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Thursday, October 22, 2009

ऐ राहत-ए-जाँ मुझको रुलाने के लिए आ...."फ़राज़" के शब्द और "रूना लैला" की आवाज़...



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५६

ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं सीमा जी की पसंद की चौथी गज़ल लेकर। आज की गज़ल पिछली तीन गज़लों की हीं तरह खासी लोकप्रिय है। न सिर्फ़ इस गज़ल के चाहने वाले बहुतेरे हैं, बल्कि इस गज़ल के गज़लगो का नाम हर गज़ल-प्रेमी की जुबान पर काबिज़ रहता है। इस गज़ल को गाने वाली फ़नकारा भी किसी मायने में कम नहीं हैं। हमारे लिए अच्छी बात यह है कि हमने महफ़िल-ए-गज़ल में इन दोनों को पहले हीं पेश किया हुआ है...लेकिन अलग-अलग। आज यह पहला मौका है कि दोनों एक-साथ महफ़िल की शोभा बन रहे हैं। तो चलिए हम आज की महफ़िल की विधिवत शुरूआत करते हैं। उससे पहले एक आवश्यक सूचना: ५६ कड़ियों से महफ़िल सप्ताह में दो दिन सज रही है। शुरू की तीन कड़ियो में हमने दो-दो गज़लें पेश की थीं और उस दौरान महफ़िल का अंदाज़ कुछ अलग हीं था। फिर हमे उस अंदाज़, उस तरीके, उस ढाँचे में कुछ कमी महसूस हुई और हमने उसमें परिवर्त्तन करने का निर्णय लिया और वह निर्णय बेहद सफ़ल साबित हुआ। अब चूँकि उस निर्णय पर हमने ५० से भी ज्यादा कड़ियाँ तैयार कर ली हैं तो हमें लगता है कि बदलाव करने का फिर से समय आ गया है। तो अभी तक हम जिस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं, उसके अनुसार अगले सप्ताह से महफ़िल सप्ताह में एक हीं दिन सजेगी और वह दिन रहेगा..बुधवार। महफ़िल में और भी क्या परिवर्त्तन आएँगे, इस पर अंतिम निर्णय अभी बाकी है। इसलिए आपको वह परिवर्त्तन देखने के लिए अगले बुधवार २८ अक्टूबर तक इंतज़ार करना होगा। अगर आप कुछ सुझाव देना चाहें तो आपका स्वागत है। कृप्या रविवार सुबह तक अपनी टिप्पणियों के माध्यम से अपने विचार हम तक प्रेषित कर दें। धन्यवाद!!

चलिए अब आज के फ़नकार की बात करते हैं। आज की महफ़िल को हमने अहमद फ़राज़ साहब के सुपूर्द करने का फ़ैसला किया है। फ़राज़ साहब के बारे में अपने पुस्तक "आज के प्रसिद्ध शायर- अहमद फ़राज़" में कन्हैया लाल नंदन साहब लिखते हैं: अहमद फ़राज़,जिनका असली नाम सैयद अहमद शाह है, का जन्म पाकिस्तान के सरहदी इलाके कोहत में १४ जनवरी १९३१ को हुआ। उनके वालिद (पिता) एक मामूली शिक्षक थे। वे अहमद फ़राज़ को प्यार तो बहुत करते थे लेकिन यह मुमकिन नहीं था कि उनकी हर जिद वे पूरी कर पाते। बचपन का वाक़या है कि एक बार अहमद फ़राज़ के पिता कुछ कपड़े लाए। कपड़े अहमद फ़राज़ को पसन्द नहीं आए। उन्होंने ख़ूब शोर मचाया कि ‘हम कम्बल के बने कपड़े नहीं पहनेंगे’। इस पर उन्होंने अपनी ज़िंदगी का सबसे पहला शेर भी कह दिया:

