रेडियो प्लेबैक वार्षिक टॉप टेन - क्रिसमस और नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित


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प्लेबैक की टीम और श्रोताओं द्वारा चुने गए वर्ष के टॉप १० गीतों को सुनिए एक के बाद एक. इन गीतों के आलावा भी कुछ गीतों का जिक्र जरूरी है, जो इन टॉप १० गीतों को जबरदस्त टक्कर देने में कामियाब रहे. ये हैं - "धिन का चिका (रेड्डी)", "ऊह ला ला (द डर्टी पिक्चर)", "छम्मक छल्लो (आर ए वन)", "हर घर के कोने में (मेमोरीस इन मार्च)", "चढा दे रंग (यमला पगला दीवाना)", "बोझिल से (आई ऍम)", "लाईफ बहुत सिंपल है (स्टैनले का डब्बा)", और "फकीरा (साउंड ट्रेक)". इन सभी गीतों के रचनाकारों को भी प्लेबैक इंडिया की बधाईयां

Tuesday, October 20, 2009

ज़रा सामने तो आओ छलिये...एक ऐसा गीत जो ख़तम होने के बाद भी देर तक गूंजता रहेगा आपके जेहन में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 237

मारी फ़िल्म इंडस्ट्री में शुरु से ही कुछ प्रथाएँ चली आ रही हैं। फ़िल्मों को ए-ग्रेड, बी-ग्रेड और सी-ग्रेड करार दिया जाता है, लेकिन जिन मापदंडों को आधार बनाकर ये ग्रेड दिए गए हैं, उनसे शायद बहुत लोग सहमत न हों। आम तौर पर क्या होता है कि बिग बजट फ़िल्मों, बड़े निर्माताओं और निर्देशकों के फ़िल्मों को ए-ग्रेड कहा जाता है, जिनका वितरण और पब्लिसिटी भी जम कर होती है, और ये फ़िल्में चलती भी हैं और इनका संगीत भी हिट होता है। दूसरी तरफ़ पौराणिक और स्टंट फ़िल्मों का भी एक जौनर शुरु से रहा है। फ़िल्में अच्छी होने के बावजूद भी इनकी तरफ़ लोग कम ही ध्यान देते हैं और इन्हे सी-ग्रेड करर दिया जाता है। यहाँ तक कि बड़े संगीतकार डरते रहे हैं ऐसी फ़िल्मों में संगीत देने से, क्योंकि उनका विचार है कि एक बार माइथोलोजी में चले गए तो वहाँ से बाहर निकलना नामुम्किन है। आनंदजी भाई ने भी यही बात कही थी जब उन्हे शुरु शुरु में पौराणिक फ़िल्मों के ऑफर मिले थे। बात चाहे बुरी लगे सुनने में लेकिन बात है तो सच्ची! पौराणिक फ़िल्मों के ना चलने से इन फ़िल्मों के गीत संगीत भी पीछे ही रह जाते रहे हैं। लेकिन समय समय पर कुछ ऐसी धार्मिक फ़िल्में भी बनी हैं जिन्होने दूसरी सामाजिक फ़िल्मों की तरह ही ख्याति अर्जित की है। ऐसी ही एक फ़िल्म थी 'जनम जनम के फेरे' और इस फ़िल्म का एक गीत "ज़रा सामने तो आओ छलिए" ने वो सारे रिकार्ड बनाए जो कि किसी 'सो-कॊल्ड' ए-ग्रेड फ़िल्म के गीत बनाया करते हैं। यह गीत सब से बड़ा उदाहरण है कि जब किसी सी-ग्रेड फ़िल्म का गीत लोकप्रिय फ़िल्मी गीतों की मुख्य धारा में जा कर मिल जाता है और उनसे भी ज़्यादा लोकप्रिय हो जाता है। १९५७ की फ़िल्म का यह गीत उस साल की दूसरी -ए-ग्रेड फ़िल्मों जैसे कि 'प्यासा', 'पेयिंग् गेस्ट', 'देख कबीरा रोया', 'दो आँखें बारह हाथ', 'मदर इंडिया', 'नौ दो ग्यारह', 'चोरी चोरी', 'बसंत बहार' और 'तुमसा नहीं देखा' जैसी म्युज़िकल फ़िल्मों के गीतों को पछाड़ते हुए उस साल के अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत बिनाका गीतमाला के सरताज गीत के रूप में चुना गया था। यानी कि १९५७ का सब से लोकप्रिय गीत! यह वाक़ई अचरज की बात थी। और आगे चलकर 'जय संतोषी माँ' एक फ़िल्म और ऐसी रही जिसे ख़ूब ख़ूब कामयाबी नसीब हुई। तो आइए आज सुनते हैं 'जनम जनम के फेरे' फ़िल्म का यह सुपरहिट गीत। हाल ही में गायक शब्बीर कुमार विविध भारती पर तशरीफ़ लाए थे। जब उनसे उनके बचपन के दिनों के बारे में पूछा गया तो उन्होने बताया कि गुजरात के बड़ोदा के किसी गाँव में रहते वक़्त किस तरह से गाँव वालों के अनुरोध पर वे और उनकी बड़ी बहन यही गीत गाया करते थे और इनाम के रूप में उन्हे मिलते थे स्वादिष्ट रसीले आम।

