महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३९
आज का अंक शुरू करने से पहले हम पिछले अंक में की गई एक गलती के लिए माफ़ी माँगना चाहेंगे। यह माफ़ी सिर्फ़ एक इंसान से है और उस इंसान का नाम है "शरद जी"। दर-असल पिछले अंक में हमने आपको जनाब अतर नफ़ीस की लिखी जो नज़्म सुनाई थी, वह है तो यूँ बड़ी हीं खुबसूरत, लेकिन उसकी फ़रमाईश शरद जी ने नहीं की थी। हुआ यूँ कि शरद जी की पसंद की तीन गज़लें/नज़्में और "आज जाने की ज़िद न करो" एक हीं जगह संजो कर रखी हुई थी, अब उस फ़ेहरिश्त से दो गज़लें हम आपको पहले हीं सुना चुके थे तो तीसरे के रूप में हमारी नज़र "आज जाने की ज़िद न करो" पर पड़ी और जल्दीबाजी में आलेख उसी पर तैयार हो गया। चलिए माना कि हमने इस नाम से नज़्म पोस्ट कर दी कि यह शरद जी की पसंद की है, लेकिन आश्चर्य तो इस बात का है कि खुद शरद जी ने इस गलती की शिकायत नहीं की। शायद वो कहीं अन्यत्र व्यस्त थे या फिर वो खुद हीं भूल चुके थे कि उन्होंने किन गज़लों की फ़रमाईश की थी। जो भी हो, लेकिन यह गलती हमारी नज़र से छिप नहीं सकी और इसलिए हमने यह फ़ैसला किया है कि महफ़िल-ए-गज़ल की ४०वीं कड़ी (जो यूँ भी फ़रमाईश की गज़लों की अंतिम कड़ी होनी थी) में हम शरद जी की पसंद की अंतिम गज़ल/नज़्म पेश करेंगे। तो यह तो हुई पिछली और अगली कड़ी की बात, अब हम आज की कड़ी की ओर रूख करते हैं। आज की कड़ी सुपूर्द है दिशा जी की पसंद की आखिरी गज़ल के। आज हम जो गज़ल लेकर यहाँ पेश हुए हैं,उसे इस गज़ल के फ़नकार अपनी श्रेष्ठ १६ गज़लों में स्थान देते हैं। उस गज़ल की बात करने से पहले हम उस एलबम की बात करते हैं जिसमें "तलत अज़ीज़" साहब(जी हाँ, आज की गज़ल को अपनी सुमधुर आवाज़ और दिलकश संगीत से इन्होंने हीं सजाया है) की श्रेष्ठ १६ गज़लों का समावेश किया गया है। उस एलबम का नाम है "इरशाद" । हम यहाँ इस एलबम की सारी गज़लों के नाम तो पेश नहीं कर सकते लेकिन दो गज़लें ऐसी हैं, जिसके साथ तलत साहब की कुछ विशे्ष यादें जुड़ी हीं, वो बातें हम आपके साथ जरूर शेयर करना चाहेंगे।
उसमें से पहली गज़ल है क़तील शिफ़ाई साहब की लिखी हुई "बरसात की भींगी रातों में"। खुद तलत साहब के शब्दों में: १९८३ की बात है, मैं एक प्राईवेट पार्टी में यह गज़ल गा रहा था। जब मेरा गाना खत्म हुआ तो एक शख्स मेरे पास आए और मुझसे लिपट कर रोने लगे। इस गाने ने उनके अंदर छुपे शायद किसी दर्द को छु लिया था। जब वो चले गए तो मैने किसी से उनके बारे में पूछा तो पता चला कि वो चर्चित फिल्म निर्देशक महेश भट्ट थे। उस घटना के कुछ दिनों बाद हम एक फ़्लाईट में मिलें तो उन्होंने बताया कि यह उनकी बेहद पसंदीदा गज़ल है। उसके बाद हमारा रिश्ता कुछ ऐसा बन गया कि उन्होंने हीं मेरी होम प्रोडक्शन फिल्म "धुन" डाइरेक्ट की और उनकी फिल्म "डैडी" का मैं एकमात्र मेल सिंगर था। मैने उनके लिए "गुमराह" में भी