महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४१
आज से फिर हम प्रश्नों का सिलसिला शुरू करने जा रहे हैं। इसलिए कमर कस लीजिए और तैयार हो जाईये अनोखी प्रतियोगिता का हिस्सा बनने के लिए। पिछली प्रतियोगिता के परिणाम उम्मीद की तरह तो नहीं रहे(हमने बहुतों से प्रतिभागिता की उम्मीद की थी, लेकिन बस दो या कभी किसी अंक में तीन लोगों ने रूचि दिखाई) लेकिन हाँ सुखद ज़रूर रहे। हमने सोचा कि क्यों न उसी ढाँचे में इस बार भी प्रश्न पूछे जाएँ, मतलब कि हर अंक में दो प्रश्न। हमने इस बात पर भी विचार किया कि चूँकि "शरद" जी और "दिशा" जी हमारी पहली प्रतियोगिता में विजयी रहे हैं इसलिए इस बार इन्हें प्रतियोगिता से बाहर रखा जाए या नहीं। गहन विचार-विमर्श के बाद हमने यह निर्णय लिया कि प्रतियोगिता सभी के लिए खुली रहेगी यानि सभी समान अधिकार से इसमें हिस्सा ले सकते हैं, किसी पर कोई रोक-टोक नहीं। तो यह रही प्रतियोगिता की घोषणा और उसके आगे दो प्रश्न: आज से ५० वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। अगर आपने पिछली कड़ियों को सही से पढा होगा तो आपको जवाब ढूँढने में मुश्किल नहीं होगी, नहीं तो आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी। और हाँ, हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद २ अंक और उसके बाद हर किसी को १ अंक मिलेंगे। इन १० कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की ५ गज़लों की फरमाईश कर सकता है, जिसे हम ५३वीं से ६०वीं कड़ी के बीच में पेश करेंगे। लेकिन अगर ऐसा हो जाए कि १० कड़ियों के बाद हमें एक से ज्यादा विजेता मिल रहे हों तो ५१वीं कड़ी ट्राई ब्रेकर का काम करेगी, मतलब कि उन विजेताओं में से जो भी पहले ५१वीं कड़ी के एकमात्र मेगा-प्रश्न का जवाब दे दे,वह हमारा फ़ाईनल विजेता होगा। एक बात और- जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है। तो ये रहे आज के सवाल: -
१) "वे अपने गुरु (बाल गंगाधर तिलक) से भी चार क़दम और आगे बढ़ गए और उस समय पूर्ण आज़ादी...." यह किसने और किसके लिए कहा था?
२) एक फ़नकारा जिन्हें अपनी गज़लों की पहली एलबम की रोयाल्टी के तौर पर सत्तर हज़ार का चेक दिया गया था और जो अपने चाहने वालों के बीच "नादिरा" नाम से मक़बूल हैं। उस फ़नकारा का वास्तविक नाम बताएँ और यह भी बताएँ कि वह एलबम कब रीलिज हुई थी।
सवालों की झड़ी लगाने के बाद अब वक्त है आज की महफ़िल को रंगीं करने का। आज की गज़ल कई लिहाज़ से खास है। पहला तो यह कि महफ़िल-ए-गज़ल की पिछली ४० कड़ियों में कभी भी ऐसा नहीं हुआ है कि हमें किसी गज़ल/नज़्म के रचनाकार का नाम तो मालूम हो लेकिन एक हीं नाम के दो-दो जनाब हाज़िर हो जाएँ। आज की गज़ल का हाल उन सारी गज़लों/नज़्मों से अलहदा है। हमने जब इस गज़ल के गज़लगो का नाम मालूम करना चाहा तो "हफ़ीज़" नाम