लाए हैं सबके लिए कपड़े सेल से,
लाए हैं हमारे लिए कपड़े जेल से।

बात यहाँ तक बढ़ी कि ‘फ़राज़’ घर छोड़कर फ़रार हो गए। वह फ़रारी तबियत में जज़्ब हो गई। आज तक अहमद फ़राज़ फ़रारी जी रहे हैं। कभी लन्दन, कभी न्यूयार्क, कभी रियाद तो कभी मुम्बई और हैदराबाद।
जानकारी के लिए बता दें कि "फ़राज़" साहब पिछले अगस्त २५ अगस्त को सुपूर्द-ए-खाक हो चुके हैं। इसी पुस्तक में नंदन साहब आगे लिखते हैं: अहमद फ़राज़ की शोहरत ने अब अपने गिर्द एक ऐसा प्रभामण्डल पैदा कर लिया है जिसमें उनकी साम्राज्यवाद और वाज़ीवाद से जूझने वाले एक क्रान्तिकारी रुमानी शायर की छवि चस्पाँ है। फ़राज़ का अपना निजी जीवन भी इस प्रभामण्डल के बनाने में एक कारण रहा है, उन्होंने अपनी उम्र का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान से बाहर गुज़ारा है और वे एक जिलावतन (देशनिकाला) शायर के रूप में पहचाने और सराहे गए हैं। इसके अक्स उनकी शायरी में जगह-जगह हैं। उसमें देश से दूर रहने, देश के लिए तड़पने का एहसास, हिजरत की पीड़ा और हिजरत करने वालों का दर्द जगह-जगह मिलता है। बखूबी हम इसे फ़राज़ की शायरी के विभिन्न रंगों का एक ख़ास रंग कह सकते हैं। हिजरत यानी देश से दूर रहने की पीड़ा और अपने देश की यादें अपनी विशेष शैली और शब्दावली के साथ उनके यहाँ मिलती हैं। कुछ शेर देंखें :

वो पास नहीं अहसास तो है, इक याद तो है, इक आस तो है
दरिया-ए-जुदाई में देखो तिनके का सहारा कैसा है।

मुल्कों मुल्कों घूमे हैं बहुत, जागे हैं बहुत, रोए हैं बहुत
अब तुमको बताएँ क्या यारो दुनिया का नज़ारा कैसा है।

ऐ देश से आने वाले मगर तुमने तो न इतना भी पूछा
वो कवि कि जिसे बनवास मिला वो दर्द का मारा कैसा है।


अपनी पुस्तक "खानाबदोश" की भूमिका में वे लिखते है: मुझे इसका ऐतराफ़ करते हुए एक निशात-अंगेज़ फ़ख़्र महसूस होता है कि जिस शायरी को मैंने सिर्फ़ अपने जज़्बात के इज़हार का वसीला बनाया था इसमें मेरे पढ़ने वालों को अपनी कहानी नज़र आई और अब ये आलम है कि जहाँ-जहाँ भी इन्सानी बस्तियाँ हैं और वहाँ शायरी पढ़ी जाती है मेरी किताबों की माँग है और गा़लिबन इसलिए दुनिया की बहुत सी छोटी-बड़ी जु़बानों में मेरी शायरी के तर्जुमे छप चुके हैं या छप रहे हैं। इस मामले में मैं अपने आपको दुनिया के उन चन्द ख़ुशक़िस्मत लिखने वालों में शुमार पाता हूँ जिन्हें लोगों ने उनकी ज़िन्दगी में ही बे-इन्तिहा मोहब्बत और पज़ीराई बख़्शी है। हिन्दुस्तान में अक्सर मुशायरों में शिरकत से मुझे ज़ाती तौर पर अपने सुनने और पढ़ने वालों से तआरुफ़ का ऐज़ाज़ मिला और वहाँ के अवाम के साथ-साथ निहायत मोहतरम अहले-क़लम ने भी अपनी तहरीरों में मेरी शेअरी तख़लीक़ात को खुले दिल से सराहा। इन बड़ी हस्तियों में फ़िराक़, अली सरदार जाफ़री, मजरूह सुल्तानपुरी, डॉक्टर क़मर रईस, खुशवंत सिंह, प्रो. मोहम्मद हसन और डॉ. गोपीचन्द नारंग ख़ासतौर पर क़ाबिले-जिक्र हैं। इसके अलावा मेरी ग़ज़लों को आम लोगों तक पहुँचाने में हिन्दुस्तानी गुलूकारों ने भी ऐतराफ़े-मोहब्बत किया, जिनमें लता मंगेशकर, आशा भोंसले, जगजीत सिंह, पंकज उधास और कई दूसरे नुमायाँ गुलूकार शामिल हैं। फ़राज़ साहब यूँ हीं हम सब की आँखों के तारे नहीं थे। कुछ तो बात थी या कहिए है कि उनका लिखा एक-एक हर्फ़ हमें बेशकिमती मालूम पड़ता है। उदाहरण के लिए इसी शेर को देख लीजिए:

जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया
अब तुम तो ज़िन्दगी की दुआयें मुझे न दो ...


