रेडियो प्लेबैक वार्षिक टॉप टेन - क्रिसमस और नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित


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प्लेबैक की टीम और श्रोताओं द्वारा चुने गए वर्ष के टॉप १० गीतों को सुनिए एक के बाद एक. इन गीतों के आलावा भी कुछ गीतों का जिक्र जरूरी है, जो इन टॉप १० गीतों को जबरदस्त टक्कर देने में कामियाब रहे. ये हैं - "धिन का चिका (रेड्डी)", "ऊह ला ला (द डर्टी पिक्चर)", "छम्मक छल्लो (आर ए वन)", "हर घर के कोने में (मेमोरीस इन मार्च)", "चढा दे रंग (यमला पगला दीवाना)", "बोझिल से (आई ऍम)", "लाईफ बहुत सिंपल है (स्टैनले का डब्बा)", और "फकीरा (साउंड ट्रेक)". इन सभी गीतों के रचनाकारों को भी प्लेबैक इंडिया की बधाईयां

Thursday, January 1, 2009

कितना है दम नवम्बर के नम्बरदार गीतों में



अक्तूबर के अजयवीरों ने पहले चरण की समीक्षा का समर पार किया अब बारी है नवम्बर के नम्बरदार गीतों की. यहाँ हम आपके लिए, पहले और दूसरे समीक्षक, दोनों के फैसलों को एक साथ प्रस्तुत कर रहे हैं, तो जल्दी से जान लेते हैं कि नवम्बर के इन नम्बरदारों ने समीक्षकों को क्या कहने पर मजबूर किया है.

उडता परिन्दा

पहले समीक्षक -
सुदीप यशराज के ऒल इन वन प्रस्तुति का संगीत पक्ष बेहद श्रवणीय है. संगीत के अरेंजमेंट को भी कम वाद्यों की मदत से मनचाहा इफ़ेक्ट पैदा कर रहा है. प्रख्यात प्रयोगधर्मी संगीतकार एस एम करीम इसी तरह के स्वरों का केलिडियोस्कोप बनाया करते है.

लोरी से लगने वाले इस गाने के कोमल बोलों का लेखन भी उतना ही अच्छा हो नहीं पाया है, क्योंकि कई अलग अलग ख्यालात एक ही गीत में डाल दिये गये है. मगर यही तो एक फ़ेंटासी और मायावी स्वप्न नगरी का सपना देख रही नई पीढी़ का यथार्थ है.

यही बात गायक सुदीप के पक्ष में जाती है. थोडा कमज़ोर गायन ज़रूर है, जो बेहतर हो सकता था, क्योंकि गायक की रचनाधर्मिता तो बेहद मौलिक और वाद से परे है.

गीत - ४, धुन व् संगीत संयोजन - ३.५, आवाज़ व गायकी - ३.५, ओवारोल प्रस्तुति - ३.५. कुल १४.५ : ७.५ /१०.

दूसरे समीक्षक -

गीत का संगीत पक्ष बहुत अच्छा है, लेकिन वह तब जब केवल संगीत को ही सुना जाय, क्योंकि गीत के बोलों में जिस तरह के भावों को डाला गया है, उस तरह का न तो संगीत-संयोजन रहा और न ही गायन। दूसरे अंतरे में ठहराव भी आ गया है। लगता है जैसे कि प्रवाह में कोई अवरोध आ गया। मुकम्मल गीत तभी बनता है जब गीत, संगीत और गायन तीनों उम्दा हों। जबकि इस गाने के तीनों महत्वपूर्व पहियों पर सुदीप का ही बल रहा था, इसलिए उनकी जिम्मेदारी ज्यादा थी। और मैं समझता हूँ कि इसे वो बेहतर कर भी सकते थे, क्योंकि भाव उनके थे, बोल उनके थी, आवाज़ उनकी थी, संगीत उनका था। फिर भी मैं इस प्रयास को १० में से ६ अंक दूँगा। ६/१०

कुल अंक (पहली और दूसरी समीक्षा को मिलकर) - १३.५ / २०.