हर जगह मौजूद पाया। दिक्कत तो तब आई जब एक जगह पर हफ़ीज़ होशियारपुरी का नाम दर्ज़ था तो दूसरी जगह पर हफ़ीज़ जालंधरी का(इन्हें अबु-उल-असर के नाम से भी जाना जाता है)। होशियारपुरी साहब का नाम था तो बस एक हीं जगह लेकिन वह श्रोत कुछ ज्यादा हीं विश्वसनीय है (अधिकांश शायरों की जानकारी हमें वहीं से हासिल हुई है), वहीं जालंधरी साहब का नाम एक से ज्यादा जगहों पर दर्ज़ था, उदाहरण के लिए, यहाँ। अब हमें यह समझ नहीं आया कि किसी मानें और किसे छोड़ें, इसलिए अंतत: हमने यह निर्णय लिया कि हम दोनों की बातें आपसे शेयर कर लेते हैं, फिर आपकी मर्ज़ी (या आपका शोध) कि आप किसे इस गज़ल का गज़लगो मानें। आज से पहले हमने एक कड़ी में होशियारपुरी साहब की "मोहब्बत करने वाले कम न होंगे" सुनवाया था जिसे अपनी आवाज़ से सजाया था इक़बाल बानो ने। वहीं जालंधरी साहब की भी एक नज़्म "अभी तो मैं जवान हूँ" हमारी महफ़िल की शोभा बन चुकी है। हमें पूरा विश्वास है कि आप अब तक उस नज़्म के असर से उबरे नहीं होंगे। उस नज़्म में आवाज़ थी आज की फ़नकारा की अम्मीजान मल्लिका पुखराज की। अब अगर आज की गज़ल की बात करें तो यह गज़ल मल्लिका पुखराज का भी संग पा चुकी है। असलियत में, मल्लिका की ऐसी कई सारी गज़लें हैं ("अभी तो मैं जवान हूँ" भी उस फ़ेहरिश्त में शामिल है) जिन्हें उनके बाद उनकी बेटी ने अपनी आवाज़ से सराबोर किया है। उसी फ़ेहरिश्त से चुनकर हम लाए हैं आज की गज़ल।
अभी तक तो आप जान हीं चुके होंगे कि हम किनकी बात कर रहे थे। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं पाकिस्तान के जानेमाने टी०वी० के शख्सियत और वकील जनाब नईम बोखारी की पत्नी और उस्ताद अख्तर हुसैन की शिष्या मोहतरमा ताहिरा सय्यद की। सय्यद अपने भाई-बहनों में सबसे छोटी हैं। भाई-बहनों में इनके अलावा इनके चार भाई और हैं। इनकी बहन तस्नीम का निकाह पाकिस्तान के सीनेटर एस० एम० ज़फ़र से हुआ है। १९९० में सय्यद अपने पति नईम बोखारी से अलग हो गईं, तब से वे अपने दो बच्चों(एक बेटा और एक बेटी, दोनों हीं वकील हैं) के साथ रह रहीं हैं। यह तो हुई ताहिरा सय्यद की निजी ज़िंदगी की बातें, अब कुछ उनकी गायकी पर भी रोशनी डालते हैं। १९६८-६९ में रेडियो पाकिस्तान पर अपनी आवाज़ बिखेरने के बाद इनकी प्रसिद्धि दिन पर दिन बढती हीं गई। १२ वर्ष की नाजुम उम्र से गायिकी शुरू करने वाली इन फ़नकारा को १९८५ में "नेशनल ज्योग्राफ़िक" के कवर पर भी स्थान दिया गया(ऐसा सम्मान पाने वाली वे सबसे कम उम्र की शख्सियत थीं), जो अपने आप में एक गर्व की बात है। इन्होंने बहुत सारी खुबसूरत गज़लों और नज़्मों को अपनी आवाज़ दी है। ऐसी हीं एक गज़ल है "परवीन शाकिर" की लिखी "बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना"। समय आने पर हम यह गज़ल आपको ज़रूर सुनवायेंगे। उस समय "ताहिरा" की और भी बातें होंगी।
