ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 137
'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों हम उस सुर साधक की बातें कर रहे हैं जिनका अंदाज़ था सब से जुदा, जिनका संगीत कानों से होते हुए सीधे रूह में समा जाता है। वह संगीत, जो कभी प्रेम, कभी विरह, कभी पीड़ा, तो कभी प्यार में समर्पण की भावना जगाती है। अपने संगीत से श्रोताओं को बेसुध कर देनेवाले उस सुर-गंधर्व को हम और आप मदन मोहन के नाम से जानते हैं। 'मदन मोहन विशेष' के तीसरे अंक में आज हम उनके संगीत के जिस रंग को लेकर आये हैं वह रंग है अपनी महबूबा से बिछड़ने की घड़ी में दिल से निकलती पुकार, कि काश वो एक बार हमें जाने से रोक ले। छुट्टी पर आये सैनिक को अचानक तार मिलता है कि पड़ोसी मुल्क ने हमारे देश पर हमला बोल दिया है और उसे तुरंत सीमा पर पहुँचना है। ऐसे में एक दम से महबूबा से जुदा होने का ख़याल सैनिक के दिल को दहलाकर रख देता है। क्या पता कि फिर कभी उन से इस ज़िंदगी में मुलाक़ात हो, ना हो! १९६४ में बनी चेतन आनंद की फ़िल्म 'हक़ीक़त' की हम बात कर रहे हैं, जिसके मुख्य कलाकार थे चेतन आनंद और प्रिया राजवंश। १९६२ के 'इंडो-चायना वार' पर आधारित इस फ़िल्म की कहानी बहुत ही मार्मिक थी। चेतन आनंद को इस फ़िल्म के लिए भरपूर सराहना तो मिली ही, ऐसी युद्ध वाली फ़िल्म में भी बेहद सुरीला संगीत देकर मदन मोहन साहब ने उस से भी ज़्यादा प्रशंसा बटोरी। यूं तो युद्ध की पृष्ठभूमी पर केन्द्रित कई फ़िल्में बनीं हैं और उनमें वीर रस के कई गानें भी शामिल हुए हैं, लेकिन 'हक़ीक़त' के रफ़ी साहब का गाया "कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियों" को सुनकर एक अजीब सी अनुभूती होती है। न चाहते हुए भी आँखें भर आती हैं हर बार, रोंगटें खड़े हो जाते हैं, यह गीत उन जाँबाज़ सैनिकों के लिए हमें अपना सर श्रद्धा से झुकाने पर विवश कर देती है। लेकिन रफ़ी साहब की ही आवाज़ में आज का प्रस्तुत गीत भले ही वीर रस से ओत प्रोत न हो, लेकिन उसमें भी कुछ ऐसी बात है कि यकायक आँखें नम सी हो जाती हैं। मैने पहले भी दो एक बार कहा है कि कुछ गानें ऐसे होते हैं कि जिनके बारे में ज़्यादा कहना नहीं चाहिए बल्कि सिर्फ़ उसे सुनकर दिल से महसूस करनी चाहिए, यह गीत भी इसी श्रेणी में आता है। इस फ़िल्म के गीतों में मदन साहब का जितना योगदान है, उतना ही योगदान है गीतकार और शायर कैफ़ी आज़्मी का, जिनके कलेजा चीर कर रख देने वाले बोलों ने फ़िल्म के गीतों को अमर बना दिया है।
यह तो आप को पता ही होगा कि लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की जोड़ी के प्यारेलाल-जी शुरु शुरु में वायलिन बजाया करते थे। कई संगीतकारों के लिए उन्होने बजाया और उनमें से एक मदन मोहन भी थी। स्वतंत्र संगीतकार बन जाने के बाद भी कुछ समय तक उन्होने दूसरे संगीतकारों के गीतों में अपने वायलिन के जलवे दिखाये हैं, और फ़िल्म 'हक़ीक़त' का प्रस्तुत नग़मा इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। आइए जानते हैं इस गीत मे प्यारेलाल जी के योगदान के बारे में ख़ुद उन्ही के शब्दों में, जो उन्होने विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' शृंखला