महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३८
१४अगस्त को गोकुल-अष्टमी और १८ अगस्त को गुलज़ार साहब के जन्मदिवस के कारण आज की महफ़िल-ए-गज़ल पूरे डेढ हफ़्ते बाद संभव हो पाई है। कोई बात नहीं, हमारी इस महफ़िल का उद्देश्य भी तो यही है कि किसी न किसी विध भूले जा रहे संगीत को बढावा मिले। हाँ तो, डेढ हफ़्ते के ब्रेक से पहले हमने दिशा जी की पसंद की दो गज़लें सुनी थीं। आप सबको शायद यह याद हो कि अब तक हमने शरद जी की फ़ेहरिश्त से दो गज़लों का हीं आनंद लिया है। तो आज बारी है शरद जी की पसंद की अंतिम नज़्म की। आज हम जिस फ़नकारा की नज़्म को लेकर हाज़िर हुए हैं, उनकी एक गज़ल हमने पहले भी सुनी हुई है। जनाब "अतर नफ़ीस" की लिखी "वो इश्क़ जो हमसे रूठ गया" को हमने महफ़िल-ए-गज़ल की २६वीं कड़ी में पेश किया था। उस कड़ी में हमने इन फ़नकारा की आज की नज़्म का भी ज़िक्र किया था और कहा था कि यह उनकी सबसे मक़बूल कलाम है। इन फ़नकारा के बारे में अपने ब्लाग सुख़नसाज़ पर श्री संजय पटेल जी कहते हैं कि ग़ज़ल गायकी की जो जागीरदारी मोहतरमा फ़रीदा ख़ानम को मिली है वह शीरीं भी है और पुरकशिश भी. वे जब गा रही हों तो दिल-दिमाग़ मे एक ऐसी ख़ूशबू तारी हो जाती है कि लगता है इस ग़ज़ल को रिवाइंड कर कर के सुनिये या निकल पड़िये एक ऐसी यायावरी पर जहाँ आपको कोई पहचानता न हो और फ़रीदा आपा की आवाज़ आपको बार बार हाँट करती रहे. तो अब तक आप समझ हीं गए होंगे कि हम मोहतरमा "मुख्तार बेग़म" की छोटी बहन "मल्लिका-ए-गज़ल" फ़रीदा खानुम जी की बात कर रहे हैं। चलिए इनसे थोड़ा और मुखातिब होते हैं।
फ़रीदा खानुम जी को २००५ में जब "हाफ़िज़ अली खां अवार्ड" से नवाज़ा गया था तो उन्होंने हिन्दुस्तान में अपने प्रवास के बारे में कुछ ऐसे विचार व्यक्त किए थे: मुझे अपने संगीत-कैरियर में हिन्दुस्तान आने के न जाने कितने आफ़र और अवसर मिलते रहे हैं, लेकिन हर बार मै बस इसी कारण से इन अवसरों को नकारती रही क्योंकि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के संबंध अच्छे नहीं थे। चूँकि इन दिनों संबंधों में कुछ सुधार आता दिख रहा है पाकिस्तान सरकार भी इस बार थोड़ी सीरियस है, इसलिए हिन्दुस्तान आने का अंतत: मैने निर्णय कर लिया। पहली मर्तबा पाकिस्तान-हिन्दुस्तान फोरम की बदौलत तो दूसरी मर्तबा एक हिन्दुस्तानी संगठन एस०पी०आई०सी० के कारण मेरा हिन्दुस्तान आना हुआ। और अबकी बार हिन्दुस्तान ने मुझे क्लासिकल और सेमी-क्लासिकल संगीत के सर्वोच्च अवार्ड से सम्मानित किया है। यह सब देखकर मुझे महसूस होता है कि हिन्दुस्तान में मुझे चाहने वाले कम नहीं। सच हीं है, कोई भी फ़नकार नफ़रत नहीं चाहता और किसी भी फ़नकार का फ़न किसी भी सीमा में बँधकर नहीं रहता। तभी तो आज के नफ़रत भरे माहौल में फ़रीदा खानुम चाहकर भी गा नहीं पाती। हाल के दिनों में लिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था: इस माहौल में कौन गाना चाहेगा। मेरा तो दिल ही नहीं करता गाने को, जब दोनों मुल्कों में माहौल सुधरेगा तभी मैं गा सकूंगी। मैने पाकिस्तान में आखि़री बार स्टेज पर दो साल पहले कराची में गाया था और हिन्दुस्तान में करीब एक बरस पहले। पाकिस्तान में कला से जुड़ी सारी