महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५०
महफ़िल-ए-गज़ल की जब हमने शुरूआत की थी, तब हमने सोचा भी नहीं था कि गज़लों का यह सफ़र ५०वीं कड़ी तक पहुँचेगा। लेकिन देखिए, देखते हीं देखते वह मुकाम भी हमने हासिल कर लिया। यह आप सबके प्यार और हौसला-आफ़ज़ाई के कारण हीं मुमकिन हो पाया है, नहीं तो हर बार कुछ नया लाना इतना आसान नहीं होता। उम्मीद है कि हम आपकी उम्मीदों पर खड़े उतर रहे हैं। हर बार आपके लिए कुछ नया लाने में हमारा भी बड़ा फ़ायदा है। न जाने ऐसे कितने नगीने हैं जो मिट्टी-तले दबे रहते हैं और उनका हक़ बनता है कि हम उन्हें जानें, पहचानें और हमारा भी हक़ बनता है कि हम उन नगीनों से नावाकिफ़ नहीं रहें। बस इसी फ़ायदे के लिए हम हर बार आपके सामने आते रहते हैं। आपने जिस तरह हमारा आज तक साथ दिया है, बस यही इल्तज़ा है कि आगे भी साथ बने रहिएगा। इसी दुआ के साथ पिछली कड़ी के अंकों का खुलासा करते हैं। तो हिसाब कुछ यूँ बनता है: सीमा जी: ४ अंक, शामिख जी: २ अंक और शरद जी: १ अंक। अब बारी है आज के प्रश्नों की| ये रहे प्रतियोगिता के नियम और उसके आगे दो प्रश्न: हम आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब आज के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। इन सवालों का सबसे पहले सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद २ अंक और उसके बाद हर किसी को १ अंक मिलेंगे। पिछली नौ कड़ियों और आज की कड़ी को मिलाकर जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की ५ गज़लों की फरमाईश कर सकता है, वहीं दूसरे स्थान पर आने वाला पाठक अपनी पसंद की ३ गज़लों को सुनने का हक़दार होगा। इस तरह चुनी गई आठ गज़लों को हम ५३वीं से ६०वीं कड़ी के बीच पेश करेंगे। और साथ हीं एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है। तो ये रहे आज के सवाल: -
१) गानों में सरगम तकनीक का इस्तेमाल करने वाले एक फ़नकार जिसे टाईम मैगजीन ने २००६ में "एशियन हीरोज़" की फ़ेहरिश्त में शुमार किया था। उस फ़नकार के नाम के साथ यह भी बताएँ कि हमने उनकी जो गज़ल सुनाई थी उसे वास्तव में किस रिकार्ड लेबल के लिए रिकार्ड किया गया था?
२) उस फ़नकारा का नाम बताएँ जो हिंदी के प्रख्यात समीक्षक की पौत्री और एक क्रिकेट कमेंटेटर की पुत्री हैं और जिनका संगीत की सभी विधिओं पर एकसमान अधिकार है। साथ हीं यह भी बताएँ कि हमने उस कड़ी में जिस समारोह की बातें की थी उस समारोह की शुरूआत का श्रेय किसे दिया जाता है?
महफ़िल-ए-गज़ल की स्वर्ण जयंती पर पेश है यह बोनस प्रश्न जिसका उत्तर देकर आप एक बार में ५ अंकों की बढोतरी ले सकते हैं। ध्यान रखिएगा कि जो भी इस प्रश्न का सबसे पहले सही उत्तर देगा बस उसी को ये अंक मिलेंगे यानि कि अंक बंटेंगे नहीं।
३) ४०-५० के दशक की जानीमानी संगीतकार-जोड़ी जिनके बड़े भाई की संगीतबद्ध एक गज़ल हमने आपको सुनवाई थी। उस कड़ी में हमने उस फ़नकार की भी बातें की थी जो महज़ १४ साल की उम्र में ५ जून १९४२ को सुपूर्द-ए-खाक हो गया। उन सबका नाम बताएँ जिनका ज़िक्र इस प्रश्न में आया है।
तुम्हारी कब्र पर मैं
फ़ातेहा पढ़ने नही आया,
मुझे मालूम था, तुम मर नही सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था,
वो तुम कब थे?