गाया है। इस गज़ल के बाद चलिए अब बात करते हैं आज की गज़ल की। आज की गज़ल के बारे में तलत साहब की राय इसलिए भी लाजिमी हो जाती है क्योंकि उनके कुछ वाक्यों के अलावा इस गज़ल के गज़लगो के बारे में कहीं भी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। तलत साहब अपने इन वाक्यों के सहारे हमें उस शख्स से रूबरू कराते हैं जो उनका फ़ैन भी है तो एक शायर भी, फ़ैन शायद बहुत बड़ा है, लेकिन शायर छोटा-मोटा। आप खुद देखिए कि तलत साहब क्या कहते हैं। यह गज़ल "खुबसूरत हैं आँखें तेरी" मेरी एलबम "शाहकार" के माध्यम से लोगों के सामने पहली मर्तबा हाज़िर हुई थी। अदब, अदीबों और नवाबों के शहर लखनऊ का एक बांका छोरा था, जिसका नाम था "हसन काज़मी" और जो अपने आप को मेरा बहुत बड़ा फ़ैन कहता था, शौकिया शायरी भी किया करता था। जब भी मैं लखनऊ किसी मुशायरे के लिए जाता तो वह वहाँ जरूर मौजूद होता था, मुझसे मिलता भी था और कभी-कभार अपनी लिखी नज़्मों और गज़लों को मुझे सुना जाता। मैने उसकी गज़ल "खुबसूरत हैं आँखें तेरी" के लिए एक धुन भी तैयार की थी लेकिन आगे चलकर यह बात मेरे जहन से उतर गई थी। कई साल बाद जब हम "शाहकार" पर काम कर रहे थे तो मैने "वीनस" के "चंपक जी" से इस गज़ल का जिक्र किया। "चंपक जी" को यह गज़ल बेहद पसंद आई और उन्होंने इस गज़ल को न सिर्फ़ लीड में रखने का फ़ैसला किया बल्कि इस गज़ल का विडियो भी तैयार किया गया। इस तरह यह गज़ल मेरे पसंदीदा गज़लों में शुमार हो गई।
वैसे तो हमने आपसे यह कहा था कि "इरशाद" एलबम से ली गई दो गज़लों से जुड़ी मजेदार बातें आपसे शेयर करेंगे लेकिन अगर तीसरी की भी बात हो जाए तो क्या बुरा है। हाँ तो जिस तीसरी गज़ल की हम बात कर रहे हैं उसे संगीत से सजाया है खैय्याम साहब ने। गज़ल के बोल हैं "ज़िंदगी जब भी"। इस गज़ल के बारे में तलत साहब कहते हैं: खैय्याम साहब एक पर्फ़ेंक्शनिस्ट हैं। यह गज़ल जिसकी मैं बात कर रहा हूँ, वह उमराव जान फिल्म की बड़ी हीं मासूम गज़ल है। इस गाने की एक पंक्ति "सुर्ख फूलों से महक उठती हुई" में खैय्याम साहब खालिस लखनवी अंदाज की तलब रखते थे और मैं ठहरा हैदराबादी। नहीं चाहते हुए भी हर बार "फूलों" हैदराबादी अंदाज़ में ही आ रहा था। बड़ी कोशिशों के बाद मैं लखनवी अंदाज हासिल कर पाया। फिर भी आज तक मुझे इस गज़ल में अपनी गायकी अपने स्तर से कम की लगती है, जबकि खैय्याम साहब कहते हैं कि कोई गड़बड़ नहीं है। खैय्याम साहब यूँ हीं तो यकीं नहीं रखते, कुछ तो है इस गज़ल में कि आज भी यह गज़ल बड़ी हीं प्रचलित है और लोगों के जुबान पर ठहरी हुई है। जानकारी के लिए बता दूँ कि खैय्याम साहब का १९९० में निधन हो चला है। और इससे यह भी जाहिर होता है जो भी बातें हमने यहाँ पेश की है, वो सब बीसियों साल पुरानी है। चूँकि हमारे पास आज की गज़ल के गज़लगो के बारे में कोई भी खास जानकारी उपलब्ध नहीं है, इसलिए उनका लिखा कोई दूसरा शेर (जो इस गज़ल में मौजूद न हो) हम पेश नहीं कर सकते। इसलिए अच्छा यह होगा कि हम सीधे आपको आज की गज़ल से मुखातिब करा दें। तो लीजिए पेश है आज की गज़ल.....सुनिए और डूब जाईये शब्दों की मदहोशी में। मुलाहजा फ़रमाईयेगा:
खुबसूरत हैं आँखें तेरी, रात को जागना छोड़ दे,
खुद-बखुद नींद आ जाएगी, तू मुझे सोचना छोड़ दे।
तेरी आँखों से कलियाँ खिलीं, तेरी आँचल से बादल उड़ें,
देख ले जो तेरी चाल को, मोर भी नाचना छोड़ दे।
तेरी अंगड़ाईयों से मिलीं जहन-ओ-दिल को नई रोशनी,
तेरे जलवों से मेरी नज़र किस तरह खेलना छोड़ दे?
तेरी आँखों से छलकी हुई जो भी एक बार पी ले अगर,
फिर वो मैखार ऐ साकिया, जाम हीं माँगना छोड़ दे।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
क्यों डरें ज़िंदगी में क्या होगा,
कुछ न होगा तो ______ होगा....
आपके विकल्प हैं -
a) करिश्मा, b) तजुर्बा, c) क्या मज़ा, d) बेमज़ा
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "गिलास" और शेर कुछ यूं था -
मुझे पिला रहे थे वो कि खुद ही शम्मा बुझ गयी,
गिलास गुम, शराब गुम, बड़ी हसीन रात थी....
इस शेर को सबसे पहले सही पहचना सीमा जी ने और उन्होंने कुछ शेर भी पेश किए:
जो रंग भरदो उसी रंग मे नज़र आए
ये ज़िंदगी न हुई काँच का गिलास हुआ
ऐसा न हो कि उँगलियाँ घायल पड़ी मिलें
चटके हुए गिलास को ज्यादा न दाबिए।
यहाँ लिबास की कीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम करे दे
छिलेगा हाथ तुम्हारा ज़रा-सी ग़फ़लत पर
कि घर में काँच का टूटा गिलास मत रखना.
शामिख साहब हर बार की तरह उस गज़ल को ढूँढ लाए जिससे यह शेर लिया हुआ था। उसके बाद उन्होंने "गिलास" शब्द से जुड़े कई सारे शेर पेश किए। बानगी देखिए:
जो रंग भरदो उसी रंग मे नज़र आए
ये ज़िंदगी न हुई काँच का गिलास हुआ
यहाँ लिबास, की क़मीत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे
मैखाने की मस्ती में हम डूबते कैसे
नज़रों के नशे से भरा गिलास नहीं था
एक त्रिवेणी भी:
धौंकते सीनो से, पेशानी के पसीनो से
लड़ -लड़कर सूरज से जो जमा किया था
एक गिलास मे भरकर पी गया पूरा दिन।
मंजु जी स्वरचित दो शेरों के साथ महफ़िल में हाज़िर हुईं। उनके शेर कुछ यूँ थे:
१-मधुशाला में जब टकराते गिलास .
सारा जमाना होता कदमों के पास .
२-जब पिए थे गिलास भुला दिया था तुझे .
झूम रहा था मयखाना अफसाना बने .
नीलम जी ने जहाँ शामिख साहब की टिप्पणी से उठाकर शेर पेश किया तो वहीं सुमित जी थोड़े पशोपेश में नज़र आए। कोई बात नहीं महफ़िल में आप दोनों की उपस्थिति हीं पर्याप्त है।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए विदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
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24 श्रोताओं का कहना है :
एक कशिश थी तलत अज़ीज़ जी की आवाज़ मे,
बहुत सुंदर गीत.
