रेडियो प्लेबैक वार्षिक टॉप टेन - क्रिसमस और नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित


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प्लेबैक की टीम और श्रोताओं द्वारा चुने गए वर्ष के टॉप १० गीतों को सुनिए एक के बाद एक. इन गीतों के आलावा भी कुछ गीतों का जिक्र जरूरी है, जो इन टॉप १० गीतों को जबरदस्त टक्कर देने में कामियाब रहे. ये हैं - "धिन का चिका (रेड्डी)", "ऊह ला ला (द डर्टी पिक्चर)", "छम्मक छल्लो (आर ए वन)", "हर घर के कोने में (मेमोरीस इन मार्च)", "चढा दे रंग (यमला पगला दीवाना)", "बोझिल से (आई ऍम)", "लाईफ बहुत सिंपल है (स्टैनले का डब्बा)", और "फकीरा (साउंड ट्रेक)". इन सभी गीतों के रचनाकारों को भी प्लेबैक इंडिया की बधाईयां

Saturday, December 13, 2008

तू जिन्दा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर



अमर गीतकार और कवि शैलेन्द्र की ४२वीं पुण्यतिथि पर विशेष

"अपने बारे में लिखना कोई सरल काम नही होता. किंतु कोई आदमी फंस जाए तो ! तो लिखना आवश्यक हो जाता है. मैं भी लिखने बैठा हूँ. बाहर बूंदा-बांदी हो रही है. मौसम बड़ा सुहाना है. कभी कभी तेज़ हवा के झोंखों से परदे फड़फड़ा उठते हैं. जैसे उड़ान भरने की कोशिश कर रहें हो ! मेरी कल्पना में अतीत के धुंधले चित्र स्पष्ट होने लगते हैं. पुरानी स्मृतियाँ उममें ऐसा रंग, जो तन मन मिट जाने पर भी ना मिटे...." (कवि और गीतकार शैलेन्द्र की आत्मकथा से)

और आज से ४२ साले पहले, स्मृतियों के आकाश में विचरता वो जन साधारण के मन की बात कहने वाला कवि शरीर रूपी पिंजरा छोड़ हमेशा के लिए कहीं विलुप्त हो गया पर दे गया कुछ ऐसे गीत जो सदियों-सदियों गुनगुनाये जायेंगें, कुछ ऐसे नग्में जो हर आमो-ख़ास के दिल के जज़्बात को जुबाँ देते रहेंगे बरसों बरस. वो जिसने लिखा "दुनिया न भाये मुझे अब तो बुला ले" (बसंत बहार), उसी ने लिखा "पहले मुर्गी हुई कि अंडा" (करोड़पति), वो जिसने लिखा "डस गया पापी बिछुआ" उसी ने लिखा "क्या से क्या हो गया बेवफा तेरे प्यार में". वो जो यूँ ही बैठे-बैठे शब्द बुन लेता था और सिगरेट के डिब्बों पर लिख डालता था. उन्हीं शब्दों को तब पूरा देश गुनगुनाता था. वो जो सरल शब्दों में कहीं गहरे उतर जाता था. ऐसे थे हिन्दी फ़िल्म जगत कामियाब और संवेदनशील गीतकारों में से एक शंकरदास केसरीलाल शैलेन्द्र जिन्हें दुनिया शैलेन्द्र के नाम से जानती है. मशहूर संगीत समीक्षक एम॰ देसाई साहब जो शैलेन्द्र से एक बार मिले थे मरहूम संगीतकार रोशन के घर पर, उन्होंने एक जगह लिखा हैं - "शैलेन्द्र चाहते थे कि उनके गीत सबकी समझ में आए और उन्हें एक अनपढ़ कुली भी उसी मस्ती में गुनगुना सके जिस अंदाज़ में कोई पढ़ा लिखा शहरी. वो चाहते थे कि उनके गीतों को हर उम्र के लोग पसंद करें. अक्सर उनके गीत उनके ख़ुद अपने जीवन से प्रेरित होते थे. रिंकी भट्टाचार्य (स्वर्गीय विमल राय की सुपुत्री और स्वर्गीय बासु भट्टाचार्य की पत्नी) ने भी उनके बारे में कुछ ऐसे ही विचार व्यक्त किया- "वो बहुत भावुक इंसान थे जो अपने आस-पास घटने वाली घटनाओं से इस कदर प्रभावित रहते थे कि उनके रोमांटिक गीतों में भी अगर आप देखें तो आपको दार्शनिकता नज़र आएगी. पर वो गरीबी का महिमा मंडन नही करते थे, न ही दर्द को सहनभूति पाने के लिए बढ़ा-चढ़ा कर जताते थे. उनके गीतों में घोर निराशा भरे अन्धकार में भी जीने की ललक दिखती थी जैसे उनका गीत "तू जिन्दा है तो जिंदगी की जीत पे यकीन कर".