कोई सूखा हुआ पत्ता, हवा मे गिर के टूटा था।
मेरी आँखे
तुम्हारी मंज़रो मे कैद है अब तक
मैं जो भी देखता हूँ, सोचता हूँ
वो, वही है
जो तुम्हारी नेक-नामी और बद-नामी की दुनिया थी।
कहीं कुछ भी नहीं बदला,
तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं,
मैं लिखने के लिये जब भी कागज कलम उठाता हूं,
तुम्हे बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूं|
बदन में मेरे जितना भी लहू है,
वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों के साथ बहता है,
मेरी आवाज में छुपकर तुम्हारा जेहन रहता है,
मेरी बीमारियों में तुम मेरी लाचारियों में तुम|
तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है,
वो झूठा है, वो झूठा है, वो झूठा है,
तुम्हारी कब्र में मैं दफन तुम मुझमें जिन्दा हो,
कभी फुरसत मिले तो फातहा पढनें चले आना|
आज हम जिस शायर की नज़्म सुनने और सुनाने जा रहे हैं, ये पंक्तियाँ उन्होंने हीं लिखी थी और वो भी अपने अब्बा की मौत पर। किसी कारणवश वे अपने अब्बा की मैय्यत में शरीक़ नहीं हो पाए थे। अब्बा उनके दिल के कितने करीब थे, यह तो नहीं पता, लेकिन इतना पता है कि जो किसी अपने की मौत में अपनी मौत को देख लेता है, उससे फिर कोई भी भावना अछूती नहीं रह जाती। वह शायर वह सबकुछ लिख सकता है, जिसे लिखने में बाकी लोग कतराते हैं। वही शायर जब बच्चों की मार्फ़त यह कहता है तो बवाल खड़े हो जाते हैं:
बच्चा बोला देख के मस्जिद आलीशान
मालिक तेरे एक को इतना बड़ा मकान।
वह शायर,जिसे लोग "निदा फ़ाज़ली" कहते हैं और जिसका असल नाम "मुक़तदा हसन" है, हिन्दुस्तानियों के लिए "बर्तोल्त ब्रेख्त" हो जाता है। जानकारी के लिए बता दें कि ब्रेख्त हिटलर के समकालीन थे। हिटलर ने जब बहुत से तत्कालीन लेखकों की किताबों को अपने खिलाफ पाकर बैन किया तो पता नहीं कैसे ब्रेख्त की किताब छूट गई। ब्रेख्त ने हिटलर को खत लिखा और कहा कि मैं भी आपके बहुत खिलाफ हूँ, मेरी भी किताबें आप बैन कीजिए, वरना इतिहास यही समझेगा कि मैं या तो आपके पक्ष में था या इतना महत्वपूर्ण नहीं था कि आप मेरी किताबें बैन करें। अपने विचारों, अपनी नज्मों के कारण निदा ने भी बहुत दिन तक बाल ठाकरे का अघोषित प्रतिबंध झेला है। ब्रेख्त की तरह निदा भी अपने मन के शायर हैं, गजलें उन्होंने कही जरूर हैं, पर जिन विषयों पर वो शायरी करते हैं, वो विषय गजल का नहीं है। (सौजन्य: वेबदुनिया) निदा साहब से जब यह पूछा गया कि उनकी शायरी की शुरूआत कैसे हुई तो उनका जवाब कुछ यूँ था: मेरे वालिद अपने ज़माने के अच्छे शायर थे। नाम था 'दुआ डबाइवी'। उनके अशआर मुझे ज़ुबानी याद थे। यही अशआर सुना-सुनाकर मैं क़ॉलेज में अपने दोस्तों से चाय पिया करता था। कभी-कभी तो नाश्ते का इंतिज़ाम भी हो जाया करता था। उनके अशआर सुनाते-सुनाते ख़ुद भी शे'र कहने लगा।