सुभाष देसाई निर्मित फ़िल्म 'जनम जनम के फेरे' का निर्देशन किया था मनमोहन देसाई ने और मुख्य भूमिकाओं में थे निरुपा राय, मन्हर देसाई, बी. एम. व्यास और एस. एन त्रिपाठी। ये सारे कलाकार उस ज़माने के माइथोलोजी जौनर के फ़िल्मों के अग्रणी कलाकार हुआ करते थे। एस. एन. त्रिपाठी जहाँ एक तरफ़ इस जौनर के फ़िल्मों में संगीत दिया करते थे, वहीं दूसरी तरफ़ ऐसी फ़िल्मों में वे छोटे मोटे किरदार भी निभाया करते थे। इस फ़िल्म में उन्ही का संगीत है और उनके जोड़ीदार गीतकार भरत व्यास ने फ़िल्म के गानें लिखे हैं। निरुपा राय ने इस फ़िल्म में सती अन्नपूर्णा का किरदार निभाया था। शुरु शुरु में फ़िल्म का शीर्षक 'सती अन्नपूर्णा' ही रखा गया था, लेकिन इस डर से कि इस शीर्षक से फ़िल्म नहीं चलेगी, इसलिए फ़िल्म का नाम बदल कर रख दिया गया 'जनम जनम के फेरे', जिससे कि माइथोलोजिकल होते हुए भी एक सामाजिक छुअन सी आ गई फ़िल्म में, और फ़िल्म उस समय के दूसरे पौराणिक फ़िल्मों से बेहतर चली। तो चलिए सुनते हैं लता मंगेशकर और रफ़ी साहब की आवाज़ों में "ज़रा सामने तो आओ छलिए"।



ज़रा सामने तो आओ छलिये
छुप छुप छलने में क्या राज़ है
यूँ छुप ना सकेगा परमात्मा
मेरी आत्मा की ये आवाज़ है
ज़रा सामने ...

हम तुम्हें चाहे तुम नहीं चाहो
ऐसा कभी नहीं हो सकता
पिता अपने बालक से बिछुड़ से
सुख से कभी नहीं सो सकता
हमें डरने की जग में क्या बात है
जब हाथ में तिहारे मेरी लाज है
यूँ छुप ना सकेगा परमात्मा
मेरी आत्मा की ये आवाज़ है
ज़रा सामने ...

प्रेम की है ये आग सजन जो
इधर उठे और उधर लगे
प्यार का है ये क़रार जिया अब
इधर सजे और उधर सजे
तेरी प्रीत पे बड़ा हमें नाज़ है
मेरे सर का तू ही सरताज है
यूँ छुप ना सकेगा परमात्मा
मेरी आत्मा की ये आवाज़ है
ज़रा सामने ...


और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. गीतांजली पिक्चर्स के बैनर टेल बनी सबसे उल्लेखनीय फिल्म जिसके सभी गीत एक से बढ़कर एक थे.
२. इस संजीदा फिल्म में हलके फुल्के कुछ पल दे जाता है ये गीत.
३. डॉक्टर्स की भूमिका के इतर अक्सर अनदेखी रह जाती है नर्सों के काम की अहमियत. सेवा के इसी पहलू को समर्पित शायद एकलौता गीत है ये.

पिछली पहेली का परिणाम -

आखिर लम्बे इंतज़ार के बाद हमें हमारा ३ तीसरा विजेता मिल ही गया, या कहें मिल गयी....भाई ढोल नगाडे बजाओ.....पूर्वी जी, बहुत बहुत बधाई.....अब जल्दी से भेजिए अपनी पसदं हमें....ताकि हम सब भी आनंद लें आपके चुने हुए गीतों का :)

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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7 श्रोताओं का कहना है :

शरद तैलंग का कहना है कि -

फ़िल्म " खामोशी
गीत : दोस्त कहाँ कोई तुम सा
गायक : मन्ना डे

purvi का कहना है कि -

बहुत शुक्रिया, बड़ी मेहरबानी.... ढोल नगाडे बजवाने के लिए :) और यह यादगार गीत सुनवाने के लिए .

बधाई शरद जी.

सजीव जी,
आपको आज सुबह hindyugm@gmail.com par मेल भेज दी थी, अब तक आपको हमारी लिस्ट मिल चुकी होगी??

निशांत मिश्र - Nishant Mishra का कहना है कि -

सजीव जी, इस गीत से जुदा एक पक्ष शायद आपको पता हो... या न पता हो. इसके लेखक भरत व्यास का आठ-नौ साल का बालक कहीं खो गया और फिर कभी नहीं मिला. इस गीत में भरत व्यास ने अपना सारा दुःख उडेल दिया.

शरद जी का जवाब सही है? लगता तो है.

Parag का कहना है कि -

निशांत जी आपने यह बात बताकर फिर जब मैंने यह गाना सुना तो दिल को छू गया. बस आगे कुछ लिखने को नहीं है.
पराग

राज भाटिय़ा का कहना है कि -

बहुत सुंदर गीत सुनाया आप ने, धन्यवाद

AVADH का कहना है कि -

निशांत जी की टिप्पणी श्री भरत व्यास जी ने विविध भारती पर अपने इंटरव्यू/ रेडियो प्रोग्राम पर स्वयं स्वीकार की थी. वास्तव में पुत्र से बिछुड़ने का पूरा दुःख श्रोता गाना सुनते समय महसूस कर सकता है.
आभार सहित
अवध लाल

Shamikh Faraz का कहना है कि -

बहुत ही सुन्दर गीत

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