अगस्त १९२३ को रावलपिंडी (अब पाकिस्तान में) में जन्में शैलेन्द्र के पिता सेना में अधिकारी थे. रिश्तेदारी के कलहों के चलते धन संपत्ति का नुक्सान उठाने के बाद उनका परिवार मथुरा आकर बस गया जहाँ उनका बचपन बीता. गरीबी का आलम ये थे कि बच्चों को बीड़ी पीने के लिए उकसाया जाता था ताकि भूख मिट जाए. दोस्तों और अध्यापकों के आर्थिक मदद से पढ़ाई का खर्चा निकला किसी तरह. सेंट्रल रेलवे में मकेनिक की नौकरी लगी तो मुंबई तबादला हो गया. मगर कवि हृदय तो क्लेकिंग मशीन के ताल पर भी गीत गुनने लगा. काम से छूटने के बाद शैलेन्द्र PWA (प्रोग्रेसिव रायटर्स असोसिएशन) में अपना समय बिताते जिसका दफ्तर पृथ्वी राज कपूर के रोयल ओपरा हाउस के बिल्कुल सामने हुआ करता था. हर शाम यहाँ कवि संगोष्ठी हुआ करती थी. एक दिन शैलेन्द्र ने यहीं जब अपनी जोश से भरी "जलता है पंजाब" कविता सुनाई तो एक शख्स उनके पास आकर बोला - "मैं पृथ्वी राज कपूर का बेटा राज कपूर हूँ, बँटवारे की त्रासदी पर एक फ़िल्म बना रहा हूँ. मुझे लगता है कि आप उस फ़िल्म के लिए गीत लिख सकते हैं". शैलेन्द्र ने साफ़ शब्दों में मना कर दिया. महीनों गुजर गए. राज कपूर साहब ने "आग" बनाई. और नई फ़िल्म "बरसात" पर काम जारी था. शैलेन्द्र राज साहब के दफ्तर में पहुंचे और पूछा कि क्या वो राज साहब को याद हैं. राज कपूर हीरों के सच्चे कद्रदान थे, कहाँ भूलने वाले थे. शैलेन्द्र ने उनसे कहा -"मुझे ५०० रुपयों की जरुरत है" राज साहब ने झट निकाल कर दिए और पूछा कि क्या वो अब उनकी फ़िल्म में गीत लिखेंगें. इस बार शैलेन्द्र ने इनकार नहीं किया. तब तक फ़िल्म "बरसात" के दो गीतों को छोड़कर सभी गीत हसरत जयपुरी साहब मुक्कमल कर चुके थे. अन्तिम दो गीत जो शैलेन्द्र ने लिखे वो थे - "बरसात में हम से मिले तुम सजन" और "तिरछी नज़र है पतली कमर है". दोनों ही गीत बेहद मकबूल हुए. और यहीं से राजकपूर की टीम में चार नामों ने सदा के लिए अपना स्थान बना लिया. शंकर जयकिशन, हसरत और शैलेन्द्र. इस चार जन जोड़ी में अंग्रेजी अच्छे से जानने वाले केवल शैलेन्द्र ही थे. यही वजह थी कि सभी कानूनी चीज़ें (अग्रीमेंट आदि) उनके पढ़ने के बाद ही अन्य सदस्यों के दस्तखतों के लिए आगे बढ़ाई जाती थे. शंकर-जयकिशन ने तो यहाँ तक कह दिया थे कि बेशक हसरत और शैलेन्द्र किसी अन्य संगीतकार के साथ काम कर लें पर वो इन्हीं दोनों गीतकारों के साथ काम करेंगे. पर जब "कॉलेज गर्ल" के लिए राजेंद्र कृष्ण के साथ शंकर-जयकिशन ने फ़िल्म साइन की तो शैलेन्द्र बुरा मान गए. और शंकर को एक नोट लिखा "छोटी सी ये दुनिया, पहचाने रास्ते हैं तुम कहीं तो मिलोगे तो पूछेंगे हाल..". उन्होंने संगीतकार जोड़ी के साथ बेरुखी से पेश आना शुरू किया. जिससे दूरियां बढ़ गई. अंत में राज साहब सब को साथ लेकर चौपाटी गए और वहां भेलपुरी खिलाकर आपसी मतभेद दूर किए. बाद में उनके लिखे उन्हीं बोलों पर किशोर कुमार का गाया गीत भी हमारे संगीत प्रेमियों को अवश्य याद आ गया होगा. फ़िल्म "बंदनी" के लिए उनका लिखा गीत "अब के बरस भेज भइया को बाबुल" बिमल दा के सहायक रहे बासु दा को बहुत पसंद था. इसी दौरान उन्होंने बासु दा से फणीश्वर नाथ रेणू की अमर कहानी "मारे गए गुलफाम" पर चर्चा की. बाद में शैलेन्द्र के फ़िल्म निर्माण की पहली और एकलौती कोशिश "तीसरी कसम" जो इसी कहानी पर आधारित थी, को बासु दा ने ही निर्देशित किया. कहते हैं कि इस फ़िल्म की असफलता ही आखिरकार मात्र ४२ साल की उम्र में उनकी मौत का कारण बनी. फ़िल्म की असफलता ने उन कर क़र्ज़ का भार चढ़ा दिया. पर उससे भी बढ़कर उन लोगों से मिले व्यवहार ने उन्हें तोड़ दिया, जिन्हें वो अपना समझते थे. अन्तिम दिनों में वो शराब के आदी हो गए थे. जब उन्हें अस्पताल में भरती करवाया गया तो उन्होंने राज साहब से वादा किया कि वो उनकी फ़िल्म "मेरा नाम जोकर" का अधूरा गीत "जीना यहाँ मरना यहाँ" को अवश्य पूरा करेंगें लौट कर. पर ये न हो सका. राज साहब ने इस गीत को उनके सुपुत्र शैली शैलेन्द्र से पूरा करवाया. हालाँकि "तीसरी कसम' व्यावसायिक दृष्टि से असफल रही पर आज भी सिनेमा प्रेमी इस फ़िल्म की कसमें खाते हैं, और कोई भी संगीत प्रेमी इस फ़िल्म में उनके लिखे गीतों को कभी भी भुला नहीं पायेगा. बाद में इस फ़िल्म को मोस्को अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में भारत की अधिकारिक प्रविष्ठी होने का गौरव भी मिला, पर अफ़सोस शैलेन्द्र नहीं रुके इस सफलता को देखने के लिए भी.