निदा साहब यूँ तो क्रांतिकारी विचारों के शायर थे और हैं भी लेकिन आज हम उनसे वह किस्सा सुनना चाहेंगे जिसके कारण उनका फिल्मों में आना हुआ। आप सब सुजाय जी को तो ज़रूर हीं जानते होंगे(आवाज़ पर प्रसारित होने वाले "ओल्ड इज गोल्ड" के मेजबान)। उन्हीं की बदौलत हमें रेडियो पर आने वाले "आज के मेहमान" कार्यक्रम की वह रिकार्डिंग हासिल हुई है, जिसमें निदा साहब मौजूद थे। उस मज़ेदार घटना को याद करते हुए वे कहते हैं: जब मैं मुंबई आया तो मैने धर्मवीर भारती के "धर्मयुग" में लिखना शुरू कर दिया, उसके बाद मै "ब्लिट्ज़" में लिखने लगा। उसी दौरान कभी "धर्मयुग" में तो कभी "ब्लिट्ज़" में तो कभी किसी रेडियो स्टेशन में मुझे मैसेज़ मिलने लगे कि "मैं आप से मिलना चाहता हूँ- कमाल अमरोही"। मैंने सोचा कि मेरा कमाल अमरोही से क्या काम हो सकता है। मैं कमाल अमरोही से मिलने चला गया। कमाल साहब मिले करीब २ बजे, वो स्टाईलिश आदमी थे, वो एक लफ़्ज़ भी अंग्रेजी का बोलते नहीं थे और वो भाषा बोलते थे जो आज से ५० साल पहले अमरोहा में बोली जाती थी। मैं वो भाषा बंबई आकर भूल गया था। मैंने कहा "कमाल साहब, आदाब अर्ज़ है, मेरा नाम निदा फ़ाज़ली है"। तो वो बोले- "तशरीफ़ रखिए, मैंने आपको इसलिए याद फ़रमाया है"- ये उनका स्टाईल था, "मैंने आपको इसलिए याद फ़रमाया है कि मुझे एक मुक़म्मल शायर की ज़रूरत है", मैंने कहा कि मैं हाज़िर हूँ और इस इज़्ज़त आफ़ज़ाई के लिए शुक्रिया कि आप मुझे मुक़म्मल शायर समझ रहे हैं। बोले- "जी, मुझे आपसे कुछ नगमात तहरीर करवाने हैं"। मैने कहा कि मैं हाज़िर हूँ साहब, आप बताईये कि कैसा गाना है, क्या लिखना है, तो वो बोले कि "इससे पहले कि आप गाना लिखें, एक बात मैं ज़ाहिर कर देना चाहता हूँ कि इल्मी शायरी और फिल्मी शायर अलग होती है। इल्मी शायरी लिखने के लिए आपको मेरे मिज़ाज़ की शिनाख्त बहुत ज़रूरी है, जाँ निसार अख्तर मेरे मिज़ाज को पहचान गए थे, लेकिन वो अल्लाह को प्यार हो गए। इतना कहने के बाद उन्होंने सिचुएशन सुनाई- "हमारी दास्तान उस मुकाम पर आ गई जहाँ मल्लिका-ए-आलिया रज़िया सुल्तान, यानि हमारी हेमा मालिनी, सियाहा लिबास में खरामा-खरामा चली आ रही है, जिसे देखकर हमारा आलया कासी खैरमक़दम के लिए आगे बढता है।" मेरे कुछ भी पल्ले नहीं पड़ा, मैं कुछ देर बैठा रहा, फिर उनके असिस्टेंट ने कहा कि इसका मतलब है कि हेमा मालिनी सफ़ेद घोड़े पर काले लिबास पहने आ रही हैं और आलया कासी मतलब कैमरा उनकी तरफ़ बढ रहा है। इसके बाद मैंने उस फिल्म के आखिरी दो गाने लिखे। लेकिन उस फिल्म के बनने में इतना वक्त लगा कि कमाल साहब के गुडविल ने फिल्म-इंडस्ट्री में मुझे मशहूर कर दिया कि कोई ऐसा है जिससे कमाल अमरोही गाने लिखवा रहे हैं।