अब चूँकि हमें पक्का पता नहीं है कि कौन से हफ़ीज़ साहब आज की गज़ल के गज़लगो हैं। इसलिए अच्छा यही होगा कि हम दोनों महानुभावों का एक-एक शेर आपकी खिदमत में पेश कर दें। तो लीजिए पहले हाज़िर है हफ़ीज़ होशियारपुरी साहब का यह शेर:
तेरी मंजिल पे पहुँचना कोई आसान न था
सरहदे अक्ल से गुज़रे तो यहाँ तक पहुंचे।
इसके बाद बारी है हफ़ीज़ जालंधरी साहब के शेर की। तो मुलाहजा फ़रमाईयेगा:
तुम हीं न सुन सके अगर, क़िस्सा-ए-ग़म सुनेगा कौन,
किसकी ज़ुबां खुलेगी फिर, हम ना अगर सुना सके।
इसी पशोपेश में कि आज की गज़ल के शायर कौन हैं, हम आज की गज़ल की ओर रुख करते हैं। वैसे एक-सा नाम होना कितना बुरा होता है, इसका पता इसी गज़ल से चल जाता है। मक़ते में "हफ़ीज़" तो है लेकिन तब भी कोई फ़ायदा नहीं। वैसे हम आपसे यह दरख्वास्त करेंगे कि इस गज़ल के शायर की खोज़ में(दो हीं विकल्प हैं, इसलिए ज़्यादा दिक्कत नहीं आनी चाहिए) हमारी मदद करें। उससे पहले आराम से सुन लें यह गज़ल :
बे-ज़बानी ज़बां न हो जाए,
राज़-ए-उल्फ़त अयां न हो जाए।
इस कदर प्यार से न देख मुझे,
फिर तमन्ना जवां न हो जाए।
लुत्फ़ आने लगा ज़फ़ाओं में,
वो कहीं मेहरबां न हो जाए।
ज़िक्र उनका जबान पर आया,
ये कहीं दास्तां न हो जाए।
खामोशी है जबान-ए-इश्क़ "हफ़ीज़"
हुस्न अगर बदगुमां न हो जाए।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
भूले हैं रफ्ता रफ्ता उन्हें मुद्दतों में हम,
___ में खुदखुशी का मज़ा हम से पूछिए ...
आपके विकल्प हैं -
a) सदमों, b) बरसों, c) किश्तों, d) सालों
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "फासले" और शेर कुछ यूं था -
फासले ऐसे भी होंगें ये कभी सोचा न था,
सामने भी था मेरे और वो मेरा न था..
सही जवाब के साथ हमारी महफ़िल में पहली बार नज़र आए "निखिल" जी। जनाब आपका इस महफ़िल में बेहद स्वागत है। आपने एक शेर भी पेश किया:
कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नए मिज़ाज का शहर है, ज़रा फासले से मिला करो..
इनके बाद बारी आई शामिख साहब की। हुज़ूर यह क्या, आप आएँ लेकिन इस बार आपका अंदाज़ कुछ अलग था। आपने तो हमें उस गज़ल की जानकारी हीं नहीं दी जिससे यह शेर लिया गया है। खैर कोई बात नहीं। आपने "फ़ासले" शब्द पर कुछ शेर हमारी महफ़िल में कहे, जिनमें एक शेर जनाब जैदी ज़फ़र रज़ा साहब का था। बानगी देखिए:
ये राह्बर हैं तो क्यों फासले से मिलते हैं
रुखों पे इनके नुमायाँ नकाब सा क्यों है
यह गिला है आपकी निगाहों से
फूल भी हो दरमियाँ तो यह फासले हुए.
पूजा जी, बहुत दिनों बाद आपका हमारी इस महफ़िल में आना हुआ। आपने कैफ़ी आज़मी साहब का लिखा एक शेर हमसे शेयर किया:
इक ज़रा हाथ बढाये तो पकड़ ले दामन,
उसके सीने में समा जाए हमारी धड़कन,
इतनी कुरबत है तो फिर फासला इतना क्यों है???
