रेडियो प्लेबैक वार्षिक टॉप टेन - क्रिसमस और नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित


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प्लेबैक की टीम और श्रोताओं द्वारा चुने गए वर्ष के टॉप १० गीतों को सुनिए एक के बाद एक. इन गीतों के आलावा भी कुछ गीतों का जिक्र जरूरी है, जो इन टॉप १० गीतों को जबरदस्त टक्कर देने में कामियाब रहे. ये हैं - "धिन का चिका (रेड्डी)", "ऊह ला ला (द डर्टी पिक्चर)", "छम्मक छल्लो (आर ए वन)", "हर घर के कोने में (मेमोरीस इन मार्च)", "चढा दे रंग (यमला पगला दीवाना)", "बोझिल से (आई ऍम)", "लाईफ बहुत सिंपल है (स्टैनले का डब्बा)", और "फकीरा (साउंड ट्रेक)". इन सभी गीतों के रचनाकारों को भी प्लेबैक इंडिया की बधाईयां

Saturday, August 1, 2009

रहा गर्दिशों में हरदम मेरा इश्क का सितारा...मनोज कुमार की पीडा और रफी साहब की आवाज़



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 158

"याद न जाये बीते दिनों की, जाके न आए जो दिन, दिल क्यों बुलाए उन्हे दिल क्यों बुलाए"। दोस्तों, फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की यादें इतनी पुरअसर हैं, इतने सुरीले हैं, कि उन्हे भुला पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। भले ही वो दिन फिर वापस नहीं आ सकते, लेकिन ग्रामोफ़ोन रिकार्ड्स, कैसेट्स और सीडीज़ के माध्यम से उन सुरीले दिनों की यादों को क़ैद कर लिया गया है जो सदियों तक उन सुरीले ज़माने की और उस दौर से गुज़रे कलाकारों की सुर साधना से दुनिया की फिजाओं को महकाती रहेंगी। इन सुर साधकों में से एक नाम मोहम्मद रफ़ी साहब का है, जिनकी कल पुण्य तिथि थी। आज ही के दिन सन् १९८० में वो हम से बिछड़ गये थे। जब भी रफ़ी साहब के गाये गीतों की महफ़िल सजती है तो यह दिल ग़मगीन हो जाता है यह सोचकर कि उपरवाले ने इतनी जल्दी क्यों उन्हे हम से अलग कर दिया! अभी तो मानो बस महफ़िल शुरु ही हुई थी, ३० साल पूरे होने जा रहे हैं उनके गये हुए, पर दिल तो आज भी बस यही कहता है उन्ही के गाये 'साज़ और आवाज़' फ़िल्म के उस गीत के बोलों में ढलकर कि "दिल की महफ़िल सजी है चले आइए, आप की बस कमी है चले आइए"। रफ़ी साहब की कमी न आज तक पूरी हो सकी है और लगता नहीं कि आगे भी हो पायेगी। ख़ैर, इन दिनों आप सुन रहे हैं लघु शृंखला 'दस चेहरे एक आवाज़ - मोहम्मद रफ़ी' के अंतर्गत रफ़ी साहब के गाये गानें अलग अलग अभिनेताओं पर फ़िल्माये हुए। आज बारी है अभिनेता मनोज कुमार की। मनोज कुमार के लिए मुकेश और महेन्द्र कपूर ने काफ़ी प्लेबैक किया है, लेकिन रफ़ी साहब के भी कई शानदार गानें हैं जिन पर मनोज साहब ने अभिनय किया है। ऐसी ही एक फ़िल्म है 'दो बदन' जिसके गानें सदाबहार नग़मों में स्थान पाते है। इसी फ़िल्म से आज सुनिये "रहा गर्दिशों में हर दम मेरे इश्क़ का सितारा, कभी डगमागायी कश्ती कभी खो गया किनारा"। रफ़ी साहब ने दो और मशहूर गीत इस फ़िल्म में गाये थे "भरी दुनिया में आख़िर दिल को समझाने कहाँ जायें" और "नसीब में जिसके जो लिखा था", जिन्हे हम फिर कभी आप को सुनवाने की कोशिश करेंगे।