निदा साहब के बारे में और भी बहुत कुछ है कहने को, लेकिन आज बस इतना हीं। वैसे हीं स्वर्ण जयंती के कारण आज हमारी मुलाकात का दौर कुछ ज्यादा हीं चला। इसलिए वक्त है अब आज की नज़्म सुनवाने का। यह नज़्म मेरी पसंदीदा नज़्मों में से एक है। जहाँ एक तरह निदा साहब के मासूम अल्फ़ाज़ हैं तो वही दूसरी तरह जगजीत सिंह जी की मखमली आवाज़। आप खुद देखिए:
ये ज़िन्दगी,
आज जो तुम्हारे
बदन की छोटी-बड़ी नसों में
मचल रही है
तुम्हारे पैरों से चल रही है
तुम्हारी आवाज़ में ग़ले से निकल रही है
तुम्हारे लफ़्ज़ों में ढल रही है।
ये ज़िन्दगी
जाने कितनी सदियों से
यूँ ही शक्लें
बदल रही है।
बदलती शक्लों
बदलते जिस्मों में
चलता-फिरता ये इक शरारा
जो इस घड़ी
नाम है तुम्हारा
इसी से सारी चहल-पहल है
इसी से रोशन है हर नज़ारा।
सितारे तोड़ो या घर बसाओ
क़लम उठाओ या सर झुकाओ,
तुम्हारी आँखों की रोशनी तक
है खेल सारा,
ये खेल होगा नहीं दुबारा।
ये खेल होगा नहीं दुबारा॥
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
इतना ___ न हो ख़िलवतेग़म से अपनी
तू कभी खुद को भी देखेगा तो ड़र जायेगा
आपके विकल्प हैं -
a) मायूस, b) मानूस, c) हैरान, d) बेज़ार
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "ख़ुदकुशी" और शेर कुछ यूं था -
ख़ुदकुशी करने की हिम्मत नहीं होती सब में
और कुछ दिन यूँ ही औरों को सताया जाये
एक बार फिर से महफ़िल में पहली हाज़िरी लगी सीमा जी की। कमाल देखिए कि पिछली महफ़िल का शेर निदा फ़ाज़ली साहब का था और आज की महफ़िल हमने पूरी की पूरी उन्हीं के सुपूर्द कर दी। निदा साहब का यह शेर जिस गज़ल से है, उसमें एक ऐसा शेर भी है जो बच्चे-बच्चे की जुबान पर मौजूद रहता है और हो भी क्यों न, जबकि उसमें बच्चे का हीं ज़िक्र किया गया है। इस शेर को सुनकर और पढकर "तमन्ना" फिल्म का वह गाना याद आ जाता है जिसकी शुरूआत इसी शेर के साथ होती है। आप भी देखिए:
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये।
पूरी गज़ल मुहैय्या कराने के लिए सीमा जी का शुक्रिया। "ख़ुदकुशी" शब्द पर आपने कुछ शेर भी कहे:
मेरी गुड़िया-सी बहन को ख़ुदकुशी करनी पड़ी
क्या ख़बर थी दोस्त मेरा इस क़दर गिर जाएगा। (मुनव्वर राना)
ग़म-ए-हयात से बेशक़ है ख़ुदकुशी आसाँ
मगर जो मौत भी शर्मा गई तो क्या होगा। (अहसान बिन 'दानिश')
मेरा मकान शायद है ज़लज़लों का दफ़्तर
दीवारें मुतमइन हैं हर वक़्त ख़ुदकुशी को। (ज्ञान प्रकाश विवेक)
मंजु जी, आपकी बात सही है,लेकिन मुझे "चिन्नी" का अर्थ समझ नहीं आ रहा था,इसलिए मुझे अपना दिमाग लगाना पड़ा। आईंदा ऐसा नहीं होगा....ये खेल होगा नहीं दुबारा :) । ये रहा आपका आज का शेर:
ए मेरे रुस्तम! कैसे बयाँ करूं हाल दिल
खुदकुशी करने को जी चाहता है।
शामिख जी ने कई शेरों के बीच गुलज़ार साहब की एक त्रिवेणी भी पेश की। बानगी देखिए:
कैसे लोग हैं क्या खूब मुन्सुफी की है,
हमारे क़त्ल को कहते हैं खुदखुशी की है. (प्रकाश अर्श)