प्रस्तुति के लिए ..बधाई
kuch na hoga to tajurba hoga...
वाह,
इस गजल के साथ कुछ बड़े पुराने दर्द निकले हैं...
१५ बरस की कच्ची उम्र, १९९७ के आखिर या १९९८ की शुरुआत की बात, बारहवीं कक्षा में पिताजी का शाहजहांपुर से बरेली तबादला...
नए शहर में बना पहला मित्र नितेश चंद्रा और उसके घर पर उसकी पडोसन को देखते हुए उसके स्टीरेओ पर इस गीत को सुनना...
वाह, क्या दिन थे...कितने अरमान थे और कितनी फुर्सत थी...टेप रिकार्ड पर आगे पीछे करके इसी गीत को सुनना और कभी गीत के बीच में बिजली गुम हो जाने पर बस दिल पकड़ कर बैठ जाना....
१९९८ में घर से दूर इंजीनियरिंग कालेज में रैगिंग के दौरान अपने फटे गले से पूरी शिद्दत से इस गीत को गाकर सुनाना....
वाह, आज का दिन पुरानी यादों में ही बीतेगा...बहुत शुक्रिया.....
अरे, जोश जोश में तजुर्बे पर शेर कहना तो भूल ही गए...
कतील शिफाई साहब का कलाम है, और जगजीत सिंह ने गाया है..
ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रकीब,
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं...
सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं,
लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्या हूँ मैं,
sahi lafz hai tajurba. she'r jawed akhter sahab ka hai.
आज जब आपका आलेख पढा तो मुझे बड़ी शर्मिन्दगी महसूस हुई । दर असल मैं समझ तो गया था कि मैनें इस नज़्म की फ़रमाईश नहीं की लेकिन फिर इस बात पर भी आश्चर्य हुआ कि आपको दूसरों के मन की बात जान लेने की कला भी आती है और आपने उस नज़्म के बारे में इतनी जानकारी दे दी जो वास्तव में मेरी तथा बहुतों की पसन्द हैं । मैं दुखी भी हुआ कि मैनें इस की फ़रमाइश क्यों नहीं की तथा खुशी भी हुई कि मेरी पसन्द की सूची में इसका नाम अपने आप ही शामिल कर दिया । इसी लिए चुप रहा तथा आपका आभार प्रगट करने का मौका ढ़ूंढ़ रहा था । आपका बहुत बहुत आभारी हूँ ।
तन्हा जी,
एक अरसे बाद महफ़िल में कदम रखा है कोई एतराज़ तो नहीं?
आवाज़ की आई याद जब तो सोचा महफ़िल भी जमी होगी वहीँ.
जबाब भी शायद????......'तजुर्बा' ही होगा.
लीजिये अब कुछ मेरी भी तरफ से:
लिखने की तमन्ना है मुझे मगर तजुर्बा ही नहीं
मेरे शेर सुनते ही लोग महफ़िल से भाग जाते हैं.
अगर फरमाइश कहीं से होती मेरी शायरी के लिए
तो शायद सुनने वालों का भी अपना ही तजुर्बा होता.
अब अल्लाह खैर करे! खुदा हाफिज.
आज की पहेली का सही शब्द है ’तज़ुर्बा’
स्वरचित शे’र पेश है :
जब कबाडी घर से कुछ चीज़ें पुरानी ले गया
वो मेरे बचपन की यादें भी सुहानी ले गया ।
इस तरह सौदा किया है आदमी से वक़्त ने
तज़ुर्बे दे कर वो कुछ उसकी जवानी ले गया ।
अरे..... मैं आपकी पेश की हुई ग़ज़ल तो सुनना ही भूल गयी थी. अब सुनकर कहना चाहती हूँ की 'खूबसूरत हैं आँखे तेरी' को सुनकर मैं वाकई में उसकी धुन में डूब गयी और अब भी डूबी हुई हूँ. जितनी बार सुनूंगी उतनी ही बार डूबने का भी मौका मिलेगा. तन्हा जी, इतनी प्यारी-प्यारी ग़ज़लें सुनवाने का बेहद शुक्रिया.