फ़िल्म 'दो बदन' आयी थी सन् १९६६ में जिसका निर्माण किया था शमसुल हुदा बिहारी ने। जी हाँ, ये वही गीतकार एस. एच. बिहारी साहब ही हैं। बिहारी साहब ने बतौर फ़िल्म निर्देशक भी अपना हाथ आज़माया था, फ़िल्म थी 'जोगी'। राज खोसला के निर्देशन में मनोज कुमार के साथ आशा पारेख 'दो बदन' में नायिका के रूप में और सिमि गरेवाल सह-नायिका के रूप में नज़र आयीं थीं। सिमि गरेवाल को इस फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री का फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार भी मिला था। इस फ़िल्म के गीत संगीत के लिए संगीतकार रवि, गीतकार शक़ील बदायूनी ("नसीब में जिसके जो लिखा था") और गायिका लता मंगेशकर ("लो आ गयी उनके याद") भी फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार के लिए मनोनीत हुए थे। दोस्तों, आज का यह गीत सुनने से पहले जान लेते हैं संगीतकार रवि साहब की बातें रफ़ी साहब के बारे में, जो उन्होने कहे थे विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' शृंखला में - "यह १९४७ की बात है। मैं दिल्ली में था, जश्न-ए-जमुरीयत के मौक़े पर दो कलाकारों को बुलाया गया था - मोहम्मद रफ़ी और मुकेश। मैने पता किया कि वो कहाँ पर ठहरे हुए हैं। पता चला कि फ़तेहपुरी में 'कोरोनेशन होटल' में ठहरे हैं। मैं उनसे मिलने जा रहा था कि किसी ने कहा कि जब वे सुनेंगे कि मैं भी गायक बनने के ख़्वाब से उनसे मिलने गया हूँ तो कहेंगे कि 'हमारे ही पेट पर लात मारने आये हो?' मैने कहा कि 'मैं कहूँगा उनसे कि मैं 'म्युज़िक डिरेक्टर' बनना चाहता हूँ'। तो उसने कहा कि वो पूछेंगे कि ''नोटेशन' आता है क्या?', 'पहले सहायक बनना पड़ेगा', वगेरह वगेरह। ख़ैर, मेरी पहली ही फ़िल्म 'वचन' में उन्होने गाना गाया था "एक पैसा दे दो बाबू"। मैने सोचा कि उनको बता दूँ कि एक बार मैं उनसे दिल्ली में मिलने गया था, लेकिन फिर नहीं बताया। बहुत अच्छे आदमी थी। उस ज़माने में लता का 'रेट' था ५००० रूपए प्रति गीत। एक बार मैं उनके पास गया गाना लेकर और कहा कि 'रफ़ी साहब, गाना अच्छा है पर पैसे नहीं हैं'। उन्होने ज़हीर को बुलाया और कहा कि 'ये जो भी देंगे ले लेना'। एक बार अमरिका से वापस आकर कहने लगे कि 'अमरिका में मैने तुम्हारा फ़लाना गाना गाया, बहुत पसंद किया लोगों ने, मुझे भी अच्छा लगा'।" तो लीजिए दोस्तों, रफ़ी और रवि के संगम से उत्पन्न फ़िल्म 'दो बदन' का नग़मा सुनिये जो फ़िल्माया गया था मनोज कुमार पर। कल रफी साहब की पुण्यतिथि पर रफी साहब के लिए कुछ कहना चाहता था कह न पाया, आज कहता हूँ नौशाद साहब के शब्द उधार लेकर -

"दुखी थे लाख पर तेरी सूरत से हर मुसीबत टल जाता था,
तेरी आवाज़ के शबनम से ग़म का हर धूल धुल जाता था,
तू ही था प्यार का एक साज़ इस नफ़रत की दुनिया में,
गनीमत थी कि एक प्यार का साज़ तो था इस नफ़रत की दुनिया में!"




और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा तीसरा (पहले दो गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी और स्वप्न मंजूषा जी)"गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-

1. एक मस्ती भरा गीत रफी साहब का गाया.
2. कलाकार हैं -सदाबहार "देवानंद".
3. मुखडा ख़तम होता है इस शब्द से -"दीवाना".

कौन सा है आपकी पसदं का गीत -
अगले रविवार सुबह की कॉफी के लिए लिख भेजिए (कम से कम ५० शब्दों में ) अपनी पसंद को कोई देशभक्ति गीत और उस ख़ास गीत से जुडी अपनी कोई याद का ब्यौरा. हम आपकी पसंद के गीत आपके संस्मरण के साथ प्रस्तुत करने की कोशिश करेंगें.


