बात एक एल्बम की # 07
फीचर्ड आर्टिस्ट ऑफ़ दा मंथ - नुसरत फतह अली खान और जावेद अख्तर.
फीचर्ड एल्बम ऑफ़ दा मंथ - "संगम" - नुसरत फतह अली खान और जावेद अख्तर
आलेख प्रस्तुतीकरण - सजीव सारथी
जैसा कि आप जानते हैं हमारे इस महीने के फीचर्ड एल्बम में दो फनकारों ने अपना योगदान दिया है. नुसरत साहब के बारे में हम पिछले दो अंकों में बात कर ही चुके हैं. आज कुछ चर्चा करते हैं अल्बम "संगम" के गीतकार जावेद अख्तर साहब की. जावेद अख्तर एक बेहद कामियाब पठकथा लेखक और गीतकार होने के साथ साथ साहित्य जगत में भी बतौर एक कवि और शायर अच्छा खासा रुतबा रखते हैं. और क्यों न हों, शायरी तो कई पीढियों से उनके खून में दौड़ रही है. वे गीतकार/ शायर जानिसार अख्तर और साफिया अख्तर के बेटे हैं, और अपने दौर के रससिद्ध शायर मुज़्तर खैराबादी जावेद के दादा हैं. उनकी परदादी सयिदुन निसा "हिरमां" उन्नीसवी सदी की जानी मानी उर्दू कवियित्री रही हैं और उन्हीं के खानदान में और पीछे लौटें तो अल्लामा फजले हक का भी नाम आता है, अल्लामा ग़ालिब के करीबी दोस्त थे और "दीवाने ग़ालिब" का संपादन उन्हीं के हाथों हुआ है, जनाब जावेद साहब के सगड़दादा थे.
पर इतना सब होने के बावजूद जावेद का बचपन विस्थापितों सा बीता. नन्हीं उम्र में ही माँ का आंचल सर से उठ गया और लखनऊ में कुछ समय अपने नाना नानी के घर बिताने के बाद उन्हें अलीगढ अपने खाला के घर भेज दिया गया जहाँ के स्कूल में उनकी शुरूआती पढाई हुई. लड़कपन से उनका रुझान फ़िल्मी गानों में, शेरो-शायरी में अधिक था. हमउम्र लड़कों के बजाये बड़े और समझदार बच्चों में उनकी दोस्ती अधिक थी. वालिद ने दूसरी शादी कर ली और कुछ दिन भोपाल में अपनी सौतेली माँ के घर रहने के बाद भोपाल शहर में उनका जीवन दोस्तों के भरोसे हो गया. यहीं कॉलेज की पढाई पूरी की, और जिन्दगी के नए सबक भी सीखे. ४ अक्टूबर १९६४ को जावेद ने मुंबई शहर में कदम रखा. ६ दिन बाद ही पिता का घर छोड़ना पड़ा और फिर शुरू हुई संघर्ष की एक लम्बी दास्ताँ. जेब में फ़क़त 27 नए पैसे थे पर जिंदगी का ये "लडाका" खुश था कि कभी 28 नए पैसे भी जेब में आ गए तो दुनिया की मात हो जायेगी.
५ मुश्किल सालों के थका देने वाला संघर्ष भी जावेद का सर नहीं झुका पाया. उन्हें यकीन था कि कुछ होगा, कुछ जरूर होगा, वो युहीं मर जाने के लिए पैदा नहीं हुए हैं. इस दौरान उनकी कला उनका हुनर कुछ और मंझ गया. शायद यही वजह थी कि जब कमियाबी बरसी तो कुछ यूँ जम कर बरसी कि चमकीले दिनों और जगमगाती रातों की एक सुनहरी दास्तान बन गयी. एक के बाद एक लगातार बारह हिट फिल्में, पुरस्कार, तारीफें.....जैसे जिंदगी भी एक सिल्वर स्क्रीन पर चलता हुआ ख्वाब बन गयी, पर हर ख्वाब की तरह इसे भी तो एक दिन टूटना ही था. जब टूटा तो टुकडों में बिखर गयी जिंदगी. कुछ असफल फिल्में, हनी (पत्नी) से अलग होना पड़ा, सलीम के साथ लेखनी की जोड़ी भी टूट गयी. जावेद शराब के आदी हो गए.