उनके बेटे दिनेश उन्हें याद करते हुए बताते हैं कि - "वो मात्र १० साल के रहे होंगें जब पिता की मौत हुई. पर उन्हें याद है कि वो कभी भी घर पर काम लेकर नहीं आते थे, हर शाम वो हम सब बच्चों को लेकर समुद्र किनारे जाते और हम सब दो घंटे वहीं बिताते थे. पिताजी अक्सर ऊँचे पत्थरों पर बैठकर लिखते रहते थे, वापसी में हम जुहू होटल से चाय पीते हुए आते थे, उन्हें क्रोस्वर्ड खेलना बहुत पसंद था और रोटी और अरहड़ की दाल उनका पसंदीदा खाना हुआ करता था. माँ सख्त हुआ करती थी तो हम सब बच्चे पिताजी को ही अपनी ढाल बनाये रखते थे. दरअसल उनकी मौत के बाद जब अखबारों में बड़ी-बड़ी सुर्खियाँ आई तब जाकर हमें उनकी विशालता का एहसास हुआ था, वरना तब तक तो राज कपूर, एस डी बर्मन, मुकेश. शंकर-जयकिशन, सलिल चौधरी जैसी बड़ी हस्तियां भी हमें सबके घरों में आने-जाने वाले मेहमानों से ही लगते थे". दिनेश आगे बताते हैं कि- "अपनी बेटी की मौत के बाद उन्होंने ईश्वर पर विश्वास करना छोड़ दिया था.. उससे पहले वो हर गीत की शुरूआत ईश्वर के नाम से करते थे पर १९४६ में जब हमारी बहन गुजर गयी तब से उन्होंने ऐसा करना छोड़ दिया. पर उन्होंने इस सोच को हममे से किसी पर लादा नहीं. माँ चूँकि बहुत धार्मिक थी, और वो उनके साथ हर धार्मिक पूजा पाठ में शामिल हो जाया करते थे, फिल्मों के लिए भी उन्होंने कुछ बेहतरीन भजन लिखे हैं."

