रेडियो प्लेबैक वार्षिक टॉप टेन - क्रिसमस और नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित


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प्लेबैक की टीम और श्रोताओं द्वारा चुने गए वर्ष के टॉप १० गीतों को सुनिए एक के बाद एक. इन गीतों के आलावा भी कुछ गीतों का जिक्र जरूरी है, जो इन टॉप १० गीतों को जबरदस्त टक्कर देने में कामियाब रहे. ये हैं - "धिन का चिका (रेड्डी)", "ऊह ला ला (द डर्टी पिक्चर)", "छम्मक छल्लो (आर ए वन)", "हर घर के कोने में (मेमोरीस इन मार्च)", "चढा दे रंग (यमला पगला दीवाना)", "बोझिल से (आई ऍम)", "लाईफ बहुत सिंपल है (स्टैनले का डब्बा)", और "फकीरा (साउंड ट्रेक)". इन सभी गीतों के रचनाकारों को भी प्लेबैक इंडिया की बधाईयां

Saturday, October 24, 2009

ठंडी हवाएं लहराके आये....साहिर, बर्मन दा और लता का संगम



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 241

हिंदी फ़िल्म संगीत जगत में गीतकार-संगीतकार की जोडियाँ कोई नई बात नहीं है। चाहे आरज़ू लखनवी व आर. सी. बोराल की जोड़ी हो, या क़मर जलालाबादी व हुस्नलाल भगतराम की जोड़ी, शैलेन्द्र/हसरत - शंकर जयकिशन हो, या फिर शक़ील-नौशाद की जोड़ी, फ़िल्म संगीत के हर युग में, हर दौर में इस तरह की जोडियों की भरमार रही है। इन में से कुछ कलाकार ऐसे भी थे जिन्होने एक से ज़्यादा जोडियाँ बनाई। ऐसे ही एक गीतकार थे साहिर लुधियानवी और ऐसे ही एक संगीतकार थे सचिन देव बर्मन। साहिर साहब ने सचिन दा के साथ तो काम किया ही, संगीतकार रवि के साथ भी उनकी ट्युनिंग् बहुत अच्छी जमी। ठीक उसी तरह सचिन दा के साथ साहिर के अलावा गीतकार शैलेन्द्र, मजरूह, नीरज और कुछ हद तक आनंद बक्शी ने अच्छी पारी खेली। दोस्तों, कितनी अजीब बात है कि २५ अक्तुबर को साहिर साहब की पुण्य तिथि है और उसके ठीक ६ दिन बाद, ३१ अक्तुबर को है बर्मन दादा की पुण्य तिथि। इसलिए इन दो महान कलाकारों की जोड़ी को एक साथ स्मरण करने का यही उचित समय है, और उन्होनें एक साथ मिलकर जो सदाबहार नग़में हमें दिए हैं उन्हे एक बार फिर सुनने का यही एक लाजवाब मौका है। तो चलिए, आज से अगले दस दिनों तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुनिए साहिर लुधियानवी के लिखे हुए गीत जिन्हे सुरों में पिरोया है सचिन देव बर्मन ने, यह है हमारी ख़ास पेशकश 'जिन पर नाज़ है हिंद को'। इस शृंखला के लिए पहला गीत जो हमने चुना है वह साहिर साहब की पहली प्रदर्शित फ़िल्म भी है। और पहली ही फ़िल्म में उन्हे मिली अपार सफलता। यह है १९५१ की फ़िल्म 'नौजवान' का सदाबहार गीत "ठंडी हवाएँ लहराके आयें, रुत है जवाँ तुमको यहाँ कैसे बुलायें"। लता जी की नई ताज़ी कमसीन आवाज़ में यह गीत बेहद सुरीला बन पड़ा है। जहाँ एक तरफ़ गीत मे इस धरती का सुरीलापन है, वहीं कुछ कुछ पाश्चात्य रंग भी है, आलाप भी है, हमिंग् भी है, व्हिस्लिंग् भी है। कुल मिलाकर उस ज़माने के लिहाज़ से एक नया प्रयोग रहा है यह गीत। और उससे भी ज़्यादा ख़ास बात यह कि इस गीत की धुन पर आगे चलकर दो और गीत बनें जिन्हे भी अपार सफलता हासिल हुई। इनमें से एक है रोशन के संगीत निर्देशन में फ़िल्म 'ममता' का गीत "रहें ना रहें हम", जिसके लिए रोशन साहब ने सचिन दा की अनुमती ली थी, और दूसरा गीत है छोटे नवाब पंचम का फ़िल्म 'सागर' का गीत "सागर किनारे दिल ये पुकारे"।

