हटाई और एक देश की सीमा लाँघ कर दूसरे देश में आ गया लेकिन अचानक सायरन बजने लगे और गोलियाँ बरसने लगीं.

बच्चा भारतीय सीमा में है और सेना के जवान घर-घर की तलाशी ले रहे हैं कि सीमा पार से कोई 'आतंकवादी' घुस आया है.

बच्चा एक रहम दिल मास्टर के साथ उसके घर पहुँच गया है लेकिन वह कुछ हक़ीक़तों से भी वाकिफ़ होता है.

मास्टर की भतीजी उस बच्चे मुसलमान होने पर चौंकती है और उसे घर में घुसने से मना कर देती है.

मुसलमान होने के आश्चर्य, तिरस्कार और भय के बीच एक झोंका गुज़रता है इंसानियत का.

सेना से बचाने के लिए उसके सिर के बाल साफ़ कर दिए गए हैं, एक चुटिया रख दी गई और नया नाम दे दिया गया - जवाहरलाल.

लेकिन जो दीवार इनसानों ने खड़ी की है वो अक्सर इंसानियत पर भारी पड़ती है.

उस ज़मीन पर जहाँ लोग रात-दिन 'पधारो म्हारो देस' गाते हैं वहीं एक कड़वी सच्चाई मुँह बाए खड़ी है. वो लड़की जिसे जमाल यानी जवाहरलाल आपा कहता है उस मिट्टी के बर्तन को इसलिए तोड़ देती है क्योंकि उसमें एक मुसलमान ने खाना खाया है.

लेकिन रात के साए में मास्टर जी और उसकी भतीजी उसे सीमा पार छोड़ आते हैं...वहाँ जमाल की माँ उसका इंतज़ार कर रही है.

जाने से पहले बच्चा मास्टर और उसकी भतीजी से लिपट जाता है.

उधर अपने बच्चे को सर मुंडाए देख परेशान माँ को भी एक बार ग़ुस्सा आ जाता है और वह उसे पीटने लगती है.

लेकिन बच्चा हँस रहा है....पता नहीं किस पर....उस कंटीली बाड़ पर या फिर उन पर जो उस कंटीली बाड़ के दोनों ओर खड़े अपने इनसान होने की हक़ीकत को भुला बैठे हैं.

कुल 15 मिनट की इस फ़िल्म को देखकर ऐसा लगता नहीं कि इसमें एक भी दृश्य अतिरिक्त है.

एक छोटे से बच्चे के चेहरे पर भय, विस्मय और प्रेम सब कुछ इस तरह उभरता कि कुछ देर के लिए सिहरन पैदा हो जाती है.

फ़िल्म दोनों ओर की कुछ सामाजिक कुरीतियों को भी निशाना बनाती है.

फ़िल्म को देखने के लिए प्ले पर क्लिक करें.



इस फ़िल्म को आप इस लिंक पर भी देख सकते हैं.

चित्र - अश्विन कुमार
साभार - ब्लोग्गेर्स विडियो

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2 श्रोताओं का कहना है :

makrand का कहना है कि -

good effort
will come again on this blog
thanks

Manuj Mehta का कहना है कि -

the film is incredible and i realy like the effort and the concept you people have put in this such a nice film. the subject and the theme is very well conveyed. the camera work is wonderful. i like the the scrip and the direction too. cheeers to you all.

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