गतिविधियां ठप हो गई हैं। नेताओं को फ़न की फिक्र ही कहां है! फ़नकार मौसिक़ी से दूर होते जा रहे हैं। मुझे याद नहीं पड़ता कि पिछले दो साल में एक बार भी मेरा गाने का मन हुआ हो। जब तक मुहब्बत का माहौल नहीं हो तब तक सब कुछ बेमानी है। यदि यही हाल रहा तो पाकिस्तान में न तो फ़न बचेगा और न ही फ़नकार। मुझे हिन्दुस्तान में भी बहुत प्यार और इज्ज़त मिली। आज भी मैं नहीं भूल सकती कि मेरे कार्यक्रमों में किस क़दर भीड़ उमड़ती थी और कैसे लोग घंटों तक सुनते जाते थे। आखिरी बार तो मेरे कार्यक्रम में उस्ताद अमजद अली खान भी मौजूद थे। मेरी तो यही दुआ है कि अल्लाह रहमत करे और जल्दी माहौल ठीक हो। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के कलाकार मिलकर ही संगीत की साझी विरासत को बचा सकते हैं, नहीं तो सब खत्म हो जाएगा। शायद हीं ऐसा कभी हो, फिर भी हम दुआ तो कर हीं सकते हैं। आमीन!
उस्ताद बड़े गुलाम अली खान और उस्ताद आशिक़ अली खान की शिष्या फ़रीदा खानुम के बाद हम रूख करते हैं आज के शायर की तरफ़। आज के शायर भी बाकी उन शायरों की तरह हैं जिनकी गज़ल या नज़्म हर किसी की जुबान पर है, लेकिन जिनका नाम शायद हीं कोई जानता हो। हिन्दुस्तान में आज की नज़्म को बहुतों ने आशा भोंसले की आवाज़ में सुना है जिसका संगीत खैय्याम साहब ने दिया था और यकीं मानिए हर किसी को यह नज़्म बस इन दोनों के कारण या फिर हमारी आज की फ़नकारा फ़रीदा खानुम के कारण याद है। लेकिन जिस शख्स ने इस नज़्म में अपने दिली जज़्बातों को पिरोया था उसे पूछने वाला कोई नहीं। १९६० की पाकिस्तानी फिल्म "सहेली" का उनका लिखा एक गाना "हम भूल गए हर बात मगर तेरा प्यार नहीं भूले" जिसे संगीत से सजाया था "ए हमीद" ने और आवाज़ दी थी "नसीम बेगम" ने, देखते-देखते हमारी एक फ़िल्म "सौतन की बेटी" में शामिल भी हो गया और स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने अपनी आवाज़ भी दे दी फिर भी हमने यह मालूम करने की कोशिश नहीं की कि यह गाना किसकी लेखनी की उपज है। अगर अभी तक आप उस शायर से अनभिज्ञ हैं तो लीजिए हम हीं बताए देते हैं। उस शायर का नाम है "फ़ैयाज़ हाशमी" जिसने "पैग़ाम", "औलाद", "सहेली", "सवेरा" ,"सवाल" ,"औलाद" और "तौबा" जैसी न जाने कितनी पाकिस्तानी फ़िल्मों में गीत लिखे थे। उनकी लिखी कुछ गज़लें जो उतना नाम न कर सकी, जितने की वो हक़दार थीं: "हमें कोई ग़म नहीं था ग़म-ए-आशिक़ी से पहले", "कम नहीं मेरी ज़िंदगी के लिए" , "ना तुम मेरे, ना दिल मेरा, ना जान-ए-नतावां मेरी", "टकरा हीं गई मेरी नज़र उनकी नज़र से" और "तस्वीर तेरी दिल मेरा बहला नहीं सकती" । इन्हीं गज़लों में कहीं वह शेर भी शामिल है जिसमें उन्होंने दीवानों की हालत का ब्योरा दिया है। आप खुद हीं देखिए:
"फ़ैयाज़" अब आया है जुनूं जोश पे अपना,
हँसता है जमाना, मैं गुजरता हूँ जिधर से।
"आज जाने की जिद न करो"- शायद हीं कोई होगा जिसने इस नज़्म को न सुना हो। और अगर किसी ने न भी सुना हो तो हम किस लिए हैं। लीजिए पेश है वह नज़्म आपकी खिदमत में। मुलाहजा फ़रमाईयेगा:
आज जाने की ज़िद न करो
यूँही पहलू में बैठे रहो
हाय, मर जायेंगे
हम तो लुट जायेंगे
ऐसी बातें किया न करो
तुम ही सोचो ज़रा, क्यों न रोकें तुम्हें?
