ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 260
फ़िल्म संगीत के इतिहास में अगर हम झाँकें तो ऐसे कई कई नाम ज़हन में आते हैं, जिन नामों पर जैसे वक़्त की धूल सी चढ़ गई है, और रोज़ मर्रा की ज़िंदगी में जिन्हे हम आज बड़ी मुश्किल से याद करते हैं। लेकिन एक वक़्त ऐसा था जब ये फ़नकार, कम ही सही, लेकिन अपनी प्रतिभा के जौहर से फ़िल्म संगीत के विशाल ख़ज़ाने को अपने अपने अनूठे ढंग से समृद्ध किया था। इनमें शामिल हैं फ़िल्म संगीत के पहली पीढ़ी के कई बड़े बड़े संगीतकार भी, जिन्हे आज की पीढ़ी लगभग भुला ही चुकी है। लेकिन संगीत के सच्चे रसिक आज भी उन्हे याद करते हैं, सम्मान करते हैं। और 'ओल्ड इज़ गोल्ड' एक ऐसा मंच है जो फ़िल्म संगीत के सुनहरे दशकों के हर दौर के कलाकारों को समर्पित है। आज एक ऐसे ही गुणी संगीतकार का ज़िक्र कर रहे हैं, आप हैं फ़िल्म संगीत के पहली पीढ़ी के संगीतकार ज्ञान दत्त। ज्ञान दत्त जी का नाम याद आते ही याद आते हैं सहगल साहब के गाए फ़िल्म 'भक्त सूरदास' के तमाम भजन। 'भक्त सूरदास' और ज्ञान दत्त जैसे एक दूसरे के पर्याय बन गए थे। यह ४० का दौर था। फिर धीरे धीरे बदलते दौर के साथ साथ ज्ञान दत्त भी पीछे पड़ते गए और सन् १९५० में उनकी अंतिम "चर्चित" फ़िल्म आई 'दिलरुबा'। हालाँकि इसके बाद भी उन्होने कुछ फ़िल्मों में संगीत दिए लेकिन वो नहीं चले। आज हम सुनवा रहे हैं फ़िल्म 'दिलरुबा' का एक युगल गीत जिसे गाया है गीता रॉय और जी. एम. दुर्रानी ने। इस फ़िल्म में ज्ञान दत्त के स्वरबद्ध गीतों को लिखे डी. एन. मधोक, बूटाराम शर्मा, नीलकंठ तिवारी, एस. एच, बिहारी और राजेन्द्र कृष्ण जैसे गीतकारों ने। इस फ़िल्म के ज़्यादातर गानें गीता रॉय की आवाज़ में थे, लेकिन दो दुर्लभ युगलगानें भी शामिल है। दुर्लभ इसलिए कि इन गीतों में बहुत ही रेयर आवाज़ें मौजूद हैं। गीता जी ने ये दोनों गानें प्रमोदिनी देसाई और जी. एम. दुर्रनी के साथ गाया है। दुर्रनी साहब वाला गीत आज आपकी नज़र कर रहे हैं जिसके बोल हैं "हमने खाई है मोहब्बत में जवानी की क़सम, न कभी होंगे जुदा हम"।
'दिलरुबा' द्वारका खोसला की फ़िल्म थी जिसमें मुख्य कलाकार थे देव आनंद और रेहाना। आज के प्रस्तुत गीत को लिखा था एस. एच. बिहारी ने। बिहारी साहब का पदार्पण फ़िल्म जगत में १९४९ में हुई थी जब अनिल बिस्वास ने उनसे लिखवाया था फ़िल्म 'लाडली' का एक गीत "मैं एक छोटी सी चिंगारी"। मीना कपूर की आवाज़ में इस गीत को फ़िल्म के खलनायिका पर फ़िल्माया गया था। उसके बाद सन् '५० में ज्ञान दत्त ने उनसे 'दिलरुबा' में यह गीत लिखवाया था। बिहारी साहब ने इसी फ़िल्म में एक और गीत भी लिखा था जिसे शमशाद बेग़म, प्रमोदिनी, गी. एम. दुर्रनी और साथियों ने गाया था और इस गाने की अवधि थी कुल ७ मिनट और ४० सेकन्ड्स। ख़ैर, बात करते हैं आज के प्रस्तुत गीत की। पाश्चात्य संगीत संयोजन से समृद्ध इस हल्के फुल्के युगल गीत में उस ज़माने की पीढ़ी का रोमांस दर्शाया गया है। इस भाव पर असंख्य गानें समय समय पर बने हैं। कुछ बातें हमारे समाज की कभी नहीं बदलती है चाहे उसका अंदाज़ बदल जाए। प्यार में क़समें खाने की परंपरा सदियों पहले भी थी, इस फ़िल्म के समय भी थी, और आज भी है। लेकिन अंदाज़ ज़रूर बदल गया है। कहाँ है वह मासूमियत जो प्यार में हुआ करती थी उस ज़माने में! आज सब कुछ इतना खुला खुला सा हो गया है कि वह शोख़ी, वह नाज़ुकी, वह मासूमियत कहीं ग़ायब हो गई है। लेकिन हम उसी मासूमियत भरे अंदाज़ का मज़ा आज लेंगे इस गीत को सुनते हुए।
इस गीत को सुनने के बाद आपको एक काम यह करना है कि ५० और ६० के दशकों से कम से कम १० गीत ऐसे चुनने हैं जिसमें प्यार में क़सम खाने की बात कही गई है। हो सकता है कि सब से पहले जवाब देने वाले को हम कोई इनाम भी दे दें, तो ज़रूर कोशिश कीजिएगा, और फिलहाल मुझे आज्ञा दीजिए, नमस्कार!
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी, स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. कल से शुरू होगी नन्हे मुन्ने बच्चों को समर्पित श्रृंखला -"बचपन के दिन भुला न देना".
२. शैलेन्द्र ने लिखा था इस गीत को.
३. एक अंतरे की पहली पंक्ति में शब्द है -"रेल".
पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी लगता है बाकी सब पीछे हट गए हैं, क्योंकि शेर तो एक ही सकता है जंगल में....बधाई आप ४४ अंकों पर आ चुके हैं...अरे भाई कोई तो इन्हें टक्कर दो....
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
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3 श्रोताओं का कहना है :
नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए
बाकी जो बचा था काले चोर ले गए ।
फ़िल्म : मासूम
"खाके पीके मोटे होके चोर बैठे रेल में
चोरों वाला डिब्बा कट कर पहुँचा सीधे जेल में"
अरे कोई तो मुझे फिल्म 'मासूम' का वो गाना ' हमें उन राहों पर चलना है, जहाँ गिरना और संभलना है' सुनवा दो! सुबीर सेन की आवाज़ में यह गाना सालों से ढूंढ रहा हूँ!
लाजवाब....रियली, ओल्ड इज़ गोल्ड...
आलोक साहिल
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