ये हुस्न है क्या

पहले समीक्षक -
एक और सुरीली प्रस्तुति,जिसके धुन में,इन्टरल्य़ुड में काफ़ी प्रभावित करने वाले प्रयोग है. चैतन्य भट्ट की सुरों पर की पकड ज़बरदस्त लगती है. साथ ही उनके ग्रुप के अन्य वादक कलाकारों का आपसी सामंजस्य और आधुनिक हार्मोनी के साथ ही मेलोडी के मींड भरी लयकारी इसे बार बार सुनने की चाह्त पैदा करता है. रहमान के सुर और वाद्य संयोजन के काफ़ी करीब ले जाते इस संगीत रचना की तारीफ़ करने के किये शब्द नहीं.

संजय द्विवेदी के लिखे हुए शब्द भी ज़ज़बात से भरे हुए, युवा विद्रोही मन की उथल पुथल, खलबली कलम के ज़रिये दर्शाता है.शब्दों में मौलिकता भी कहीं कहीं दाद देने के लिये ललचा जाती है.

कृष्णा पंडित और साथियों के तराशे हुए गायन और सामंजस्य गीत को उचाईंयां प्रदान करता है.व्यवस्था के प्रति आक्रोश , युवा जोश और आसपास की समस्याओं के प्रति जागरूकता गीत के बोलों और धुन के माध्यम से, कहीं अधिक समूह गीत गायन के माध्यम से मेनिफ़ेस्ट करने में यह टीम पूर्ण रूप से सफ़ल मानी जा सकती है. कृष्णा पंडित गले से नहीं दिमाग़ से गाते हैं, इसलिये ये काम भी आसानी से पूरा हो जाता है.

गीत - ४, धुन व् संगीत संयोजन - ४, आवाज़ व गायकी - ४, ओवारोल प्रस्तुति -४. कुल १६ : ८ /१०

दूसरे समीक्षक -
इस महीने के इस गीत का संगीत पक्ष अच्छा है, लेकिन ७ मिनट ४१ सेकेण्ड के गीत में हर जगह एक तरह का ट्रीटमेंट है, इसलिए अलग-अलग अंतरे में एक से लगते हैं। हालांकि गीत के संगीत की अरेंज़िंग लाजवाब है, लेकिन हर जगह अपना रिपिटीशन दर्ज करा रही है। इसलिए बोल के अच्छे होने के बावजूद गीत बहुत अधिक प्रभाव नहीं छोड़ता। कहने का मतलब यह है कि यह गीत कहीं से ऐसा नहीं है, जिसे बारम्बार सुनने का मन करे। समूह गायन अपनी ओर आकर्षित ज़रूर करता है लेकिन फिर भी संगीतकार को अधिक मेहनत करनी होगी। मैं इस गीत को १० में से ८ अंक दूँगा. ८/१०

कुल अंक (पहली और दूसरी समीक्षा को मिलकर) - १६ / २०.

माहिया

पहले समीक्षक -
सीमा पार सी आये हमारे मुअज़्ज़ज़ मेहमानों नें ये जो प्रस्तुति दी है, उन्हे और आवाज़ को पहले बधाई !!
पाकिस्तान के आवारा बैंड़ नें इस सोफ़्ट रॊक गीत को ईमानदारी से गढा गया सुनाई देता है.गायकों के सुरों के समन्वय में भी सफ़ल हुई है इस गीत के सभी वादकों द्वारा बजाये गये हर वाद्य का अपना योगदान है- लीड़ गिटारिस्ट मोहम्मद वलीद मुस्तफ़ा (और गीत के मुख्य गायक भी),रिदम गिटारिस्ट अफ़ान कुरैशी,और ड्रमर वकास कादिर बालुच नें मेलोडी और पाश्चात्य शास्त्रीयता को अच्छे ढंग से फ़्युज़न किया है इस गीत में.