जान जाती है जब उठ के जाते हो तुम
तुमको अपनी क़सम जान-ए-जाँ
बात इतनी मेरी मान लो
आज जाने की...
वक़्त की क़ैद में ज़िंदगी है मगर
चंद घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं
इनको खोकर कहीं, जान-ए-जाँ
उम्र भर न तरसते रहो
आज जाने की...
कितना मासूम रंगीन है ये समा
हुस्न और इश्क़ की आज में राज है
कल की किसको खबर जान-ए-जाँ
रोक लो आज की रात को
आज जाने की...
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
मुझे पिला रहे थे वो कि खुद ही शम्मा बुझ गयी,
___ गुम, शराब गुम, बड़ी हसीन रात थी....
आपके विकल्प हैं -
a) सुराही, b) पैमाना, c) जाम, d) गिलास
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "लुत्फ़" और शेर कुछ यूं था -
मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह,
जी खुश तो हो गया मगर आंसू निकल पड़े..
सही जवाब के साथ साथ शरद जी ने जो शेर सुनाया वो भी गजब का था -
अपनी बातों में असर पैदा कर तू समन्दर सा जिगर पैदा कर
जीस्त का लुत्फ़ जो लेना हो ’शरद’,एक बच्चे सी नज़र पैदा कर...
नीलम जी धन्येवाद आपके वापस आने का, आपके शेर कुछ यूं था -
लुत्फ़ कोई भी रहा अब है न जीने में मजा
जाने वाला दे गया जाते हुए ऐसी सजा
क्या नीलम जी, अब लुत्फ़ जैसे शब्द पर भी इतना उदासी भरा शेर :). मंजू जी ने फ़रमाया-
मुद्दतों के बाद मन के आंगन में लुत्फ़ के बादल छाए
संदेश पिया के आने का कजरारे बादल लाए...
अदा जी ने खूब कहा -
लुत्फ़ जो उसके इंतज़ार में है
वो कहाँ मौसम-ए-बहार में है..
कुलदीप जी ये शेर कैफी साहब का है..आपने हमेशा की तरह बहुत शानदार शेर याद दिलाये, खासकर ये -
ज़िन्दगी का लुत्फ़ हो उड़ती रहे हरदम 'रिआज़'
हम हों शीशे की परी हो घर परीखाना रहे
वाह...रचना जी मगर कुछ यूं उदास दिखी -
लुत्फ़ सूरज के निकलने का उठा रहे थे
चाँद को दर्द ढलने का बता रहे थे
चलिए तो आप सब भी जिंदगी के लुत्फ़ यूहीं उठाते रहें इस दुआ के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं और आपको छोड़ जाते हैं शमिख फ़राज़ जी के याद दिलाये फैज़ के इस शेर के साथ -
बहुत मिला न मिला ज़िन्दगी से ग़म क्या है
मता-ए-दर्द बहम है तो बेश-ओ-कम क्या है
हम एक उम्र से वाक़िफ़ हैं अब न समझाओ
के लुत्फ़ क्या है मेरे मेहरबाँ सितम क्या है...
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
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15 श्रोताओं का कहना है :
ये शेर कुछ यूँ होगा
मुझे पिला रहे थे वो कि ख़ुद ही शम्मा बुझ गयी
गिलास ग़ुम शराब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
regards
वज़न के हिसाब से सही लफ्ज़ गिलास है.
मुझे पिला रहे थे वो कि ख़ुद ही शम्मा बुझ गयी
गिलास ग़ुम शराब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
1) जो रंग भरदो उसी रंग मे नज़र आए
ये ज़िंदगी न हुई काँच का गिलास हुआ
2) ऐसा न हो कि उँगलियाँ घायल पड़ी मिलें
चटके हुए गिलास को ज्यादा न दाबिए।
regards
अब वो ग़ज़ल जिसका ये शे'र है. सुदर्शन फ़कीर साहब की ग़ज़ल है ये.
