वेदों, उपनिषदों जैसे अनेकों धार्मिक ग्रंथों का काव्यानुवाद कर चुकी एक विदुषी का साक्षात्कार
डॉक्टर मृदुल कीर्ति |
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पांतजलि योग्रसूत्र के सभी चार अध्यायों का चौपाई छंद में अनुवाद हुआ है, जिसको संगीतबद्ध करने का काम हिन्द-युग्म की आवाज़ टीम कर रही है। मृदुल जी के बारे में ज्यादा कहना सूरज को दिया दिखाने जैसा है। आज हम इनकी पूजा अनिल के साथ हुई बातचीत के कुछ अंश लेकर आये हैं, जिससे इस विदुषी और जानने में आपको मदद मिलेगी।
पूजा-मृदुल कीर्ति जी, आपने हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में धार्मिक ग्रंथों का अनुवाद किया हुआ है। इस अतुलनीय योगदान के लिए आपको साधुवाद। आपको इन ग्रंथों के अनुवाद का ख्याल कैसे आया और इसके लिए आपने प्रेरणा कहाँ से पाई?
मृदुल- अनुवाद की पृष्ठभूमि में इनके विचार और प्रेरणा स्रोत्र के बिन्दु हमें दर्शन की गहराई में ले जाते हैं। इसमें तीन शक्तियाँ काम करती हैं। पहली आपके पूर्वकृत कर्म ( भगवत गीता १५/ ८ , पातंजल योग दर्शन , कैवल्य पाद १ ) दूसरे माता-पिता के अणु-परमाणु और तीसरे आपका परिवेश। कौन सी गुण ग्राह्यता, कब, कैसे और किन कारणों से प्रबल हो जाती है, वही उसका कारण बन जाता है।
पूजा-प्रेरणा कहाँ से मिली ?
मृदुल- कुछ खोजने का अर्थ हैं कुछ मनचाहा पाने की चाह, कुछ अधूरापन जो पूर्णता की ओर उन्मुख होना चाहता है। कुछ ऐसा जो कोई छीन न सके, कुछ ऐसा जो पूर्ण हो। वह केवल पूर्ण ब्रह्म ही है।
अगर जिन्दगी में अंधेरे न होते, उजालों को यों प्राण उन्मुख न होते।
पीड़ा सहचरी सी साथ ही रही, अंधेरे और पीड़ा कभी धोखा नहीं देते।
कर्म भोग अनिवार्य हैं और सर्वज्ञ के विधान में अनिवार्य का निवारण नहीं, उसका अर्थ समझ आते ही पीड़ा ज्ञान का रूप ले लेती है। दग्ध मन की दाहकता की खोज ये अनुवाद हैं।
मूल संस्कृत से हिन्दी में इनका काव्यानुवाद हुआ है।
पूजा- लेखन कब और कैसे आरम्भ किया?
मृदुल- मेरे माता-पिता बहुत ही विद्वान और ज्ञानी थे। पिता आयुर्वेदाचार्य थे, उन दिनों संस्कृत में ही आयुर्वेद की शिक्षा दी जाती थी। वे संस्कृत में रचनाएँ करते थे तो मैं हिन्दी में कुछ लिखती। माँ को पूरी गीता कंठस्थ और धारा प्रवाह उपनिषदों और अद्वैत्व वाद पर बोलतीं। मुझे चार से पाँच शाम को नियमित स्वाध्याय से आक्रोश होता तो वे कहतीं-
राम नाम आराधिबो तुलसी बृथा न जाए।
लारिकबे को पाढ़बो, आगे हथा सहाय।
सच में यही आगे मेरा सहारा बने। हृदय में बिखरे बीजों के अंकुरित होने का समय आया तो अनुवाद का स्वरुप ले लिया।
पूजा- कभी पारिवारिक कारणों से आपने कोई रुकावट महसूस की?