कितने तारो ने यहाँ टूटकर ख़ुदकाशी की है
कब से बोझ से हाँफ़ रहा था बेचारा।
चलो आसमान को कुछ मुक्ति तो मिली (गुलज़ार)
निर्मला जी, महफ़िल में आपका स्वागत है। आप अगर कोई शेर भी साथ ले आएँ तो महफ़िल में चार चाँद लग जाए।
शरद जी, कोई बात नहीं, देर आए दुरूस्त आए...पर आए तो सही :)। आपका स्वरचित शेर कमाल का है:
दर्द के साथ दोस्ती कर ली
इसलिए मैने खुदकुशी कर ली
ज़िन्दगी को सवांरने के लिए
हमने बरबाद ज़िन्दगी कर ली।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
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22 श्रोताओं का कहना है :
इतना मानूस न हो ख़िलवतेग़म से अपनी तू कभी खुद को भी देखेगा तो ड़र जायेगा
ahmad faraz
आँख से दूर न हो दिल से उतर जायेगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जायेगा
इतना मानूस न हो ख़िलवतेग़म से अपनी
तू कभी खुद को भी देखेगा तो ड़र जायेगा
{मानूस == intimate /familiar, ख़िलवत-ए-ग़म == sorrow of loneliness}
तुम सरेराहेवफ़ा देखते रह जाओगे
और वो बामेरफ़ाक़त से उतर जायेगा
{सर-ए-राह-ए-वफ़ा == path of love, बाम-ए-रफ़ाक़त == responsibility towards love (literal meaning is Terrace (Baam) or Company or Closeness (Rafaaqat)}
ज़िंदगी तेरी अता है तो ये जानेवाला
तेरी बख़्शिश तेरी दहलीज़ पे धर जायेगा
{अता == grant/gift, बख़्शिश == donation, दहलीज़ ==doorstep}
ड़ूबते ड़ूबते कश्ती को उछाला दे दूँ
मै नहीं कोई तो साहिल पे उतर जायेगा
{उछाला ==upward push}
ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का ‘फ़राज़’
ज़ालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जायेगा
महफिले ग़ज़ल १४
नुसरत फतह अली खान
रहमत ग्रामोफोन"
महफिले गज़ल ४२
शुभा मुदगल
श्रेय निर्देशक मुज़फ़्फ़र अली को दिया जाता है.
महफिले गज़ल ३३
संगीतकार जोड़ी : "हुस्नलाल-भगतराम"
बड़े भाई "पंडित अमरनाथ"
फनकार का नाम "मास्टर मदन"
तेरा अल्ताफ़-ओ-करम एक हक़ीक़त है मगर
ये हक़ीक़त भी हक़ीक़त में फ़साना ही न हो
तेरी मानूस निगाहों का ये मोहतात पयाम
दिल के ख़ूं का एक और बहाना ही न हो
साहिर लुध्यान्वी
गये दिनों का सुराग़ लेकर किधर से आया किधर गया वो
अजीब मानूस अजनबी था मुझे तो हैरान कर गया वो
nasir qazmi
ये भी वा[१३] है किसी मानूस[१४] किरन की ख़ातिर[१५]
रोज़ने-दर[१६] को भी इक दीदा-ए-बेख़्वाब[१७] समझ
ahmad faraz
लिखा है..... मुझको भी लिखना पड़ा है
जहाँ से हाशिया छोड़ा गया है
अगर मानूस है तुम से परिंदा
तो फिर उड़ने को पर क्यूँ तौलता है
akhtar nazmi
इतना मानूस हूँ सन्नाटे से
कोई बोले तो बुरा लगता है
ahmad nadeem kasmi
कुछ, हम भी अब इस दर्द से मानूस बहुत हैं
कुछ, दर्दे-जुदाई का मदावा भी नहीं था
makhmoor saeedi
आँख से दूर न हो.........