क्या बात है!!! पढकर ऐसा लगता है कि मानो कोई हमारी हीं कहानी सुना रहा हो। आप क्या कहते हैं?

अब पेश है वह गज़ल जिसके लिए आज की महफ़िल सजी है। हमें पूरा यकीन है कि यह आपको बेहद पसंद आएगी। तो लुत्फ़ उठाने के लिए तैयार हो जाईये:

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मोहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ

पहले से मरासिम न सही, फिर भी कभी तो
रस्मों-रहे दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझसे ख़फ़ा है, तो ज़माने के लिए आ

इक उम्र से हूँ लज़्ज़त-ए-गिरिया से भी महरूम
ऐ राहत-ए-जाँ मुझको रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-ख़ुशफ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें
ये आखिरी शमएँ भी बुझाने के लिए आ




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

आज जो दीवार पर्दों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन ये थी कि ___ हिलनी चाहिए


आपके विकल्प हैं -
a) नींव, b) बुनियाद, c) सरकार, d) आधार

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "हिचकी" और शेर कुछ यूं था -

आखिरी हिचकी तेरे ज़ानों पे आये,
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ ....

क़तील शिफ़ाई साहब के इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना "सीमा" जी ने। "हिचकी" शब्द पर आपने कुछ शेर भी पेश किए:

साथ हर हिचकी के लब पर उनका नाम आया तो क्या?
जो समझ ही में न आये वो पयाम आया तो क्या? (आरज़ू लखनवी)

तेरी हर बात चलकर यूँ भी मेरे जी से आती है,
कि जैसे याद की खुशबू किसी हिचकी से आती है। (डा. कुँअर 'बेचैन')

सीमा जी के बाद महफ़िल की शान बने "शामिख" जी। यह रही आपकी पेशकश:

नसीम-ए-सुबह गुलशन में गुलों से खेलती होगी,
किसी की आखरी हिचकी किसी की दिल्लगी होगी

ये नन्हे से होंठ और यह लम्बी-सी सिसकी देखो,
यह छोटा सा गला और यह गहरी-सी हिचकी देखो। (सुभद्राकुमारी चौहान)

इनके बाद महफ़िल में हाज़िर हुए अपने स्वरचित शेरों के साथ शरद जी और मंजु जी। ये रही आप दोनों की रचनाएँ। पहले शरद जी:

मैं इसलिए तुझे अब याद करूंगा न सनम
जो हिचकियाँ तुझे चलने लगीं तो बन्द न होंगीं।

इधर हिचकी चली मुझको ,उधर तू मुझको याद आई
मगर ये तय है कि तुझको भी अब हिचकी चली होगी।

और अब मंजु जी:

हिचकी थमने का नाम ही नहीं ले रही थी ,
सजा ए मौत लगने लगी ,
रोकने के लिए कई टोटके भी किये ,
जैसे ही उसका नाम लबों ने लिया
झट से गायब हो गयी .

दिशा जी, आप महफ़िल में आईं, बहुत अच्छा लगा....लेकिन शेर की कमी खल गई। अगली बार ध्यान दीजिएगा।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

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22 श्रोताओं का कहना है :

Shamikh Faraz का कहना है कि -

आज यह दीवार ,पर्दों की तरह हिलने लगी . शर्त लेकिन थी कि यह बुनियाद हिलनी चाहिए आपकी.

दुष्यंत कुमार

Shamikh Faraz का कहना है कि -

माँ के आगे ज्यादा नहीं रोते मुनव्वर
जहाँ बुनियाद हो वहां इतनी nami achchhi नहीं.

seema gupta का कहना है कि -

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।



आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।



हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।



सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।



मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
दुष्यंत कुमार
regards

seema gupta का कहना है कि -

मैं देख रहा था मेरे यारों ने बढ़कर
क़ातिल को पुकारा कभी मक़्तल को सदा दी
गहे रस्न-ओ-दार के आग़ोश में झूले
गहे हरम-ओ-दैर की बुनियाद हिला दी
जिस आग से भरपूर था माहौल का सीना
वो आग मेरे लौह-ओ-क़लम को भी पिला दी
अहमद फ़राज़
regards

seema gupta का कहना है कि -

देखता बुनियाद पर ही

हो रहे आघात निर्मम

छातियों चिपकाए

लाखों लाख संभ्रम।

राह में मिलते विरोधों का निरंतर सामना है।

नईम
regards

seema gupta का कहना है कि -

फ़िक्र-ए-तामीर में न रह मुनीम
ज़िन्दगी की कुछ भी है बुनियाद
मीर तक़ी 'मीर'
regards

seema gupta का कहना है कि -

बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर ये भूक के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर दौलत की इजारादारी के
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी



वो सुबह कभी तो आएगी
साहिर लुधियानवी
regards

seema gupta का कहना है कि -

किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझसे ख़फ़ा है, तो ज़माने के लिए आ

" फ़राज़ जी की इस ग़ज़ल को यहा पेश करने का दिल से आभार...ग़ज़ल की ये पंक्तियाँ जैसे रूह में उतरी जाती हैं, बेहद खुबसूरत अंदाज..."
regards

Shamikh Faraz का कहना है कि -

maaf kijiega pahle wale she'r me aapki lafz nahi hai. galti se type ho gaya tha

Shamikh Faraz का कहना है कि -

मुनव्‍वर मां के आगे यूं कभी खुलकर नहीं रोना
जहां बुनियाद हो इतनी नमी अच्‍छी नहीं होती

Shamikh Faraz का कहना है कि -

net disconnectivity ki wajah se abhi kuchh nahi likh pa rha hun. sahi hote hi likhunga.

शरद तैलंग का कहना है कि -

माना कि हम छप न पाए पुस्तक या अखबारों में,

लेकिन ये क्या कम है अपनी गिनती है खुद्दारों में ।

हम वो पत्थर हैं जो गहरे गढ़े रहे बुनियादों में,

शायद तुमको नज़र न आए इसीलिए मीनारों में ।

(आर.सी.शर्मा ’आरसी’

निर्मला कपिला का कहना है कि -

ांअगर आज की महफिल मे हाजरी न लगती तो शायद बाद मे पता लगने पर खुद को माफ न कर पाती लाजवाब प्रस्तुती। धन्यवाद

राकेश कौशिक का कहना है कि -

इस महफ़िल में भाग लेने और शेर लिखने का पहला प्रयास है.
सही शब्द बुनियाद

आज जो दीवार पर्दों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन ये थी कि बुनियाद हिलनी चाहिए

मेरा शेर
डिग नहीं सकती कभी नीयत सरे बाज़ार में.
शर्त इतनी है कि बस बुनियाद पक्की चाहिए.

Disha का कहना है कि -

सही शब्द है बुनियाद

Manju Gupta का कहना है कि -

जवाब -बुनियाद स्वरचित -पंक्तियाँ
हम तो बुनियाद के बेनाम पत्थर हैं ,
जिस पर महल खड़ा .
दुनियावालों !बेनाम ही सही ,
परोपकार के वास्ते ,
पीडाओं को सहता रहा .

sumit का कहना है कि -

sahi shabd buniyad hai.....par sher abhi yaad nahi........

sumit का कहना है कि -

पिन्दार-ए-मोहब्बत , मरासिम, लज़्ज़त-ए-गिरिया in shabdo ka kya arth hota hai.......

ye ghazal bahut he acchi hai maine ye gulam ali sahab, ashi ji, aur runa je, teno ki awaaz mei sun rakhi hai........

sumit का कहना है कि -

पिन्दार-ए-मोहब्बत , मरासिम, लज़्ज़त-ए-गिरिया in shabdo ka kya arth hota hai??????

ye ghazal bahut he acchi hai, maine ye ghulam ali sahab, ashi ji, aur runa je, teno ki awaaz mei suni hai........

कुलदीप "अंजुम" का कहना है कि -

तन्हा जी सही शब्द बुनियाद है
दुष्यंत कुमार जी के इस शेर से कौन वाकिफ नहीं होगा

कुलदीप "अंजुम" का कहना है कि -

जनाब मीराज फैजाबादी का बहुत ही खुबसूरत शेर याद आ रहा है

हम भी हैं तामीले वतन में बराबर के शरीक
दरो दीवार अगर तुम हो तो बुनियाद हैं हम

कुलदीप "अंजुम" का कहना है कि -

जुडा रहने दो अन्जुम मुझको मेरे असास से
मूझे सामाने आराइश बनाया जा रहा है क्यूँ
असास - बुनियाद

- कुलदीप अन्जुम

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