मृदुल- मेरा मन जगत में कम ही लगा। चोट उसे ही लगती है जब निर्दोष को दोषी माना जाए। चोट खाए मन के संकल्प गहरे होते हैं। मेरा बेटा हाई स्कूल की परीक्षा दे रहा था उसी के साथ मैं भी पढ़ती, मेरा शोध का विषय था ' वेदों में राजनीतिक व्यवस्था'। उसी के अनंतर सामवेद देखते हुए मन में काव्य रचित हुए. पुनः-पुनः हुए, बस पूरा करने को संकल्पित हो गयी। यह ग्रन्थ दो साल सात महीनों में पूरा हुआ।
सामवेद चौपाई छंद में, इसमें १८७५ मंत्र है। ( राष्ट्रपति श्री वेंकटा रमन द्वारा विमोचित )
"शक्ति श्रोत अथाह अनुपम, ध्वनित मुझमें कर गए
दिव्यता अनुपम अलौकिक कौन मुझमें भर गए .
क्षण वही अनुपम विलक्षण मुझको प्रेरित कर गए
अनुवाद गीता, वेद उपनिषदों के मुखरित कर गए
पल अलौकिक दिव्य अनुपम देह में विदेह था.
ज्ञात न कतिपय हुआ क्या प्रभु तुम्हारा नेह था.?"
पूजा- अंतरजाल पर हिन्दी का भविष्य कैसा है?
मृदुल- वट-वृक्ष का बीज सबसे छोटा होता हैं पर वृक्ष सबसे ही विशाल होता है। अंतरजाल के माध्यम से यह वट-वृक्ष और बोध-वृक्ष भी बनेगा और इसका अधिकांश श्रेय हिन्द-युग्म को ही मिलेगा।
पूजा- मंच संचालन और संयोजन में आप सिद्ध हस्त हैं। हमारे श्रोताओं और पाठकों को भी कुछ इस बारे में बताएं।
मृदुल- मंच-संचालन एक बहुत ही उत्तरदायित्व पूर्ण काम होता है। एक-एक उच्चारित शब्द के प्रति बहुत ही सजग रहना होता है यह संवेदनायों का जगत है। संयोजन में कुशलता का सहारा लेना होता है। श्रोताओं को एक भाव से दूसरे भावजगत में ले जाते हुए कोई झटका नहीं लगना चाहिए। उसे तैराते हुए ही परिवर्तित भाव में लाना होता है। इसके प्रमाण में हिन्द-युग्म के कवि सम्मलेन साक्षी हैं।
पूजा-आप स्वयं को ईश्वर का संदेश वाहक मानती हैं, तो जन सामान्य तक क्या संदेश पहुँचाना चाहेंगी?
मृदुल- एक बहुत ही सामान्य और अति सामान्य इंसान हूँ पर जीवन के इन उबलते हुए दुखों का कारण --विकारी चिंतन और समाधान शुद्ध चिंतन, ही मैं खोज पाई हूँ। हम खाते अच्छा हैं, पहनते अच्छा हैं तो सोचते अच्छा क्यों नहीं हैं----मन को शुद्ध विचारों का भोजन क्यों नहीं देते? व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय सब ही समस्यों का समाधान केवल और केवल शुद्ध चिंतन है। धी यो यो नः प्रचोदयात . " धी " पवित्र विचार ही हमारी प्रार्थना के मूल हों।
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9 श्रोताओं का कहना है :
आवाज़ के श्रोता डॉक्टर मृदुल कीर्ति के नाम से अपरिचित नहीं हैं. फ़िर भी इस साक्षात्कार से हमें उनके बारे में बहुत सी नई और प्रेरणादायक बातें जानने को मिलीं. बड़े लोगों का जीवन अपने-आप में अनुकरणीय है, इसे ध्यान में रखते हुए आवाज़ की इस पहल के लिए साधुवाद!
नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाएँ!
