ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 23
नमस्ते दोस्तों, 'ओल्ड इस गोल्ड' की एक और सुरीली शाम के साथ हम हाज़िर हैं. दोस्तों, अब तक इस शृंखला में हमने आपको जितने भी गाने सुनवाए हैं वो 50 और 60 के दशकों के फिल्मों से चुने गये थे. लेकिन आज हम झाँक रहे हैं 40 के दशक में. इस दशक को हालाँकि कुछ लोग फिल्म संगीत का सुनहरा दौर नहीं मानते हैं, लेकिन इस दशक के आखिर के दो-तीन सालों में फिल्म संगीत में बहुत से परिवर्तन आए. देश के बँटवारे के बाद उस ज़माने के कई कलाकार पाकिस्तान चले गये, वहाँ के कई कलाकार यहाँ आ गये. नये गीतकार, संगीतकार और गायक गायिकाओं ने इस क्षेत्र में कदम रखा. फिल्म संगीत की धारा और लोगों की रूचि बदलने लगी. नये फनकारों के नये नये अंदाज़ जनता को रास आने लगा और यह फनकार तेज़ी से कामयाबी की सीढियाँ चढ़ने लगे. ऐसे ही एक संगीतकार थे नौशाद. नौशाद साहब ने अपनी पारी की शुरुआत 1942 में करने के बाद 1944 की फिल्म "रत्तन" में उन्हे पहली बड़ी कामयाबी नसीब हुई. इसके बाद उन्हे पीछे मुड्कर देखने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई. सन् 1948 में उन्ही के संगीत से सजी एक फिल्म आई थी "अनोखी अदा". आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में इसी फिल्म से एक भूला बिसरा नग्मा आपकी खिदमत में पेश कर रहे हैं.
हालाँकि महबूब ख़ान की यह फिल्म 'बॉक्स ऑफीस' पर ज़्यादा कामयाब नहीं रही, इस फिल्म के गीतों को लोगों ने सर-आँखों पर बिठाया. सुरेन्द्र और नसीम बनो इस फिल्म के नायक नायिका थे. उन दिनों अभिनेता और गायक सुरेन्द्र अपने गाने खुद ही गाया करते थे. पार्श्व-गायन की बढती लोकप्रियता और अच्छे अच्छे गायकों के पदार्पण की वजह से उस ज़माने के कई 'सिंगिंग स्टार्स' केवल 'स्टार्स' बनकर रह गये. इनमें से एक सुरेन्द्र साहब भी थे. हालाँकि इस फिल्म में सुरेन्द्र ने भी कुछ गीत गाए हैं, लेकिन कुछ गीतों में उनका पार्श्व-गायन किया है मुकेश ने. इस फिल्म का सबसे लोकप्रिय गीत मुकेश की आवाज़ में था - "मंज़िल की धुन में झूमते गाते चले चलो". उन दिनों मुकेश की आवाज़ में सहगल साहब की गायिकी का असर था. लेकिन इस गीत में मुकेश ने अपनी अलग पहचान का परिचय दिया. लेकिन इसी फिल्म में एक और गीत भी था जो मुकेश ने कुछ कुछ सागल साहब के अंदाज़ में गाया था. और यही गीत आज पेश है 'ओल्ड इस गोल्ड' में. गीतकार हैं बदायुनीं.
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. हुस्नलाल भगतराम का संगीत.
२. लता, प्रेमलता और साथियों का गाया बेहद मशहूर गीत.
३. मुखड़े में शब्द है -"ज़रूर"
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
नीरज रोहिल्ला जी एक बार फिर आपने एकदम सही जवाब दिया है. पी एन सुब्रमनियन साहब के लिए भी जोरदार तालियाँ...मुबारक हो. दिलीप जी, मनु जी, सलिल जी यादें ताजा करते रहिये. ओल्ड इस गोल्ड पर आते रहिये.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
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6 श्रोताओं का कहना है :
पुराने गीतों में तकनीकी तौर पर आज जैसी निपुणता नहीं थी, मगर बंदिशों और गीत के बोलों में ये सभी काम कर जाते थे उन दिनों के संगीतकार. आपको बधाईया.
गीत है चुप चुप खडे हो ज़रूर कोइ बात है?
फ़िल्म "बडी बहन", बाकी गीत तो दिलीप साहेब ने बता ही दिया है अब आगे क्या कहें।
yahi geet hai ji,,,,,,,
behad chulbulaa,,
देर से हाज़िर हुआ सो पहली मुलाकात का हक नहीं है लेकिन मिलने का सिलसिला चलता रहना चाहिए
सुमित भारद्वाज
मुकेश जी की आवाज का जवाब नही है, बहुत अच्छा लगा ये दर्द भरा गीत सुनकर
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