चराग़-ओ-आफ़्ताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
शबाब की नक़ाब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
मुझे पिला रहे थे वो कि ख़ुद ही शम्मा बुझ गयी
गिलास ग़ुम शराब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
लिखा हुआ था जिस किताब में, कि इश्क़ तो हराम है
हुई वही किताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
लबों से लब जो मिल गये, लबों से लब जो सिल गये
सवाल ग़ुम जवाब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
shahid kabeer ki aik gazal
हर आइने मे बदन अपना बेलिबास हुआ
मैं अपने ज़ख्म दिखाकर बहुत उदास हुआ
जो रंग भरदो उसी रंग मे नज़र आए
ये ज़िंदगी न हुई काँच का गिलास हुआ
मैं *कोहसार पे बहता हुआ वो झरना हूँ
जो आज तक न किसी के लबों की प्यास हुआ
करीब हम ही न जब हो सके तो क्या हासिल
मकान दोनो का हरचंद पास-पास हुआ
कुछ इस अदा से मिला आज मुझसे वो शाहिद.
कि मुझको ख़ुद पे किसी और का क़यास हुआ
basheer badra sahab ka she'r
यहाँ लिबास, की क़मीत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे
एक और ग़ज़ल पेश है.
दुनिया की निगाहों से झुलस जायेंगे हम भी....
जुल्फों तले उनकी यह अहसास नहीं था
उनसे बिछड़ के तड़प का अंदाज तो लगा
पहलू में उनके प्यार कोई खास नहीं था
मैखाने की मस्ती में हम डूबते कैसे
नज़रों के नशे से भरा गिलास नहीं था
भरते थे जहर उनको मेरे चाहने वाले
दुश्मनों के साथ मैं उदास नही था
महफिल सजी थी लफ्जों में दुनिया जहान की
मेरी शायरी का नाम तब तलाश नहीं था
डॉ. कुँअर बैचैन
अब आग के लिबास को ज्यादा न दाबिए।
सुलगी हुई कपास को ज्यादा न दाबिए।
ऐसा न हो कि उँगलियाँ घायल पड़ी मिलें
चटके हुए गिलास को ज्यादा न दाबिए।
चुभकर कहीं बना ही न दे घाव पाँव में
पैरों तले की घास को ज्यादा न दाबिए।
मुमकिन है खून आपके दामन पे जा लगे
ज़ख़्मों के आस पास यों ज्यादा न दाबिए।
पीने लगे न खून भी आँसू के साथ-साथ
यों आदमी की प्यास को ज्यादा न दाबिए।
regards
देने वाले ने दिया सब कुछ अलग अन्दाज़ से
सामने दुनिया पड़ी है और उठा सकते नहीं
यहाँ लिबास की कीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम करे दे
regards
1 triveni
धौंकते सीनो से, पेशानी के पसीनो से
लड़ -लड़कर सूरज से जो जमा किया था.........
एक गिलास मे भरकर पी गया पूरा दिन
ज्ञान प्रकाश विवेक
खुली कपास को शोलों के पास मत रखना
कोई बचाएगा तुमको यह आस मत रखना
ये कह के टूट गया आसमान से तारा
कि मेरे बाद तुम ख़ुद को उदास मत रखना
लगे जो प्यास तो आँखों के अश्क पी लेना
ये रेज़गार है, जल की तलाश मत रखना
यहाँ तो मौत करेगी हमेशा जासूसी
ये हादसों का शहर है,निवास मत रखना
अगर है डर तो अँगारे समेट लो अपने
हवा को बाँधने का इल्त्मास मत रखना
छिलेगा हाथ तुम्हारा ज़रा-सी ग़फ़लत पर
कि घर में काँच का टूटा गिलास मत रखना.
regards
आप बहुत नायाब जानकारी जुटाकर लाते हैं और तरीका भी बहुत बढ़िया है बताने का। मुझे भी यह नज़्म बहुत पसंद है और कई बार इसे चलाकर भूल जाता हूँ, प्लेयर इसे बार-बार चलाता रहता है। लेकिन यह सच है कि मैंने भी इसके रचनाकार के बारे में जानने की कभी कोशिश नहीं की।
जवाब -गिलास ,शेर स्वरचित है -१-मधुशाला में जब टकराते गिलास .
सारा जमाना होता कदमों के पास .
२-जब पिए थे गिलास भुला दिया था तुझे .
झूम रहा था मयखाना अफसाना बने .
यहाँ लिबास, की क़मीत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे|
filhaal yo sabse jyaada pasand aaya aur shaamikh ji comment me se chura bhi liya .
maaf kijiyega shaamikh bhaai
sahi shabd gilas hai par abhi sher y koi yaad nahi aa raha........
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