सुरीले गायक मंडली नें कहीं कहीं हार्मोनी को बेहद सुरीले अंदाज़ में गीत में पिरोया है, जो पूरी प्रस्तुति में एकाकार हो जाती है. इनकी आवाज़ में एक कशिश ज़रूर है.लीड़ गिटारिस्ट नें अपनी मौजूदगी से और कशिश बढा दी है.

पूरी धुन में हार्मोनी और कॊर्ड्स का प्रयोग प्रख्यात संगीतकार सलिल चौधरी की याद दिलाते है. इस समूह के उज्वल भविष्य की कामना करता हूं.

गीत - ४, धुन व् संगीत संयोजन - ४, आवाज़ व गायकी - ४, ओवारोल प्रस्तुति - ४. कुल १६ : ८ /१०

दूसरे समीक्षक
पहले तो इस बात का स्वागत कि हिन्द-युग्म पर अब पाकिस्तान से भी संगीतप्रेमी पधारने लगे हैं। इस गीत के संगीत, बोल और गायन में से किसी में भी ताजगी नहीं है। मिक्सिंग भी बहुत बढ़िया नहीं है। कम से कम लिरिक्स के स्तर पर भी इसमें नयापन होता तो यह सराहनीय गीत बन पड़ता। लेकिन यह ज़रूर कहा जा सकता है कि गायक में बहुत संभावनाएँ हैं, उसे कुछ बिलकुल ओरिजनल कम्पोजिशन पर गाकर खुद को परखना चाहिए। इसे मैं ४ अंक देना चाहूँगा। ४/ १०.

कुल अंक (पहली और दूसरी समीक्षा को मिलकर) - १२ / २०.

तू रुबरू:

पहले समीक्षक -
सजीव सारथी जी द्वारा गीत लिखा अच्छा गया है किंतु इस गीत की धुन में मधुरता या मेलोडी कम है. गीतकार की मेहनत,मौलिकता और शब्दों के सटीक चयन की वजह से इस गीत का साहित्यिक पक्ष बेहद सशक्त है.
जैसा कि प्रतीत हो रहा है, ये गीत पहले लिखा गया होगा और धुन बाद में बनी है. इसी वजह से धुन का संयोजन एक एब्स्त्रेक्ट पेंटिंग की तरह प्रस्तुत हो पाया है, जिसमें वेरिएशन और कॊर्डस का प्रयोग सीमित किया गया है, जो प्रभावित करने में कमज़ोर रहा है. अगर ये वही ऋषि है, जिन्होनें ऐसा नही के आज मुझे का कर्णप्रिय संगीत दिया है, तो ज़रूर कहूंगा कि इस गीत के संगीत को बड़ी ही ज़ल्दबाज़ी में मुकम्मल किया गया है, और श्रोता अपने आपको जब तक गाने के स्वरों से अपने आपको जोड़ पायेगा, तब तक गीत खत्म ही हो जाता है, एक अधूरेपन के एहसास को मन में छोडते हुए.
हालांकि विश्वजीत अच्चे गायक है,जो ओ साहिबा में साबित भी हो जाती है. मगर इस गीत में उनके गायन में मोनोटोनी सी लगती है, जो अधिकतर धुन की एकरसता की वजह से और बढ़ कर दुगनी हो जाती है. गायकी के स्वरों पर ठहराव भी नियंत्रित नहीं लगता.कहीं जल्दबाज़ी का भी गुमां सा होने लगता है.

गीत - ३.५, धुन व् संगीत संयोजन - ३.५, आवाज़ व गायकी - ३.५, ओवारोल प्रस्तुति - ३.५. कुल १४ : ७ /१०

दूसरे समीक्षक -
इस गीत के बोल बहुत बढ़िया हैं। ऋषि के संगीत में हमेशा की तरह ताज़गी है। बिस्वजीत दूर के सवार नज़र आते हैं। मुझे लगता है कि गीत की अधिक सराहना करने की बजाय मैं इसे १० में से ८॰५ अंक देकर अपनी भावनाएँ प्रदर्शित करना चाहूँगा। ८.५ /१०.

कुल अंक (पहली और दूसरी समीक्षा को मिलकर) - १५.५ / २०.


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