अपने पिता की कुछ और खूबियों का जिक्र करते हुए दिनेश बताते हैं कि -"वो डफली बहुत बढ़िया बजाते थे एक ज़माने में वह शिव मन्दिर के समारोहों में वो ऐसा नियमित करते थे, राज साहब को भी डफली पकड़ना और बजाना उन्हीं ने सिखाया. शंकर-जयकिशन की जोड़ी में भी वो संगीतकार शंकर के अधिक करीब थे. बतौर कवि वो कबीर और टैगोर की दार्शनिकता से बहुत अधिक प्रभावित रहे, और उनके गीतों में उत्तर प्रदेश के लोक गीतों का प्रभाव भी साफ़ देखा जा सकता है." फ़िल्म तीसरी कसम में उन्होंने "चलत मुसाफिर.." "लाली लाली..." जैसे मिटटी की खुशबू वाले गीत लिखे तो मशहूर "नाच" गीतों को भी उन्होंने बेहद सटीक अंदाज़ में "मारे गए गुलफाम..", 'हाय गजब...", और "पान खाए सैया हमार ऽहो..." जैसे गीतों में पेश किया ये वही फ़िल्म है जिसमें उन्होंने "सजन रे झूठ मत बोलो...", "दुनिया बनाने वाले..." और "आ आ भी जा..." जैसे गीत भी लिखे. ये कहना भी अन्याय होगा कि उनका बेहतरीन काम एस जे और राज साहब के साथ आया. एड सी और सलिल दा के साथ भी उन्होंने एक से बढ़कर एक गीत रचे. संगीतकार गुलाम मोहम्मद और रोशन उनके सबसे करीबी मित्रों में से थे. संगीतकार रवि और एस एन त्रिपाठी के आलावा उन्होंने चित्रगुप्त के साथ एक बेहद कामियाब भोजपुरी फ़िल्म के लिए भी काम किया. कल्यानजी आनंदजी (सट्टा बाज़ार) और आर डी बर्मन (छोटे नवाब) ने अपना संगीत सफर उन्हीं के साथ शुरू किया. एल पी के साथ उन्हें "धरती कहे पुकार के" करनी थी, पर फ़िल्म लॉन्च होने से पहले उनका जीवन काल समाप्त हो गया, और सुनने वाले बस यही सुनते रह गए -

"कि मर के भी किसी को याद आएंगें,
किसी की आंसुओं में मुस्कुरायेंगें,
कहेगा फूल हर कली से बार बार-
जीना इसी का नाम है..."

बहुत मुश्किल है शैलेन्द्र के विशाल खजाने से चंद गीतों को चुनना फ़िर भी एक कोशिश है आज उनकी पुण्य तिथि पर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करने की..सुनते हैं शब्दों के अमर शिल्पी शैलेन्द्र के कुछ यादगार गीत-


छोटी सी ये दुनिया पहचाने रास्ते हैं फिर कहीं तो मिलोगे (फिल्म- रंगोली)
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सजन रे! झूठ मत बोलो (फिल्म- तीसरी कसम)
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तू प्यार का सागर है, तेरी एक बूँद के प्यासे हम (फिल्म- सीमा)
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रमय्या वस्ता वैया (फिल्म- श्री ४२०)
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दिल तड़प-तड़प के दे रहा है ये सदा ( फिल्म- मधुमती)
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2 श्रोताओं का कहना है :

राज भाटिय़ा का कहना है कि -

शैलेन्द्र पुण्यतिथि पर मेरी तरफ़ से भी भाव्भीनी श्रांजलि, आप ने बहुत ही सुंदर ढंग से उन के विचार लिखे है, ओर उन के सदा बहार गीतो के लिये भी आप का धन्यवाद

suresh का कहना है कि -

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