ये ग़ज़ल मैंने कई बार सुनी है
मुझे लगता था ये शब्द मायूस है आज समझ आया ये मायूस नहीं मानूस है
शमिख जी को ग़ज़ल का अर्थ बताने के लिए धन्यवाद
मानूस शब्द से तो कोई शेर याद नहीं......अगली महफिल में मिलेंगे
निदा जी के बारे में गहन जानकारी मिली .Meri kbr par फतह वाली नज्म जब पढ़ते है तो लाजवाब लगती है .कई बार मैंने मंचों पर सुनी है .जवाब है -मानूस
स्वरचित -ये पेड़ ,फूल,सागर ही तो मेरे मानूस हैं ,
खिलवत ए गम की दवा जो है .
महफिले ग़ज़ल १४
नुसरत फतह अली खान
रहमत ग्रामोफोन"
तन्हा जी,
एक नज़र आप लोग जरा मेरे मायूस शेर पर भी फेंकने की तकलीफ कीजिये:
देर हो चुकी है बहुत ये मानूस दिल
अपनी कलम से हम दुश्मन बना बैठे.
कल अवकाश की वजह से कंप्यूटर पर आना नहीं हो पाया
आँख से दूर न हो दिल से उतर जायेगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जायेगा
इतना मानूस न हो ख़िल्वत-ए-ग़म से अपनी
तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जायेगा
तुम सर-ए-राह-ए-वफ़ा देखते रह जाओगे
और वो बाम-ए-रफ़ाक़त से उतर जायेगा
ज़िन्दगी तेरी अता है तो ये जानेवाला
तेरी बख़्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जायेगा
डूबते डूबते कश्ती तो ओछाला दे दूँ
मैं नहीं कोई तो साहिल पे उतर जायेगा
ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का "फ़राज़"
ज़ालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जायेगा
अहमद फ़राज़
regards
1 ) जब तेरी धुन में जिया करते थे.....महफ़िल-ए-हसरत और बाबा नुसरत
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१४
नुसरत फ़तेह अली खान साहब
रहमत ग्रामोफोन
regards
2)ओ क़ाबा-ए-दिल ढाहने वाले, बुतखाना हूँ तो तेरा हूँ.... "ज़हीन" के शब्द और "शुभा" की आवाज़
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४२
शुभा मुद्गल
फिल्म निर्देशक मुज़फ़्फ़र अली
regards
इन राहों के पत्थर भी मानूस थे पाँवों से
पर मैंने पुकारा तो कोई भी नहीं बोला
(दुष्यंत कुमार)
मानूस कुछ ज़रूर है इस जलतरंग में
एक लहर झूमती है मेरे अंग-अंग में
(आलम खुर्शीद )
regards
प्रश्न १ " कडी १४ /नुसरत फ़तेह अली खान/ रहमत ग्रामोफ़ोन
प्रश्न २ ’ कडी़ ४२ / शुभा मुदगल /फ़ैज़ का नागरिक अभिनन्दन / मुजफ़्फ़र अली
प्रश्न ३ ’ कडी ३३ /सागर निजामी/मास्टर मदन/ पं अमरनाथ/हुस्नलाल भगत राम
tanha ji isi gazal ka maqta aap pahle b mafile gzal me puch chuke hain. kafi pasand hai aapko yeh gazal kya.
शामिख जी,
शेरों का जो हिसाब है तो वो सेक्शन सजीव जी संभालते हैं। मैं तो बस आलेख लिखता हूँ और नीचे का सेक्शन एडिट करता हूँ। इसलिए मुमकिन है कि सजीव जी को यह गज़ल बहुत पसंद हो। पूछना पड़ेगा :)
-विश्व दीपक
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