१९७६ में जब जानिसार अख्तर खुदा को प्यारे हुए तो अपनी आखिरी किताब औटोग्राफ कर जावेद को दे गए जिस पर लिखा था -"जब हम न रहेंगे तो बहुत याद करोगे". ये बुलावा था अपने बागी और नाराज़ बेटे के लिए एक शायर पिता का, एक सन्देश था छुपा हुआ कि लौट चलो अब अपनी जड़ों को. शायरी से रिश्ता तो पैदाइशी था ही, दिलचस्पी भी हमेशा थी, 1979 में पहली बार शेर लिखते हैं जावेद और सुलह कर लेते हैं अपनी विरासत और मरहूम वालिद से.यहाँ साथ मिलता है मशहूर शायर कैफी आज़मी की बेटी शबाना का और जन्म होता है एक नए रिश्ते का. फिल्मों में उनकी शायरी सराही गयी, "साथ साथ" के खूबसूरत गीतों में. "सागर", "मिस्टर इंडिया", के बाद "तेजाब" में उनके लिखे गीतों को बेहद लोकप्रियता मिली, फिर आई "१९४२- अ लव स्टोरी" जिसके गीतों ने उन्हें इंडस्ट्री में स्थापित कर दिया जिसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड कर नहीं देखा. आज उनका बेटा फरहान और बेटी जोया दोनों ही फिल्म निर्देशन में हैं, ये भी एक विडम्बना है कि जावेद हमेशा से ही किसी फिल्म का निर्देशन करना चाहते थे, पर कभी साहस न कर पाए. पर अपने बच्चों की सफलता में उनका योगदान अमूल्य है. शबाना आज़मी कितनी सफल अभिनेत्री हैं ये बताने की ज़रूरत नहीं है, फरहान और जोया की वालिदा हनी ईरानी भी एक स्थापित पठकथा लेखिका हैं.
अनेकों फिल्म फेयर, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार और सम्मान पाने वाले जावेद अपने संघर्ष के मुश्किल दिनों को याद कर अपनी पुस्तक "तरकश" में एक जगह लिखते हैं - "उन दिनों मैं कमाल स्टूडियो (अब नटराज स्टूडियो) के एक कमरे में रहता था, यहाँ मीना कुमारी के फिल्म "पाकीजा" में इस्तेमाल होने वाले कपडे आदि अलमारियों में भरे थे. एक दिन मैं अलमारी का खाना खोलता हूँ तो पड़े मिलते हैं -मीना कुमारी के जीते हुए तीन फिल्म फेयर अवार्ड्स भी. मैं उन्हें झाड़ पोंछकर अलग रख देता हूँ, मैंने जिंदगी में पहली बार किसी फिल्म अवार्ड को छुआ है. रोज रात को कमरा अन्दर से बंद कर वो ट्राफी अपने हाथ में लेकर आईने के सामने खडा होता हूँ और सोचता हूँ कि जब ये ट्राफी मुझे मिलेगी तो तालियों से गूंजते हुए हॉल में बैठे दर्शकों की तरफ मैं किस तरह मुस्कराऊंगा और कैसे हाथ हिलाऊंगा...". जावेद साहब की कविताओं, नज्मों, ग़ज़लों का का बहुत सा संकलन गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया में भी उपलब्ध है. उनकी पुस्तक तरकश खुद उनकी अपनी आवाज़ में ऑडियो फॉर्मेट में उपलब्ध है. जगजीत से उनकी बहुत सी ग़ज़लों और नज्मों को अपनी आवाज़ दी है, शंकर महादेवन, अलका याग्निक, आदि फनकारों ने उनके साथ टीम अप कर बहुत सी कामियाब एल्बम की हैं. नुसरत साहब की पहली पसंद भी वही थे. तो चलिए लौटते हैं अपनी फीचर्ड एल्बम "संगम" की तरफ. तीन रचनाएँ आप अब तक सुन चुके हैं....आज सुनिए तीन और शानदार ग़ज़ल/गीत इसी नायाब एल्बम से.
शहर के दुकानदारों....(उन्दा शायरी और रूहानी आवाज़ का जादूई मेल)
जिस्म दमकता (एक अनूठा प्रयोग है इस ग़ज़ल में, सुनिए समझ जायेंगे..)
और अंत में सुनिए ये लाजवाब गीत "मैं और मेरी आवारगी"
एल्बम "संगम" अन्य गीत यहाँ सुनें -
आफरीन आफरीन...
आपसे मिलके हम...
अब क्या सोचें...
"बात एक एल्बम की" एक साप्ताहिक श्रृंखला है जहाँ हम पूरे महीने बात करेंगे किसी एक ख़ास एल्बम की, एक एक कर सुनेंगे उस एल्बम के सभी गीत और जिक्र करेंगे उस एल्बम से जुड़े फनकार/फनकारों की.यदि आप भी किसी ख़ास एल्बम या कलाकार को यहाँ देखना सुनना चाहते हैं तो हमें लिखिए.
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