तन्हा जी,
तजुर्बा रहा है हिचकियों से की किसी ने मुझे याद किया
क्या आवाज़ पर भी किसी ने दस्तक दी है आज मुझे.
यह कैसी पहेली है?? मेरा मतलब है की.....
ऐसा क्यों होता है की मेरे आने से सब लोग महफ़िल से गायब हो जाते हैं?????
ये अच्छी बात नहीं है.
पेश है पूरी ग़ज़ल.
क्यों डरें जिन्देगी में क्या होगा
कुछ ना होगा तो तजरूबा होगा
हँसती आँखों में झाँक कर देखो
कोई आँसू कहीं छुपा होगा
इन दिनों ना उम्मीद सा हूँ मैं
शायद उसने भी ये सुना होगा
देखकर तुमको सोचता हूँ मैं
क्या किसी ने तुम्हें छुआ होगा
क्यों डरें ज़िंदगी में क्या होगा,
कुछ न होगा तो तजुर्बा होगा....
यह जावेद जावेद अख्टर साहब की ग़ज़ल का शे'र है.
मेरा अपना तजुर्बा है इसे सबको बता देना
हिदायत से तो अच्छा है किसी को मशवरा देना।
अनाम
कभी पाबन्दियों से छूट के भी दम घुटने लगता है
दरो-दीवार हो जिनमें वही ज़िन्दान नहीं होता
हमारा ये तजुर्बा कि खुश होना मोहब्बत में
कभी मुश्किल नहीं होता, कभी आसान नहीं होता
बज़ा है ज़ब्त भी लेकिन मोहब्बत में कभी रो ले
दबाने के लिये हर दर्द-ओ-नादान नहीं होता
यकीं लायें तो क्या लायें, जो शक लायें तो क्या लायें
कि बातों से तेरी सच झूठ का इम्कां नहीं होता
firaq gorakhpuri
1 triveni
तजुर्बे के अपने मानी है
सारी रात अकेला लड़ा वो........
ज़िंदगी से पहली जंग थी
शामिख जी,
शाबाश!! कहाँ थे आप अब तक????
shanno ji main to har mahfil me tha. bas aap hi gerhazir rahti thee.
शामिख जी,
आपकी हाज़िर जबाबी के आगे तो मेरा दिमाग सुन्न हो गया. अब क्या कहूं? Yes, मैं गैर हाज़िर रही हूँ. इसे नोटिस करने का शुक्रिया. Very clever and witty of you. जब सोचा इस बारे में तो उत्तर बहुत सही लगा मुझे.
जवाब-तजुर्बा. स्वरचित शेर .
तजुर्बा जिन्दगी का कहानियों में बोलता .
दोस्तों ! कोई हंसता तो कोई रोता ,
तजुर्बा अपनों का कुछ इस कदर हुआ मुझे
काटों ने ही नहीं फूलों ने भी दगा दिया मुझे
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क्या है माँ की दुआ दोस्तों
मौत तली तो तजुर्बा हुआ दोस्तों
saader
rachana
shabd टली likhna tha
क्यो डरे जिन्दगी मे क्या होगा
कुछ ना होगा तो तजुर्बा होगा
दिल खुश हो गया इस शे'र को पढकर
तजुर्बा शब्द से तो एक ही शे'र आता है, जो जगजीत जी की गजल का है
ले मेरे तजुर्बो से सबक ऐ मेरे रकीब,
दो चार साल उम्र मे तुझसे बडा हूँ मै
ये शे'र तो नीरज जी पहले ही लिख चुके, नया शे'र याद आएगा जब, तब फिर आऊँगा महफिल मे .....
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