में कहे थे - "एक गाना मैं आप को, एक हादसा बताऊँ मैं आप को, कि 'हक़ीक़त' पिक्चर के अंदर मदन मोहन जी का "मैं यह सोचकर उसके दर से", तो यह गाना रिकार्ड हो रहा था महबूब स्टुडियोज़ के अंदर। इस गीत में पहले 'फ़्ल्युट सोलो' था, और 'पियानो सोलो' था, लेकिन बाद में, मुझे मालूम नहीं क्यों, मदन जी बाहर आये और बात की सोनिक जी से। सोनिक-ओमी, तो सोनिक जी से बात की कि 'भई कुछ चेंज करना है', और ऐसा था कि जो शुरु से लेकर आख़िर तक आप सिर्फ़ 'वायलिन' सुनेंगे, और एंड में जाकर पियानो आता है।" दोस्तों, कहने का तात्पर्य यह है कि पहले इस गीत के लिए बाँसुरी और पियानो की धुन रखी गयी थी, लेकिन बाद में पूरे गीत में केवल प्यारेलाल जी का वायलिन रखा गया। गीत में बस यही एक साज़ मुख्य रूप से सुनायी देता है, और बिछड़ने के दर्द भरे पल को और भी ज़्यादा सजीव बनानें में वायलिन जो कमाल दिखा सकता है वह कोई और साज़ नहीं दिखा सकता तो लीजिये, मदन मोहन, कैफ़ी आज़्मी, मोहम्मद रफ़ी, प्यारेलाल और चेतन आनंद को सलामी देते हुए सुनते हैं आज का यह दिल को छू लेनेवाला गीत।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
1. मदन साहब ने बेहद खूबसूरत गीत दिए थे इस फिल्म में.
2. आशा -रफी के युगल स्वर है इस गीत में.
3. पहला अंतरा शुरू होता है इन शब्दों से -"ऐ रात..."
पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी एक बार फिर बाज़ी मार गए, ४२ अंकों के लिए बधाई जनाब. सवाल आसान था, पर स्वप्न जी का कंप्यूटर धोखा दे गया. मनु जी, रचना जी, सुमित जी, मीत जी और दिलीप जी उम्मीद है आप सब मदन मोहन साहब पर प्रस्तुत इस श्रृंखला का भरपूर आनंद ले रहे होंगें.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
10 श्रोताओं का कहना है :
Zameen se hamein aasmaan par beethake gira to na doge..film Adalat
पराग जी का जवाब ही मेरा जवाब
अब तो मुझे भी पराग जी के साथ ही जाना पडेगा ।
’ऐ रात इस वक्त आँचल में तेरे जितने भी है ये सितारे । जो दे दे तू मुझको तो फिर मैं लुटा दूं किसी की नज़र पर ये सारे”
sahi jawaab ..
सही है जवाब और आप सभी महारथियों को प्रणाम जी हाँ मुझे बहुत ही आनंद आरहा है संगीत के साथ सुंदर जानकारी के लिए आप का धन्यवाद
सादर
रचना
ज़मी से हमे आसमा तक गीत भी इसी तरह एक अलग मूड को दिखाता है, मेहसूस कराता है.
जवाब के चक्कर में मूल गाने की पीडा और नैराश्य का स्थाई भाव कैसे भूल सकते है.
इस नज़्म नुमा गीत सुनने के बाद हर संवेदनशील व्यक्ति इसकी गहराई में डूब जाता है.
स्वरों में भी इस डूब के साथ गाना नीचे के सुरों से ही शुरु होता है, और बाद में जैसे जैसे पीडा का एहसास बढता जाता है, वैसे वैसे गाना उपर के सुरों में जाता है, और एक जगह अपने चरम सीमा पर पहुचता है.(ना आवाज़ ही दी...)
फ़िर एकदम नीचे गिर जाता है ,जैसे कि आतमा ही निकल गयी हो.
वाह मदन मोहन जी, सलाम ....
कल रात को ही हम ये गीत गुनगुना रहे थे...
मेरे सबसे पसंदीदा गानों में से एक...
मैं ये सोच कर उसके दर से उठा था... कि वो रोक लेगी....
सही जवाब के लिए पराग जी को बधाई.
सही जवाब के लिए बधाई !
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)