सचिन देव बर्मन का फ़िल्म जगत में पदार्पण सन् १९४१ में हुआ था बतौर गायक, और फ़िल्म थी 'ताज महल', जिसके सगीतकार थे माधवलाल (मधुलाल) दामोदर मास्टर। हालाँकि उन्होने सन् १९४० में ही बंगला फ़िल्म 'राजकुमार निर्शोने' में संगीत दे चुके थे, हिंदी फ़िल्मों में उन्होने पहली बार संगीत दिया सन् १९४४ में जब फ़िल्मिस्तान के शशधर मुखर्जी ने उन्हे न्योता दिया अपनी दो फ़िल्मों ('आठ दिन' और 'शिकारी') में संगीत देने का। इन दोनों फ़िल्मों में गीत लिखे क़मर जलालाबादी ने। उसके बाद १९४७ में फ़िल्म 'दो भाई' में संगीत देकर उन्हे पहली बड़ी सफलता हासिल हुई, इस फ़िल्म में उनके गीतकार रहे राजा मेहंदी अली ख़ान। १९४९ की फ़िल्म 'शबनम' में एक बार फिर क़मर साहब ने दादा के लिए गीत लिखे। फिर उसके बाद १९५० की फ़िल्म 'मशाल' में बर्मन दादा की धुनों के लिए कवि प्रदीप ने गीत लिखे। और फिर आया १९५१ का साल जिससे शुरुआत हुई सचिन देव बर्मन और साहिर लुधियानवी के जोड़ी की, जिस जोड़ी ने ५० के दशक में एक से एक हिट और बेहद सुरीले गीत दिए। निस्संदेह इन गीतों का उनके फ़िल्मों की कामयाबी में बड़ा हाथ रहा। साहिर साहब १९४९ में बम्बई आए थे और सहायक संवाद लेखक की हैसीयत से नौकरी कर रहे थे। १९५१ में महेश कौल ने अपनी फ़िल्म 'नौजवान' के लिए उन्हे गीतकार चुना और इस तरह से फ़िल्म जगत को मिला एक बेहतरीन गीतकार। नलिनी जयवंत और प्रेम नाथ अभिनीत यह फ़िल्म अगर आज लोग याद करते हैं तो बस आज के प्रस्तुत गीत की वजह से। वैसे तो प्रदर्शित होने वाले तारीख़ के लिहाज़ से 'नौजवान' ही साहिर साहब की पहली फ़िल्म है बतौर गीतकार, लेकिन कहा जाता है कि उन्होने सब से पहले अनिल विश्वास के साथ १९५० की फ़िल्म 'दोराहा' में काम किया था, लेकिन फ़िल्म बाद में रिलीज़ हुई। फ़िल्म 'दोराहा' में तलत महमूद के गाए कुछ हिट गीत रहे "मोहब्बत तर्क की मैने", "दिल में बसाके मीत बनाके भूल ना जाना प्रीत पुरानी" और "तेरा ख़याल दिल से मिटाया नहीं कभी, बेदर्द मैने तुझको भुलाया नहीं अभी"। तो दोस्तों, आइए अब सुना जाए आज का गीत। साहिर साहब और बर्मन दादा से संबधित बातें आगे भी जारी रहेंगी इस शृंखला में। अब दीजिए इजाज़त, कल फिर होगी मुलाक़ात, फिलहाल आप ठंडी हवाओं का आनंद लीजिए, और याद कीजिए अपने उस पहले पहले प्यार को जिसके इंतज़ार में आप कुछ इसी तरह की ठंडी आहें भरा करते थे कभी।



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (पहले तीन गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी, स्वप्न मंजूषा जी और पूर्वी एस जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

१. साहिर साहब का लिखा एक यादगार गीत.
२. संगीत बर्मन दा का है.
३. एक अंतरे की पहली पंक्ति में शब्द है -"दौलत".

पिछली पहेली का परिणाम -

पराग जी बिलकुल सही, एक कदम और आप आगे बढ़ गए हैं. बधाई, "नौजवान" साहिर साहब की पहली प्रर्दशित फिल्म थी, हाँ शरद जी ने जिस फिल्म का नाम लिया वो भी पहली फिल्म हो सकती है, बाज़ी उसके बाद प्रर्दशित हुई थी ये तय है.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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3 श्रोताओं का कहना है :

Parag का कहना है कि -

यह महलों यह तख्तों यह ताजोंकी दुनिया : फिल्म प्यासा

शरद तैलंग का कहना है कि -

जीवन के सफ़र में राही मिलते है बिछड जाने को
फ़िल्म : मुनीम जी
ये रूप की दौलत वाले , कब सुनते है दिल के नाले

AVADH का कहना है कि -

मेरे ज़हन में सबसे पहले 'यह दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है' आया था.
पर ' जीवन के सफ़र में राही' भी ठीक जवाब है.
तो आपका निर्णय क्या है.
अवध लाल

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