चाहे जो भी...लेकिन हमारी पिछली महफ़िल की शान रहीं सीमा जी। सीमा जी, आपने तो दिल खुश कर दिया। ये रहे आपके शेर:
तुम गुलसितां से आए ज़िक्र खिज़ां हिलाए,
हमने कफ़स में देखी फासले बहार बरसों
तकरार से फासले नहीं मिटते
जब भी शिकवे हुये हम हम ना रहे
लिख मैंने कैसे, तय किये ये फासले
है कैसे गुजरा, मेर ये सफर लिख दे
सीमा जी के बाद महफ़िल में नज़र आए पिछले महफ़िल के मेजबान(पिछली गज़ल उन्हीं की पसंद की थी ना!)। शरद जी ने एक स्वरचित शेर महफ़िल में पेश किया:
मेरे बच्चे जब अधिक पढ़ते गए
फासले तब और भी बढ़ते गए।
मंजु जी, हमारी यह कोशिश रहती है कि हम उन फ़नकारों से लोगों को अवगत कराएँ,जिन्हें लोग कम जानते हैं या फिर भूलते जा रहे हैं। इसीलिए शायरों से हमें कुछ ज्यादा हीं प्यार रहता है। वैसे आपका शेर हमें पसंद आया:
रात-दिन के फासलें की तरह है वो,
कभी अमावस्या है तो कभी पूर्णिमा की तरह है वो !
सुमित जी, आपने भी कमाल के शेर कहे। वैसे "अदीब" का मतलब होता है- "शायर"। यह रहा आपका शेर:
फाँसला इस कदर नसीब ना हो,
पास रहकर भी तू करीब ना हो।
शन्नो जी, देर आयद , दुरूस्त आयद। अरे आपके पास शेरों की किताब नहीं तो क्या हुआ, शायराना मिज़ाज़ तो है, हमारी महफ़िल के लिए वही काफ़ी है। आपने यह शेर पेश किया:
अच्छा लगा यह आपका अंदाज़ शायराना
फासले थे कुछ ऐसे न महफ़िल में हुआ आना.
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
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37 श्रोताओं का कहना है :
भूले है रफ्ता रफ्ता उन्हें मुद्दतों में हम
किश्तों में खुदखुशी का मज़ा हमसे पूछिये
regards
खुशियाँ मिलती हैं ज़िन्दगी सी किश्तों में मगर,
हंस कर उधार साँसे लेना भी एक कर्ज़ होता है|
regards
विष असर कर रहा है किश्तों में
आदमी मर रहा है किश्तों में
उसने इकमुश्त ले लिया था ऋण
व्याज को भर रहा है किश्तों में
एक अपना बड़ा निजी चेहरा
सबके भीतर रहा है किश्तों में
माँ ,पिता ,पुत्र,पुत्र की पत्नी
एक ही घर रहा है किश्तों में
एटमी अस्त्र हाथ में लेकर
आदमी डर रहा है किश्तों में
जहीर कुरैशी
regards
बे-ज़बानी ज़बां न हो जाए,
राज़-ए-उल्फ़त अयां न हो जाए।
इस कदर प्यार से न देख मुझे,
फिर तमन्ना जवां न हो जाए।
बेहद सुंदर प्रस्तुति..
हिंद युग्म को इस सुंदर भेंट के लिए तहेदिल से शुक्रिया!!!
खुमार बाराबंकवी
एक पल में एक सदी का मज़ा हमसे पूछिये
दो दिन की ज़िन्दगी का मज़ा हमसे पूछिये
भूले हैं रफ्ता-रफ्ता उन्हें मुद्दतों में हम
किश्तों में खुदखुशी का मज़ा हमसे पूछिये
आगाज़-ए-आशिकी का मज़ा आप जानिए
अंजाम-ए-आशिकी का मज़ा हमसे पूछिये
जलते दियों में जलते घरो जैसी लौ कहां
सरकार रोशनी का मज़ा हमसे पूछिये
वो जान ही गए कि हमें उनसे प्यार है
आँखों की मुखबिरी का मज़ा हमसे पूछिये
हंसने का शौक़ हमको भी था आप की तरह
हँसिए मगर हंसी का मज़ा हमसे पूछिये
हम तौबा कर के मर गए कबले अजल "खुमार"
तौहीन-ए-मयकशी का मज़ा हमसे पूछिये
regards
जहीर कुरैशी
हमेशा द्वंद्व का ठंडा बुखार ठीक नहीं
मैं सोचता हूँ कि मन में गुबार ठीक नहीं
शिकार करने को जंगल भी कम नहीं होते
खुद अपने घर में ही छिप कर शिकार ठीक नहीं
कभी कुठार को खुद पे चला के देख जरा
हमेशा वृक्षों के तन पर कुठार ठीक नहीं
वे रोज़ रात को सो कर भी सो नहीं पाते
ये स्वप्न नींद के अंदर जगार ठीक नहीं
मैं जूझता हूँ सदा एकमुश्त आँधी से
अनेक किश्तों में आँधी पे वार ठीक नहीं
तुम्हारे बारे में, हम भी तो सोचते होंगे
स्वयं के मुँह से स्वयं का प्रचार ठीक नहीं
regards
प्रश्न १ : कडी सं. ३५ हसरत मोहानी के लिए प्रेम
चन्द ने कहा था
प्रश्न २ : कडी सं २८ मुन्नी बेग़म
हफ़ीज़ जालन्धरी साहब
बे-ज़बानी ज़बां न हो जाए,
राज़-ए-उल्फ़त अयां न हो जाए।
इस कदर प्यार से न देख मुझे,
फिर तमन्ना जवां न हो जाए।
लुत्फ़ आने लगा ज़फ़ाओं में,
वो कहीं मेहरबां न हो जाए।
ज़िक्र उनका जबान पर आया,
ये कहीं दास्तां न हो जाए।
खामोशी है जबान-ए-इश्क़ "हफ़ीज़"
हुस्न अगर बदगुमां न हो जाए।
regards
तन्हा जी शेर पसंद आने के लिए धन्यवाद .