पिछली पहेली का परिणाम -
आज फिर बिगुल बजाने का दिन है. ढोल नगाडे बज रहे हैं हमें मिल गयी है हमारी दूसरी विजेता स्वप्न मंजूषा जी के रूप में. बहुत बहुत बधाई आपको. वैसे ये तो लगभग तय ही था. मज़ा तो अब आएगा, ये देखना दिलचस्प होगा कि हमारे तीसरे विजेता पराग जी होंगे या फिर दिशा जी, मनु जी भी हो सकते हैं, एरोशिक (?) भी या फिर डार्क होर्स सुमित भी....स्वप्न जी आप अपनी पसंद के ५ गीत सोचिये और दूर से मज़ा लीजिये इस नए संग्राम का.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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12 श्रोताओं का कहना है :

Disha का कहना है कि -

तु कहाँ ये बता

Disha का कहना है कि -

तू कहाँ ये बता इस नशीलेवे रात में
माने ना मेरा दिल दीवाना
मोहम्मद रफी
तेरे घर के सामने

शरद तैलंग का कहना है कि -

दिशा जी,
लगता है तीसरा नम्बर आपका ही आएगा ।
अदा जी को एक बार और बहुत बहुत बधाई !

'अदा' का कहना है कि -

sahi kaha aapne, sharad ji..
lekin door se dekhne mein thode hi na maza aa raha hai..
disha ji badhai..

'अदा' का कहना है कि -

जो मैं ऐसा जानती 'विजेता' हुए दुःख होए
नगर ढिंढोरा पिटती 'विजेता' बनो मत कोए
सुजोय साहब इससे तो अच्छा है आप हमें ब्लॉग निकला देदो....
बूउउऊ बूऊऊऊउ .......

निर्मला कपिला का कहना है कि -

अपकी पसंद हमेशा लाजवाब होती है आभार्

दिलीप कवठेकर का कहना है कि -

जिसे मौत ने ना पूछा , उसे ज़िंदगी नें मारा...

रवि नें इस गाने की धुन में दर्द और जुदाई का जो म्युज़िकल एक्सप्रेशन बयां किया है, वह काबिले तारीफ़ है.शहनाई के प्रील्युड से शुरुआत कर दबी दबी ढोलक से हल्के हल्के चोट पहुंचाई है हमारे दिलों पर.

मगर कमाल है रफ़ी साहब की, जिन्होने इस गीत में नायक के मन के भावों को जो स्वरों के माध्यम से उकेरा है, उस पीडा को जो अब तक नायक के मन में स्थाई भाव ले चुकी है, बखूबी आप के हमारे कलेजे को फ़ाड कर पहुंचाया है, उसका क्या बयां करें, सिर्फ़ सुनने की ही दरकार है.

साथ ही इस दर्द की जुबां बन जाता है इस गीत का अंतरा , जिसमें सुर तीव्रता के साथ ऊपर चढते जाते है.

धन्यवाद आपका, और जज़बात की रौ में बहकने के लिये माफ़ी.

Manju Gupta का कहना है कि -

जवाब है तू बता है कहां .....

manu का कहना है कि -

hnm......
yahi geet hai..

bechaari ada ji...
:)

शरद तैलंग का कहना है कि -

सुजॊय साहब
मुझे और अदा जी को फिर से शामिल कर लीजिए भले ही 2 नम्बर की जगह 1 ही नम्बर दीजिएगा दूसरों से तो हमें आधे ही मिलेंगे तथा हमें मेहनत भी ज्यादा करनी पडेगी फिर से पचास अंक तक पहुंचने के लिए । अदा जी आपको मेरा सुझाव कैसा लगा ।

"अर्श" का कहना है कि -

वो कदम कदम पे जीते मैं कदम कदम पे हारा...

मैं जब भी ये गीत सुनता हूँ मन बेचैन हो जाता है ....इसमें ये अंतरा... ये हमारी बदनसीबी जो नहीं तो और क्या...है के उसी के हो गए हम जो ना हो सका हमारा... उफ्फ्फ्फ़
और ऊपर का सुर लगाने में रफी साहिब का कोई सानी नहीं है ... बहोत बहोत बधाई आपको इस गीत के लिए....


अर्श

Shamikh Faraz का कहना है कि -

पता नहीं.

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