हम खाते अच्छा हैं, पहनते अच्छा हैं तो सोचते अच्छा क्यों नहीं हैं----मन को शुद्ध विचारों का भोजन क्यों नहीं देते?
कितनी सार्थक बात कही आपने मृदुल जी, कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनकी रचनात्मकता के स्तर में एक अलग ही पवित्रता होती है...मैं समझता हूँ कि मृदुल जी युग्म से जुड़ना भी एक ईश्वरीय संकेत है, इनके मार्गदर्शन में हमारा ये प्रयास निश्चित ही सही दिशा में बढेगा. मृदुल जी ह्रदय से धन्येवाद और शुभकामनायें.
नव -वर्ष मँगलमय हो
और डा.मृदुल कीर्ति जी की
ज्ञान वैतरणी से
किसी एकध पाठक का भला हो
और सही दिशा मिल जाये
तब वह पहली चिँगारी बनेगी
"हिन्दी -युग्म" एक सामूहिक प्रयास है
हिन्दी -युग्म से जुडे ,
हरेक साथी को
मेरी शुभकामनाएँ
और मृदुल जी से
कवि सम्मेलन के जरीये मिलना
ये भी दैवी कृपा ही कहूँगी -
उन्हेँ मेर सादर स्नेह व
अनेकोँ बधाई एवँ शुभकामनाएँ
- लावण्या
Mrudulkirti ji namaste,
hindi yugm ke kavi sammelan mein aapki rachnaayein suni, presantation bhi bahut achchha hai.
saadar
Ripudaman
किसी पक्षी को क्षितिज दिखाने के स्थान पर किसी छत की मुंडेर पर ही लाकर छोड़ दिया जाए, ऐसा ही यह साक्षात्कार था। मृदुल जी के व्यक्तित्व के बारे में जानने की प्यास अधूरी ही रह गयी। पूजा जी,मृदुल जी के बारे में विस्तार से बताएं। वे विद्वान हैं, यह बात तो उनके द्वारा उच्चारित प्रत्येक शब्द से ही समझी जा सकती हैं लेकिन जीवन के अनेक पहलु हैं, उनके किसी एक पहलु के बारे में भी बताएं। उनके अन्दर एक आत्मीय व्यक्तित्व बसेरा करता है, उस आत्मीयता का सूत्र कहॉं है, इसे भी खोजिए। "साकी इतना न दे कि प्याला छलक जाए, पर इतना तो दे कि प्याला मचल जाए"। पूजा जी को बहुत आभार, हमें बूँद भर अमृत पिलाया, आशा है वे कभी हमें और कुछ भी देंगी। ऐसे ही श्रेष्ठ व्यक्तित्वों से परिचित कराते रहिए जिससे हम आशान्वित हो जाए कि दुनिया में अभी श्रेष्ठता का भंडार बहुत बड़ा है।
अजित गुप्ता
Mridul ji,
What you have contributed and achieved is so admirable and an inspiration to us all.
It's great knowing you.
With best wishes
Shanno
कर्म भोग अनिवार्य हैं और सर्वज्ञ के विधान में अनिवार्य का निवारण नहीं, उसका अर्थ समझ आते ही पीड़ा ज्ञान का रूप ले लेती है। दग्ध मन की दाहकता की खोज ये अनुवाद हैं।
मूल संस्कृत से हिन्दी में इनका काव्यानुवाद हुआ है।
man ko apar santushti mili mrdulji ka sakshtkar padhakar .
ispuny kam liye unka mai abhinandan kar unhe prnam karti hu.
shobhana
मृदुल कीर्ति जी को इस मंच पर सुनना एक अनुभूति है. सूरज क्या कभी ऊँगली से चुप पाया है अपनी ऊर्जा से अपनी परिभाषा प्रकट करता है. मृदुल जी बातचीत से, उनके अलफ़ाज़ से एक सौंधी महक आती है. हिंदी युगुम एवं पूजा जी को भी धन्यवाद
देवी नागरानी
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