जवाब है -किश्तों
स्वरचित शेर -`
किश्तों पर किया था दिल पर जादू `
अब दर्द का अहसास ही बाकी 'मंजू ' .
सही लफ्ज़ किश्तों में. शे'र खुमार बाराबंकी
भूले हैं रफ्ता-रफ्ता उन्हें मुद्दतों में हम
किश्तों में खुदखुशी का मज़ा हमसे पूछिये
अरे तनहा जी पिछली वाली ग़ज़ल पकड़ में नहीं आई. किसकी है? आप ही बता दें.
लीजिये पूरी ग़ज़ल जनाब.
एक पल में एक सदी का मज़ा हमसे पूछिये
दो दिन की ज़िन्दगी का मज़ा हमसे पूछिये
भूले हैं रफ्ता-रफ्ता उन्हें मुद्दतों में हम
किश्तों में खुदखुशी का मज़ा हमसे पूछिये
आगाज़-ए-आशिकी का मज़ा आप जानिए
अंजाम-ए-आशिकी का मज़ा हमसे पूछिये
जलते दियों में जलते घरो जैसी लौ कहां
सरकार रोशनी का मज़ा हमसे पूछिये
वो जान ही गए कि हमें उनसे प्यार है
आँखों की मुखबिरी का मज़ा हमसे पूछिये
हंसने का शौक़ हमको भी था आप की तरह
हँसिए मगर हंसी का मज़ा हमसे पूछिये
हम तौबा कर के मर गए कबले अजल "खुमार"
तौहीन-ए-मयकशी का मज़ा हमसे पूछिये
लोग उम्रे दराज़ की दुआएँ करते हैं
यहाँ ये हाल है, किश्तों में रोज़ मरते हैं
लहरों पर तैरता आ रहा
किश्तों में चांद
छलकता थपोरियां बजाता
तलुओं और टखनों पर
एक मुश्त देखा नही तुझे कभी भी
बस किश्तों में देखा है थोड़ा-थोडा
चुका रहा हूँ ज़िन्दगी की किश्त हिस्सों में,
मैं आंसुओं को कई बार बहा लेता हूँ
दिल से हवा-ए-किश्त-ए-वफ़ा मिट गया कि वां हासिल सिवाय हसरत-ए-हासिल नहीं रहा ...
दास्ताँ अपनी क्या कही जाए.
बात उसकी ही अब सुनी जाए
क़र्ज़ पे ले आये हैं चीज़ें
किश्त अब किस तरह भरी जाए
गलती से मिसरा को मिश्रा लिख गया
धन्यवाद तनहा जी
अदीब
शब्द का अर्थ बताने के लिए
आज का शब्द तो किश्तों सही लग रहा है ...
एक भूला भूला सा शेर है लम्हों ने खता की थी किश्तों में सजा पाई....शेर बहुत पहले सुना था इसलिए ठीक से याद नहीं,शायद मैं एक मिश्रा ही भूल गया हूँ इसलिए इसे भूला भूला सा शेर नाम दिया
KISHTON mein..
shaamikh sab kah rahe hain...
ham kyaa kahein...?
:)
तनहा जी खुमार साहब का जिक्र आये और हम ना आयें ऐसा तो मुमकिन नहीं
सारी बात तो कही जा चुकी है यहाँ
अब कहने को कुछ ना बाकी रहा
खुमार बाराबंकवी साहब का कहा इक इक लफ्ज़ मेरे लिए बहुत ही अमूल्य है
इनके लगभग सारे मुशायरा विडियो और ग़ज़ल संभल कर रखने की कोशिश की है
खुमार बाराबंकवी पर इक कम्युनिटी भी चला रहा hu ऑरकुट पर
और सृजन का सहयोग नमक कम्युनिटी पर इक विशेष श्रृंख्ला चला रहा hu
खुमार साहब पर
इक इक शेर याद है मूझे
तस्वीर बनाता हूँ तस्वीर नहीं बनती
एक ख्वाब सा देखा है ताबीर नहीं बनती
बेदर्द मुहब्बत का इतना सा है अफसाना
नज़रों से मिली नज़रें मैं हो गया दीवाना
अब दिल के बहलने की तदबीर नहीं बनती
दम भर के लिए मेरी दुनिया में चले आओ
तरसी हुई आँखों को फिर शक्ल दिखा जाओ
मुझसे तो मेरी बिगडी तक़दीर नहीं बनती
-जनाबे खुमार बाराबंकवी
अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं
मेरी याद से जंग फरमा रहे हैं
इलाही मेरे दोस्त हों खैरियत से
ये क्यूँ घर में पत्थर नहीं आ रहे हैं
बहुत खुश हैं गुस्ताखियों पर हमारी
बज़ाहिर जो बरहम नज़र आ रहे हैं
ये कैसी हवाए तरक्की चली है
दिए तो दिए दिल बुझे जा रहे हैं
बहिस्ते तसब्बुर के जलवे हैं मैं हूँ
जुदाई सलामत मज़े आ रहे हैं
बहारों में भी मय से परहेज़ तौबा
'खुमार' आप काफिर हुए जा रहे हैं
-जनाब खुमार बाराबंकवी
ऐसा नहीं की उन से मोहब्बत नहीं रही
जज़्बात में वो पहले सी शिद्दत नहीं रही
सर में वो इंतज़ार का सौदा नहीं रहा
दिल पर वो धडकनों की हुकूमत नहीं रही
पैहम तवाफ-ऐ-कूचा-ऐ-जाना के दिन गए
पैरों में चलने फिरने की ताक़त नहीं रही
चहरे की झुर्रियों ने भयानक बना दिया
आईना देखने की भी हिमत नहीं रही
कमजोरी-ऐ-निगाह ने संजीदा कर दिया
जलवों से छेड़-छाड़ की आदत नहीं रही
अल्लाह जाने मौत कहाँ मर गई 'खुमार '
अब मुझ को जिंदगी की ज़रूरत नहीं रही
-जनाब खुमार बाराबंकवी
इन गज़लों का कोई ताल्लुक तो नहीं है
पर चाहकर भी खुद को रोक नहीं पाया
माफ़ी चाहूँगा
तनहा जी खुमार साहब का जिक्र आये और हम ना आयें ऐसा तो मुमकिन नहीं
सारी बात तो कही जा चुकी है यहाँ
अब कहने को कुछ ना बाकी रहा
खुमार बाराबंकवी साहब का कहा इक इक लफ्ज़ मेरे लिए बहुत ही अमूल्य है
इनके लगभग सारे मुशायरा विडियो और ग़ज़ल संभल कर रखने की कोशिश की है
खुमार बाराबंकवी पर इक कम्युनिटी भी चला रहा hu ऑरकुट पर
और सृजन का सहयोग नमक कम्युनिटी पर इक विशेष श्रृंख्ला चला रहा hu
खुमार साहब पर
इक इक शेर याद है मूझे
खुद का ही लिखा हुआ इक शेर क्या उलटी सीधी तुकबंदी है लेकिन मेरे दिल के करीब है
जिंदगी का ज़हर पीना पड़ रहा है
मुझे किश्तों में जीना पड़ रहा है
तन्हा जी,
एक से एक होशिआर लोग भरे हैं आपकी महफ़िल में तो यहाँ ( सिवा मुझे छोड़कर ) पता नहीं कहाँ - कहाँ से ले आते हैं इतने शेर और ग़ज़लें ढूंढकर और हम हैरान हो जाते हैं. जो ग़ज़ल सुनी वो अच्छी लगी. और पहेली का जबाब भी इतने लोगों ने दे ही दिया है तो अब कोई ख़ास नहीं रहा मेरे पास कहने को, मगर फिर भी कुछ तकलीफ देनी है:
किसकी नज़र लग गयी है उनको
की अब बातें भी करते हैं तो किश्तों में.
फरमाइश हो न हो हम आयेंगें यहाँ
कुछ अपनी भी कहने को किश्तों में.
शुक्रिया और खुदाहाफिज़.
पिछली महफिल की ग़ज़ल ये है
lyrics: Adeem hashmi
singer: gulam ali
फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था
सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था।
वो कि ख़ुशबू की तरह फैला था मेरे चार सू
मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था।
रात भर पिछली ही आहट कान में आती रही
झाँक कर देखा गली में कोई भी आया न था।
ख़ुद चढ़ा रखे थे तन पर अजनबीयत के गिलाफ़
वर्ना कब एक दूसरे को हमने पहचाना न था।
याद कर के और भी तकलीफ़ होती थी’अदीम’
भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा न था।
Regards
दोस्तों "शब्द/शेर-पहेली" के साथ-साथ हमने आज से हैं "प्रश्न-पहेली" भी शुरू की है। शरद जी के अलावा अभी तक किसी ने उसका उत्तर नहीं दिया है। ज़रा उस तरह भी ध्यान दें। प्रश्न ज्यादा मुश्किल नहीं हैं। आसानी से हल हो जाएँगे।
-विश्व दीपक
प्रश्न १
कैसे छुपाऊँ राज़-ए-ग़म...आज की महफ़िल में पेश हैं "मौलाना" के लफ़्ज़ और दर्द-ए-"अज़ीज़"
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३५
प्रेमचंद ने १९३० में उनके सम्बन्ध में ठीक ही लिखा था "वे अपने गुरु (बाल गंगाधर तिलक) से भी चार क़दम और आगे बढ़ गए और उस समय पूर्ण आज़ादी का डंका बजा.
regards
प्रश्न २
मैं ख्याल हूँ किसी और का, मुझे सोचता कोई और है....... "बेग़म" की महफ़िल में "सलीम" को तस्लीम
महफ़िल-ए-ग़ज़ल #२८
वैसे अपने चाहने वालों के बीच ये "नादिरा" नाम से नहीं जानी जाती, बल्कि इन्हें "मुन्नी बेग़म" कहलाना ज्यादा पसंद है। २३ मार्च २००८ को पाकिस्तान सरकार ने इन्हें "प्राईड आफ़ परफ़ार्मेंश" से नवाज़ा थां।
१९७६ में इनका जब पहला गज़लों का एलबम रीलिज़ हुआ तो सारे रिकार्ड़्स हाथों-हाथ बिक गए।
regards
जब तक जिया मरता रहा मैं किश्तों में
अब कर दिया शामिल मुझे फ़रिश्तों में ।
(स्वरचित)
कभी नींद बेची कभी ख्वाब बेचे
यूं किश्तों मे बिकना पड़ा ‘श्याम’ मुझको
shard ji ise bhi sambhaalen
कभी क्या मिलेगा न आराम मुझको
न थकने ही देता है ये काम मुझको
कभी नींद बेची कभी ख्वाब बेचे
यूं किश्तों मे बिकना पड़ा ‘श्याम’ मुझको
mtla v mqta dono smbhalen
पहले सवाल का जवाब.
प्रेमचंद ने हसरत मोहनी के लिए कहा था.
दुसरे सवाल का जवाब.
मुन्नी बेगम
१९७६ में इनका पहला गज़लों का एलबम रीलिज़ हुआ
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